रामानन्दी सम्प्रदाय
रामानंदी सम्प्रदाय, बैरागियों के चार सम्प्रदायों में अत्यन्त प्राचीन सम्प्रदाय है। इस सम्प्रदाय को बैरागी सम्प्रदाय, रामावत सम्प्रदाय और श्री सम्प्रदाय भी कहते हैं। इस सम्प्रदाय का सिद्धान्त विशिष्टाद्वैत कहलाता है। काशी में स्थित पंचगंगा घाट पर रामानंदी सम्प्रदाय का प्राचीन मठ बताया जाता है। अयोध्या में जो नया राम मन्दिर बन रहा है, उसमें रामानंदी संप्रदाय की पद्धतियों से पूजा-पाठ होगा।[1]
स्थापक | |
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जगद्गुरु स्वामी रामानंदाचार्य | |
महत्वपूर्ण आबादी वाले क्षेत्र | |
भारत व नेपाल | |
भाषाएँ | |
संस्कृत, हिन्दी व अवधी |
इतिहास
संपादित करेंतीर्थ यात्रा करने के बाद रामानन्द जब घर आए और गुरुमठ पहुँचे तो उनके गुरुभाइयों ने उनके साथ भोजन करने में आपत्ति की। उनका अनुमान था कि रामानन्द ने तीर्थाटन में अवश्य ही खानपान संबंधी छुआछूत का कोई विचार नहीं किया होगा। रामानन्द जी ने अपने शिष्यों का यह आग्रह देकर एक नया संप्रदाय चलाने की सलाह दे दी। यहीं से रामानन्द संप्रदाय का जन्म हुआ।
कई दृष्टियों से रामानंदी संप्रदाय एवं रामानुज संप्रदाय में भेद है किंतु दार्शनिक सिद्धांत से दोनों ही संप्रदाय विशिष्टाद्वैत मत के पोषक हैं। दोनों ही ब्रह्म को चिदचिद्विशिष्ट मानते हैं और दोनों ही के मत के पोषक हैं। और दोनों ही के मत से मोक्ष का उपाय परमोपास्य की 'प्रपत्ति' है। रामानंद संप्रदाय में निम्नलिखित बातें प्रधान हैं -
- १. द्विभुज श्रीराम परमोपास्य हैं।
- २. ओम् रामाय नमः सांप्रदायिक मंत्र है।
- ३. इस संप्रदाय का नाम श्री संप्रदाय या रामानंद संप्रदाय या 'वैरागी संप्रदाय है।
- ४. इस संप्रदाय में आचार पर अधिक बल नहीं दिया जाता। कर्मकांड का महत्व यहाँ बहुत कम है।
- ५. इस संप्रदाय में शुक्लश्री, बिंदुश्री, रक्तश्री, लस्करी आदि अनेक प्रकार के तिलक प्रचलित हैं।
रामानंद ने उदार भक्ति का मार्ग प्रदर्शित किया। उनके शिष्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य,शुद्र और स्त्रियाँ भी थीं। भक्ति का द्वार सभी के लिए मुक्त था। उन्होंने वैरागी संप्रदाय की स्थापना इसी कारण की। उनके उपदेशों के फलस्वरूप दो विचारधारा जो परिवर्तन के विरुद्ध थी। दूसरी नवीन विचारधारा जो परिवर्तन करके हिंदू, मुसलमान सभी को सम्मिलित करने को उद्यत थी। प्रथम विचारधारा के महानतम व्यक्ति संत कबीर थे और दूसरी विचारधारा के प्रमुख व्यक्ति संत तुलसीदास थे।
इस जाति के लोग गुजरात, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में वैष्णव ब्राह्मण के रूप में जाने जाते हैं। 15 वीं शताब्दी की शुरुआत में, इस संप्रदाय ने राम के पुत्रों, कुश और लव के वंशज घोषित किए। ये ब्राह्मण, उच्च कुल के ब्राह्मणों की श्रेणी में आते हैं। वे योद्धा वर्ग के ब्राह्मणों से संबंधित हैं। वे राजस्थान के कुछ हिस्सों में मूल रूप से जमींदार और शासक थे और धार्मिक गतिविधियाँ भी करते थे। उन्हें अपनी बहादुरी के कारण बन्ना भी कहा जाता था। ये अपनी सत्यवादिता के लिए जाने जाते है ।
उन्नीसवीं शताब्दी तक, उत्तरी भारत के कई व्यापारिक मार्गों पर योद्धा रामावतों के समूहों का पहरा था, जो अपनी ताकत और निडरता के कारण प्रसिद्ध थे। अंग्रेजों ने रामावत के इन उग्रवादी समूहों को निरस्त्र करने के लिए कदम उठाए, लेकिन आज भी संप्रदाय अभी भी कायम हैं। उनकी वीर परंपरा आज भी कायम हे वे सनातन धर्म की परंपराओं के उद्धारकर्ता व रक्षक कहलाते थे।
रामानन्द सम्प्रदाय के दार्शनिक सिद्धान्त
संपादित करेंरामानन्द सम्प्रदाय को जो श्री संप्रदाय कहा जाता है उसमें 'श्री' शब्द का अर्थ लक्ष्मी के स्थान पर 'सीता' किया जाता है। इस संप्रदाय का दार्शनिक मत विशिष्टाद्वैत ही माना जाता है, जैसा ऊपर उल्लिखित हो चुका है।
विशिष्टाद्वैत शब्द का अर्थ इस प्रकार किया गया है - विशिष्टं चा विशिष्टं च विशिष्टे, विशिष्टयोरद्वैते विशिष्टाद्वैतम् अर्थात् सूक्ष्म चिदचित् विशिष्ट अथवा कारण ब्रह्म और स्थूल चिदचिद् विशिष्ट अथवा कार्य ब्रह्म में अभिन्नता स्थापित करना ही विशिष्टाद्वैत का उद्देश्य है। रामानंद संप्रदाय में राम को ही परब्रह्म कहा गया है और 'सीताराम' आराध्य माने गए हैं।
श्रीरामानन्दसिद्धान्तसारः
रामानन्दमतं श्रौतं विशिष्टाद्वैतनामकम्।
अद्वैतं न मतं श्रौतं श्रौतयौक्तिकबाधतः ।।3
विशिष्टब्रह्मणोरैक्यं कार्यकरणसंज्ञयोः।
मतं च वैदिकं तद्धि विशिष्ट्याद्वैतसंज्ञकम्।।4.
कल्याणगुणधाम दिव्यदेहो हि राघवः।
चिदचिद्देहवैशिष्ट्याद् विशिष्टं ब्रह्म कथ्यते ।।6
स एवं प्रलये रामः कारणं ब्रह्म कच्थते।
स जगद्रूपतां प्राप्तः कार्यब्रह्मेत्युच्यते।। 7
सच्चिदानन्दरूपो ऽसौ रामो दोषविवर्जितः।
अनन्तास्तस्य रामस्य स्वदेहगुणाः स्मृताः।। 8
अद्भुता च परा शक्तिर्गुणा ज्ञानबलादयः।
श्रीरामस्य श्रुता वेदे स्वाभाविका न मायिकाः।। 9
श्रीरामो भगवान् स्वामी समाभ्यधिकवर्जितः।
सर्वज्ञो वेदवेद्योऽथ सर्वेषां हि नियामकः।। 10
जगत्कर्ता विभू रामः सर्वेषामीश्वरस्तथा।
संहारकश्च सर्वस्य विश्वस्य परिपालकः।। 11
सर्वाराध्यश्च रामो हि सर्वकर्मफलप्रदः।
सर्वस्य जगतोमूलं विध्यादेश्व विधायकः।। 12
स्वाधीनः परमो भक्त्या भक्ताधीनश्च राघवः। 13
रामः स्वजनदोषायां न च स्मर्ता कदापि हि।
सन्तोषं परमं याति भक्तसत्कर्मलेशतः ।। 14
स्वयं चाधारशून्योऽपि सर्वाधारः प्रकीर्तितः।
सर्वं हि स्वेच्छया रामो विदधाति दधाति च।। 15
प्रलयान्ते यदा रामो जगत् सष्टुं समीहते।
दधाते नाम रूपं च तदा चिदचिती खलु ।। 17
तदानीं च सिसृक्षुश्रीजानकीनाथवाञ्छया।
जीवप्रकृतिवाच्यौ तद्देहौ विकारमाप्नुतः ।। 18
नित्यं जीवस्वरूपं हि निर्विकारं मतं बुधैः। 20
ज्ञातारो ज्ञानरूपाश्च जीवाः सर्वेऽजडा मताः ।
सर्वे चाणुप्रमाणास्तेऽमर्यादा विभवो न हि।। 21
उत्क्रान्तिश्च गतिश्वेति जीवस्यात्रगतिस्तथा।
श्रुताः श्रुतौ ततो जीवस्त्वपुरेव विभुर्न हि।। 22
दीपज्योतिरिव ज्ञानं जीवस्य व्यापकं मतम्।
हृत्स्थो जीवोऽखिलं वेत्ति ततो देहसुखादिकम्।। 28
नित्याः सुखस्वरूपाश्चेश्वरस्यांशाश्च चेतनाः।
केचित्कर्मवशाद् रङ्का भूमिपालास्तथाऽपरे।। 30
जीवाः सर्वे नियम्या हि नियन्ता जानकीश्वरः।
रामभक्तिं विना जीवैर्विश्रामो न हि लभ्यते।। 32
भक्तिश्च ब्रह्मणः सर्वस्वामिनः शार्ङ्गधारिणः।
रामस्य तैलधारेवानवच्छिन्ना स्मृतिः स्मृता ।। 33
भक्तिर्भवाम्बुधेः सेतुः कर्मानाङ्गिनी मता।
तस्याश्व साधनं बोध्यं विवेकादिकसप्तकम्।। 34
भिन्ना एव न वाभिन्ना जीवाः सर्वशरिरगाः।
ब्रह्मदेहो मतो जीवो न च ब्रह्म कदापि सः।। 35
यदि हि सर्वजीवानामैक्यमेव भवेत्तदा।
सुखी चैकोऽपरो दुःखी चेति भेदः कथं भवेत्।। 36
बद्धमुक्तप्रभेदेन जीवा द्विधा मता बुधैः।
खिन्ना प्रारब्धयोगेन बद्धाः संसारिणो मताः।। 49
भजेत् सद्गुरुं चाथ राघवं करुणानिधिम्। 51
श्रृणुयात्कीर्तयेन्नित्यं जानकीजानकीश्वरौ। 52
भक्तिश्चाथ प्रपत्तिश्च ज्ञानावस्थे हि मुक्तिदे। 104
प्रपत्तिर्न्यासविद्या सा रामायात्मसमर्पणम्।
आनुकूल्यस्य सङ्कल्पः प्रातिकूल्यस्य वर्जनम् ।। 105
आर्त्रानां तु मतो न्यासः प्रारब्धस्यापि नाशकः। 108
स्थापितो भाति सीतेशः सीतया च दयार्णवः।
अमोघदर्शनश्वाथामोघा ऽर्चनमतिस्तवः।। 133
अर्चादिहेऽर्चितो लोकैर्दृष्टः स्तुतो नतोऽथवा ।
दत्ते रामश्च तेभ्यो हि पुरुषार्थचतुष्टयम्।। 134
राममभ्यर्च्य दृष्ट्वा च नत्वा स्तुत्वाऽयवा जनः।
भवाम्बुधिं स्वयं तीत्वा स्वकुलं तारयत्यपि।। 135
परब्रह्म राम
संपादित करेंस्वामी जी का परब्रह्म राम विश्व की उत्पत्ति, रक्षा और इसका लय करता है। उसके प्रकाश से सूर्य और चंद्रमा संसार को प्रकाशित करते हैं। जो वायु को चलायमान करता है, जो पृथ्वी को स्थिर रखता है, वह ज्ञानस्वरूप, साक्षी, अनेक शुभ गुणों से युक्त, अविनाशी एवं विश्वभर्ता ईश्वर ही परब्रह्म है। यह परब्रह्म नित्य है; ब्रह्मादि का विधायक, वेदों का उपदेष्टा, स्वयं सर्वज्ञ है। सदयोगियों की रखा करता है, चेतन को भी चेतनता प्रदान करता है, स्वतंत्र है। इस परब्रह्म पद से श्री रामचंद्र का ही बोध होता है। रामानंद उसी राम के सस्मित मुखकमल का स्मरण करते हैं जो जानकी के कटाक्षों से अवलोकित, भक्तों के मनोवांछित धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को देने के लिए कल्पतरु के समान है।
सीतापति भगवान् राम समस्त गुणों के एकमात्र आकर, सत्यस्वरूप, आनंदस्वरूप तथा चित्स्वरूप हैं। स्वयं विष्णु ही राम के रूप में अवतीर्ण हुए थे। वे लोकोत्तर वलशाली, अद्भुत दिव्य धनुष और बाणों से पूजित तथा आजानुबाहु हैं। परम पुरुषोत्तम राम सीता और लक्ष्मण के साथ नित्य ही सुशोभित रहते हैं। भक्त का विश्वास है कि नरशार्दूल भगवान् राम के प्रात: निद्रात्याग करन मात्र से सारा संसार जाग उठेगा। भगवान् ही जीवों के स्वामी हैं। एकमात्र वही शेषी हैं। जीव उनका शेष है। भगवान् राम ही जीवों के परम प्राप्य हैं। वही एकमात्र उपाय भी हैं। भगवान् राम के पार्षदों में लक्ष्मण परम प्राप्य हैं। वही एकमात्र उपाय भी हैं। भगवान् राम के पार्षदों में लक्ष्मण परम प्रिय हैं। हनुमान भी उनके दूसरे पार्षद हैं। स्वामी जी ने भगवान् राम के अर्चावतार अथवा प्रतिमावतार के चारों स्वयं व्यक्त, दैव, सैद्ध और मानुष की पूजा षोडशोपचार से करने के लिए आदेश दिया है। रामानंद जी के मत से सीता के द्वारा ही राम की प्राप्ति होती है। महारानी सीता पुरुषकारभूता हैं और वही उपाय भी हैं।
जीव
संपादित करेंरामानंद ने जीव की साधारण ढंग से इस प्रकार व्याख्या की है - जो सदैव एक स्वरूप में स्थित है, जो ईश्वर की अपेक्षा अज्ञ, चेतन, सर्वदा पराधीन (भगवदधीन), सूक्ष्म से सूक्ष्म, बद्धादि भेदों से भिन्न भिन्न शरीरों में भिन्न भिन्न प्रकार का होकर भिन्न है। भगवान् से परिव्याप्त शरीर में जो रहता है, स्वकर्मानुसार फल भोगनेवाला, भगवन् ही जिसके सर्वदा सहायक हैं, अपने को कर्ता, भोक्ता समझने का जिसे अभिमान है, तत्व के जिज्ञासुओं द्वारा जानने योग्य है, श्रेष्ठ विद्वान् उसी को जीव कहते हैं। यह जीव ज्ञानस्वरूप, आनंदस्वरूप तथा ज्ञान और सुख आदि गुणोंवाला, अणु परिमाणवाला, देहेंद्रियादि से भी अपूर्व, परमात्मा का प्रिय, नित्य एवं स्वप्रकाश है। भगवान् शेषी और जीव उनका शेष है। भगवान् ही जीवों के स्वामी हैं। जीव परतंत्र है। अत: भगवान् की निर्हेतुक कृपा के बिना जीव को मोक्ष नहीं मिल सकता।
रामानंद ने भगवान् और जीव में पिता-पुत्र-संबंध, रक्ष्य-रक्षक-संबंध, सेव्य-सेवक-संबंध, आत्मा-आत्मीयत्व-संबंध तथा भोग्य-भोक्तृत्व आदि नव प्रकार के संबंधों को स्वीकार किया है। जीवों के दो भेद हैं - बद्ध और मुक्त।
बद्ध जीव
संपादित करेंअनादि कर्मों की राशि से अनेक प्रकार के शरीर का अभिमानी जीवबद्ध कहा गया है। बद्ध जीव दो प्रकार के हैं - १. मुमुक्षु, २. बुभुक्षु। भगवान् की निर्हेतुक कृपा से अविद्यादि दुष्ट कर्मों की वासना की रुचि की प्रवृत्ति के संबंध से छूटने का प्रयत्न करनेवाले जीवों को मुमुक्षु कहते हैं। इसके विरुद्ध सांसारिक भोग की कामनावाले जीव बुभुक्षु कहलाते हैं।
मुमुक्षु जीव भी दो प्रकार के हैं - १. शुद्ध भक्त, २. चेतनांतर साधन। ज्ञानादि साधनहीन, स्मृति भक्ति में निष्ठित वेदोक्त वर्णाश्रम कर्म करनेवाले और उपासना निरत भक्त शुद्ध भक्त कहलाते हैं। स्वानुष्ठित कर्म विज्ञानादि समूह को ही प्रधान साधन मानकर किसी उत्तम संबंध विशेष को प्राप्त करके सदा मोक्ष में निश्चय वाले जीव चेतनांतर साधन कहलाते हैं।
मोक्षपरायण जीव भी दो प्रकार के हैं - १. प्रपन्न, २. पुरुषकारनिष्ठ। अन्य सभी को छोड़कर परम कृपालु, समर्थ, अविनाशी श्रीराम को ही प्राप्य और उनको ही उपाय समझकर जो जीव संस्थित हैं, उन्हें प्रपन्न कहते हैं। श्रीराम की स्वतंत्रता का विचार करके कुछ संकुचित होकर, परम कृपालु आचार्य को ही उपाय मानकर स्थित रहनेवाले जीव पुरुषकारनिष्ठ कहलाते हैं।
प्रपन्न जीव भी दो प्रकार के होते हैं - १. दृप्त, २. आर्त। शरीरस्थिति पर्यत स्वकर्मानुसार प्राप्त दु:खादि का भोग करते हुए शरीर के अंत में मोक्ष सिद्धि का निश्चय करके महाबोध एवं अत्यंत विश्वासयुक्त रहनेवाले जीवदृप्त कहलाते हैं। संसृति को उसी क्षण न सहन करतेश् हुए जो भगवात् प्राप्ति में अत्यंत शीघ्रता चाहते हैं वे आर्त जीव है।
पुरुषकारनिष्ठ जीव भी दो प्रकार के हैं - १. आचार्य-कृपा-मात्र प्रपन्न, २. महापुरुष-सेवातिरेक-प्रपन्न। अंत में रामानंद ने बद्ध जीवों के संबंध में कहा है कि शुद्ध भक्त वही है जो भगवान् के यश के श्रवण, कीर्तनादि में ही निष्ठा रखते हैं।
मुक्त जीव
संपादित करेंये जीव दो प्रकार के हैं १. नित्य, २. कादाचित्क। नित्य जीव गर्भ जन्मादि दु:खों के अनुभव करनेवाले कहलाते हैं, जैसे - हनुमान। नित्य जीव भी दो प्रकार के हैं - १. परिजन, २. परिच्छद। हनुमान परिजन और किरीट आदि परिच्छेद की परिभाषा में आते हैं। इसी प्रकार कादाचित्क जीव के भी दो भेद किए गए हैं - १. भागवत, २. केवल। जो जीव भगवत्परायण हैं उन्हें भागवत कहते हैं। भागवत जीव के भी दो भेद हैं - १. भगवत्परायण होकर नित्य उनका ही ध्यान करनेवाले जीव। २. भगवद्-गुणानुसंधान-परायण के साथ कैकयेपरायण होनेवाले जीव। इसी प्रकार केवल जीव के भी दो भेद बतलाए गए हैं - १. दु:खभावनैकपरायण, २. अनुभूति परायण।
प्रकृति
संपादित करेंरामानंद के मत के अनुसार प्रकृति के संबंध में उनकी वही धारणा है जो सांख्य में वर्णित है। तत्वविद्, विकाररहित, संपूर्ण विश्व का कारण, एक होकर भी अनेक प्रकार से शोभित, शुक्लादि भेद से अनेक वर्णोवाली, सत्व, रज, तम आदि गुणों को प्रश्रय देनेवाली, अव्यक्त प्रधान आदि शब्दों से अभिहित, स्वतंत्र व्यापारहीन, ईश्वराधीन रहनेवाली और महत्तत्व एवं अहंकार आदि को उत्पन्न करनेवाली सत्ता को ही प्रकृति कहते हैं। रामानंद जी ने इन विशेषणों का विवेचन नहीं किया है, केवल संकेत मात्र किया है।
मोक्ष
संपादित करेंरामानंद के मत से भगवान् की कृपा से सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर साकेत लोक को प्राप्त करके परब्रह्म से सायुज्य की प्राप्ति करना ही मोक्ष कहलाता है। रामानंद संप्रदाय में भक्त, श्री राम की कृपा से सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है और उनके साथ नित्य क्रीड़ा करता है।
साकेत
संपादित करेंरामानंद के मत से जीव सुषुम्ना, अर्चिमार्ग, अर्हमार्ग, उत्तरायण, संवत्सर, सूर्य, चंद्र, और विद्युत् आदि मार्गों से होता हुआ दिव्य लोक साकेत में पहुँचकर विश्राम करता है। यही भगवान् राम का लोक है, जहाँ करोड़ों सूर्य के प्रकाश से युक्त हेम का सिंहासन है, जहाँ स भक्त फिर इस संसार में नहीं लौटता। इस साकेत लोक के चारों ओर विरजा नदी बहती रहती है जिसका जल अत्यंत निर्मल है।
चित्रावली
संपादित करें-
ओरछा (मध्य प्रदेश) में राम का चतुर्भुज मन्दिर
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राम मन्दिर, भुवनेश्वर (ओड़ीसा)
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भद्राचलम के सीता रामचन्द्रस्वामी मन्दिर में उत्सव
सन्दर्भ
संपादित करेंसन्दर्भ ग्रन्थ
संपादित करें- हजारीप्रसाद द्विवेदी : कबीर ;
- डा. रामकुमार वर्मा : संक्षिप्त संत कवीर;