समुद्र मन्थन

धर्मपौराणिक घटना, देवताओं और असुरों के बीच अमृत के लिए संघर्ष
(सागर-मन्थन से अनुप्रेषित)

समुद्र मन्थन एक प्रसिद्ध हिन्दू धर्मपौराणिक कथा है। यह कथा भागवत पुराण, महाभारत तथा विष्णु पुराण में आती है।

अंगकोर वाट में समुद्र मंथन का भत्ति चित्र।
अंगकोर वाट में समुद्र मंथन का भत्ति चित्र।

परन्तु उपरोक्त जितने सन्दर्भ प्रस्तुत किये गये है,उनमें शंख धनुष का उल्लेख नहीं है

कथा संपादित करें

श्री शुकदेव जी बोले, "हे राजन्! राजा बलि के राज्य में दैत्य, राक्षस तथा दानव अति प्रबल हो उठे थे। उन्हें शुक्राचार्य की शक्ति प्राप्त थी। इसी बीच दुर्वासा ऋषि के श्राप से देवराज इन्द्र शक्तिहीन हो गये थे। असुर राज बलि का राज्य तीनों लोकों पर था। इन्द्र सहित देवतागण उससे(असुर) से भयभीत रहते थे। इस स्थिति के निवारण का उपाय केवल बैकुण्ठनाथ विष्णु ही बता सकते थे, अतः ब्रह्मा जी के साथ समस्त देवता भगवान नारायण के पास पहुचे। उनकी स्तुति करके उन्होंने भगवान विष्णु को अपनी विपदा(समस्या) सुनाई। तब भगवान मधुर वाणी में बोले, कि इस समय तुम लोगों के लिये संकट काल है। दैत्यों, राक्षसों एवं दानवों का अभ्युत्थान हो रहा है और तुम लोगों की अवनति हो रही है,किन्तु संकट काल को मैत्रीपूर्ण भाव से व्यतीत कर देना चाहिये। तुम असुरों से मित्रता कर लो और क्षीर सागर को मथ कर उसमें से अमृत निकाल कर पान कर लो। असुरों की सहायता से यह कार्य सुगमता से हो जायेगा। इस कार्य के लिये उनकी हर शर्त मान लो और अन्त में अपना काम निकाल लो। अमृत पीकर तुम अमर(कभी न मरने बाला) हो जाओगे और तुममें असुरों को मारने का सामर्थ्य आ जायेगा।

"भगवान(विष्णु) के आदेशानुसार इन्द्र देव ने समुद्र ममन्थन से अमृत निकलने की बात बलि को बताया। असुरराज बलि ने देवराज(देवताओं के राजा) इन्द्र से समझौता कर लिया और समुद्र मंथन के लिये तैयार हो गये। मन्दराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकी नाग को नेती बनाया गया। वासुकी के नेत्र से नेतङ(राजपुरोहित) का उद्भव हुआ। स्वयं भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर उसका आधार बन गये। भगवान नारायण(विष्णु) ने असुर रूप से असुरों में और देवता रूप से देवताओं में शक्ति का संचार किया। वासुकीनाग(मथनी) को भी गहन निद्रा दे कर उसके कष्ट को हर लिया। देवता वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने लगे। इस पर उल्टी बुद्धि वाले दैत्य, राक्षस, दानवादि ने सोचा कि वासुकी नाग को मुख की ओर से पकड़ने में अवश्य कुछ न कुछ लाभ होगा। उन्होंने देवताओं से कहा कि हम किसी से शक्ति में कम नहीं हैं, हम मुँह की ओर का स्थान लेंगे।(मथने के लिए) तब देवताओं ने वासुकी नाग के पूँछ की ओर का स्थान ले लिया।

"समुद्र मन्थन आरम्भ हुआ और भगवान कच्छप के एक लाख योजन चौड़ी पीठ पर मन्दराचल पर्वत घूमने लगा। हे राजन! समुद्र मंथन से सबसे पहले जल का हलाहल विष निकला। उस विष की ज्वाला से सभी देवता तथा असुर जलने लगे और उनकी कान्ति फीकी पड़ने लगी। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना की। उनकी प्रार्थना पर महादेव जी उस विष को हथेली पर रख कर उसे पी गये किन्तु उसे कण्ठ से नीचे नहीं उतरने दिया। उस कालकूट विष के प्रभाव से शिव जी का कण्ठ नीला पड़ गया। इसीलिये महादेव जी को नीलकण्ठ कहते हैं। उनकी हथेली से थोड़ा सा विष(जहर) पृथ्वी पर टपक(गिर) गया था जिसे नाग , बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण कर लिया।

"विष को शंकर भगवान के द्वारा पान(ग्रहण) कर लेने के पश्चात् फिर से समुद्र मंथन प्रारम्भ हुआ। दूसरा रत्न कामधेनु गाय निकली जिसे ऋषियों ने रख लिया। फिर उच्चैःश्रवा घोड़ा निकला जिसे असुरराज बलि ने रख लिया। उसके बाद ऐरावत हाथी निकला जिसे देवराज इन्द्र ने अपना वाहन बना लिया। ऐरावत के पश्चात् कौस्तुभमणि समुद्र से निकली उसे विष्णु भगवान ने रख लिया। फिर कल्पवृक्ष निकला और रम्भा नामक अप्सरा निकली। इन दोनों को देवलोक में रख लिया गया। आगे फिर समु्द्र को मथने से महलक्ष्मी जी निकलीं। महालक्ष्मी जी ने स्वयं ही भगवान विष्णु को वर लिया। उसके बाद कन्या के रूप में वारुणी प्रकट हई जिसे असुरों ने ग्रहण किया। फिर एक के पश्चात एक चन्द्रमा, पारिजात वृक्ष तथा शंख निकले और अन्त में धन्वन्तरि वैद्य अमृत का घट लेकर प्रकट हुये।" धन्वन्तरि के हाथ से अमृत को असुरों ने छीन लिया और उसके लिये आपस में ही लड़ने लगे। देवताओं के पास दुर्वासा के शापवश इतनी शक्ति रही नहीं थी, कि वे असुरों से लड़कर उस अमृत को छीन सकें इसलिये वे निराश खड़े हुये। उनका आपस में लड़ना देखते रहे। देवताओं की निराशा को देखकर भगवान विष्णु तत्काल मोहिनी रूप धारण कर आपस में लड़ते असुरों के पास जा पहुँचे। उस विश्वमोहिनी रूप को देखकर असुरों तथा देवताओं की तो बात ही क्या, स्वयं ब्रह्मज्ञानी, कामदेव को भस्म कर देने वाले, भगवान शंकर भी मोहित होकर उनकी ओर बार-बार देखने लगे। जब असुरों ने उस नवयौवना सुन्दरी को अपनी ओर आते हुये देखा तब वे अपना सारा झगड़ा भूल कर उसी सुन्दरी की ओर कामासक्त(मोहित) होकर एकटक देखने लगे।

 
देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन रस्सी का काम शेषनाग के छोटे भाई वासुकी करते हुए और नीचे अपने कवच पर मदरांचल पर्वत रखे हुए कुर्म रूपी विष्णु

वे असुर बोले, "हे सुन्दरी! तुम कौन हो? लगता है कि हमारे झगड़े को देखकर उसका निबटारा करने के लिये ही हम पर कृपा कटाक्ष कर रही हो। आओ शुभगे! तुम्हारा स्वागत है। हमें अपने सुन्दर कर कमलों से यह अमृतपान कराओ।" इस पर विश्वमोहिनी रूपी विष्णु ने कहा, "हे देवताओं और असुरों! आप दोनों ही महर्षि कश्यप जी के पुत्र होने के कारण भाई-भाई हो फिर भी परस्पर लड़ते हो। मैं तो स्वेच्छाचारिणी स्त्री हूँ। बुद्धिमान लोग ऐसी स्त्री पर कभी विश्वास नहीं करते, फिर तुम लोग कैसे मुझ पर विश्वास कर रहे हो? अच्छा यही है, कि स्वयं सब मिल कर अमृतपान कर लो।"

विश्वमोहिनी(विष्णु रूप) के ऐसे नीति कुशल वचन सुन कर उन कामान्ध दैत्यो, दानवों और राक्षसों को उस पर और भी विश्वास हो गया। वे बोले, "सुन्दरी! हम तुम पर पूर्ण विश्वास है। तुम जिस प्रकार बाँटोगी हम उसी प्रकार अमृतपान कर लेंगे। तुम ये घट ले लो और हम सभी में अमृत वितरण करो।" विश्वमोहिनी ने अमृत घट लेकर देवताओं और असुरों को अलग-अलग पंक्तियो में बैठने के लिये कहा। उसके बाद असुरों को अपने कटाक्ष से मदहोश करते हुये देवताओं को अमृतपान कराने लगे। असुर उनके कटाक्ष से ऐसे मदहोश हुये कि अमृत पीना ही भूल गये।

भगवान की इस चाल को स्वरभानु नामक दानव समझ गया। वह देवता का रूप बना कर देवताओं में जाकर बैठ गया और प्राप्त अमृत को मुख में डाल लिया। जब अमृत उसके कण्ठ में पहुँच गया तब चन्द्रमा तथा सूर्य ने पुकार कर कहा कि ये स्वरभानु दानव है। यह सुनकर भगवान विष्णु ने तत्काल अपने सुदर्शन चक्र से उसका सिर गर्दन से अलग कर दिया। अमृत के प्रभाव से उसके सिर और धड़ राहु और केतु नाम के दो ग्रह बन कर अन्तरिक्ष में स्थापित हो गये। वे ही बैर भाव के कारण सूर्य और चन्द्रमा का ग्रहण कराते हैं।

इस तरह देवताओं को अमृत पिलाकर भगवान विष्णु वहाँ से लोप(गायब) हो गये। उनके लोप होते ही असुरों की मदहोशी समाप्त हो गई। वे अत्यन्त क्रोधित हो देवताओं पर प्रहार करने लगे। भयंकर देवासुर संग्राम आरम्भ हो गया, जिसमें देवराज इन्द्र ने असुरराज बलि को परास्त कर अपना इन्द्रलोक वापस ले लिया।

चौदह रत्न संपादित करें

 
समुद्र मन्थन चित्रात्मक निरूपण

एक प्रचलित श्लोक के अनुसार चौदह रत्न निम्नवत हैं:

लक्ष्मीः कौस्तुभपारिजातकसुराधन्वन्तरिश्चन्द्रमाः। ::
गावः कामदुहा सुरेश्वरगजो रम्भादिदेवांगनाः। ::
अश्वः सप्तमुखो विषं हरिधनुः शंखोमृतं चाम्बुधेः।::
रत्नानीह चतुर्दश प्रतिदिनं कुर्यात्सदा मंगलम्। ::

सन्दर्भ संपादित करें

  1. शर्मा, महेश (२०१३). हिन्दू धर्म विश्वकोश. प्रभात प्रकाशन. पृ॰ ७७. मूल से 4 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 अगस्त 2015.
  2. शर्मा, महेश (२०१३). हिन्दू धर्म विश्वकोश. प्रभात प्रकाशन. पृ॰ ५२. मूल से 4 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 अगस्त 2015.

बाहरी कड़ियाँ संपादित करें

     समुद्र मन्थन दैत्यों के बीच एक प्रकार का प्रस्ताव रखा था । जो दोनों के लिए लाभदायक था 

आप यह कथा जानते है ।

इस कथा से हमे यह सीखा की हमे किसी भी व्यक्ति का जल्दी विश्वास नही करना चाहिए ।
          - स्वाति त्रिपाठी
          - गोविन्द प्रसाद त्रिपाठी