अनन्त वितत भिन्न के रूप में विस्तार का एक उदाहरण

गणित में निम्नलिखित प्रकार के व्यंजक (expression) को वितत भिन्न (continued fraction) कहते हैं।

यहाँ, a0 एक पूर्णांक है तथान्य सभी संख्याएँ ai (i ≠ 0) धनात्मक पूर्णांक हैं। यदि उपरोक्त वितत भिन्न में अंश एवं हर का मान कुछ भी होने की स्वतंत्रता दे दी जाय (जैसे फलन होने की छूट) तो इसे 'सामान्यीकृत वितत भिन्न' कह सकते हैं।

  • कैलेण्डर सिद्धान्त - ग्रेगरी कैलेण्डर के किस वर्ष में ३६५ दिन और किस वर्ष में ३६६ दिन होंगे,। इसको निर्धारित करने का आधार वितत भिन्न है।
  • अपरिमेयता (irrationality) का प्रमाण
  • पेल के समीकरण का हल
  • आर्थोगोनल बहुपदों के वैशीष्टीकरण में

प्राचीन काल से ही वितत भिन्नों का उपयोग किया जा रहा है।

आर्यभट ने प्रथम डिग्री तथा द्वितीय डिग्री वाले कुछ अनिर्धार्य समीकरणों के हल वितत भिन्न के रूप में ही दिये हैं। उसके बाद नारायण पण्डित (१३५० ई) ने अपने गणित ग्रन्थ गणितकौमुदी में N x2 + K2 = y2 प्रकार के अनिर्धार्य समीकरणों का हल आवर्ती वितत भिन्न की सहायता से निकाला है। उनकी कलनविधि (अल्गोरिद्म) नीचे के श्लोक में दिया गया है-[1]

ह्रस्वज्येष्ठक्षेपाः क्रमशस्तेषामधो न्यसेत्ते तु ।
अन्यान्यवैषां न्यासस्तस्य भवेद् भावना नाम ॥७३॥
वज्राभ्यासौ ह्रस्वज्येष्ठ(क)योः संयुतिर्भवेद्ध्रस्वम् ।
लघुघातः प्रकृतिहतो ज्येष्ठवधेनान्वितो ज्येष्ठम् ॥७४॥
क्षिप्त्योर्घातः क्षेपः स्याद् वज्राभ्यासयोर्विशेषो वा ।
ह्रस्वं लघ्वोर्घातः प्रकृतिघ्नो ज्येष्ठयोश्च वधः ॥७५॥
तद्विवरं ज्येष्ठपदं क्षेपक्षिप्त्योः प्रजायते घातः ।
ईप्सितवर्गविहृतः क्षेपः क्षेपे पदे तदीष्टाप्ते ॥७६॥[2]

१६वीं शताब्दी में राफेल बम्बेली ने वितत भिन्न के रूप में वर्गमूल निकाला। किन्तु १७वीं शताब्दी के अन्तिम तथा १८वीं शताब्दी के आरम्भिक काल में जाकर ही सतत भिन्न का आधार तैयार हुआ। १८वीं शताब्दी के आरम्भ में सतत भिन्न अपने आप में अध्यय्न का एक क्षेत्र बन गया था।

इन्हें भी देखें

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  1. Ganita Kaumudi and the Continued Fraction Archived 2016-08-19 at the वेबैक मशीन (Pradip Kumar Majumdar)
  2. सरस्वती सुषमा पत्रिका (वर्ष ९, भाग ३, १९५४ , पृष्ट ६२ ; सम्पूर्णानद विश्वविद्यालय, वाराणसी

बाहरी कड़ियाँ

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