नहर (Canal) जल परिवहन तथा स्थानान्तरण का मानव-निर्मित संरचना है। नहर शब्द से ऐसे जलमार्ग का बोध होता है, जो प्राकृतिक न होकर, मानवनिर्मित होता है। मुख्यत: इसका प्रयोग खेती के लिए जल को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाने में किया जाता है। नहरें नदियो के जल को सिंचाई हेतु विभिन्न क्षेत्रो तक पहुंचाती हैं। ऐसे जलमार्ग प्राचीन समय से बनते रहे हैं।

एम्सटर्डम, नीदरलैंड की एक विख्यात नहर।

सिंचाई नहरों को बनाने के अतिरिक्त उनको अच्छी दशा में रखना काफ़ी महत्वपूर्ण कार्य है। अत: नहर विभाग, भारत जैसे कृषिप्रधान देश के प्रशासन में विशेष स्थान रखते हैं। सिंचाई नहरों में देश की वह अमूल्य निधि बहती है जिसके ऊपर कृषि उत्पादन बड़ी मात्रा में निर्भर करता है। नहरों के संचालन के लिए विशेष क़ानून बने हुए हैं, जिनके अंतर्गत नहर विभाग अपना कार्य चलाते हैं।

किसी भी देश में नहरों द्वारा यातायात या कृषिक्षेत्र के विकास में बड़ी सहायता मिलती है। कहीं-कहीं तो बड़े-बड़े क्षेत्रों की संपूर्ण आर्थिक शृंखला नहरों के ऊपर ही आधारित होती है। लाभदायक जलमार्ग के अतिरिक्त नहरों की उपादेयता, क्रीड़ाक्षेत्र में तथा उद्योग धंधों की वृद्धि आदि के क्षेत्रों में भी बहुत है। इसी कारण संसार की बड़ी-बड़ी कृतियों में नहरों का विशिष्ट स्थान है।

उद्देश्य

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इसका सृजन मुख्यत: दो उद्देश्यों से होता है। पहला तो दो या अधिक जलखंडों या सरिताओं के मिलाने के लिए, जिसके द्वारा जलमार्ग से यातायात हो सके - यह यातायात छोटी-छोटी नौकाओं द्वारा हो अथवा बड़े बड़े जहाजों द्वारा। दूसरा उद्देश्य, नदी या सरोवरों से जल को भूसिंचन, जलप्रदाय तथा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नहरों द्वारा दूर दूर तक पहुँचाना।

पहले उद्देश्य के लिए बनी नहरें संसार के सभी भागों में पाई जाती हैं। ऐसी ही एक नहर मुगलों की बनाई हुई दिल्ली में थी जिसके किनारे भारत के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री जवाहरलाल नेह डिग्री के पूर्वज रहते थे, इसी कारण उनके परिवार का नाम नेह डिग्री पड़ा। ऐसी नहरें बड़ी-बड़ी भी होती हैं। संसार की प्रसिद्ध स्वेज़ नहर, लाल सागर और भूमध्यसागर को मिलती है और पनामा नहर प्रशांत तथा ऐटलैंटिक दो महासागरों के बीच यातायात की सुविधा प्रदान करती है। दोनों नहरें आधुनिक युग की देन हैं और इंजीनियरिंग की महान कृतियों में इनकी गणना होती है।

नहरों और अन्य जलमार्गों में विशेष अंतर यह होता है कि अन्य जलमार्ग, जैसे नदी, नाले और सागर प्राकृतिक होने के कारण स्वयं ही उस दशा में बने रहते हैं, किंतु नहरों को ठीक दशा में रखने के लिए सदा उपचार करने पड़ते हैं। उदाहरण के लिए, स्वेज़ नहर को यातायात योग्य बनाए रखने के लिए, उसमें से रेत निकालने के लिए, बड़ी-बड़ी मशीनें सदा काम में लगी रहती हैं और बहुत बड़ी संख्या में इंजीनियर उसकी देखभाल के लिए रखने पड़ते हैं।

इसके अतिरिक्त नहरों में यातायात के लिए बहुधा "लॉक" बनाए जाते हैं। इन "लॉकों" द्वारा ऊँची नीची सतहों के बीच यात्रा संभव हो जाती है। सागरों के मध्य ही नहीं, बहुत सी नदियों और झीलों को भी नहरों द्वारा यातायात के लिए जोड़ दिया जाता है। कश्मीर में डल लेक और झेलम नदी के बीच ऐसे लॉक स्थित हैं।

संसार के कई शहर ऐसे हैं जहाँ नहरों द्वारा ही शहर के अंदर यातायात हो सकता है, जैसे इटली का विश्वविख्यात वेनिस नगर। हॉलैंड में बहुत सी नहरें ऐम्सटरडैम आदि नगरों में यातायात के लिए बनी हुई हैं। भारत में भी शहरों के मध्य यातायात के लिए बड़ी नहरें बनाई गई हैं जैसे दक्षिण भारत में बकिंघम कैनाल। छोटी छोटी यातायात नहरें तो देश के विभिन्न भागों में बहुत सी बनी हुई हैं।

नहरों का दूसरा उद्देश्य है नदी या सरोवरों से जलप्रदाय या भूसिंचन के निमित्त जल को दूर-दूर तक पहुँचाना। इस दिशा में भारत में बहुत कार्य 19वीं शताब्दी में हुआ है। वैसे, प्राचीन काल की बनी हुई बहुत सी नहरें देश के भिन्न-भिन्न भागों में देखी जाती हैं। किंतु विशेष कार्य भुसिंचन क्षेत्र में ही हुआ है, क्योंकि भारत कृषिप्रधान देश है।

भूसिंचन के लिए बहुत बड़ी-बड़ी नहरें बनाई गई थीं। कई शताब्दियों पूर्व दक्षिण भारत में कावेरी नदी पर एक ऐनिकट (anicut) बनाकर नहरें निकाली गई थीं। आधुनिक युग में गंगा नदी से, पंजाब में सतलुज और व्यास नदी से बड़ी-बड़ी नहरों का निर्माण हुआ जिनके द्वारा लाखों एकड़ भूमि को सिंचाई का लाभ हुआ। गंगा यमुना के दोआब में गंगा की ऊपरी तथा निचली गंगा नहर से मिलाकर लगभग 32 लाख एकड़ भूमि की सिंचाई प्रति वर्ष होती है। इसे लिए गंगा यमुना के दोआब क्षेत्रों में लगभग 8,000 मील छोटी बड़ी नहरों का जाल सा फैला हुआ है, जो विभिन्न नदियों और नालों के बीच के क्षेत्र को सिंचित करती हैं। यह भारत की सबसे बड़ी भूसिंचन-प्रणाली है।

इसके अतिरिक्त गंगा नहर पर स्थित जलप्रपातों से पनबिजली का उत्पादन भी होता है। अत: नहरों द्वारा बहुमुखी विकास होता है और उनसे सिंचित क्षेत्र में कृषि की वृद्धि के साथ साथ उद्योग धंधों में भी प्रगति होती है और लोगों का जीवनस्तर ऊँचा करने में बड़ी सहायता मिलती है। प्रशासन को भी अच्छी नहरों से राजस्व कोष में आमदनी हो जाती है, जैसे ऊपरी और निचली गंगा नहरों से उत्तर प्रदेश प्रशासन को सन् 1958-59 में लगभग 1.6 करोड़ रुपए का, सब ख़र्चा आदि काटकर, मुनाफ़ा रहा।

नहरें मानव निर्मित जल प्रवाहन प्रणालियाँ हैं जो दो तरह की होती हैं:

१. Aqueduct : (या जल सुगमता) जो कृषि या मानव उपयोग के लिए इस्तेमाल होती हैं। ताज़े पानी को भी ज़रूरत के मुताबिक प्रवाहित किया जाता है।

२. Waterway canals : ये नहरें यातायात में काम आती हैं। यात्रियों या वस्तुओं को जहाज़ और नावें इन नहरों का प्रयोग के ज़रिये इधर उधर ले जाते हैं। ये नहरें मौजूदा झीलों, नदियों और समन्दरों को जोड़ा करती हैं। जैसे मशहूर सुएज़ और पनामा की नहरें. नहर शब्द मूलतः फारसी शब्द है।

netherlands के शहरों में शहर की नहरें gracht भी कहलाती हैं।

सिंचाई की नहरों के निर्माण में विशेष बात यह होती है कि ये नहरें ऐसे पथों से ले जाई जाती हैं जहाँ संभवत: नहरों के दोनों किनारों की ओर पानी सिंचाई के लिए निकलकर बह सके। अत: नहर का बहाव सिंचित क्षेत्र के अंतर्गत ऊँची से ऊँची भूमि पर होकर नियोजित किया जाता है। नदी और नाले इसके विपरीत, क्षेत्र के नीचे से नीचे हिस्से में होकर बहते हैं। वास्तव में नहरें बहुधा दो नदियों या नालों के मध्य उच्च भूमि पर होकर ही निकलती है।

कहीं-कहीं इस उच्च भूमि (water shed) तक पहुँचने में नहरों को कई नदियाँ और नाले पार करने पड़ते हैं। उदाहरण के लिए, ऊपरी गंगा नहर को अपने उदगम् स्थान हरिद्वार और रुड़की के बीच लगभग 20 मील के फासले में चार पहाड़ी नदियों को पार करना पड़ता है और वह भी भिन्न-भिन्न रूप से। वास्तव में रुड़की से हरिद्वार तक ऊपरी गंगा नहर के साथ पक्की सड़क जाती है और इन 20 मीलों में इंजीनियरिंग के कुछ महत्वपूर्ण कार्यों को देखने का अवसर मिलता है।

दो स्थानों पर नहर पहाड़ी नदियों को नीचे से पार करती है एक जगह नदी नहर में मिला ली जाती है और एक अन्य जगह, सोलानी ऐक्विडक्ट (aqueduct) पर, नहर नदी के ऊपर होकर गुजरती है। सोलानी एक्वाडक्ट विश्वविख्यात है। यह महत्वपूर्ण कार्य, सिर्फ ईंटों और चूने से, लगभग 1850 ई. में पूरा हुआ था।

सिंचाई की नहर जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, वह पेड़ की शाखों की तरह छोटी होती जाती है। इसके विपरीत नदियाँ जैसे-जैसे आगे बढ़ती हैं, बड़ी होती जाती हैं और उनकी सहायक नदियाँ तथा नाले उनमें मिलते रहते हैं। शाखाओं से वितरण नहर अथवा रजबहे निकलते हैं और इनमें छोटी नहरें, जिन्हें माइनर (minor) या बंबे कहते हैं, निकलती हैं।

इन सब नहरों से कुलाबे, मौधे या आउट लेट (outlet) द्वारा पानी खेतों के लिए निकाला जाता है। यह सब वितरण वैज्ञानिक रूप से निधौरित सिद्धोतों के अनुकूल होता है। यदि ऐसा न किया जाए तो नहरों में, जो सैकड़ों मील तक पानी पहुँचाती हैं, पानी ही न पहुँचे। इसके लिए सरकारी विभाग स्थापित है जिनमें कुशल इंजीनियर लोग नहरों को अच्छी हालत में रखने और उनमें निर्धारित मात्रा में पानी चलाने के लिए नियुक्त होते हैं।

नहरों में पानी भी ऐसी गति से चलाया जाता है कि उससे नहर में न तो कटाव हो और न तलछट ही जमा हो। जहाँ भी आवश्यकता होती है, प्रपात बना दिए जाते हैं, ताकि नहर की तली की ढाल निर्धारित दशा में रखी जा सके। इस दिशा में बहुत गवेषणा कार्य भारत में हुआ है और होता रहता है। और भी बहुत सी समस्याएँ नहरों के संचालन में सामने आती रहती हैं, जिनका समाधान करने का उत्तरदायित्व इंजीनियरों के ऊपर रहता है।

नहरों में आवश्यकता के अनुसार निकास (Escapes) भी बनाए जाते हैं, जिनके द्वारा आवश्यकता न रहने पर या किसी टूट-फूट के समय, अतिरिक्त पानी समीपवर्ती नदी या नालों में निकाला जा सके। ऐसा बहुधा होता है कि नहर पूरी चल रही है और उस क्षेत्र में भारी वर्षा हो गई जिससे पान की माँग शून्य हो गई। ऐसी अवस्था में मोघे या कुलाबे बंद कर देने पड़ते हैं। परंतु संपूर्ण पानी को नहर साध नहीं सकती, अत: पानी को निकास द्वारा नदी या नालों में निकालना अनिवार्य हो जाता है।

जहाँ नहर अधिक भराव में होकर बनाई जाती है वहाँ नहर के दोनों किनारों के पुश्ते बड़ी सावधानी से बनाए जाते हैं। उदाहरण के लिए, ऊपरी गंगा नहर रुड़की के समीप सोलानी ऐक्विडक्ट के दोनों ओर भारी भराव में होकर गुजरती है। वहाँ भराव 35 फुट तक का है, अर्थात् दोनों ओर की भूमि काफी नीची है। यहाँ पक्के पुश्ते बनाए गए हैं, जो लगभग तीन मील की लंबाई में हैं। किंतु फिर भी पानी का रिसाव तली में से होता है जिसको समेटने के लिए दोनों ओर नालियाँ बनी हुई हैं, जिनमें रिसन का पानी जमा होकर नदी में चला जाता है।

नहरों से कहीं-कहीं रिसन द्वारा हानि भी बहुत होती है। नहरों के बनने से सामान्य भूगर्भ जलतल ऊँचा हो जाता है। यदि आस-पास की भूमि में पानी के रिसन की क्षमता कम हुई तो जलरोध (Water-logging) की अवस्था हो जाती है और कृषियोग्य भूमि कृषि के आयोग्य होने लगती है। अत: नहरों के निर्माण के साथ-साथ निकासी नालों का निर्माण आवश्यक हो जाता है। यदि ये उपाय यथासमय नहीं कर लिए जाते तो भारी हानि होने की आशंका रहती है, जैसा पंजाब के कुछ क्षेत्रों में हो गया है। नहरों के साथ-साथ नालों का निर्माण अनिवार्य है। संसार के बहुत से क्षेत्रों में पानी के उपयुक्त निकास न होने के कारण नहरों से लाभ के बजाए हानि हुई है।

कहीं कहीं रिसन रोकने के लिए नहरों की तली और दोनों तटीय पार्श्वों का कंकरीट या चुनाई से अथवा अन्य साधनों से पक्का कर देते हैं। इसके द्वारा पानी का रिसना कम हा जाता है। यह नीति विशेषकर उसी क्षेत्र में सफल होती है जहाँ सिंचाई नहीं होती और नहर केवल पानी को आगे ले जाने के लिए बनी होती है। किंतु जहाँ सिंचाई होती है वहाँ इस साधन के द्वारा अधिक दिनों तक जलरोध से बचाव नहीं हो पाता, वहाँ सावधानीपूर्वक भूसिंचन तथा यथानुकूल निकासी नालों अथवा भूमि के नीचे अतिरिक्त जलनिकासी युक्तियों से काम लेना अनिवार्य हो जाता है।

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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