प्रमाण (भारतीय दर्शन)
भारतीय दर्शन में प्रमाण उसे कहते हैं जो सत्य ज्ञान करने में सहायता करे। अर्थात् वह बात जिससे किसी दूसरी बात का यथार्थ ज्ञान हो। प्रमाण न्याय का मुख्य विषय है। 'प्रमा' नाम है यथार्थ ज्ञान का। यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। गौतम ने चार प्रमाण माने हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द।
परिचय
संपादित करेंप्रमाण का लक्षण
संपादित करें'यथार्थ अनुभव' को 'प्रमा' कहते हैं। 'स्मृति' तथा 'संशय' आदि को 'प्रमा' नहीं मानते। अतएव अज्ञात तत्त्व के अर्थज्ञान को 'प्रमा' कहा है। इस अनधिगत अर्थ के ज्ञान के उत्पन्न करने वाला करण 'प्रमाण' है। इसी को शास्त्रदीपिका में कहा है--
- कारणदोषबाधकज्ञानरहितम् अगृहीतग्राहि ज्ञानं प्रमाणम् ।
- अर्थात जिस ज्ञान में अज्ञात वस्तु का अनुभव हो, अन्य ज्ञान से बाधित न हो एवं दोष रहित हो, वही 'प्रमाण' है।
प्रमाण के भेद
संपादित करेंइंद्रियों के साथ सम्बन्ध होने से किसी वस्तु का जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष है। लिङ्ग (लक्षण) और लिङ्गी दोनों के प्रत्यक्ष ज्ञान से उत्पन्न ज्ञान को अनुमान कहते हैं। किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य द्वारा दूसरी वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वह उपमान कहलाता है। जैसे, गाय के सदृश ही नील गाय होती है। आप्त या विश्वासपात्र पुरुष की बात को शब्द प्रमाण कहते हैं।
इन चार प्रमाणों के अतिरिक्त मीमांसक, वेदान्ती और पौराणिक चार प्रकार के और प्रमाण मानते हैं—ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अनुपलब्धि या अभाव। जो बात केवल परम्परा से प्रसिद्ध चली आती है वह जिस प्रमाण से मानी जाती है उसको ऐतिह्य प्रमाण कहते हैं। जिस बात से बिना किसी देखी या सुनी बात के अर्थ में आपत्ति आती हो उसके लिये अर्थापत्ति प्रमाण हैं। जैसे, मोटा देवदत्त दिन को नहीं खाता, यह जानकर यह मानना पड़ता है कि देवदत्त रात को खाता है क्योंकि बिना खाए कोई मोटा हो नहीं सकता। व्यापक के भीतर व्याप्य—अंगी के भीतर अंग—का होना जिस प्रमाण से सिद्ध होता है उसे सम्भव प्रमाण कहते हैं। जैसे, सेर के भीतर छटाँक का होना। किसी वस्तु का न होना जिससे सिद्ध होता है वह अभाव प्रमाण है। जैसे चूहे निकलकर बैठे हुए हैं इससे बिल्ली यहाँ नहीं है। पर नैयायिक इन चारों को अलग प्रमाण नहीं मानते, अपने चार प्रमाणों के अंतर्गत मानते हैं।
भारतीय दर्शन के विभिन्न सम्प्रदायों में प्रमाणों की संख्या भिन्न-भिन्न है। किन-किन दर्शनों में कौन-कौन प्रमाण गृहीत हुए हैं यह नीचे दिया जाता है-[1]
क्रम | दर्शन | प्रमाण-संख्या | प्रमाणों के नाम |
---|---|---|---|
१ | यजुर्वेद | ४ | स्मृति, प्रत्यक्ष, ऐतिह्य, अनुमान |
२ | मनुस्मृति | ३ | प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द |
३ | रामायण | ६ | प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्द, अर्थापत्ति, अभाव |
४ | चार्वाक | १ | प्रत्यक्ष |
५ | वैशेषिक | २ | प्रत्यक्ष, अनुमानम् (केचन शाब्दवमपीच्छन्ति) |
६ | साङ्ख्य/योग | ३ | प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द |
७ | नैयायिक | ४ | प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमान, शाब्द |
८ | मीमांसक (भाट्ट) | ६ | प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्द, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि |
९ | मीमांसक (प्राभाकर) | ५ | प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्द, अर्थापत्ति |
१० | अद्वैतवेदान्तिन | ६ | प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्द, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि |
११ | वैयाकरण | १२ | प्रत्यक्ष, अनुमान, शाब्द, उपमान, अर्थापत्ति, अभ्यासः, अदृष्ट, प्रतिभा, अनुपलब्धि, प्रत्यभिज्ञा, कोश, ऐतिह्य |
१२ | बौद्ध | २ | प्रत्यक्ष, अनुमानम् |
१३ | जैन | ६ | प्रत्यक्ष, परोक्ष- स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, ऊहा, अनुमान, आगम |
१४ | पौराणिक | ८ | प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्द, अर्थापत्तिः, अनुपलब्धि, सम्भव, ऐतिह्य |
१५ | तान्त्रिक / भरत | ९ | प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्द, अर्थापत्ति, अनुपलब्धि, सम्भव, ऐतिह्य, चेष्टा |
१६ | विशिष्टाद्वैतिन | ४ | प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शास्त्र (वेद) अर्थापत्ति |
१७ | आनन्दतीर्थ | २ | प्रत्यक्ष, शब्द (अनुमानं तु श्रुत्यनुसारित्वेन प्रमाण, न तु स्वतन्त्रम्) |
१८ | वल्लभ | ४ | (अलौकिक विषयों में) वेद, ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता, श्रीमद्भागवत |
१९ | व्यवहारशास्त्रज्ञ | २ | मानुष, दैव |
२० | अर्थशास्त्र | ३ | प्रत्यक्ष, परोक्ष (आप्तवाक्य, अनुमिति) |
२१ | आयुर्वेद | ४ | आप्तोपदेश, प्रत्यक्ष, अनुमान, युक्ति (चरक) प्रत्यक्ष, आगम, अनुमान, उपमान (सुश्रुत) |
२२ | भागवत | ४ | श्रुति, प्रत्यक्ष, अनुमान, ऐतिह्य |
२३ | भारत | ६ | प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम, अर्थापत्ति, ऐतिह्य |
प्रत्यक्ष
संपादित करेंइनमें से आत्मा, मन और इंद्रिय का संयोग रूप जो ज्ञान का करण वा प्रमाण है वही प्रत्यक्ष है। वस्तु के साथ इंद्रिय- संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है उसी को 'प्रत्यक्ष' कहते हैं। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है।
गौतम ने न्यायसूत्र में कहा है कि इंद्रिय के द्वारा किसी पदार्थ का जो ज्ञान होता है, वही प्रत्यक्ष है। जैसे, यदि हमें सामने आग जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का अनुभव करें तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि 'आग जल रही है'। इस ज्ञान में पदार्थ और इंद्रिय का प्रत्यक्ष संबंध होना चाहिए। यदि कोई यह कहे कि 'वह किताब पुरानी है' तो यह प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है; क्योंकि इसमें जो ज्ञान होता है, वह केवल शब्दों के द्वारा होता है, पदार्थ के द्वारा नहीं, इसिलिये यह शब्दप्रमाण के अंतर्गत चला जायगा। पर यदि वही किताब हमारे सामने आ जाय और मैली कुचैली या फटी हुई दिखाई दे तो हमें इस बात का अवश्य प्रत्यक्ष ज्ञान हो जायगा कि 'यह किताब पुरानी है'।
प्रत्यक्ष ज्ञान किसी के कहे हुए शब्दों द्वारा नहीं होता, इसी से उसे 'अव्यपदेश्य' कहते हैं। प्रत्यक्ष को अव्यभिचारी इसलिये कहते हैं कि उसके द्वारा जो वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है। कुछ नैयायिक इस ज्ञान के करण को ही प्रमाण मानते हैं। उनके मत से 'प्रत्यक्ष प्रमाण' इंद्रिय है, इंद्रिय से उत्पन्न ज्ञान 'प्रत्यक्ष ज्ञान' है। पर अव्यपदेश्य पद से सूत्रकार का अभिप्राय स्पष्ट है कि वस्तु का जो निर्विकल्पक ज्ञान है वही प्रत्यक्ष प्रमाण है।
नवीन ग्रंथकार दोनों मतों को मिलाकर कहते हैं कि प्रत्यक्ष ज्ञान के करण (अर्थात प्रत्यक्ष प्रमाण) तीन हैं
- (१) इंद्रिय,
- (२) इंद्रिय का संबंध और
- (३) इंद्रियसंबंध से उत्पन्न ज्ञान
पहली अवस्था में जब केवल इंद्रिय ही करण हो तो उसका फल वह प्रत्यक्ष ज्ञान होगा जो किसी पदार्थ के पहले पहल सामने आने से होता है। जैसे, वह सामने कोई चीज दिखाई देती है। इस ज्ञान को 'निर्विकल्पक ज्ञान' कहते हैं। दूसरी अवस्था में यह जान पड़ता है कि जो चीज सामने है, वह पुस्तक है। यह 'सविकल्पक ज्ञान' हुआ। इस ज्ञान का कारण इंद्रिय का संबंध है। जब इंद्रिय के संबंध से उत्पन्न ज्ञान करण होता है, तब यह ज्ञान कि यह किताब अच्छी है अथवा बुरी है, प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। यह प्रत्यक्ष ज्ञान ६ प्रकार का होता है -
- (१) चाक्षुष प्रत्यक्ष, जो किसी पदार्थ के सामने आने पर होता है। जैसे, यह पुस्तक नई है।
- (२) श्रावण प्रत्यक्ष, जैसे, आँखें बंद रहने पर भी घंटे का शब्द सुनाई पड़ने पर यह ज्ञान होता है कि घंटा बजा
- (३) स्पर्श प्रत्यक्ष, जैसे बरफ हाथ में लेने से ज्ञान होता है कि वह बहुत ठंढी है।
- (४) रसायन प्रत्यक्ष, जैसे, फल खाने पर जान पड़ता है कि वह मीठा है अथवा खट्टा है।
- (५) घ्राणज प्रत्यक्ष, जैसे, फूल सूँघने पर पता लगता है कि वह सुगंधित है। और
- (६) मानस प्रत्यक्ष जैसे, सुख, दुःख, दया आदि का अनुभव।
अनुमान
संपादित करेंप्रत्यक्ष को लेकर जो ज्ञान (तथा ज्ञान के कारण) को अनुमान कहते हैं। जैसे, हमने बराबर देखा है कि जहाँ धुआँ रहता है वहाँ आग रहती है। इसी को नैयायिक 'व्याप्ति ज्ञान' कहते हैं जो अनुमान की पहली सीढी़ है। हमने कहीं धूआँ देखा जो आग कि जिस धूएँ के साथ सदा हमने आग देखी है वह यहाँ हैं। इसके अनंतर हमें यह ज्ञान या अनुमान उत्पन्न हुआ कि 'यहाँ आग है'। अपने समझने के लिये तो उपयुक्त तीन खंड काफी है पर नैयायिकों का कार्य है दूसरे के मन में ज्ञान कराना, इससे वे अनुमान के पाँच खंड करते हैं जो 'अवयव' कहलाते हैं।
- (१) प्रतिज्ञा—साध्य का निर्देश करनेवाला अर्थात् अनुमान से जो बात सिद्ध करना है उसका वर्णन करनेवाला वाक्य, जैसे, यहाँ पर आग है।
- (२) हेतु—जिस लक्षण या चिह्न से बात प्रमाणित की जाती है, जैसे, क्योंकि यहाँ धुआँ है।
- (३) उदाहरण—सिद्ध की जानेवाली वस्तु बतलाए हुए चिह्न के साथ जहाँ देखी गई है उसा बतानेवाला वाक्य। जैसे,— जहाँ जहाँ धूआँ रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, जैसे 'रसोईघर में'।
- (४) उपनय—जो वाक्य बतलाए हुए चिह्न या लिंग का होना प्रकट करे, जैसे, 'यहाँ पर धूआँ है'।
- (५) निगमन—सिद्ध की जानेवाली बात सिद्ध हो गई, यह कथन।
अतः अनुमान का पूरा रूप यों हुआ—
- यहाँ पर आग है (प्रतिज्ञा)।
- क्योकि यहाँ धूआँ है (हेतु)।
- जहाँ जहाँ धूआँ रहता है वहाँ वहाँ आग रहती है, 'जैसे रसोई घर में' (उदाहरण)।
- यहाँ पर धूआँ है (उपनय)। इसीलिये यहाँ पर आग है (निगमन)।
साधारणतः इन पाँच अवयवों से युक्त वाक्य को न्याय कहते हैं।
नवीन नैयायिक इन पाँचों अवयवों का मानना आवश्यक नहीं समझते। वे प्रमाण के लिये प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टांत इन्हीं तीनों को काफी समझते हैं। मीमांसक और वेदांती भी इन्हीं तीनों को मानते हैं। बौद्ध नैयायिक दो ही मानते हैं, प्रतिज्ञा और हेतु। 'दुष्ट हेतु' को हेत्वाभास कहते हैं पर इसका प्रमाण गौतम ने प्रमाण के अंतर्गत न कर इसे अलग पदार्थ (विषय) मानकर किया है। इसी प्रकार छल, जाति, निग्रहस्थान इत्यादि भी वास्तव में हेतुदोष ही कहे जा सकते हैं। केवल हेतु का अच्छी तरह विचार करने से अनुमान के सब दोष पकडे़ जा सकते हैं और यह मालूम हो सकता है कि अनुमान ठीक है या नहीं।
उपमान
संपादित करेंगौतम का तीसरा प्रमाण 'उपमान' है। किसी जानी हुई वस्तु के सादृश्य से न जानी हुई वस्तु का ज्ञान जिस प्रमाण से होता है वही उपमान है। जैसे, नीलगाय गाय के सदृश होती है। किसी के मुँह से यह सुनकर जब हम जंगल में नीलगाय देखते हैं तब चट हमें ज्ञान हो जाता है कि 'यह नीलगाय है'। इससे प्रतीत हुआ कि किसी वस्तु का उसके नाम के साथ संबंध ही उपमिति ज्ञान का विषय है। वैशेषिक और बौद्ध नैयायिक उपमान को अलग प्रमाण नहीं मानते, प्रत्यक्ष और शब्द प्रमाण के ही अंतर्गत मानते हैं। वे कहते हैं कि 'गो के सदृश गवय होता है' यह शब्द या आगम ज्ञान है क्योंकि यह आप्त या विश्वासपात्र मनुष्य कै कहे हुए शब्द द्वारा हुआ फिर इसके उपरांत यह ज्ञान क्रि 'यह जंतु जो हम देखते हैं गो के सदृश है' यह प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ। इसका उत्तर नैयायिक यह देते हैं कि यहाँ तक का ज्ञान तो शब्द और प्रत्यक्ष ही हुआ पर इसके अनंतर जो यह ज्ञान होता है कि 'इसी जंतु का नाम गवय है' वह न प्रत्यक्ष है, न अनुमान, न शब्द, वह उपमान ही है। उपमान को कई नए दार्शनिकों ने इस प्रकार अनुमान कै अंतर्गत किया है। वे कहते हैं कि 'इस जंतु का नाम गवय हैं', 'क्योंकि यह गो के सदृश है' जो जो जंतु गो के सदृश होते है उनका नाम गवय होता है। पर इसका उत्तर यह है कि 'जो जो जंतु गो के सदृश्य होते हैं वे गवय हैं' यह बात मन में नहीं आती, मन में केवल इतना ही आता हैं कि 'मैंने अच्छे आदमी के मुँह से सुना है कि गवय गाय के सदृश होता है ?'
शब्द
संपादित करेंचौथा प्रमाण है - शब्द। सूत्र में लिखा है कि आप्तोपदेश अर्थात आप्त पुरुष का वाक्य "शब्द-प्रमाण" है। भाष्यकार ने आप्तपुरुष का लक्षण यह बतलाया है कि जो साक्षात्कृतधर्मा हो, जैसा देखा सुना (अनुभव किया) हो ठीक ठीक वैसा ही कहने वाला हो, वही आप्त है, चाहे वह आर्य हो या म्लेच्छ। गौतम ने आप्तोपदेश के दो भेद किए हैं - दृष्टार्थ और अदृष्टार्थ। प्रत्यक्ष जानी हुई बातों को बताने वाला "दृष्टार्थ" और केवल अनुमान से जानी जाने वाली बातों (जैसे स्वर्ग, अपवर्ग, पुनर्जन्म इत्यादि) को बताने वाला "अदृष्टार्थ" कहलाता है। इस पर भाष्य करते हुए वात्स्यान ने कहा है कि इस प्रकार लौकिक और ऋषि-वाक्य (वैदिक) का विभाग हो जाता है अर्थात् अदृष्टार्थ मे केवल "वेदवाक्य" ही प्रमाण कोटि में माना जा सकता है। नैयायिकों के मत से वेद ईश्वरकृत है, इससे उसके वाक्य सदा सत्य और विश्वसनीय हैं; पर लौकिक वाक्य तभी सत्य माने जा सकते हैं, जब उनका कहने वाला प्रामाणिक माना जाये। सूत्रों में वेद के प्रामाण्य के विषय में कई शंकाएँ उठाकर उनका समाधान किया गया है। मीमांसक ईश्वर को नहीं मानते पर वे भी वेद को अपौरुषेय और नित्य मानते हैं। नित्य तो मीमांसक शब्द मात्र को मानते हैं और शब्द और अर्थ का नित्य संबंध बतलाते हैं। पर नैयायिक शब्द का अर्थ के साथ कोई नित्य संबंध नहीं मानते। वाक्य का अर्थ क्या है, इस विषय में बहुत मतभेद है। मीमांसकों के मत से नियोग या प्रेरणा ही वाक्यार्थ है - अर्थात् 'ऐसा करो', 'ऐसा न करो' यही बात सब वाक्यों से कही जाती है चाहे साफ-साफ, चाहे ऐसे अर्थ वाले दूसरे वाक्यों से संबंध द्वारा। पर नैयायिकों के मत से कई पदों के संबंध से निकलने वाला अर्थ ही वाक्यार्थ है। परंतु वाक्य में जो पद होते हैं वाक्यार्थ के मूल कारण वे ही हैं। "न्यायमंजरी" में पदों में दो प्रकार की शक्ति मानी गई है, प्रथम - अभिधात्री शक्ति, जिससे एक-एक पद अपने अपने अर्थ का बोध कराता है और दूसरी - तात्पर्य शक्ति, जिससे कई पदों के संबंध का अर्थ सूचित होता है। शक्ति के अतिरिक्त लक्षणा भी नैयायिकों ने मानी है। आलंकारिकों ने तीसरी वृत्ति व्यंजना भी मानी है पर नैयायिक उसे पृथक् वृत्ति नहीं मानते। सूत्र के अनुसार जिन कई अक्षरों के अंत में विभक्ति हो वे ही पद हैं और विभक्तियाँ दो प्रकार की होती हैं - नाम विभक्ति और आख्यात विभक्ति। इस प्रकार नैयायिक नाम और आख्यात दो ही प्रकार के पद मानते हैं। अव्यय पद को भाष्यकार ने नाम के ही अंतर्गत सिद्ध किया है। न्याय में ऊपर लिखे चार ही प्रमाण माने गए हैं। मीमांसक और वेदांती अर्थापत्ति, ऐतिह्य, संभव और अभाव ये चार और प्रमाण कहते हैं। नैयायिक इन चारों को अपने चार प्रमाणों के अंतर्गत मानते हैं।
अर्थापत्ति
संपादित करेंदृष्ट या श्रुत विषय की उपपत्ति जिस अर्थ के बिना न हो, उस अर्थ के ज्ञान को 'अर्थापत्ति' कहते हैं। जैसे--देवदत्त दिन में कुछ भी नहीं खाता, फिर भी खूब मोटा है'। इस वाक्य में 'न खाना तथापि मोटा होना' इन दोनों कथनों में समन्वय की उपपत्ति नहीं होती। अत: उपपत्ति के लिए 'रात्रि में भोजन करता है' यह कल्पना की जाती है। इस कथन से यह स्पष्ट हो गया कि 'यद्यपि दिन में वह नहीं खाता, परन्तु रात्रि में खाता है'। अतएव देवदत्त मोटा है। यहाँ पर प्रथम वाक्य में उपपत्ति लाने के लिए, 'रात्रि में खाता है' यह कल्पना स्वयं की जाती है। इसी को 'अर्थापत्ति' कहते हैं।
अर्थापत्ति के भेद
संपादित करेंयह दो प्रकार की है--'दृष्टार्थापत्ति', जैसे --ऊपर के उदाहरण में, तथा 'श्रुतार्थापत्ति' । जैसे- सुनने में आता है कि देवदत्त जो जीवित है, घर में नहीं हैं। इस से 'देवदत्त कहीं और स्थान में है' इसकी कल्पना करना 'अर्थापत्ति' है। अन्यथा 'जीवित होकर घर में नहीं रहना' इन दोनों बातों में समन्वय नहीं हो सकता।
प्रभाकर का मत है कि किसी भी प्रमाण से ज्ञात विषय की उपपत्ति के लिए 'अर्थापत्ति' हो सकती है, केवल दृष्ट और श्रुत ही से नहीं। यह बात साधारण रूप से प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता, तस्मात् 'अर्थापत्ति' का नाम का एक भिन्न 'प्रमाण' मीमांसक मानते हैं।
अनुपलब्धि या अभाव
संपादित करेंअभावप्रमाण -- प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के द्वारा जब किसी वस्तु का ज्ञान नहीं होता, तब 'वह वस्तु नहीं है' इस प्रकार उस वस्तु के 'अभाव' का ज्ञान हमें होता है। इस 'अभाव' का ज्ञान इन्द्रियसन्निकर्ष आदि के द्वारा तो हो नहीं सकता, क्योंकि इन्द्रियसन्निकर्ष 'भाव' पदार्थों के साथ होता है। अतएव 'अनुपलब्धि', या 'अभाव' नाम के एक ऐसे स्वतन्त्र प्रमाण को मीमांसक मानते हैं, जिसके द्वारा किसी वस्तु के 'अभाव' का ज्ञान हो। यह तो मीमांसकों का एक साधारण मत है। किन्तु प्रभाकर इसे नहीं स्वीकार करते। उनका कथन है कि जितने 'प्रमाण' है, सब के अपने-अपने स्वतन्त्र 'प्रमेय' हैं, किन्तु 'अभाव' प्रमाण का कोई भी अपना 'विषय' नहीं है। जैसे--'इस भूमि पर घट नहीं है', इस ज्ञान में यदि वहाँ घट होता, तो भूतल के समान उसका भी ज्ञान होता, किन्तु ऐसा नहीं है। फिर हम देखते हैं 'केवल भूमि', जिस का ज्ञान हमें प्रत्यक्ष से होता है। वस्तुत: 'अभाव' का अपना स्वरूप तो कुछ भी नही है। वह तो जहाँ रहता है, उसी आधार के साथ कहा जाता है। इसलिए यथार्थ में भूतल के ज्ञान के अतिरिक्त 'घट नहीं है' इस प्रकार का ज्ञान होता ही नहीं। अतएव 'अभाव' अधिकरण स्वरूप ही है। इस का पृथक् अस्तित्व नहीं है।
सम्भवप्रमाण
संपादित करेंकुमारिल ने 'सम्भव' की चर्चा की है। जैसे--'एक सेर दूध में आधा सेर दूध तो अवश्य है'; अर्थात् एक सेर होने में सन्देह हो सकता है, किन्तु उसके आधा सेर होने में तो कोई भी सन्देह नहीं हो सकता। इसे ही 'सम्भव' का नाम का प्रमाण 'पौराणिकों' ने माना है। कुमारिल ने इस 'अनुमान' के अन्तर्गत माना है।
ऐतिह्यप्रमाण
संपादित करें'एतिह्य' का भी उल्लेख कुमारिल ने किया है। जैसे 'इस वट के वृक्ष पर भूत रहता है'। यह वृद्ध लोग कहते आये हैं। अत: यह भी एक स्वतन्त्र प्रमाण है। परन्तु इस कथन की सत्यता का निर्णय नहीं हो सकता, अतएव यह प्रमाण नहीं है। यदि प्रमाण है तो यह 'आगम' के अन्तर्भूत है। किन्तु इन दोनों को अन्य मीमांसकों की तरह कुमारिल ने भी स्वीकार नहीं किया।
प्रतिभाप्रमाण
संपादित करें'प्रतिभा' अर्थात् 'प्रातिभज्ञान' सदैव सत्य नहीं होता, अतएव इसे भी मीमांसक लोग प्रमाण के रूप में नहीं स्वीकार करते।
ऊपर के विवरण से स्पष्ट हो गया होगा कि प्रमाण ही न्यायशास्त्र का मुख्य विषय है। इसी से 'प्रमाणप्रवीण', 'प्रमाणकुशल' आदि शब्दों का व्यवहार नैयायिक या तार्किक के लिये होता है।
प्रामाण्यवाद का महत्व
संपादित करेंन्यायशास्त्र तथा मीमांसाशास्त्र में 'प्रामाण्यवाद' सब से कठिन विषय कहा जाता है। मिथिला में विद्वन्मण्डली में प्रसिद्ध है कि १४वीं सदी में एक समय एक बहुत बड़े विद्वान् और कवि किसी अन्य प्रान्त से मिथिला के महाराज की सभा में आये। उनकी कवित्वशक्ति और विद्वत्ता से सभी चकित हुए। वह मिथिला में रह कर 'प्रामाण्यवाद' का विशेष अध्ययन करने लगे। कुछ दिनों के पश्चात् महाराज ने उनसे एक दिन नवीन कविता सुनाने के लिए कहा, तो बहुत देर सोचने के बाद उन्होने एक कविता की रचना की--
- नमः प्रामाण्यवादाय मत्कवित्वापहारिणे।
- (प्रामाण्यवाद को नमस्कार करता हूँ जिसने मेरे कवित्व को नष्ट कर दिया (चुरा लिया)।)
इसकी दूसरी पंक्ति की पूर्ति करने में उन्होंने अपनी असमर्थता प्रकट की। वास्तव में 'प्रामाण्यवाद' बहुत कठिन है और इसके अध्ययन करने वालों का ध्यान और कहीं नहीं जा सकता ।
प्रमाण और ग्रन्थ-विश्लेषण
संपादित करेंबौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने प्रमाण का लक्षण करते हुए लिखा है-
- प्रमाणविसंवादि ज्ञानमर्थ क्रियास्थितिः ।
- अविसंवादनं शाब्देऽप्याभिप्रायनिवेदनात् ॥
- अर्थ : अविसंवादि ज्ञान को ही प्रमाण कहा जाता है । अर्थ (दाह-पाकादि रूप प्रयोजन) की क्रिया निष्पत्ति का नाम अविसंवाद है । शब्द-ज्ञान में भी वक्ता का अभिप्रेत अर्थ का निवेदन होने के कारण प्रमाणता मानी गयी है।
जैन विद्वान् अकलंक ने प्रमाण को परिभाषित करते हुए लिखा है- प्रमाण को अविसंवाही तथा अनधिगतार्थक होना चाहिए।
माणिक्य नंदी ने लिखा है कि वह ज्ञान जो ‘स्व' अर्थात् अपने आप का तथा 'अपूर्वार्थ' का यानि जिसे किसी अन्य प्रमाण से नहीं जाना गया है, का निश्चय करता है, उसे प्रमाण कहते हैं । निश्चयात्मक होना प्रमाण के लिये आवश्यक है। माणिक्य नंदी ने प्रमाण की एक और परिभाषा दी है—
- हिताहित प्राप्ति परिहार समर्थ हि प्रमाणततो ज्ञानमेवतत् । "
- अर्थात् ज्ञान जो हित प्राप्ति में सहायक होता है और अहित का परिहार करता है, प्रमाण कहलाता है ।
सबसे पहले तो ग्रन्थों के विश्लेषण करने की व्याख्यापद्धति विकसित की गयी। परासर पुराण में सूत्रग्रन्थों का पढ़ने के लिये क्रम से छः नियमों और उनके क्रम का निरूपण इस प्रकार से किया हैं-
- पदच्छेद पदार्थोक्ति विग्रहो वाक्ययोजना ।
- आक्षेपश्च समाधानं व्याख्यानं षडविध मतम् ॥
अर्थात् पदच्छेद, प्रतिपाद्य का अभिकथन, व्युत्पत्ति का प्रदर्शन, वाक्य की योजना, आक्षेप और समाधान रूपी छः विधियों का अनुप्रयोग करते हुए किसी शास्त्र के उस ग्रन्थ का व्याख्यान किया जाय जो सूत्रों की संहति में प्रस्तुत हुआ हो तो उस ग्रन्थ का निहितार्थ सम्यक् रूप से उद्घाटित हो जाता है व्याख्याकार सर्वप्रथम व्याख्येय प्रसंग के वाक्यों को पदों में बांटता है। इसी को पदच्छेद अथवा अन्वय कहते हैं। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में अन्यथा भी छह प्रकार से सूत्रों की व्याख्या करने की बात दुहराई गई है।
- आरम्भोऽथापि सम्बन्धः सूत्रार्थस्तद विशेषणम् ।
- चोदकं परिहारस्य व्याख्या सूत्रस्य षडविधा ॥
अर्थात् पूर्वापर सम्बन्धात्मक संगति (अवतरण) विषय के साथ प्रकरण का सम्बन्ध प्रतिपाद्य का अभिकथन उसके विशेषण के अभिप्राय का परिष्कार पूर्वपक्ष का उत्थापन और उसका परिहार करना सूत्र की व्याख्या में अपेक्षित होता है। इसी बात को अन्यत्र भी थोड़े शब्दान्तर से कहा गया है। वह यह कि व्याख्या के लिए सूत्रार्थ पदार्थ, हेतु क्रम और निरुक्ति तथा सम्यक् प्रस्तुति आवश्यक है।
- सूत्रार्थश्व पदार्थश्च हेतुश्च क्रमशस्तथा ।
- निरुक्तमय विन्यासो व्याख्या योगस्य षडविधा ॥
एक अन्य बहुश्रुत श्लोक में भी व्याख्या के षडविध तंत्रों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि व्याख्या के लिए भूमिका अर्थात् अवतरण के साथ व्युत्पत्ति का प्रदर्शन पूर्वक प्रतिपादय का कथन संदेह का उत्थापन एवं उसका निराकरण करते हुए सिद्धांत पक्ष की उपस्थापना विवक्षित है। यहाँ केवल वाक्य योजना की बात नहीं कही गई है लेकिन इसे तंत्रगत स्वयं ही गतार्थ माना जा सकता है
- उपोद्घातः प्रथमतः पदार्थः पदविग्रहः ।
- अविमर्शः प्रत्यवस्था व्याख्या तंत्रस्य षडविधा ॥
उपर्युक्त षडतंत्री व्याख्या पद्धति से मिलती-जुलती एक पंचसूत्री व्याख्या पद्धति भी है जो पूर्वमीमांसा व्याख्या पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है। इसके अनुसार किसी भी विषय पर विचार करते समय पक्ष-विपक्ष के बलाबल की चिन्ता करते हुए निर्णय तक पहुँचने की प्रक्रिया मीमांसाशास्त्र में अपनाई गई है। केवल विषय का उल्लेख मात्र निर्णय के लिए पर्याप्त नहीं है अपितु उस विषय में उहापोह के पश्चात् इदमित्थं का अवधारण किया जाता है। यहाँ पाँच प्रकार से उहापोह करने की प्रक्रिया निर्दिष्ट की गई है। पहले विवाद का विषय प्रस्तुत किया जाता है और फिर उस विषय में सम्भावित शंका उठाई जाती है। पूर्वपक्ष की युक्तियाँ प्रदर्शित की जाती हैं। पुनश्च उसके निराकरण हेतु बाधक प्रमाण दिखाकर उत्तरपक्ष अर्थात् सिद्धांत पक्ष के साधक प्रमाण दिखाये जाते हैं। इस तरह स्वाभिमत में बाधक प्रमाणों का अभाव दिखाकर साधक प्रमाणों की संगति पूर्वक सिद्धांत स्थिर होता है।
- विषयविशयश्वौव पूर्व पक्षस्तथोत्तरः ।
- संगतिश्चेति पंचांगं शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम् ॥
द्रष्टव्य है कि इस पंचसूत्री विचार पद्धति को मीमांसा शास्त्र में 'अधिकरण' पद से अभिहित किया गया है। अधिकरणाधिष्ठित व्याख्या पद्धति का अनुप्रयोग मुख्य रूप से वेदान्त और मीमांसा शास्त्र में ही देखने को मिलता है।[2]
प्रमेय
संपादित करेंभारतीय दर्शन में प्रमेय वह है जो प्रमा या यथार्थ ज्ञान का विषय हो ; वह जिसका बोध प्रमाण द्वारा करा सकें ; वह वस्तु या बात जिसका यथार्थ ज्ञान हो सके ।
ज्ञान का विषय बहुत सी वस्तुएँ हो सकती हैं पर न्याय दर्शन में गौतम ने उन्हीं वस्तुओं को प्रमेय के अन्तर्गत लिया है जिनके ज्ञान से मोक्ष या अपवर्ग की प्राप्ति होती है। ये बारह हैं - आत्मा, शरीर, इंद्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, सुख और अपवर्ग । यद्यपि वैशेषिक के "द्रव्य, गुण, कर्म सामान्य, विशेष और समवाय" - सब पदार्थ ज्ञान के विषय हैं तथापि न्याय में गौतम ने बारह वस्तुओं का ही प्रमेय के अन्तर्गत विचार किया है।
इन्हें भी देखें
संपादित करेंबाहरी कड़ियाँ
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ प्रमाणानि (भारतीय विद्वत्परिषत्)
- ↑ ग्रन्थविश्लेषण में प्रमाणों के अनुप्रयोग