शुष्कभूमि कृषि या बारानी खेती (Dryland farming) सिंचाई किये बिना ही कृषि करने की तकनीक है। यह शुष्कभूमियों के लिये उपयोगी है, यानि वह क्षेत्र जहाँ बहुत कम वर्षा होती है।[1][2] दूसरे शब्दों में, शुष्क क्षेत्रों में नमी की अनुपलब्धता में की जाने वाली आधुनिक तथा वैज्ञानिक खेती शुष्क खेती कहलाती है।

स्पेन के ग्रानादा प्रान्त में शुष्कभूमि कृषि

इसके अंतर्गत उपलब्ध सीमित नमी को संचित करके बिना सिंचाई के ही फसलें उगायी जाती हैं। वर्षा की कमी के कारण मिट्टी की नमी को बनाये रखने तथा उसे बढ़ाने का निरन्तर प्रयास किया जाता है। इसके लिए गहरी जुताई की जाती है और वाष्पीकरण को रोकने का प्रयत्न किया जाता है। इसके अंतर्गत अल्प नमी में तथा कम समय में उत्पन्न होने वाली फसलें उत्पन्न की जाती हैं। इस प्रकार की खेती विशेष रूप से भूमध्यसागरीय प्रदेशों तथा अमेरिका के कोलम्बिया पठार पर की जाती है।[3][4]

उन्नत कृषि के लिए जल एक महत्वपूर्ण आदान है। इसकी अधिकता व कमी दोंनों ही पौंधों की वृद्धि को प्रभावित करती है। कम एवं असामयिक वर्षा वाले क्षेत्रों में नमी संरक्षण कर फसल उत्पादन तकनीक को इस प्रकार अपनाना जिससे फसलाें की अधिक से अधिक पैदावार ले सकें, बारानी खेती कहलाती है। तकनीकी दृष्टि से जिन क्षेत्रों में वार्षिक वर्षा 600 मिलीमीटर से कम होती है, वहां पर वर्षा आधारित खेती भी बारानी खेती की परिभाषा में ही आती है।

शुष्क कृषि के लिये आवश्यक कार्यकलाप

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खेत की तैयारी

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शुष्क कृषि से अधिक उत्पादन लेना भूमि में संचित नमी पर निर्भर करता है। भूमि में पानी सोखने की क्षमता तथा जलधारण क्षमता बढ़ाने हेतु रबी फसल कटने के तुरन्त बाद या खाली खेतों की गर्मियों में मिट्टी पलटने वाले हल से गहरी जुताई करनी चाहिये, इससे हानिकारक कीट, बीमारी के जीवाणु तथा खरपतपार भी नष्ट हो जाते हैं व भूमि का तापमान तथा जलधारण क्षमता बढ़ती है। गर्मी की जुताई कम वर्षा वाले रेतीले क्षेत्रों में नहीं करें। खेत को समतल बनाकर वर्षा जल को समान रूप से फैलने देवें जिससे वर्षा जल संरक्षित हो सके, बहकर न जाय। इस संरक्षित नमी में, लम्बे समय तक वर्षा नहीं होने पर भी, फसल पा सूखे का प्रभाव नहीं होता अथवा कम होता है।

ढाल के विपरीत जुताई

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खेतों में ढाल के विपरीत जुताई करने से कूड़ में पानी इकट्ठा होगा व भूमि को पानी सोखने के लिए अधिक समय मिलेगा। खेतों में ढ़ाल के विपरीत थोड़ी-थोड़ी दूरी पर डोलियां बनायें एवं वानस्पतिक अवरोध लगायें जिससे वर्षा जल रूक कर भूमि में समा सके। परती छोड़े गये खेतों में खरपतवार नष्ट करने एवं जल सोखने की क्षमता बढ़ाने हेतु वर्षा ऋतु में दाे-तीन बार जुताई करनी चाहिये। चूंकि अन्तिम वर्षा व बुवाई का अन्तराल लम्बा रहता है इसलिये नमी संरक्षण हेतु पाटा लगायें। जुताई हेतु बक्सर का उपयोग करने से नमी का संरक्षण होता है। प्रत्येक तीसरे वर्ष वर्षा आरम्भ होने के 15-20 दिन पहले खेत में 20-25 टन प्रति हैक्टर सड़ी हुई देशी गोबर की खाद अवश्य डालनी चाहिये जो पोषक तत्व प्रदान करने के साथ-साथ भूमि में जीवांश वृद्धि कर नमी संचय क्षमता भी बढ़ाती है।

जीवाणु खाद का उपयोग

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फसल में नत्रजन की अपूर्ति यूरिया जैसे उर्वरकाें द्वारा की जाती है। हमारे वायुमण्डल में लगभग 78 प्रतिशत नत्रजन है। वायुमण्डल की इस नत्रजन काे पाैधाें काे राईजोबियम एवं एजेटोबैक्टर आदि जीवाणु खाद का उपयोग कर उपलब्ध कराया जा सकता है। राइजोबियम जीवाणु दलहनी फसलों की जड़ों में सहजीवी के रूप में ग्रन्थि (गांठ) बनाकर रहते हैं। ये वायुमण्डल से नत्रजन प्राप्त करके सीधे पौंधों को उपलब्ध करा देते हैं। एजेटोबैक्टर स्वतन्त्र रूप से जमीन में रहते हैं तथा वायुमण्डल की नत्रजन को जमीन में पौंधों के लिए उपलब्ध अवस्था में छोड़ देते हैं। इस प्रकार ये भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं। इसी प्रकार फॉस्फेट विलेयक (पी.एस.बी.) जीवाणु खाद जमीन में बेकार पड़े फॉस्फोरस को घोलकर पौधों को उपलब्ध करा देता है। इससे पहले खेत में उपयोग किये गये डी.ए.पी व सिंगल सुपर फॉस्फेट का भी समुचित उपयोग हो जाता है।

बीज को कल्चर से उपचारित करने हेतु 250 ग्राम गुड़ व आवश्यकता के अनुसार पानी गरम करके घोल बनायें। घोल के ठण्डा होने पर इसमें 600 ग्राम जीवाणु खाद मिलायें। इस मिश्रण को एक हैक्टर में बोये जाने वाले बीज में इस प्रकार मिलायें कि बीजों पर एक समान परत चढ़ जाये। इसके बाद बीजों को छाया में सुखाकर बुवाई करें।

शीघ्र पकने वाली फसल व प्रजाति का चयन

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शुष्क कृषि के लिये शीघ्र पकने वाली, सूखा सहने की क्षमता वाली एवं अधिक उत्पादन देने वाली फसलों व उनकी किस्मों का चयन करना चाहिये। चयन करते समय भूमि की किस्म व सम्भावित वर्षा का ध्यान रखना चाहिये। हल्की एवं रेतीली मिट्टी में खरीफ में बाजरा, ज्वार, मूंग, मौठ, चावला आदि की कम अवधि में पकने वाली किस्में बायें। रबी में गहरी हल्की व दोमट मिट्टी में सरसों, चना आदि एवं अच्छी वर्षा व मध्यम से भारी मिट्टी में खरीफ में सोयाबीन, अरहर, मक्का, तिल, मूंगफली तथा रबी में गेहूं, जौ, अलसी, धनिया, चना आदि फसलें अच्छी उपज देती हैं।

खाद्यान्न की तुलना में दलहनी फसलें सूखे को अधिक सहन करती हैं। मक्का, ज्वार, मूँगफली, सोयाबीन उन्हीं क्षेत्रों में लेवें जहां पर्याप्त वर्षा होती हो तथा भूमि की जलधारण क्षमता अधिक हो। औसत वर्षा में भारी भूमि में ज्वार तथा कम वर्षा एवं बलुई भूमि में बाजरा लेवें। रबी में बारानी क्षेत्रों में चना व सरसों की खेती की जाती है।

सही समय पर बुवाई

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बारानी खेती में समय पर बुवाई करना बहुत आवश्यक है। खरीफ की बुवाई मानसून की प्रथम वर्षा के साथ ही करें। इससे बीजों का जमाव अच्छा होगा तथा वर्षा का पूरा लाभ मिलेगा। खरीफ में बुवाई का उपयुक्त समय मध्य जून से जुलाई का प्रथम सप्ताह है। समय पर वर्षा हो तो सबसे पहले खाद्यान्न फसलें और इसके बाद दलहनी तथा तिलहनी फसलों की बुवाई करें। रबी में बारानी क्षेत्रों में जौ की बुवाई अक्टूबर अन्त से मध्य नवम्बर तक, चने की बुवाई अक्टूबर प्रथम सप्ताह में और सरसों की बुवाई मध्य सितम्बर से मध्य अक्टूबर तक मौसम व तापमान को ध्यान में रखते हुए करें। देरी से बुवाई करने पर खेत में नमी कम हो जाती है और पैदावार कम होने की संभावना रहती है।

बुवाई की विधि

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बीज को ऊर कर कतारों में बोयें। कतारों के बीच की दूरी बढ़ाना भी पानी की कमी होने की स्थिति में लाभदायक रहता है। ऊर कर बोने से बीज उपयुक्त गहराई पर नमी क्षेत्र में गिरता है एवं अंकुरण सुनिश्चित हो जाता है। ढलान वाले खेतों में बीज की बुवाई ढाल के विपरीत दिशा में करनी चाहिये।

पौधों की संख्या

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बारानी क्षेत्रों में अंकुरण प्रायः कम होता है। अतः पौधों की समुचित संख्या सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी पर उत्पादन निर्भर करता है। इस कारण से प्रति हैक्टर बीज की मात्रा सामान्य से 20 प्रतिशत अधिक रखी जाती है। अंकुरण के बाद पास-पास घने उगे पौधों में से कमजोर/रोगी पौधों एवं खरपतवारों को उखाड़ देना चाहिए अन्यथा पौधों की अधिक संख्या होने से पौधों का पूर्ण विकास नहीं होता है। उपलब्ध सीमित जल का उपयोग पौधों की वानस्पतिक बढ़वार में ही हो जाता है तथा फूल व दाना बनने की अवस्था में नमी की कमी हो जाती है। फलस्वरूप दाना बनता ही नहीं और यदि बनता भी है तो पतला रह जाता है। अतः प्रति इकाई क्षेत्र में पौधों की संख्या कम रखती चाहिए, लेकिन यह कतारों के बीच की दूरी बढ़ाकर करना चाहिए इससे भूमि में लम्बे समय तक नमी बनी रहती है।

मिश्रित फसलें

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बारानी खेती में अन्तराशस्य तथा मिलवां फसल बाेना लाभदायक रहता है। विभिन्न फसलाें काे अलग-अलग कतारों में एक निश्चित अनुपात में बाेना चाहिये। उपयुक्त अन्तराशस्य लेने से मुख्य फसल की उपज पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता व लाभ में वृद्धि होती है तथा सूखे के कुप्रभाव से भी बचा जा सकता है। अन्तराशस्य हेतु एक फसल अधिक ऊंचाई वाली हो, दूसरी कम ऊंचाई वाली या एक फसल गहरी जड़ वाली तथा दूसरी कम गहारी जड़ों वाली होनी चाहिए। खाद्यान्न फसल की कतारों के बीच एक पंक्ति दलहनी फसल की बोई जा सकती है। रबी में सरसों, चना व अलसी की बुवाई करें। ढलवा खेंतों में खाद्यान्न व तिलहनी फसलों को एक के बाद दूसरी पट्टी में ढाल के विपरीत बोना चाहिए, इससे पानी को खेत में रोकने में मदद मिलेगी तथा विभिन्न वर्ग की फसलें भूमि के अलग-अलग स्तर से नमी व पोषक तत्व ग्रहण करेंगी।

खरपतवार का नियन्त्रण

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खरपतवार फसल से अधिक तीव्रता से नमी का शोषण करने के साथ-साथ पोषक तत्वों की भी उपयोग करते है इसलिये फसल की 20 से 25 दिन की अवस्था पर निराई कर खरतपवारों को निकाल दें। सूखें की स्थिति में भूमि की ऊपरी परत की गुड़ाई करनी चाहिये जिससे संचित नमी केपेलरी ट्यूब (केशनाल) द्वारा वाष्पीकरण से उड़कर नष्ट नहीं हो और पौधों कि वृद्धि में काम आये। खरपतवार नियंत्र हेतु कुली (बक्खर) का उपयोग करें जिससे कि खेत में नमी संरक्षित रह सके।

उर्वरक प्रबन्धन

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शुष्क कृषि में जीवांश खाद (गोबर की खाद / कम्पोस्ट) देने से पौधों को आवश्यक पोषक तत्व मिलतें हैं तथा भूमि की उर्वरता शक्ति लम्बे समय तक बनी रहती है। भूमि की भौतिक संरचना में सुधार होता है और जल धारण क्षमता बढ़ती है। सूक्ष्म जीवाणु सक्रिय हो जाते हैं तथा पोषक तत्व पौधों को प्राप्त होने की अवस्था में आ जाते हैं। बुवाई के समय उर्वरक देने से पौधों की वृद्धि के साथ-साथ उनकी जड़ों की भी वृद्धि होती है जिससे भूमि की गहरी सतह से भी पौधा नमी ग्रहण कर सकता है, सूखा सहन करने की क्षमता बढ़ती है तथा शिथिलांक (विल्टिंग पॉइन्ट) देर से आता है। नमी अभाव में भी उर्वरक दी हुई फसल से दाने व चारे की पैदावार प्राप्त हो जाता है जबकि अन्य फसलें सूख जाती है। खाद्यान्न फसलों में नत्रजन की आधी तथा फॉस्फोरस की पूरी मात्रा बुवाई के समय देवें तथा शेष नत्रजन फसल की 20-30 दिन की अवस्था पर उपयुक्त नमी की दशा में देवें। दलहनी फसलों में उर्वरकों की पूरी मात्रा बुवाई के समय ऊर कर देवें। गोबर की खाद तथा फॉस्फोरस व सल्फर युक्त उर्वरक बुवाई पूर्व देने से दलहनी फसलों की जड़ों में गांठों की बढ़ोतरी होती है।

पौध सरंक्षण

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तना गलन, जड़ गलन आदि रोगों प्रकोप के कारण बीज कम उगते हैं, या उगकर नष्ट हो जाते हैं। खरीफ फसलों जैसे बाजरा, मक्का, ज्वार, मूँगफली, तिल के एक किलोग्राम बीज को 3 ग्राम थाइरम से तथा मूंग, उड़द, मोठ, चंवला के एक किलोग्राम बीज को 3 ग्राम केप्टान से उपचारित करें। बाजरा को हरित बाली रोग से बचाने के लिए 6 ग्राम एप्रोन 35 एसडी.से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित करें। ग्वार में अंगमारी रोग की रोकथाम के लिए एक ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन को 10 लीटर पानी में घोलकर 3 घण्टे तक बीज को भिगायें।

रबी फसलाें जैसे सरसाें में मैन्कोजेब 2 ग्राम/एप्रोन 35 एस.डी. 4 ग्राम (सिफारिश के अनुसार), जौ व चना में कार्बेण्डेजिम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करनी चाहिये। बारानी क्षेत्रों में दीमक से बचाव के लिए 25 किलो क्यूनॉलफॉस 1.5 प्रतिशत चूर्ण प्रति हैक्टर की दर से बुवाई से पूर्व खेतों में मिलायें। सामान्यतः फसलों में रस चूसने एवं काटकर/कुतरकर हानि पहुंचाने वाले कीटों का प्रकोप होता है। रस चूसने वाले कीटों जैसे मोयला/चेंपा, तेला, थ्रिप्स, सफेद मक्खी, मकड़ी आदि कीट प्रायः पत्तियों की निचली सतह पर मिलते है। इनकी रोकथाम के लिए मिथाइल डिमेटोन 25 ई.सी., डाइमिथोएट 30 ई.सी., मोनोक्रोटोफास 36 डब्ल्यू. एस.सी. आदि में से किसी एक दवा की एक लीटर मात्रा प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करना चाहिये। इसी प्रकार पाैधाें के उपरी भागाें काे काटकर/कुतरकर खाने वाली लटों/सुण्डियों, फड़का, कातरा आदि कीटों की रोकथाम के लिए क्यूनालफॉस 25 ई.सी., मोनोक्रोटोफास 36 उब्ल्यू.एस.सी., मैलाथियॉन 50 ई.सी. आदि में से किसी एक दवा का एक लीटर प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करना चाहिए। दवाओं के छिड़काव के लिए पानी की व्यवस्था नहीं होने पर मिथाइल पैराथियॉन 2 प्रतिशत चूर्ण का 25 किलो हैक्टर की दर से भुरकाव करें।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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  1. Dr. John A. Widtsoe, Ph.D. Dry-Farming, A System Of Agriculture For Countries Under A Low Rainfall (NY: The Macmillan Company, 1911)
  2. Victor Squires and Philip Tow, Dryland Farming: A Systems Approach – An Analysis of Dryland Agriculture in Australia (Sydney: Sydney University Press, 1991)
  3. Henry Gilbert, Dryland Farming: January 1982–December 1990 (Beltsville, Md.: U.S. Department of Agriculture, National Agricultural Library, 1991).
  4. Mary W. M. Hargraves, Dry Farming in the Northern Great Plains: Years of Readjustment, 1920–1990 (Lawrence: University of Kansas, 1993).