भारत कला भवन, वाराणसी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रांगण में स्थित एक अनूठा चित्रशाला (संग्रहालय) है। यह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से सन् १९५० से सम्बद्ध है[1] और एशिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय संग्रहालय है।

भारत कला भवन
भारत कला भवन में प्रदर्शित यक्षिणी जो हाथी पर बनायी गयी है।

शैशवास्था से ही भारत कला भवन दुर्लभ, सुन्दर, और कलात्मक वस्तुओं का संग्रहकर्ता रहा है। इस संग्रहालय में लगभग १ लाख से भी अधिक कलाकृतियाँ संग्रहित हैं जिसमें प्रस्तर मूर्तियाँ, सिक्के, चित्र, वसन, मृण्मूर्तियाँ, मनके, शाही फरमान, आभूषण, हाथी दाँत की कृतियाँ, धातु की वस्तुएँ, नक्कासी युक्त काष्ठ, मुद्राएँ, प्रागैतिहासिक उपकरण, मृदभाण्ड, अस्त्र-शस्त्र, साहित्यिक सामाग्री इत्यादि हैं। इन्हें निर्धारित १३ वीथिकाओं में प्रदर्शित किया गया है। प्रसिद्ध विद्वान डॉ० ओ.पी. केजरीवाल के अनुदान से महान संग्राहक फ्रेड पिन के संग्रहों की एक वीथिका भी यहाँ है। यह संग्रहालय अपने दुर्लभ, अद्वितीय तथा उत्कृष्ट चित्रों के संग्रह के लिए भी विश्वविख्यात है। यहाँ ताइपत्र, कागज, कपड़ा, काष्ठ, चर्म, हाथी दांत, सीसा तथा अभ्रक चित्रित लगभग १२ हजार चित्रों का संग्रह है।

यह संग्रहालय एशिया के विश्वविद्यालयीय संग्रहालयों में उत्तम कोटि का है। छात्र, शोधार्थी, शिक्षक एवं अध्ययनार्थी अपने उच्च शिक्षा एवं अनुसन्धान के लिए पुस्तकालय में कला तथा पुरातात्विक संदर्भ की जानकारी एवं परामर्श के लिए प्रतिदिन आते हैं। इसके अतिरिक्त भारत कला भवन में कला एवं पुरातनता के उचित देखरेख और जीर्णोद्धार के लिए एक संरक्षण प्रयोगशाला है। मात्र इसी संग्रहालय में छायाचित्र अनुभाग है जो अध्ययनार्थियों के उनके वांछित पुरातनता के जरूरी सन्दर्भ एवं आगामी शोध के लिए छायाचित्र एवं डिजीटल छायाचित्र प्रदान करती है। इसके साथ ही संग्रहालय में पारम्परिक मुगल एवं आरेखी कला के दो कलाकार हैं जो आगन्तुकों एवं जनता में इन कला वस्तुओं की जागरूकता बढ़ाने में संलग्न हैं।[2]

यहाँ की चित्र वीथिका (गैलरी) में 12वीं से 20वीं शती तक के भारतीय लघु चित्र प्रदर्शित हैं। इनके चित्रण में ताड़ पत्र, कागज, कपड़ा, काठ, हाथी दांत आदि का उपयोग किया गया है। प्रदर्शित चित्र भारतीय सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं को प्रकाशित करते हैं। वीथिका में प्रदर्शित चित्रों का क्रम गोविन्द पाल के शासन के चतुर्थ वर्ष (12वीं शती) में चित्रित बौद्ध ग्रंथ 'प्रज्ञापारमिता' से प्रारंभ होता है। लघुचित्रों की विकास गाथा पूर्वी भारत में चित्रित पोथी चित्रों से आरंभ होती है, जिनमें अजंता-भित्ति चित्रों की उत्कृष्ट परम्परा तथा मध्यकालीन कला विशिष्टताओं का अद्भुत समन्वय है।

भारतीय चित्रकला के विषय में यदि कोई भी विद्वान, शोधकर्ता या कलाविद गहन अध्ययन करना चाहे तो यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि उसे वाराणसी में स्थित 'भारत कला भवन' के चित्र संग्रह का अवलोकन करना ही होगा। भारत में प्रचलित लगभग समस्त शैलियों के चित्रों का विशाल संग्रह इस संग्रहालय में है। यहाँ का चित्र संग्रह, विशेषकर लघुचित्रों का विश्व में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है।

वर्तमान समय में पुस्तकालय में लगभग २४५४१ पुस्तकें तथा ६२३० पत्रिकाएँ संकलित हैं।

१ जनवरी सन् १९२० को काशी नागरीप्रचारिणी सभा के एक अंग के रूप में ' भारतीय कला परिषद् ' नाम से इस संग्रहालय की स्थापना हुई। रवीन्द्र नाथ ठाकुर इसके प्रथम सभापति थे। वस्तुतः इस संग्रहालय का जन्म एवं विकास विख्यात कला मर्मज्ञ तथा कलाविद पद्मविभूषण राय कृष्णदास की कल्पना का मूर्त रूप है जो इसके आजीवन अवैतनिक निदेशक रहे। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन इसके लिए संग्रह हेतु समर्पित कर दिया। भिन्न कला कृतियों के संयोजन में तो उनकी अभिरुचि थी ही, किंतु भारतीय चित्रों के संकलन के प्रति उनकी आत्मीय आस्था थी।

वर्ष १९२९ में कला परिषद ने अपना ऐतिहासिक संग्रह नागरी प्रचारिणी सभा को सौंप दिया। उसी वर्ष कला परिषद का नया नाम ‘भारत कला भवन’ रखा गया था। नागरी प्रचारिणी सभा ने इस संग्रहालय हेतु अपनी इमारत की दूसरी मंजिल दे दी थी। सभा ने इसी समय एक विज्ञप्ति जारी कर कला, साहित्य, इतिहास, पुरातत्व आदि विषयों में रुचि रखने वाले लोगों से भारत कला भवन को ऐतिहासिक वस्तुएँ प्रदान करने का आग्रह किया। विज्ञप्ति में कहा गया कि "सभा प्रार्थना करती है कि उक्त संग्रहालय के लिए कलापूर्ण या ऐतिहासिक वस्तुएँ देकर सभा की सहायता करें।" यह पूरी विज्ञप्ति महात्मा गांधी ने ‘यंग इंडिया’ के ३ अक्तूबर १९२९ के अंक में प्रकाशित की। साथ में, उन्होंने यह टिप्पणी भी लिखी : "मैंने संग्रहालय में रखी हुई वस्तुएँ भी देखी हैं और वे दर्शनीय हैं। आशा है सभा की अपील के उत्तर में कलाप्रेमी जनता की ओर से सभा को समुचित एवं उदार आश्रय मिलेगा।"[3]

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्थित वर्तमान भवन का शिलान्यास १७ जुलाई सन् १९५० को हुआ जिसका उद्घाटन जवाहरलाल नेहरू ने १३ जनवरी सन् १९६२ ई को किया। गोदौलिया के एक छोटे-से कमरे से होकर, सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल, क्वींस कालेज, नागरी प्रचारिणी सभा से होता हुआ यह संग्रहालय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर स्थित, कृषि विभाग से गुजरकर मालवीय भवन होते हुए आज जैसा भव्य रूप पा सका।[4]

इस संग्रहालय में विभिन्न शैलियों के लगभग १२ हजार चित्र संकलित हैं। इन सभी चित्रों की अपनी पृथक तथा रोमांचक कहानियाँ हैं। यहाँ केवल उन्हीं चित्रों की चर्चा की जा रही है जो चित्र विश्व में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं।

मुगल चित्रकला

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भारतीय इतिहास में मुगल चित्रकला एक सुखद संयोग के रूप में दरबारी सभ्यता और भोग-विलास का उल्लास अपने में संचित किए है। मुगल चित्रकला का जन्म अनेक विदेशों और स्वदेशी चित्रकारों के परिश्रम और शिल्पसाधना का परिणाम है। बाबर भारत आते समय जिन पुस्तकों को अपने साथ लाया, उनमें शाहनामा की सचित्र प्रति भी थी। यह प्रति २०० वर्ष तक मुगल कुतुबखाने में रही जो बाद में अंग्रेजों के हाथ चली गई, संयोग से इस शाहनामा के छह महत्वपूर्ण चित्रों का संकलन इस संग्रहालय में सुरक्षित है।

काबुल पर अधिकार (१५५० ई.) करने के पश्चात, हुमायूँ दो विदेशी चित्रकार ख्वाजा अब्दुस्समद तथा मीर सैयद अली को अपने संरक्षण में ईरान से काबुल लाया। इन चित्रकारों ने हुमायूँ की आज्ञा से दास्तान-ए-मीर हम्जा के चित्र बनाना प्रारंभ कर दिये जो पूर्णतया फारसी शैली के थे। इस चित्रावली के लगभग १४०० चित्र बाद में अकबर के समय में बनाए गए। चित्रों के चेहरे की बनावट, प्रकृति तथा पहनावा अधिकांश ईरानी-फारसी ढंग का है। हम्जनामा के १४०० चित्रों में से आज प्रायः १५०-१६० चित्र विश्व में प्राप्त हैं। भारतवर्ष में मात्र पाँच चित्र अवशिष्ट हैं, जिनमें से दो 'भारत कला भवन' संग्रह में हैं। बड़े आकार के (६८×५२से.मी.) ये चित्र सूती कपडे पर अस्तर लगाकर बनाए गए हैं।

बसोहली शैली

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पहाडी चित्रों के अंतर्गत जयदेव कृत गीतगोविन्द काव्य पर भी सुंदर चित्र बनाए गए जो यहाँ संग्रहीत हैं। इसमें बसोहली शैली की समस्त विशिष्टताएँ कमल-जैसी लुभावनी आँखें, (प्राथमिक रंगों का प्रयोग) समाहित हैं। कवि भानुदत्त कृत 'रस मंजरी' बसोहली के राजा कृपाल पाल का प्रिय काव्य ग्रंथ था। जिसका सुंदर चित्रण किया गया। 'रस मंजरी' में चित्रित वाग्विदग्धा नायिका चित्र भावाभिव्यंजना, रंग समायोजन एवं उत्कृष्ट कला प्रदर्शन हेतु विश्व प्रसिद्ध है। इस चित्रमाला का (कोलोफन) परिचय पृष्ठ भी कला भवन में विद्यमान है, जो इसके चित्रकार, दाता तथा काल की जानकारी प्रदान करता है। परिवर्ती चित्रकारों ने बारहमासा चित्रावलियों के निर्माण में विशेष रुचि प्रदर्शित की। इन विषयों के अतिरिक्त बसोहली शैली में 'रागमाला' पर आधारित चित्र भी प्राप्त होते हैं, जिनके उदाहरण भी 'भारत कला भवन' में सुरक्षित हैं।

बंगाल शैली

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आधुनिक बंगाल शैली के उन्नायक अवनीन्द्र नाथ टैगोर व उनके शिष्य नंदलाल बोस, ए.के हल्दर, एस.एन. डे, ओ.सी. गांगुली, क्षितींद्र नाथ मजूमदार, यामिनी राय तथा गगनेंद्र नाथ टैगोर के चित्रों का संग्रह इस संग्रहालय की अमूल्य निधि है। एस.एन.डे की मेघदूत चित्रावली, ए.एन. टैगोर की अभिसारिका तथा उमर खैयाम, नंदलाल बोस की शिव-पार्वती, प्याऊ, हजरत दराब खाँ एवं चित्रित पोस्टकार्ड 'बंगाल चित्र शैली' की श्रेष्ठ कृतियाँ हैं। हेब्बार, अकबर मदमसी, बेंद्रे, सुल्तान अली, दिनकर कौशिक, एम.एफ, हुसैन, जे.एम. अहिवासी, के.एस. कुलकर्णी, वासुदेव स्मार्त आदि आधुनिक चित्रकारों के चित्र भी इस संग्रहालय की शोभा है।

भारतीय चित्रों के अतिरिक्त 'भारत कला भवन' में नेपाल और तिब्बत में चित्रित पटरा, पोथी चित्र और चित्रित थंकां का भी संग्रह है, जिसमें जय प्रकाश मल्ल कालीन सन १७६५ ई. तिथि युक्त चित्रित तांत्रिक पोथी एवं प्रायः १३-१४वीं ई. शती का रत्नसंभव थंकां उल्लेखनीय है।

विविध माध्यमों- कागज, कपडा, काष्ठ, शीशा, हाथी दाँत, ताड पत्र, अभ्रक तथा चमडे पर चित्रित उक्त सभी शैलियों के चित्र इस संग्रहालय की धरोहर हैं जो आरक्षित संग्रह के अतिरिक्त छवि, निकोलस, रोरिख, एलिस बोनर तथा बनारस वीथिकाओं में प्रदर्शित है।

  1. भारत कला भवन
  2. भारत कला भवन
  3. "महात्मा गांधी और काशी नागरी प्रचारिणी सभा". मूल से 1 मार्च 2022 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 1 मार्च 2022.
  4. भारत के अतीत से वर्तमान तक की थाती है 'भारत कला भवन'

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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