सूक्ष्मजीव

सूक्ष्म जीवधारी
(सूक्ष्मजीवों से अनुप्रेषित)

वे जीव जिन्हें मनुष्य नंगी आंखों से नही देख सकता तथा जिन्हें देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी (Microscope) यंत्र की आवश्यकता पड़ती है, उन्हें सूक्ष्मजीव (माइक्रोऑर्गैनिज्म) कहते हैं। सूक्ष्मजैविकी (microbiology) में सूक्ष्मजीवों का अध्ययन किया जाता है।

जीवाणुओं का एक झुंड

सूक्ष्मजीवों का संसार अत्यन्त विविधता से बह्रा हुआ है। सूक्ष्मजीवों के अन्तर्गत सभी जीवाणु (बैक्टीरिया) और आर्किया तथा लगभग सभी प्रोटोजोआ के अलावा कुछ कवक (फंगी), शैवाल (एल्गी), और चक्रधर (रॉटिफर) आदि जीव आते हैं। बहुत से अन्य जीवों तथा पादपों के शिशु भी सूक्ष्मजीव ही होते हैं। कुछ सूक्ष्मजीवविज्ञानी विषाणुओं को भी सूक्ष्मसजीव के अन्दर रखते हैं किन्तु अन्य लोग इन्हें 'निर्जीव' मानते हैं।

सूक्ष्मजीव सर्वव्यापी होते हैं। यह मृदा, जल, वायु, हमारे शरीर के अंदर तथा अन्य प्रकार के प्राणियों तथा पादपों में पाए जाते हैं। जहाँ किसी प्रकार जीवन संभव नहीं है जैसे गीज़र के भीतर गहराई तक, (तापीय चिमनी) जहाँ ताप 100 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा हुआ रहता है, मृदा में गहराई तक, बर्फ की पर्तों के कई मीटर नीचे तथा उच्च अम्लीय पर्यावरण जैसे स्थानों पर भी पाए जाते हैं।

जीवाणु तथा अधिकांश कवकों के समान सूक्ष्मजीवियों को पोषक मीडिया (माध्यमों) पर उगाया जा सकता है, ताकि वृद्धि कर यह कालोनी का रूप ले लें और इन्हें नग्न नेत्रों से देखा जा सके। ऐसे संवर्धनजन सूक्ष्मजीवियों पर अध्ययन के दौरान काफी लाभदायक होते हैं। नंगे विषाणु कहलाते है 1पियांस 2वाइराइड 3हेलिकल विषाणु 4फेज विषाणु

उपयोगी सूक्ष्मजीव

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सूक्ष्मजीव पृथ्वी पर उपस्थित जीवन के बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटक हैं। प्रायः सभी जानते हैं कि सूक्ष्मजीव मनुष्यों में बहुत से रोग उत्पन्न करते हैं। ये पशुओं तथा पादपों में भी रोग उत्पन्न करते हैं, परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि सभी सूक्ष्मजीव हानिप्रद हैं। गंगा के जल में इस सोच को जीविका प्रस्तुति प्रदूषण को सूचित करता है जिसका नाम

लैक्टोबैसिलस बैक्टीरिया

बहुत से सूक्ष्मजीव मनुष्यों के लिए अत्यंत ही लाभप्रद होते हैं। हम प्रतिदिन सूक्ष्मजीवों तथा सूक्ष्मजीवों से व्युत्पन्न उत्पादों का प्रयोग करते हैं। लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया (एलएबी) दूध में वृद्धि करते हैं जिससे वह दही में बदल जाता है। ब्रैड बनाने में प्रयुक्त गीले गुँथे आटे का किण्वन सेकेरोमाइसीज सेरीविसी नामक यीस्ट से किया जाता है। कुछ पकवान जैसे इडली तथा डोसा ऐसे गीले आटे से बनाए जाते हैं जिन्हें सूक्ष्मजीवियों द्वारा किण्वित किया गया होता है। जीवाणु तथा कवकों का प्रयोग 'चीज़' (पनीर) को एक विशेष बनावट, स्वाद तथा सुंगध देने के लिए किया जाता है। सूक्ष्मजीवों का प्रयोग औद्योगिक उत्पाद जैसे लैक्टिक एसिड, एसिटिक एसिड तथा ऐल्कोहल उत्पन्न करने में किया जाता है। प्रतिजैविक (ऐंटीबायटिक) जैसे पैनीसिलिन का उत्पादन लाभप्रद सूक्ष्मजीवों द्वारा किया जाता है। प्रतिजैविक संक्रामक रोग जैसे डिप्थीरिया, काली खाँसी, तथा निमोनिया की रोकथाम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सौ वर्षों से अधिक के समय से सूक्ष्मजीवों का प्रयोग वाहितमल (जलमल) के उपचार के लिये किया जा रहा है। इससे प्रकृति में जल के पुनःचक्रण में भी सहायता मिलती है। मीथैनोजेन संयंत्र अपशिष्ट (गोबर, रसोई का कचरा आदि) के अपघटन के द्वारा मीथेन (बायोगैस) उत्पन्न करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सूक्ष्मजीव द्वारा उत्पन्न बायोगैस का उपयोग ऊर्जा के रूप में (खाना पकाने, प्रकाश, डीजल पम्प चलाने आदि) किया जाता है। सूक्ष्मजीवों का प्रयोग जैवनियंत्रण विधि द्वारा हानिप्रद पीड़कों (पेस्ट्स) को मारने के लिए भी किया जाता है। जैवनियंत्रण मापन से विषैले पीड़कनाशियों (पेस्टिसाइड्स) के प्रयोग में भारी कमी आई है। आज समय की माँग है कि रासायनिक उवर्रकों के स्थान पर जैव उर्वरकों का प्रयोग किया जाय।

औद्योगिक उत्पादों में सूक्ष्मजीव

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उद्योगों में भी सूक्ष्मजीवों का प्रयोग बहुत से उत्पादों के संश्लेषण में किया जाता है जो मनुष्य के लिए काफी मूल्यवान होते हैं। मादक पेय तथा प्रतिजैविक (ऐंटीबॉयटिक) इसके कुछ उदाहरण हैं। व्यावसायिक पैमाने पर सूक्ष्मजीवियों को पैदा करने के लिए बड़े बर्तन की आवश्यकता होती है जिसे 'फरमैंटर' या 'किण्वक' कहते हैं।

किण्वित पेय

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सूक्ष्मजीव (विशेषकर यीस्ट) का प्रयोग प्राचीन काल से वाइन, बियर, ह्निस्की, ब्रांडी या रम जैसे पेयों के उत्पादन में किया जाता आ रहा है। वही यीस्ट सैकेरोमाइसीज सैरीबिसी (जो सामान्यतः 'ब्रीवर्स यीस्ट' के नाम से भी प्रसिद्ध है) ब्रैड बनाने तथा माल्टीकृत धान्यों तथा फलों के रसों में ऐथानॉल उत्पन्न करने में प्रयोग किया जाता है। किण्वन तथा विभिन्न प्रकार के संसाधन (आसवन आदि) कच्चे पदार्थों पर निर्भर करती है : वाइन तथा बियर का उत्पादन बिना आसवन के किया जाता है जबकि ह्निस्की, ब्रांडी तथा रम किण्वित रस के आसवन द्वारा तैयार किए जाते हैं।

प्रतिजैविक (ऐंटीबॉयोटिक)

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सूक्ष्मजीवों द्वारा प्रतिजैविकों (ऐंटीबॉयोटिकों) का उत्पादन 20वीं शताब्दी की अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण खोज और मानव समाज के कल्याण के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। प्रतिजैविक (ऐंटीबॉयोटिक) एक प्रकार के रसायनिक पदार्थ हैं, जिनका निर्माण कुछ सूक्ष्मजीवियों द्वारा होता है। यह अन्य (रोग उत्पन्न करने वाले) सूक्ष्मजीवियों की वृद्धि को मंद कर सकते हैं अथवा उन्हें मार सकते हैं। पैनीसीलिन सबसे पहला ऐंटीबॉयोटिक था। इस ऐंटीबॉयोटिक का प्रयोग दूसरे विश्व युद्ध में घायल अमरीकन सिपाहियों के उपचार में व्यापक रूप से किया गया।

पैनीसिलिन के बाद अन्य सूक्ष्मजीवियों से अन्य ऐंटीबॉयोटिकों को बनाया गया। प्लेग, काली खाँसी, डिप्थीरिया (गलघोंटू), कुष्ठरोग जैसे भयानक रोग, जिनसे संसार में लाखों लोग मरे हैं, के उपचार के लिए ऐंटीबॉयोटिकों ने हमारी क्षमता में वृद्धि की एक शक्ति के रूप में आये हैं। आज हम ऐंटीबॉयोटिकों से रहित संसार की कल्पना ही नहीं कर सकते हैं।

रसायन, एंजाइम तथा अन्य जैवसक्रिय अणु

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कार्बनिक अम्ल, ऐल्कोहल तथा एंजाइम आदि कुछ विशेष प्रकार के रसायनों के व्यावसायिक तथा औद्योगिक उत्पादन में सूक्ष्मजीवों का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है।

अम्लीय उत्पादकों के उदाहरण

  • सिट्रिक अम्ल का ऐस्परजिलस नाइगर (एक कवक),
  • एसीटिक अम्ल का एसीटोबैक्टर एसिटाई (जीवाणु)
  • ब्युट्रिक अम्ल का क्लोस्ट्रीडियम ब्यूटायलिकम (एक जीवाणु) तथा
  • लेक्टिक अम्ल का लैक्टोबैसिलस

ऐथानॉल के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए यीस्ट (सैकेरोमाइसीज सैरीविसेएई) का प्रयोग किया जाता है। लाइपेज का प्रयोग धुलाई में कपड़ों से तेल के धब्बे हटाने में किया जाने लगा है। हम बाजार से खरीद कर फल-रस की जो बोतल लाते हैं उसका रस घर में बने रस की तुलना में अधिक साफ दिखाई पड़ता है। पैक्टीनेजिज तथा प्रोटीऐजिज के प्रयोग के कारण बोतल वाला रस अधिक स्वच्छ एवं साफ होता है। स्ट्रैप्टोकाइनेज स्ट्रैप्टोकोकस जीवाणु (बैक्टीरियम) द्वारा उत्पन्न होता है जो आनुवंशिक इंजीनियरिंग द्वारा रूपांतरित किया जाता है। इसका प्रयोग रोगियों के रक्त वाहिकाओं से थक्का (क्लॉट) हटाने (‘थक्का स्फोटन’) के लिये किया जाता है।

अन्य जैव सक्रिय अणु ‘साइक्लोस्पोरिन-ए’ है। जिसका प्रयोग अंग प्रतिरोपण में प्रतिरक्षा निरोधक (इम्युनोसप्रेसिव) कारक के रूप में रोगियों में किया जाता है। इसका उत्पादन ट्राइकोडर्मा पॉलोस्पोरमनामक कवक से किया जाता है। मोनॉस्कस परप्यूरीअस यीस्ट से उत्पन्न इस स्टैटिन का व्यापारिक स्तर पर प्रयोग रक्त-कोलेस्ट्रॉल को कम करने वाले कारक के रूप में किया जाता है। कोलेस्ट्रॉल के संश्लेषण के लिए उत्तरदायी एंजाइम स्पर्धा संदमन (निरोधण) की तरह क्रिया करते हैं।

वाहितमल उपचार में सूक्ष्मजीव

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हम जानते हैं कि प्रतिदिन नगर एवं शहरों से व्यर्थ-जल की एक बहुत बड़ी मात्र जनित होती है। इस व्यर्थ जल का प्रमुख घटक मनुष्य का मलमूत्र है। नगर के इस व्यर्थ जल को वाहितमल (सीवेज) भी कहते हैं। इसमें कार्बनिक पदार्थों की बड़ी मात्र तथा सूक्ष्मजीव पाये जाते हैं जो अधिकांशतः रोगजनकीय होते हैं। वाहितमल की बड़ी मात्र अथवा शहरी व्यर्थजल का रोजाना निपटान कैसे किया जाय? इसे प्राकृतिक जल स्रोतों जैसे नदी, झरने में सीधे विसर्जित नहीं किया जा सकता है। विसर्जन से पूर्व वाहितमल का उपचार वाहितमल संयंत्र में किया जाता है ताकि वह प्रदूषण मुक्त हो जाय।

सूक्ष्मजीव प्रतिदिन विश्वभर में व्यर्थ जल के लाखों-करोड़ों गैलन पानी के उपचार में महत्त्वपूर्ण भूमिका-निभाते हैं। संसार के लगभग-समस्त भागों में लगभग सदियों से इसी कार्य प्रणाली का प्रयोग किया जाता आ रहा है। आज के दिन तक कोई भी मनुष्य द्वारा तैयार की गई प्रौद्योगिकी वाहित मल के सूक्ष्मजीवी उपचार के सामने नहीं टिक पाई।

बढ़ते हुए शहरीकरण के कारण पहले की तुलना में वाहित मल की एक बहुत बड़ी मात्र उत्पन्न हो जाती है, अतः वाहितमल की इतनी बड़ी मात्र को उपचारित करने में इन उपचार संयंत्रें की संख्या पर्याप्त नहीं बढ़ाई गई है। इसलिए अपचारित वाहितमल को सीधे ही नदियों में छोड़ दिया जाता है। परिणामस्वरूप प्रदूषण और जल जनित रोगों की संख्या बढ़ रही है।

व्यर्थ जल (वेस्ट वाटर) का उपचार परपोषित सूक्ष्मजीव से किया जाता है जो वाहित मल में प्राकृतिक रूप से वास करते हैं। यह उपचार निम्नलिखित दो चरणों में संपन्न किया जाता है-

प्राथमिक उपचार - उपचार के इस चरण में वाहित मल से बड़े-छोटे कणों को निस्यंदन (फिल्ट्रेशन) तथा अवसादन (सेडीमिंटेशन) द्वारा भौतिक रूप से अलग कर दिया जाता हैं। इन्हें भिन्न-भिन्न चरणों में अलग किया जाता है। आरंभ में तैरते हुए कूड़े-करकट को अनुक्रमिक निस्यंदन द्वारा हटा दिया जाता है। इसके बाद शितबालुकाश्म (ग्रिट) (मृदा तथा छोटे गुटिकाओं पेवल) को अवसादन द्वारा निष्कासित किया जाता है। सभी ठोस जो प्राथमिक आंपक (स्लज) के नीचे बैठे कण हैं, वह और प्लावी (सुपरनैटेंट) बहिःस्राव (इफ्लुएंट) का निर्माण करता है। बहिःस्राव को प्राथमिक निःसादन (सेटलिंग) टैंक से द्वितीयक उपचार के लिए ले जाया जाता है।

द्वितीयक उपचार अथवा जीव विज्ञानीय उपचार - प्राथमिक बहिःस्राव को बड़े वायुवीय टैंकों में से गुजारा जाता है जहाँ यह लगातार यांत्रिक रूप से हिलाया जाता है और वायु को इसमें पंप किया जाता है। इससे लाभदायक वायुवीय सूक्ष्मजीवियों की प्रबल सशक्त वृद्धि ऊर्णक (कवकीय तंतुओं से जुड़े जीवाणुओं के जाली जैसी संरचना का झुंड) के रूप में होने लगती है। वृद्धि के दौरान यह सूक्ष्मजीव बहिःस्राव में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों के प्रमुख भागों की खपत करता है। यह बहिःस्राव के बी ओ डी (बॉयोकेमीकल ऑक्सीजन डिमांड) को महत्त्वपूर्ण रूप से घटाने लगता है। बी ओ डी ऑक्सीजन की उस मात्र को संदर्भित करता है जो जीवाणु द्वारा एक लीटर पानी में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों की खपत कर उन्हें ऑक्सीकृत कर दें। वाहित मल का तब तक उपचार किया जाता है जब तक बी ओ डी घट न जाय। जल के एक नमूने में सूक्ष्मजीवियों द्वारा ऑक्सीजन के उद्ग्रहण की दर का मापन बी ओ डी परीक्षण से किया जाता है। अतः अप्रत्यक्ष रूप से जल में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों का मापन ही बी ओ डी है। जब व्यर्थ-जल का बी ओ डी अधिक होगा, तब इसकी प्रदूषण क्षमता भी अधिक होगी।

एक बार वाहित मल अथवा व्यर्थ जल का बी ओ डी पर्याप्त मात्र में घट जाय, तब बहिःस्राव को निःसादन (सैटलिंग) टैंक में भेजते हैं जहाँ जीवाणु झुंड (फ्लॉक्स) उसे अवसाद में परिवर्तित करते हैं। यह अवसाद सक्रियीत आपंक कहलाता है। सक्रियीत आपंक के छोटे से भाग को फिर से पीछे वायुवीय टैंक में पंप करते हैं। यह आपंक निवेशद्रव्य की तरह से कार्य करता है। आपंक का बचा-खुचा मुख्य भाग बड़े टैंक में पंप किया जाता है जिसे अवायवीय आपंक संपाचित्र (ऐनारोबिक स्लज डाइजैस्टर) कहते हैं। यहाँ जीवाणुओं की अन्य किस्में जो अवायुवीय रूप से वृद्धि करती हैं। वे आपंक में उपस्थित जीवाणुओं तथा कवकों का पाचन कर लेती हैं। पाचन के दौरान जीवाणु गैसों का मिश्रण जैसे मीथेन, हाइड्रोजन सल्फाइड तथा कार्बन डायक्साइड उत्पन्न करते हैं। गैसों का यह मिश्रण बॉयोगैस कहलाता है। चूँकि यह गैस ज्वलनशील होती हैं, इस कारण इनका प्रयोग ऊर्जा के स्रोत के रूप में किया जा सकता है।

द्वितीयक उपचार प्लांट से बहिःस्राव सामान्यतः जल के प्राकृतिक स्रोतों जैसे नदियों, झरनों में छोड़ दिया जाता है।

बॉयोगैस के उत्पादन में सूक्ष्मजीव

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बॉयोगैस कई गैसों का मिश्रण है (जिसमें मुख्यतः मीथेन शामिल है) तथा सूक्ष्मजीवी सक्रियता द्वारा उत्पन्न होती है। हम जानते हैं कि वृद्धि तथा उपापचयन के दौरान सूक्ष्मजीव विभिन्न किस्मों के गैसीय उत्पाद उत्पन्न करते हैं। जो गैस उत्पन्न होती है, वह इन सूक्ष्मजीवियों द्वारा खपत किए गए कार्बनिक पदार्थों पर निर्भर करती है।

गीले आटे का किण्वन, पनीर (चीज) निर्माण तथा पेयों का उत्पादन में CO2 गैस ही मुख्य रूप से उत्पन्न होती है। यद्यपि कुछ बैक्टीरिया जो सैल्यूलोजीय पदार्थों पर अवायुवीय रूप से उगते हैं वह CO2 तथा H2 के साथ-साथ बड़ी मात्र में मीथेन भी उत्पन्न करते हैं। सामूहिक रूप से इन जीवाणुओं को मीथैनोजेन कहते हैं। इनमें सामान्य जीवाणु मीथैनोबैक्टीरियम है। यह बैक्टीरिया सामान्यतः अवायुवीय गाढ़े कीचड़ में पाया जाता है। यह जीवाणु पशुओं के रूमेन (प्रथम आमाशय) में भी पाए जाते हैं। रूमेन में सैल्यूलोजीय पदार्थों की एक बड़ी मात्र उपलब्ध रहती है। रूमेन में यह जीवाणु सैल्यूलोज को तोड़ने में सहायक होते हैं और पशुओं के पोषण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

इसी प्रकार, यह जीवाणु पशुओं के मल (गोबर) में प्रचुर संख्या में पाए जाते हैं। गोबर में पादपों के सैल्यूलोजीय व्युत्पन्न प्रचुर मात्र में होते हैं। अतः इनका प्रयोग बॉयोगैस को पैदा करने में किया जाता है जिसे सामान्यतः 'गोबर गैस' भी कहते हैं।

बॉयोगैस संयंत्र एक टैंक (10-15 फीट गहरा) होता है जिसमें अपशिष्ट एवं गोबर की कर्दम (स्तरी) भरी जाती है। कर्दम के ऊपर एक सचल ढक्कन रखा जाता है। सूक्ष्मजीवी सक्रियता के कारण टैंक में गैस बनती है जिससे ढक्कन ऊपर को उठता है। बॉयोगैस संयंत्र में एक निकास होता है जो एक पाइप से जुड़ा रहता है। इसी पाइप की सहायता से आस-पास के घरों में बॉयोगैस की आपूर्ति की जाती है। उपयोग की गई कर्दम दूसरे निकास द्वार से बाहर निकाल दी जाती है। इसका प्रयोग उर्वरक के रूप में किया जाता है।

जैव नियंत्रण कारक के रूप में सूक्ष्मजीव

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पादप रोगों तथा पीड़कों के नियंत्रण के लिए जीव वैज्ञानिक विधि का प्रयोग ही जैव नियंत्रण है। आधुनिक समाज में इन समस्याओं के नियंत्रण के लिये रसायनों, कीटनाशियों तथा पीड़कनाशियों का प्रयोग किया जाता है। किन्तु ये रसायन मनुष्यों तथा जीव-जंतुओं के लिए अत्यंत विषैले तथा हानिकारक हैं। ये पर्यावरण (मृदा, भूमिगत जल) को प्रदूषित करते तथा फलों, साग-सब्जियों और फसलों पर भी हानिकारक प्रभाव डालते हैं। खरपतवार नाशियों का प्रयोग खरपतवार को हटाने में किया जाता है। यह भी हमारी मृदा को प्रदूषित करते हैं।

पीड़कों तथा रोगों का जैवनियंत्रण- कृषि में, पीड़कों के नियंत्रण की यह विधि रसायनों के प्रयोग की तुलना में 'प्राकृतिक परभक्षण' पर अधिक निर्भर करती है। जैव विविधता ही स्वास्थ्य की कुंजी है। भूदृश्य पर जितनी अधिक किस्में होंगी, वह उतनी ही अधिक स्थायित्व प्रदान करती हैं। अतः जैविक कृषक एक तंत्र को विकसित करने के लिए कार्य करते हैं, जिसमें कीट (इन्हें 'पीड़क' भी कहते हैं) उन्मीलित न हो, वे इसके बजाय उन्हें नियंत्रणीय स्तर पर बनाये रखने में विश्वास करते हैं। जैव नियंत्रण एक प्रकार का 'समग्र दृष्टिकोण' है, जिससे करोड़ों जीवों के मध्य पारस्परिक क्रियाओं के जाल की व्याख्या का विकास होता है। खेत प्राणिजात (फौना) तथा पेड़-पौधों (फ्रलोरा) का निर्माण करते हैं। आर्गेनिक कृषक का दृष्टिकोण यह है कि पीड़कों का उन्मूलन केवल असंभव ही नहीं बल्कि अवांछनीय भी है। इन पीड़कों के बिना लाभप्रद परभक्षी तथा परजीवी कीट जीवित नहीं रह पायेंगे जो पीड़कों पर अपने पोषण अथवा भोजन के लिए आश्रित है।

  • जाना पहचाना भृंग (बीटल, जिन पर लाल तथा काली धारियाँ पाई जाती हैं) तथा व्याध पतंग (ड्रैगन फ्लाई) क्रमशः ऐफिडों तथा मच्छरों से छुटकारा दिलवाने में अत्यंत ही लाभप्रद हैं।
  • बैक्टीरिया वैसीलस थूरिजिऐंसिस (बहुधा Bt लिखा जाता है) का प्रयोग बटर फ्लाई केटरपिलर नियंत्रण में किया जाता है। शुष्क बीजाणु (स्पोर्स) सुगंधीय थैली के रूप में उपलब्ध रहते हैं, जिन्हें पानी में मिला दिया जाता है और इस मिश्रण को दोषपूर्ण पादपों जैसे सरसों समूह (ब्रैसिका) तथा फल वृक्षों जिनकी पत्तियाँ, कीट लार्वा द्वारा खा ली गई है, पर छिड़काव किया जाता है। लार्वा की पाचननली में टॉक्सिन निकलता है और लार्वा की मृत्यु हो जाती है। जीवाणुवीय रोग केटरपिलर को मार देता है, परंतु अन्य कीटों को हानि नहीं पहुँचाता।
  • अब वैज्ञानिक वैसीलस थूरिनजिऐंसिसटॉक्सिन जीन को पादपों में पहुँचा पाने में समर्थ हैं। ऐसे पादप पीड़क द्वारा किए गए आक्रमण के विरुद्ध प्रतिरोधी हैं। Bt-कॉटन इसका एक उदाहरण है, जिसे हमारे देश के कुछ राज्यों में उत्पन्न किया जाता है।
  • जैव वैज्ञानिक नियंत्रण के तहत कवक ट्राइकोडर्मा का उपयोग पादप रोगों के उपचार में किया जाता है। ट्राइकोडर्मा प्रजाति एक मुक्त जीवित कवक है, जो मूल-पारिस्थितिक तंत्र में सामान्य रूप से पाया जाता है। यह बहुत से पादप रोगजनकों के प्रभावशील जैव नियंत्रण कारक हैं।
  • बैक्यूलोवायरेसिस ऐसे रोगजनक हैं जो कीटों तथा संधिपादों (ऑर्थोपोडों) पर हमला करते हैं। अधिकांश बैक्यूलोवायरेसिस जो जैव वैज्ञानिक नियंत्रण कारकों की तरह से किए जाते हैं। वे न्यूक्लिओपॉलीहीड्रोसिसवायरसजींस के अंतर्गत आते हैं। यह विषाणु प्रजाति-विशेष, संकरे स्पैक्ट्रम कीटनाशीय उपचारों के लिए अति उत्तम माने गए हैं। ऐसा प्रदर्शित किया जा चुका है कि इनका पादपों, स्तनधारियों, पक्षियों, मछलियों अथवा यहाँ तक कि लक्ष्यविहीन कीट पर किसी भी प्रकार का हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ता।

जैव उर्वरक के रूप में सूक्ष्मजीव

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आज पर्यावरण प्रदूषण चिंता का एक मुख्य कारण है। कृषि उत्पादों की बढ़ती माँगों को पूरा करने के लिए रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग इस प्रदूषण का प्रमुख कारण है। लोग अब समझने लगे हैं कि रसायनिक उर्वरकों के अधिकाधिक प्रयोग से कई समस्याएँ जुड़ी हुई हैं। इसके परिणामस्वरूप जैविक खेती करने पर तथा जैव उर्वरकों के प्रयोग पर बल दिया जा रहा है। हाल ही में, भारत में जैव उर्वरकों की एक बड़ी संख्या बड़े पैमाने पर बाजार में उपलब्ध होने लगी है। किसान अपने खेतों में लगातार इनका प्रयोग कर रहे हैं। इससे मृदा पोषक की भरपाई तथा रसायन उर्वरकों पर आश्रिता भी कम हो रही है।

जैव उर्वरक एक प्रकार के जीव हैं जो मृदा की पोषक गुणवत्ता को बढ़ाते हैं। इनका मुख्य स्रोत जीवाणु, कवक तथा सायनोबैक्टीरिया होते हैं। द्विदालीय (लैग्यूमिनस) पादपों की जड़ों पर स्थित ग्रंथियों का निर्माण राइजोबियम के सहजीवी संबंध द्वारा होता है। यह जीवाणु वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिरीकृत कर इसे कार्बनिक रूप में परिवर्तित कर देते हैं जिससे पादप इसका प्रयोग पोषकों के रूप में करते हैं। अन्य जीवाणु (उदाहरण ऐजोस्पाइरिलम तथा ऐजोबैक्टर) मृदा में मुक्तावस्था में रहते हैं। यह भी वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिर कर सकते हैं। इस प्रकार मृदा में नाइट्रोजन अवयव बढ़ जाते हैं।

कवक पादपों के साथ सहजीवी संबंध (माइकोराइजा) स्थापित करते हैं। ग्लोमस जीनस के बहुत से सदस्य माइकोराइजा बनाते हैं। इस संयोजन में कवकीय सहजीवी मृदा से फास्फोरस का अवशोषण कर उसे पादपों में भेज देते हैं। ऐसे संबंधों से युक्त पादप कई अन्य लाभ जैसे मूलवातोढ़ रोगजनक के प्रति प्रतिरोधकता, लवणता तथा सूखे के प्रति सहनशीलता तथा कुलवृद्धि तथा विकास प्रदर्शित करते हैं।

सायनोबैक्टीरिया स्वपोषित सूक्ष्मजीव हैं जो जलीय तथा स्थलीय वायुमंडल में विस्तृत रूप से पाए जाते हैं। इनमें बहुत से वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिरीकृत कर सकते हैं, जैसे- ऐनाबीना, नॉसटॉक, ऑसिलेटोरिया आदि। धान के खेत में सायनोबैक्टीरिया महत्त्वपूर्ण जैव उर्वरक की भूमिका निभाते हैं। नील हरित शैवाल भी मृदा में कार्बनिक पदार्थ बढ़ा देते हैं जिससे उसकी उर्वरता बढ़ जाती है।

इन्हें भी देखें

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