बुंदेलखंड के शासक

बुन्देलखण्ड का इतिहास

बुन्देलखण्ड के इतिहास के अनुसार यहां का एक भाग पर त्रेतायुग में चेदि साम्राज्य के चन्देल क्षत्रियों का शाशनकाल था जो की बाद में ३०० ई.पू से अन्य राजाओं के अधीन रहे। ३०० ई.पू मौर्य साम्राज्य इसके पश्‍चात वकाटक तथा गुप्त साम्राज्य, चन्देल साम्राज्य, खंगार राजपूत शासनकाल बुंदेल और अंग्रेजों के शासनकाल का शाशनकाल रहा हैं। मुगल सम्राट अकबर के दौरान जो बचा हुआ चन्देलो का जेजाकभुक्ति राज्य युद्ध में मुगलों के पास गया और उसे बाद में बुंदेलो ने पुन: कब्जा किया वही राज्य दुबारा बसने के कारण बुंदेलखंड हो गया।

मौर्य शासनकाल संपादित करें

बुंदेलखंड के ज्ञात इतिहास में मौर्यकाल से पहले का ऐसा राजनीतिक इतिहास उपलब्ध नहीं है, जिसमें बुंदेलखंड के संबंध में जानकारी हो। वर्तमान खोजों तथा प्राचीन वास्तुकला, चित्रकला, मूर्तिकला, भित्तिचित्रों आदि के आधार पर कहा जा सकता है कि जनपद काल के बाद प्राचीन चेदि जनपद बाद में पुलिंद देश के साथ मिल गया था। सबसे प्राचीन साक्ष्य एरण की पुरातात्विक खोजों और उत्खननों से उपलब्ध हुए हैं। ये साक्ष्य ३०० ई.पू. के माने गए हैं। इस समय एरण का शासक धर्मपाल था, जिसके संबंध में मिले सिक्कों पर एरिकिण मुद्रित है। त्रिपुरी और उज्जयिनि के समान एरण भी एक गणतंत्र था। मत्स्य पुराण और विष्णु पुराण में मौर्य शासन के १३० वर्षों का साक्ष्य प्रस्तुत किया गया है।[क] मौर्य वंश के तीसरे राजा अशोक ने गौडवाना के अनेक स्थानों पर विहारों, मठों आदि का निर्माण कराया था। वर्तमान गुर्गी (गोलकी मठ) अशोक के समय का सबसे बड़ा विहार था। गौडवाना के दक्षिणी भाग पर अशोक का शासन था जो उसके उज्जयिनी तथा विदिशा मे रहने से प्रमाणित होता है। विष्णु पुराण तथा मत्स्य पुराण में वर्णन मिलता है कि परवर्ती मौर्यशासक दुर्बल थे और कई अनेक कारण थे जिनकी वजह से अपने राज्य की रक्षा करने मे समर्थ न रहे। फलत: इस प्रदेश पर शुंग वंश का कब्जा हुआ।[ख]

वृहद्थों को भास्कर पुण्यमित्र का राज्य कायम होना वाण के हर्षचरित से भी समर्थित है। शुंग वंश भार्गव च्वयन के वंशाधर शुनक के पुत्र शोनक से उद्भूल है। इन्होंने ३६ वर्षों तक इस क्षेत्र में राज्य किया। इसके बाद इस प्रदेश गर्दभिल्ला और नागों का अधिकार पर हुआ। जो गौडवाना के महान राजा थे शैव संप्रदाय से संबंध रखते थे भागवत पुराण और वायुपुराण में किलीकला क्षेत्र का वर्णन आया है। ये किलीकला क्षेत्र और राज्य विंध्‍य प्रदेश (नागौद) था। नागों द्वारा स्थापित शिवाल्यों के अवशेष भ्रमरा (नागौद) बैजनाथ (रीवा के पास) कुहरा (अजयगढ़) में अब भी मिलते हैं। नागों के प्रसिद्ध राजा छानाग, त्रयनाग, वहिनाग, चखनाग और भवनाग प्रमुख नाग शासक थे। भवनाग के उत्तराधिकारी वाकाटक माने गए हैं। पुराणकाल में गौडवाना का अपना एक महत्व था, मौर्य के समय में तथा उनके बाद भी यह प्रदेश अपनी गरिमा बनाए हुए था तथा इस क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण कार्य हुए।

वाकाटक और गुप्त शासनकाल संपादित करें

डॉ॰वी.पी.मिरांशी के अनुसार वाकाटक वंश का सर्वश्रेष्ठ राजा विंध्‍यशक्ति का पुत्र प्रवरसेन था।[तथ्य वांछित] इसने अपने साम्राज्‍य का विस्तार उत्तर में नर्मदा से आगे तक किया था। पुराणों में आए वर्णन के अनुसार उसने परिक नामक नगरी पर अधिकार किया था जिसे विदिशा राज के नागराज दैहित्र शिशुक ने अपने अधीन कर रखा था। पुरिका प्रवरसेन के राज्य की राजधानी भी रही है। वाकाटक राज्य की परंपरा तीन रूपों में पाई जाती है-

  • स्वतंत्र वाकाटक साम्राज्य
  • गुप्तकालीन वाकाटक साम्राज्‍य
  • गुप्तों के उपरान्त वाकाटक साम्राज्‍य

कुंतीदेवी अग्निहोत्री का विचार है कि सन ३४५ ई. से वाकाटक गुप्तों के प्रभाव में आये और पाँचवीं शताब्दी के मध्य तक उनके आश्रित रहे हैं।[तथ्य वांछित] कतिपय विद्वान विंध्‍यशक्ति के समय से सन् २५५ ई। तक वाकाटकों का काल मानते हैं। ये झाँसी के पास बागाट स्थान से उद्भूत है अत:गौडवाना से इनका विशेष संबंध रहा है।

प्रमुख वाकाटक शासक:

  • प्रवरसेन प्रथम सन २७५ ई. से ३३५ ई.
  • रुद्रसेन प्रथम ३३५ ई. से ३६० ई.
  • पृथ्वीसेन ३६० ई. से ३८५ ई.
  • रुद्रसेन द्वितीय ३९० ई. से ४१० ई.
  • प्रवरसेन द्वितीय ४१० ई. से ४४० ई.
  • नरेन्द्रसेन ४४० ई. से ४६० ई.
  • पृथ्वीसेन द्वितीय ४६० ई. से ४८० ई.
  • हरिसेन

इतिहासकारों के अनुसार हरिसेन ने पश्चिमी और पूर्वी समुद्र के बीच की सारी भूमि पर राज किया था। गुप्तवंश का उद्भव उत्तरी भारत में चतुर्थ शताब्दी में हुआ था। चीनी यात्री ह्वेनसांग जिस समय गौडवाना में आया था, उस समय भारतीय नेपोलियन समुद्रगुप्त का शासनकाल था। उसने वाकाटकों को अपने अधीन कर लिया था। कलचुरियों के उद्भव का समय भी इसी के आसपास माना गया है। समुद्रगुप्त की दिग्विजय और एरण पर उसका अधिकार शिलालेखों और ताम्रपटों के आधार पर सभी इतिहासकारों ने माना है, एरण की पुरातात्विक खोजों को डॉ॰ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय के प्रो॰ कृष्णदत्त वाजपेयी ने अपनी पुस्तिका सागर थ्रू एजेज में प्रस्तुत किया है।

एरण के दो नाम मिलते हैं, एरिकण और स्वभोनगर। स्वभोनगर से स्पष्ट है कि यह वैभव की नगरी रही है। हटा तहसील (वर्तमान दमोह जिला की तहसील) के सकौर ग्राम में २४ सोने के सिक्के मिले थे, जिनमें पुलिस्त वंशी राजा संग्राम साही राजाओं के नाम अंकित हैं। इससे स्पष्ट है गौडवाना एक वैभवशाली प्रदेश था। स्‍कंदगुप्त के उपरांत बुधगुप्त के अधीन था। इसकी देखरेख मांडलीक सुश्मिचंद्र करता था। सुश्मिचंद्र ने मैत्रायणीय शाखा के मातृविष्णु और धान्य विष्णु ब्राह्मणों को एरण का शासक बनाया था जिसकी पुष्टि एरण के स्तंभ से होती है। सुश्मिचंद्र गुप्त का शासन यमुना और नर्मदा के बीच के भाग पर माना गया है।

गुप्तों की अधीनता स्वीकार करने वालों में उच्छकल्प और परिव्राजकों का नाम लिया जाता है। पाँचवी शताब्दी के आसपास उच्छकल्पों की राजसत्ता की स्थापना हुई थी। ओधदेव इस वंश का प्रतीक था। इस वंश के चौथे शासक व्याघ्रदेव के वाकाटकों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। इसके शासकों में जयनाथ और शर्वनाथ के शासनकाल के अनेक दानपत्र उपलब्ध हुए हैं जिनसे पता चलता है कि उच्छकल्पों की राजधानी उच्छकल्प (वर्तमान उचेहरा) में थी। इनके शासन में आने वाले भूभाग के महाकांतर प्रदेश कहा जाता है। इसी के पास परिव्राजकों की राजधानी थी। विक्रम की चौथी सदी में परिव्राजकों ने अपने राज्य की स्थापना की थी। इनका राज्य वम्र्मराज्य भी कहा जाता है। वम्र्मराज्य पर बाद में नागौद के परिहारों ने अपना शासन जमा लिया था।

इतिहासकारों ने पाँचवी शताब्दी के अंत तक पर हूण शासकों का शासन करना स्वीकार किया है। हूणों का प्रमुख तोरमाण था, जिसने गुप्तों को पराजित करके पूर्वी मालवा तक अपना साम्राज्य बढ़ाया था। एरण के वाराहमूर्ति शिलालेख में तोरमण के ऐश्वर्य की चर्चा है। इतिहासकारों के अनुसार भानुगुप्त और तोरमाण हर्षवर्धन के पूर्व का समय अंधकारमय है। चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण में शासन गौडवंशी राजा के द्वारा चलाया जाना बताया गया है बाद सूरजपाल , तेजकर्ण, वज्रदामा, कीर्तिराज आदि शासक हुए पर इन्होनें कोई उल्लेखनीय योगदान नहीं दिया।

चन्देलों का शासन काल संपादित करें

आज का बुंदेलखंड चन्देल साम्राज्य का केंद्र था। चन्देल वंश मूल वशं हैहय वंश है जो चन्द्रवंशी क्षत्रियों की प्रमुख शाखा है। इन्हें अपने पुरात्वक शैव तथा वैष्णव तत्व के कारण इन्हें कई चमत्कार वरदान प्राप्त। जेजाकभुक्ति के चन्देल शासकों में प्रमुख इस प्रकार हैं -

  • नन्नुक (चन्द्रवर्मन द्वितीय) सन् ८३१ ई.
  • वाक्पतिवर्मन सन् ८४५ ई.
  • यशोवर्मन ९३० ई.
  • धंगवर्मन सन् ९५० ई.
  • गंदवर्मन सन् १००० ई.
  • विद्याधरवर्मन १०२५ ई.
  • विजयपालवर्मन १०४० ई.
  • देववर्मन १०५५ ई.
  • कीर्तिवर्मन सन् १०६० ई.
  • सल्लक्षणवर्मन ११०० ई.
  • जयवर्मन १११० ई.
  • पृथ्वीवर्मन ११२० ई.
  • मदनवर्मन ११२९ ई.
  • परमर्दिवर्मन ११६५ ई.
  • त्रैलोक्यवर्मन १२०३ ई.
  • वीरवर्मन १२४५ ई.
  • भोजवर्मन १२८२ ई.
  • हम्मीरवर्मन
  • वीरवर्मन द्वितीय १३०० ई.
  • भल्लालदेववर्मन द्वितीय
  • परमर्दिवर्मन द्वितीय
  • कीर्तिवर्मन द्वितीय १५२० ई.
  • रामचन्द्रवर्मन १५६९ ई.

चन्देल काल में बुंदेलखंड में मूर्तिकला, वास्तुकला तथा अन्य कलाओं का विशेष विकास हुआ। सन् ११८२-८३ में चौहानों ने चन्देलों की एक टुकड़ी को सिरसागढ़ में पराजित किया था परंतु महोबा में परमर्दिवर्मन से पराजित हुए। १२०२ में परमर्रिवर्मन की वीर्य पूर्वक लड़ते हुए तुर्की के विरूद्ध युद्ध के समय मृत्यु हो गई तथा चन्देल साम्राज्य के सामंत स्वतंत्र हो गए, हालांकि परमर्दिवर्मन के 11 वर्षीय पुत्र त्रैलोक्यवर्मन ने १२०६ की काकददहा में तुर्की तथा अन्य युद्ध में बंगाल, त्रिकलिंग, दहला, कन्नौज इत्यादि पुनः जीत लिए थे। खिलजी वंश का शासन संवत् १३७७ तक माना गया है। अलाउद्दीन खिलजी ने हम्मीरवर्मन के उप्पर आक्रमण किया था परंतु बेतवा-यमुना के संगम पर पराजित हुआ। अलाउद्दीन खिलजी को उसके मंत्री मलिक काफूर ने मारा, मुबारक के बनने पर खुसरो ने उसे समाप्त किया। लेकिन विंध्य प्रदेश चन्देल शासकों के हाथ में ही रहे। इसी समय नरसिंहराय ने ग्वालियर पर अपना अधिकार किया। बाद में ये तोमरों के अधीन हो गया। मानसी तोमर ग्वालियर के प्रसिद्ध राजा माने गए हैं। बुंदेलखंड के अधिकांश राजाओं ने अपनी स्वतंत्र सत्ता बनानी प्रारंभ कर दी थी फिर वे किसी न किसी रूप में दिल्ली के तख्त से जुड़े रहते थे। बाबर के बाद हुमायूँ, अकबर, जहांगीर और शाहजहाँ के शासन स्मरणीय है। चन्देलों ने अंत तक इस्लाम शाह और सुरियों से युद्ध किया और वीरगति को प्राप्त ही गए सब।

बुन्देलों का शासनकाल संपादित करें

बुन्देल सूर्यवंशी गहरवारो की शाखा है। बुंदेल शुरवात में प्रमुखता चन्देल साम्राज्य के सामंत रहे शुरुवात से 1546 तक फिर जब चन्देलों का पतन हुआ तो बचा हुआ राज्य जो इनके पास आया जेजाकभुक्ति का वो इनके नाम पे बुंदेलखंड हो गया। इनमे पहला सामंत रहा था वीरभद्र। वीरभद्र के पाँच विवाह और पाँच पुत्र प्रसिद्ध हैं- इनमें रणधीर द्वितीय रानी से, कर्णपाल तृतीय रानी से, हीराशी, हंसराज और कल्याणसिंह पँचम रानी से थे। वीरभद्र के बाद कर्णपाल (१०८७ ई. से १११२ ई.) गद्दी पर बैठा। उसकी चार पत्नियाँ थीं। प्रथम के कन्नारशाह, उदयशाह और जामशाह पैदा हुए। द्वितीय पत्नी से शौनक देव तथा नन्नुकदेव तथा चतुर्थ पत्नी से वीरसिंहदेव का जन्म हुआ। कन्नारशाह (१११२ ई.-११३० ई.), शौनकदेव (११३० ई.-११५२ ई.), नन्नुकदेव (११५२ ई.-११६९ ई.) महोनी व वीरसिंह के पुत्र मोहनपति (११६९ ई.-११९७ ई.), अभयभूपति (११६९ ई.-१२१५ ई.) गद्दी पर आए। अर्जुनपाल अभयभूपति का पुत्र था। ये १२१५ ई. से १२३१ ई. तक गद्दी पर रहा। उसने तीन विवाह किए। दूसरी रानी से सोहनपाल का जन्म हुआ। यह ओरछा बसाने में विशेष सहायक माना जाता है।

अंग्रेजी राज्य में विलयन संपादित करें

बुंदेलखडं की सीमाएं छत्रसाल के समय तक अत्यंत व्यापक थीं, इस प्रदेश में उत्तर प्रदेश के झाँसी, हमीरपुर, जालौन, बाँदा, मध्यप्रदेश के सागर, जबलपुर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, मंडला तथा मालवा संघ के शिवपुरी, कटेरा, पिछोर, कोलारस, भिंड, लहार और मांडेर के जिले और परगने शामिल थे। इस पूर भूभाग का क्षेत्रफल लगभग ३००० वर्गमील था। अंग्रेजी राज्य में आने से पूर्व बुंदेलखंड में अनेक जागीरें और छोटे-छोटे राज्य थे। बुंदेलखंड कमिश्नरी का निर्माण सन् १८२० में हुआ। सन् १८३५ में जालौन, हमीरपुर, बाँदा के जिलों को उत्तर प्रदेश और सागर जिला को मध्यप्रदेश में मिला दिया गया, जिसकी देख-रेख आगरा से होती थी।

सन् १८३९ में सागर और दमोह जिला को मिलाकर एक कमिश्नरी बना दी गई, जिसकी देखरेख झाँसी से होती थी। कुछ दिनों बाद कमिश्नरी का कार्यालय झांसी से नौगांव आ गया। सन् १८४२ में सागर, दमोह जिलों में अंग्रेजों के खिलाफ बहुत बड़ा आंदोलन हुआ परंतु फूट डालने की नीति के द्वारा शांति स्थापित कर दी गई। इसके बाद बुंदेलखंड का इतिहास अंग्रेजी साम्राज्य की नीतियों की ही अभिव्यक्ति करता है। अनेक शहीदों ने समय समय पर स्वतंत्रता के आंदोलन छेड़े परंतु महात्‍मा गाँधी जैसे प्रमुख नेताओं के आने तक कुछ ठोस उपलब्धि प्राप्‍त नहीं हो सकी।

सन्दर्भ संपादित करें

टीका टिप्पणी संपादित करें

   क.    ^ उद्धरिष्यति कौटिल्य सभा द्वादशीम, सुतान्।
मुक्त्वा महीं वर्ष शलो मौर्यान गमिष्यति।।
इत्येते दंश मौर्यास्तु ये मोक्ष्यनिंत वसुन्धराम्।
सप्त त्रींशच्छतं पूर्ण तेभ्य: शुभ्ङाग गमिष्यति।

   ख.    ^ तेषामन्ते पृथिवीं दस शुंगमोक्ष्यन्ति।
पुण्यमित्रस्सेना पतिस्स्वामिनं हत्वा राज्यं करिष्यति।।विष्णुपुराण

तुभ्य: शुंगमिश्यति।
पुष्यमिन्नस्तु सेनानी रुद्रधृत्य स वृहदथाल
कारयिष्यीत वै राज्यं षट् त्रिशंति समानृप:।।मत्स्य पुराण