यह लेख श्रीराम शर्मा के बारे में हैं जो हिन्दी में शिकार साहित्य के प्रणेता थे।
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श्रीराम शर्मा (23 मार्च, 1896 - 27 फरवरी, 1967) हिन्दी के शिकार-साहित्य और संस्मरण-साहित्य के प्रतिष्ठित रचनाकार थे। कहते हैं कि उनके एक हाथ में कलम रहती थी और दूसरे हाथ में बंदूक। हिन्दी-पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी दीर्घकालीन सेवा अविस्मरणीय है। साथ ही भारतीय स्वाधीनता संग्राम में उनकी सहभागिता को भुलाया नहीं जा सकता।

श्रीराम शर्मा का जन्म 23 मार्च, 1896 को उत्तर प्रदेश के मैनपुरी जिले के शिकोहाबाद तहसील के किरथरा नामक गांव में हुआ। इनके दादा जमींदार थे परन्तु दुर्भाग्य से उनके पिता पं. रेवतीराम शर्मा का निधन अल्पायु में ही हो गया। रिश्तेदारों तथा अन्य जमींदारों के कुचक्र से उनकी पैतृक सम्पत्ति जाती रही। शर्माजी की माताजी ने तीन बेटों के साथ संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत किया। स्वयं खेती की, और बेटों का पालन-पोषण किया। शर्माजी को आरंभिक शिक्षा उनके ब़ड़े भाई से ही मिली। बड़े भाई के कठोर अनुशासन ने उन्हें भी अनुशासनप्रिय बना दिया।

श्रीराम शर्मा ने खुर्जा में हाईस्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की। हाईस्कूल उतीर्ण करने के बाद उन्होने आगरा कालिज में प्रवेश लिया। बी.ए. में पढ़ते समय उनका संपर्क श्रीकृष्णदत्त पालीवाल, बालकृष्ण शर्मा नवीन तथा गुलजारीलाल नंदा से हुआ। उनके प्रभाव में आकर राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े।

इसी बीच वे गणेशशंकर विद्यार्थी के सम्पर्क में आए, जिन्हें वे जीवनभर राजनीति तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना गुरु मानते रहे। बी.ए. पास करने के बाद शर्माजी ने एम. ए. (अर्थशास्त्र) तथा एलएल. बी. की कक्षाओं में प्रवेश लिया। उन्हीं दिनों गणेशशंकर विद्यार्थी गिरफ्तार कर लिए गए। जेल से उनका संदेश प्राप्त करके शर्माजी ने पढ़ाई छोड़ दी और 1920 ई0 में ‘प्रताप’ (कानपुर) का सम्पादन संभाल लिया। 1938 ई0 में वह लोकप्रिय मासिक 'विशाल भारत' के संपादक बने और अवैतनिक रूप से 1952 ई0 तक यह सेवा करते रहे। मोहनसिंह सैंगर तथा ‘अज्ञेय’ जी उनके सह-संपादक थे। 1938 से 1962 तक ‘विशाल भारत’ के संपादक रहे। ‘विशाल भारत’ में उनके लिखे 1000 पृष्ठों के संपादकीय अपना विशेष राजनीतिक तथा साहित्यिक महत्त्व रखते हैं। सम्पूर्ण जीवन पत्रकारिता, लेखन तथा राजनीति कार्य में अर्पित कर दिया।

लम्बी बीमारी के बाद शर्माजी का देहावसान 27 फरवरी सन् 1967 को आगरा में हुआ था।

साहित्य सेवा संपादित करें

श्रीराम शर्मा का साहित्य बहुआयामी है। हिन्दी-गद्य के निर्माताओं में उनका महत्वपूर्ण स्थान है। शिकार-साहित्य के लेखक के रूप में उनकी विशेष ख्याति रही, किन्तु जीवन के साहित्येतर विज्ञानों, कलाओं और भारतीय दर्शन एवं संस्कृति पर भी उन्होंने अपनी क़लम चलाई।

हिंदी में शिकार-साहित्य का आरम्भ श्रीराम शर्मा ने ही किया था। वे स्वयं बहुत बड़े शिकारी थे। जिम कार्बेट से उनके बड़े सम्बन्ध थे। शिकार संबंधी उनके ग्रंथ हैं- शिकार, प्राणों का सौदा, जंगल के जीव तथा जिम कार्बेट की पुस्तकों (रुद्रप्रयाग का आदमखोर आदि) के अनुवाद। शर्माजी प्राणिविज्ञान के विशेषज्ञ थे। वनस्पति एवं जन्तु विज्ञान (बॉटनी तथा जूलोजी) के साथ-साथ कृषि-विज्ञान के माहिर भी थे। ‘भारत के जंगली जीव’ ‘भारत के पक्षी, ‘हमारी गायें’, तथा ‘पपीता’ आदि उनकी इस विषय की पुस्तकें हैं।

शर्माजी हिंदी-साहित्य में रेखाचित्र-संस्मरण (रिपोर्ताज) विधाओं के जन्मदाता माने जाते हैं। इस क्षेत्र में उनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं- बोलती प्रतिमा, वे जीते कैसे हैं, संघर्ष और समीक्षा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, सेवाग्राम की डायरी, सन बयालीस के संस्मरण, सीकर तथा नयना सितमगर (अप्रकाशित)।

प्रमुख कृतियाँ संपादित करें

  • शिकार (1932 ई0),
  • बोलती प्रतिमा (1937 ई0),
  • प्राणों का सौदा (1939 ई0),
  • रानी लक्ष्मीबाई (1939 ई0),
  • हमारी गायें (1941 ई0),
  • नेताजी सुभाषचंद्र बोस (अंग्रेजी में 1948 ई0),
  • जंगल के जीव (1949 ई0),
  • रुद्रप्रयाग का आदमखोर बघेरा (1957 ई0),
  • देवालय का शेर (1957 ई0),
  • संघर्ष और समीक्षा (1959 ई0),
  • भारत के जंगली जीव (1961 ई0),
  • वे जीते कैसे हैं (1965 ई0),
  • संस्मरण और आखेट (1980 ई0),
  • हमारे पक्षी (1980 ई0),
  • संस्मरण-सीकर (1996 ई0)।

पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित पुस्तकें- शब्दचित्र, नयना सितमगर, वनवासी सेवाग्राम की डायरी, जेल-डायरी।

विशाल भारत, प्रभा, योगी, सरस्वती आदि पत्र-पत्रिकाओं में उनके लगभग एक हजार लेख छपे जो अभी तक पुस्तकाकार नहीं हुए हैं। पंडित श्रीराम शर्मा ने पर्याप्त मात्रा में बाल-साहित्य भी लिखा।

भाषा-शैली संपादित करें

श्रीराम शर्मा की भाषा एक विशेष प्रकार की प्रभा से युक्त है। इनकी भाषा प्रवाहपूर्ण और मुहावरेदार है। तद्भव शब्दों के प्रयोग से इनकी भाषा में सजीवता आ गई है। शर्माजी की शैली की एक विशेषता है, उनके उद्धरणों का प्रयोग। विशेषकर उर्दू के शेरों का प्रयोग। लगभग प्रत्येक लेख, निबन्ध इत्यादि में उर्दू के शेरों के उद्धरण दिए हैं। उनकी शिकार कथाओं का वर्णन इतना सजीव होता था कि लगता था हम उनके साथ जंगल में उस शिकार का प्रत्यक्षदर्शी हों। शर्माजी की राइफल का निशाना जितना अचूक है, उतना ही उनकी भाषा का भी है। वह सीधे पाठक के हृदय में प्रवेश कर जाती।

उनकी एक कहानी ‘स्मृति’ है, जिसमें उन्होंने बाल्यावस्था की एक घटना का चित्रण किया है। भाई के आदेश पर उनकी लिखी चिट्ठी पहुंचाने के लिए जाते समय रास्ते में वह चिट्ठी गलती से कुएं में गिर जाती है जो सूखा है और उस कुएं में एक भयानक विषधर है। घर में डांट न पड़े, इसलिए वह बालक कैसे कुएं में उतरता है और सांप से बचते बचाते उस चिट्ठी को निकालता है, इसका वर्णन उस कहानी में है। बड़ी रोमांचक शैली में प्रत्येक क्षण एवं प्रत्येक परिस्थिति की गंभीरता तथा खतरे को उन्होंने इस प्रकार से प्रस्तुत किया है कि पाठक का कुतूहल शुरु से अन्त तक बना रहता है। एक बानगी देखिए-

डंडे को लेकर ज्यों ही मैंने सांप की दाईं ओर पड़ी चिट्ठी की ओर उसे बढाया कि सांप का फन पीछे की ओर हुआ। धीरे-धीरे डंडा चिट्ठी की ओर बढा और ज्योंही चिट्ठी के पास पहुंचा कि फुंकार के साथ काली बिजली तड़पी और डंडे पर गिरी। हृदय में कंप हुआ, और हाथों ने आज्ञा न मानी। डंडा छूटा। देखा डंडे पर तीन-चार स्थानों पर पीव-सा कुछ लगा हुआ है। वह विष था। सांप ने मानो अपनी शक्ति का सर्टीफ़िकेट सामने रख दिया था। यह वही डंडा था जिसके बारे में लेखक लिखता है “मेरा डंडा अनेक सांपों के लिए नारायण-वाहन हो चुका था।”

सन्दर्भ संपादित करें

इन्हें भी देखें संपादित करें

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें