सम्मेलन पत्रिका
सम्मेलन पत्रिका अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका है जो गिरिजाकुमार घोष और रामनरेश त्रिपाठी के संपादकत्व में विजयादशमी, विक्रम संवत १९७० (अक्टूबर १९१३ ई) को पहली बार प्रकाशित हुई।[1] बाद में इसके सम्पादन का भार सम्भाला धीरेन्द्र वर्मा ने। 'सरस्वती' ने 'सम्मेलन पत्रिका' का स्वागत करते हुए लिखा- "इसके निकलने से साहित्य-सम्मेलन की उद्देश्य सिद्धि में बहुत सहायता पहुँचने की आशा है। यह मासिक है, इसकी पृष्ठ संख्या 32 है और मूल्य सिर्फ एक रुपया।"
पत्रिका की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसका प्रकाशन आज भी अबाध गति से हो रहा है। यह शोध पत्रिका है। इसका 'लोक संस्कृति विशेषांक' बहुत ही चर्चित हुआ। इसके विशेषांकों में कला विशेषांक', 'गांधी-टंडन स्मृति विशेषांक', 'श्रद्धांजलि विशेषांक', 'साहित्य-संस्कृति भाषा विशेषांक', 'जन्मशती विशेषांक' प्रमुख हैं।
सम्पादक
संपादित करेंयद्यपि 'सम्मेलन पत्रिका' के आरंभिक अंकों में सम्पादक के रूप में पहले साहित्य मंत्री और बाद में प्रधानमंत्री पदनाम लिखा जाता था, परन्तु समकालीन पत्रिका 'प्रभा' से पता चलता है कि सम्मेलन पत्रिका के आद्य सम्पादक गिरिजाकुमार घोष थे। उनके बाद इन्द्रनारायण द्विवेदी, वियोगी हरि, भागीरथ प्रसाद दीक्षित, धीरेन्द्र वर्मा, गुरूप्रसाद टण्डन, उदयनारायण तिवारी, भगवतीचरण वर्मा, रामकुमार वर्मा, ज्योतिप्रसाद निर्मल, अज्ञेय, दयाशंकर दुबे, रामनाथ सुमन, रामप्रताप त्रिपाठी, डा. सत्यप्रकाश, विभूति मिश्र, डॉ प्रेम नारायण शुक्ल आदि ने पत्रिका का सम्पादन किया।
उद्देश्य तथा विषय-सामग्री
संपादित करें'सम्मेलन पत्रिका' के पृष्ठों में हिन्दी आन्दोलन तथा हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार और देवनागरी लिपि की स्वीकार्यता के पक्ष में प्रयासों का इतिहास जुड़ा हुआ है। इससे हिन्दी के विद्वानों की सहभागिता के साथ-साथ अनेक अहिन्दी भाषी मनीषियों के हिन्दी अनुराग का वृत्तान्त भी मिलता है। हिन्दी साहित्य और हिन्दी पत्रकारिता की धाराओं के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य और संचेतना, पहल और प्रयासों का इतिवृत्त भी पता चलता है। 'सम्मेलन पत्रिका' के लोक संस्कृति विशेषांक, कला विशेषांक, मानस चतुश्शती विशेषांक, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल विशेषांक, निराला विशेषांक आदि संदर्भ की दृष्टि से महत्वपूर्ण और संग्रहणीय है।
सम्मेलन पत्रिका को साहित्यिक पत्रिका माना जाए अथवा नहीं, इस सम्बन्ध में साहित्यकारों में मतभेद है। कुछ विद्वान इसे सम्मेलन के समाचार पत्र देने वाली पत्रिका मानते हैं तो कुछ विद्वान इसे विविध विषयों वाली पत्रिका मानते हैं। सम्मेलन पत्रिका का स्वरूप 'सरस्वती' या 'चाँद' की तरह साहित्यिक नहीं था किन्तु इसका उद्देश्य साहित्यिक विकास ही था। धीरेन्द्र वर्मा ने इसके सम्पादकीय में लिखा है, "सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य हिन्दी भाषा, साहित्य तथा देवनागरी लिपि की उन्नति तथा प्रचार करना है। यह प्रचार तथा उन्नति किस प्रकार हो सकती है, उसके साधनों तथा कठिनाइयों पर गम्भीरता पूर्व विचार करने का माध्यम ‘सम्मेलन पत्रिका' होना चाहिए। पत्रिका का उद्देश्य तथा नीति इस आवश्यकता की पूर्ति करना ही रहेगा।"
धीरेन्द्र वर्मा ने यह तो पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि इसमें सरस्वती की तरह रचनाएं तथा चित्र नहीं होंगे किन्तु हिन्दी भाषा, नागरी लिपि तथा साहित्य पर विचार किया जाएगा, तथा इन अंगों की उन्नति पर समुचित ध्यान दिया जाएगा। और इसके लिए उन्होंने लेखकों तथा विद्वानों का आवाहन किया कि वह 'सम्मेलन पत्रिका' में लेख भेजें।
पत्रिका में 'साहित्यावलोकन' शीर्षक हुआ करता था जिसमें विभिन्न पुस्तकों, कविताओं, कहानियों की समीक्षा की जाती थी। इसके प्रथम अंक में ही- मोहन लाल महतो, गया लाल 'वियोगी' की 'एकतारा', शान्तिप्रिय द्विवेदी की ‘मधु संचय' राम कृष्णदास की 'भावुक', अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की ‘पद्य प्रसून' लक्ष्मी नारायण मिश्र की ‘आर्त जगत' कविताओं का मूल्यांकन किया गया।
'सम्मेलन पत्रिका' में हिन्दी साहित्य सम्मेलन से सम्बन्धित समाचार अवश्य होते थे किन्तु इसके साथ ही साहित्यिक विषयों पर भी लेख होते थे। अपने द्वितीय अंक में सम्मेलन पत्रिका ने श्रीधर पाठक, 'हिन्दी गद्य का विकास सं. 1925 तक' तथा विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का लेख, 'हिन्दी साहित्य में छायावाद की प्रगति' प्रकाशित किए। अतः 'सरस्वती' अथवा चाँद की तरह तो नहीं किन्तु सम्मेलन पत्रिका का उद्देश्य सदैव हिन्दी भाषा एवं साहित्य की श्री वृद्धि करना ही रहा। इसलिए इस पत्रिका के साहित्यिक योगदान को भी नहीं नकारा जा सकता।[2]
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- सम्मेलन पत्रिका (शक १९०६ ; =१९६३ ई)
- सम्मेलन पत्रिकाएँ Archived 2020-09-22 at the वेबैक मशीन
सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ भारतीय पत्रकारिता कोश (पृष्ठ ५७८)
- ↑ हिन्दी साहित्य का विकास : ऐतिहासिक दृष्टिकोण (१९००-१९५०ई) (पृष्ट १६४)