साँचा:कर्नाटक का इतिहास

पत्तदकल में मल्लिकार्जुन और काशी विश्वनाथ मंदिर चालुक्य एवं राष्ट्रकूट वंश द्वारा बनवाये गए थे, जो अब यूनेस्को विश्व धरोहर हैं

कर्नाटक का प्रागैतिहास पाषाण युग तक जाता है। इसने कई युगों का विकास देखा है। राज्य में मध्य एवं नव पाषाण युगों के साख्ष्य पाये गए हैं। हड़प्पा में खोजा गया स्वर्ण कर्नाटक की खानों से निकला था, जिसने इतिहासकारों को ३००० ई.पू के कर्नाटक और सिंधु घाटी सभ्यता के बीच संबंध खोजने पर विवश किया। [1][2] तृतीय शताब्दी ई.पू से पूर्व, अधिकांश कर्नाटक राज्य मौर्य वंश के सम्राट अशोक के अधीन आने से पहले नंद वंश के अधीन रहा था। सातवाहन वंश को शासन की चार शताब्दियां मिलीं जिनमें उन्होंने कर्नाटक के बड़े भूभाग पर शासन किया। सातवाहनों के शासन के पतन के साथ ही स्थानीय शासकों कदंब वंश एवं पश्चिम गंग वंश का उदय हुआ। इसके साथ ही क्षेत्र में स्वतंत्र राजनैतिक शक्तियां अस्तित्त्व में आयीं। कदंब वंश की स्थापना मयूर शर्मा ने की और अपनी राजधानी बनवासी मं बनायी;[3][4] एवं पश्चिम गंग वंश ने तालकाड़ में बनायी। [5][6]

होयसाल साम्राज्य स्थापत्य, बेलूर में।

हाल्मिदी शिलालेख एवं बनवसी में मिले एक ५वीं शताब्दी के ताम्र मुद्रा के अनुसार ये राज्य प्रशासन में कन्नड़ भाषा प्रयोग करने वाले प्रथम दृष्टांत बने [7][8] इन राजवंशों के उपरांत शाही कन्नड़ साम्राज्य बादामी चालुक्य वंश,[9][10] मान्यखेत के राष्ट्रकूट,[11][12] और पश्चिमी चालुक्य वंश [13][14] आये जिन्होंने दक्खिन के बड़े भाग पर शासन किया और राजधानियां वर्तमान कर्नाटक में बनायीं। पश्चिमी चालुक्यों ने एक अनोखी चालुक्य स्थापत्य शैली विकसित की। इसके साठ ही उन्हों<ने कन्नड़ साहित्य का भी विकास किया जो आगे चलकर १२वीं शताब्दी में होयसाल वंश के कला व साहित्य योगदानों का आधार बना। [15][16]

आधुनिक कर्नाटक के भागों पर ९९०-१२१० ई. के बीच चोल वंश ने अधिकार किया। [17] अधिकरण की प्रक्रिया का आरंभ राजराज चोल १ (९८५-१०१४) ने आरंभ किया और ये काम उसके पुत्र राजेन्द्र चोल १ (१०१४-१०४४) के शसन तक चला। [17] आरंभ में राजराज चोल १ के द्वारा "गंगापाड़ी, नोलंबपाड़ी एवं तड़िगैपाड़ी' जो आधुनिक मैसूर के भाग थे, अधिकार किया गया। उसने दोनूर तक चढ़ाई की और बनवसी सहित रायचूर दोआब के बड़े भाग तथा पश्चिमी चालुक्य राजधानी मान्यखेत तक हथिया ली। [17] चालुक्य शसक जयसिंह की राजेन्द्र चोल १ के द्वारा हार उपरांत, तुंगभद्रा नदी को दोनों राज्यों के बीच की सीमा तय किया गया था।[17] राजाधिराज चोल १ (१०४२-१०५६) के शासन में दन्नड़, कुल्पाक, कोप्पम, काम्पिल्य दुर्ग, पुण्डूर, येतिगिरि एवं चालुक्य राजधानी कल्याणी भी छीन ली गईं।[17] १०५३ में, राजेन्द्र चोल २ चालुक्यों को युद्ध में हराकर कोल्लापुरा पहुंचा और अपनी राजधानी गंगाकोंडचोलपुरम वापस पहुंचने से पूर्व वहां विजय स्मारक स्तंभ बनवाया।[18] १०६६ में पश्चिमी चालुक्य सोमेश्वर की सेना अगले चोल शसक वीरराजेन्द्र से हार गयीं। इसके बाद उसी ने दोबारा पश्चिमी चालुक्य सेना को कुदालसंगम पर मात दी और तुंगभद्रा नदी के तट पर एक विजय स्मारक की स्थापनी की।[19] १०७५ में कुलोत्तुंग चोल १ ने कोलार जिले में नांगिली में विक्रमादित्य ६ को हराकर गंगवाड़ी पर अधिकार किया।[20] चोल साम्राज्य से १११६ में गंगवाड़ी को विष्णुवर्धन के नेतृत्व में होयसालों ने छीन लिया।[17]

हम्पी, विश्व धरोहर स्थल में एक उग्रनरसिंह की मूर्ति। यह विजयनगर साम्राज्य की पूर्व राजधानी विजयनगर के अवशेषों के निकट स्थित है।

प्रथम सहस्राबि के आरंभ में ही होयसाल वंश का क्षेत्र में पुनरोद्भव हुआ। इसी समय होयसाल साहित्य पनपा साथ ही अनुपम कन्नड़ संगीत और होयसाल स्थापत्य शैली के मंदिर आदि बने। [21][22][23][24] होयसाल साम्राज्य ने अपने शासन के विस्तार के तहत आधुनिक आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के छोटे भागों को विलय किया। १४वीं शताब्दी के आरंभ में हरिहर और बुक्का राय ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की जिसकी राजधानी होसनपट्ट (बाद में विजयनगर) आधुनिक बेल्लारी जिले में तुंगभद्रा नदी के तट पर बसायी। इस साम्राज्य ने अगली दो शताब्दियों में मुस्लिम शासकों के दक्षिण भारत में विस्तार पर रोक लगाये रखी।[25][26]

१५६५ में समस्त दक्षिण भारत सहित कर्नाटक ने एक बड़ा राजनैतिक बदलाव देख, जिसमें विजयनगर साम्राज्य तालिकोट का युद्ध की हार के बाद इस्लामी सल्तनतों के अधीन हो गया। [27] बीदर के बहमनी सुल्तान की मृत्यु उपरांत उदय हुए बीजापुर सल्तनत ने जल्दी ही दक्खिन पर अधिकार कर लिया और १७वीं शताब्दी के अंत में मुगल साम्राज्य से हार होने तक बनाये रखा। [28][29] बहमनी और बीजापुर के शसकों ने उर्दु एवं फारसी साहित्य तथा भारतीय पुनरोद्धार स्थापत्यकला (इण्डो-सैरेसिनिक) को बढ़ावा दिया। इस शैली का प्रधान उदाहरण है [][गोल गुम्बज]] [30] पुर्तगाली शसन द्वारा भारी कर वसूली, खाद्य आपूर्ति में कमी एवं महामारियों के कारण १६वीं शताब्दी में कोंकणी हिन्दू मुख्यतः सैल्सेट, गोआ से विस्थापित होकर]],[31] कर्नाटक में आये और १७वीं तथा १८वीं शताब्दियों में विशेषतः बारदेज़, गोआ से विस्थापित होकर मंगलौरियाई कैथोलिक ईसाई दक्षिण कन्नड़ आकर बस गये। [32]

बादामी गुहा के भीतर

सन्दर्भ

  1. एस रंगनाथन. "द गोल्डन हैरिटेज ऑफ कर्नाटक". खनन विभाग. भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलुरु. मूल से 2007-01-21 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ७ जून, २००७. |accessdate= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  2. "ट्रेड". ब्रिटिश संग्रहालय. अभिगमन तिथि ६ मई, २००७. |accessdate= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)
  3. तालगुण्ड शिलालेख के अनुसार (डॉ॰ बी एल राइस, कामत (२००१), पृ.३०)
  4. मोअरेज़ (१९३१), पृ.१०
  5. अडिग एवं शेख अली, अडिग (२००६),पृ.८९
  6. रमेश (१९८४), पृ.१-२
  7. फ़्रॉम द हाल्मिदी इन्स्क्रिप्शन (रमेश १९८४, पृ १०-११)
  8. कामत (२००१), पृ.१०
  9. द चालुक्याज़ हेल्ड फ़्रॉम द प्रेज़ेण्ट डे कर्नाटक (किएय (२०००), पृ. १६८)
  10. The Chalukyas were native Kannadigas (N. Laxminarayana Rao and Dr. S. C. Nandinath in Kamath (2001), p. 57.)
  11. Altekar (1934), pp. 21–24.
  12. Masica (1991), pp. 45–46.
  13. Balagamve in Mysore territory was an early power centre (Cousens (1926), pp. 10, 105.)
  14. Tailapa II, the founder king was the governor of Tardavadi in modern Bijapur district, under the Rashtrakutas (Kamath (2001), p. 101.)
  15. कामत (२००१), पृ. ११५
  16. फ़ोएकेमा (२००३), पृ.९
  17. ए हिस्ट्री ऑफ साउथ इण्डिया, के ए नीलकांत शास्त्री (१९५५), पृ.१६४
  18. ए हिस्ट्री ऑफ साउथ इण्डिया, के ए नीलकांत शास्त्री (१९५५), पृ.१७२
  19. ए हिस्ट्री ऑफ साउथ इण्डिया, के ए नीलकांत शास्त्री (१९५५), पृ.१७२
  20. ए हिस्ट्री ऑफ साउथ इण्डिया, के ए नीलकांत शास्त्री (१९५५), पृ.१७४
  21. Kamath (2001), pp. 132–134.
  22. Sastri (1955), pp. 358–359, 361.
  23. Foekema (1996), p. 14.
  24. Kamath (2001), pp. 122–124.
  25. Kamath (2001), pp. 157–160.
  26. Kulke and Rothermund (2004), p. 188.
  27. Kamath (2001), pp. 190–191.
  28. Kamath (2001), p. 201.
  29. Kamath (2001), p. 202.
  30. Kamath (2001), p. 207.
  31. Jain, Dhanesh; Cardona, George (2003). Jain, Dhanesh; Cardona, George (संपा॰). The Indo-Aryan languages. Routledge language family series. 2. Routledge. पृ॰ 757. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0700711309.सीएस1 रखरखाव: एक से अधिक नाम: editors list (link)
  32. Pinto, Pius Fidelis (1999). History of Christians in coastal Karnataka, 1500-1763 A.D. Mangalore: Samanvaya Prakashan. पृ॰ 124.