गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री
गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री (सन 1904 -1979 ) साहित्य, न्याय-शास्त्र और वेदान्त दर्शन के अध्येता विद्वान, तंत्र-विद्या के ज्ञाता, संस्कृत गद्य और पद्य के लेखक और आशुकवि थे।
गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री | |
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जन्म |
हरिकृष्ण महापुरा राजस्थान, भारत |
मौत की वजह | वृद्धावस्था |
आवास | महापुरा , जयपुर , अहमदाबाद |
राष्ट्रीयता | भारतीय |
नागरिकता | भारतीय |
शिक्षा | पारम्परिक पद्धति से |
शिक्षा की जगह | संस्कृत, पालि, प्राकृत, तन्त्र-मंत्र, धर्मशास्त्र, व्याकरण आदि |
पेशा | शिक्षा-गुरु / कुलगुरु |
कार्यकाल | १९२९ से १९७७ ईस्वी |
संगठन | राजस्थान सरकार |
गृह-नगर | महापुरा जयपुर |
पदवी | गद्य-पद्य सम्राट, आशुकवि |
प्रसिद्धि का कारण | संस्कृत कविता तंत्रसाधना साहित्यकार |
धर्म | हिन्दू |
जीवनसाथी | श्रीमती गुल्ला देवी |
बच्चे | छः (चार पुत्र, दो पुत्रियाँ ) |
गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री, तैलंग ब्राह्मणों के आत्रेय गोत्र में कृष्ण-यजुर्वेद के तैत्तरीय आपस्तम्ब में मूलपुरुष श्रीव्येंकटेश अणणम्मा और शिवानन्द गोस्वामी के वंशज थे।[1] इनके पिता का नाम गोपीकृष्ण गोस्वामी और माता का नाम काशी देवी था। कवि शिरोमणि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री इनके बहनोई थे। इनका विवाह मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ में ओरछा राजगुरुओं के परिवार में हुआ।
साहित्यिक अवदान
संपादित करेंगोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री ने ‘आदर्श्यौदार्यम्’ (नाटक), ‘वंशप्रशस्ति’ (अपने वंश का इतिहास) और 'ललित कथा कल्पलता' (संस्कृत-कहानी संग्रह) के अलावा करीब २५ अन्य पुस्तकों की रचना की है। 'दिव्यालोक' नामक मौलिक संस्कृत महाकाव्य की रचना इनका सबसे बड़ा साहित्यिक अवदान है।
इन्होनें लगभग सभी विधाओं में साहित्य सर्जन किया है, यहाँ तक कि मौलिक रचनाओं के अलावा अन्य भाषाओँ की प्रसिद्ध कृतियों का संस्कृत में अनुवाद भी किया है । इनमें आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास ‘आम्रपाली’ तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर का उपन्यास ‘चोखेर बाली’ (जिसे ‘उद्वेजिनी’ नाम से अनुवादित किया), ‘आँख की किरकिरी’ आदि उल्लेखनीय हैं। इनकी रचनाओं की विविधता से प्रभावित हो कर केन्द्रीय साहित्य अकादमी की प्रसिद्ध संस्कृत पत्रिका ‘संस्कृत प्रतिभा’ के तत्कालीन संपादक डॉ॰ वी.राघवन[2] आग्रह करके इनसे पत्रिका के लिए लगभग सभी अंकों में गद्य अथवा पद्य रचना लिखवाते थे। सन 1945 से 1979 तक इनकी रचनाएँ देश की विभिन्न संस्कृत पत्रिकाओं में छपती रहीं।
संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान देवर्षि कलानाथ शास्त्री के अनुसार इनकी एक अन्य विशेषता यह भी थी कि वे प्रत्येक वसंत ऋतु में वसंत के स्वागत में कविता, गद्य या नीति अवश्य लिखते थे। उनकी वसंत का स्वागत करती ऐसी ही एक रचना का अंश है – “किंशुककदम्बकुंज गुंजितमधुपपुंज लोचनललामलोकमनोहरवसन्त प्रियवर वसन्त”, जिसे पढ़ कर कवि निराला की याद आ जाती है। ये बहुत से ऐसे पद्य लिखते थे जिनके प्रथम अक्षरों से किसी का नाम या कोई वाक्य बन जाये। आशुकवि होने के कारण संस्कृत सम्मेलनों में वे ऐसी प्रशस्तियां मिनटों में पद्यबद्ध करके सुना दिया करते थे। इन्होंने अपने पूर्वज शिवानन्द गोस्वामी के ग्रन्थ 'सिंह-सिद्धांत-सिन्धु' पर भी शोधात्मक लेखन और सम्पादन भी किया।।[3] अहमदाबाद में रह कर इन्होंने रामानंद दर्शन पर अनेक लेख एवं पुस्तकें लिखीं और अपनी उत्तरावस्था अपने पूर्वजों के जागीरी ग्राम महापुरा में व्यतीत करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर की 'गीतांजलि' सहित कुछ अन्य रचनाओं का संस्कृत में अनुवाद किया।[4]
गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री ने चरित्र काव्य के रूप में उपन्यास विधा की विशिष्ट शैली में जगद्गुरु स्वामी रामानन्दाचार्य जी का ‘आचार्य विजय’ नाम से जीवन चरित्र लिखा, जिसमें न केवल उनके सिद्धान्त, बल्कि उनका पूरा जीवन-वृत्त, दर्शन, शास्त्रार्थों, उपदेश यात्राओं, शिष्यों, मान्यताओं तथा रामानन्द संप्रदाय के इतिहास का भी सम्पूर्णता के साथ समावेश है। [5] रामानंद सम्प्रदाय के विद्वान मानते हैं कि संस्कृत जगत में ‘श्रीशिवराजविजय’ के बाद सुललित प्रबंध के रूप में यदि कोई अन्य ग्रन्थ है तो वह गोस्वामी जी द्वारा लिखित कालजयी ग्रन्थ ‘आचार्य विजय’ ही है, जो पहली बार अयोध्या से १९७७ में प्रकाशित हुआ था। इस विशाल गद्यकाव्य में ५९ परिच्छेद हैं, जहाँ बीच बीच में पद्य भी हैं। अतः इसे ‘चम्पूकाव्य’ भी कहा जा सकता है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी हरिकृष्ण शास्त्री का संस्कृत में लिखे इस ग्रन्थ के माध्यम से रामानंद संप्रदाय को योगदान इतना महत्वपूर्ण माना गया कि संप्रदाय के कुछ पीठाधीश्वरों ने इसके हिंदी अनुवाद के साथ पुनः प्रकाशन की योजना बनाई जिसके तहत रेवासा धाम, सीकर तथा हंसा प्रकाशन के द्वारा सन २०११ में ‘श्रीआचार्यविजय’ (हिंदी अनुवाद) [6] के नाम से यह ग्रन्थ उपलब्ध हुआ। यह राजस्थान राज्य पाठ्य पुस्तक मण्डल जयपुर और माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर की उच्च माध्यमिक स्तर तक की पाठ्यक्रम में शामिल संस्कृत पाठ्य पुस्तकों के लेखक भी रहे .
राजकीय सेवा तथा अन्य संप्रदायों को योगदान
संपादित करेंविवाह के बाद गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री टीकमगढ़ (मध्य प्रदेश) में शिक्षाविभाग में अध्यापक हो गए थे, किन्तु १९४५ में पिता की मृत्यु के बाद वे जयपुर लौट आये। अपने पैतृक गाँव महापुरा में इन्होंने सबसे पहले जो 'संस्कृत पाठशाला' स्थापित की थी, वही आज पल्लवित हो कर राजकीय स्नातकोत्तर संस्कृत कॉलेज बन गया है।[7]
इन्होंने राजस्थान सरकार के जागीर कमिश्नर कार्यालय, आयुर्वेद विभाग आदि में भी लिपिकीय सेवा की और बाद में वे राजस्थान संस्कृत शिक्षा निदेशालय बन जाने पर साहित्याध्यापक, प्रोफ़ेसर तथा उदयपुर, अजमेर, नाथद्वारा आदि कई राजकीय संस्कृत महाविद्यालयों के प्राचार्य रहे। वे राजस्थान राजकीय सेवा से सन १९६७ में सेवानिवृत्त होकर संस्कृत साहित्य की सेवा में लग गए।[8]
गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री के वैदुष्य से प्रभावित होकर अनेक संप्रदायों, महंतों व पीठाधीश्वरों ने उन्हें सम्मान देकर अपना “शास्त्री” बनाया। अमरेली, कामवन आदि पुष्टिमार्गीय (वल्लभाचार्य) पीठों में वे गोस्वामी सुरेश बावा जैसे अनेक आचार्यों एवं महंतों के गुरु रहे। उसके बाद उन्होंने अहमदाबाद के पास पालड़ी में स्थित रामानन्द सम्प्रदाय के कौशलेन्द्र मठ में वेदांत के विभागाध्यक्ष बन कर अपार ख्याति अर्जित की। यहीं उनसे अनुरोध किया गया था कि वे जगद्गुरु स्वामी रामानन्दाचार्य का संस्कृत में विशाल जीवन चरित्र लिखें। [9] [10]
पुरस्कार
संपादित करेंगोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री को १९७८ में राजस्थान संस्कृत अकादमी ने उनके काव्य ‘दिव्यालोक’ पर 'महाकवि माघ पुरस्कार' प्रदान दिया और 'गोस्वामी-सभा' द्वारा इन्हें 'गद्य-पद्य-सम्राट' की उपाधि प्रदान की गई।।[11] राजस्थान सरकार की योजना के अंतर्गत संस्कृत दिवस के अवसर पर उन्हें विशिष्ट विद्वान के रूप में भी सम्मानित किया गया।
गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर शोध-कार्य भी हुआ तथा डॉ॰ सरला शर्मा को उनके शास्त्रीजी पर लिखे शोध प्रबंध पर राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा पी.एचडी. की उपाधि प्रदान की गई है । वर्ष 2018 में, दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के लिए एक अन्य शोधकर्ता सुश्री सीमा गुप्ता ने अपनी थीसिस : "गोस्वामी हरिकृष्ण शास्त्री विरचित आचार्य विजयम का समग्र अध्ययन" विषय ले कर पूरी की और उन्हें पीएचडी की डिग्री से सम्मानित किया गया। गोस्वामी जी पर कुछ और शोधकार्य भारत और विदेशों में विभिन्न उच्च शिक्षा संस्थानों में चल रहे हैं।
निधन
संपादित करेंइनका देहावसान माह दिसंबर 1979 में अपने पुश्तैनी गाँव महापुरा में हुआ।।[12]
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करेंसन्दर्भ
संपादित करें- ↑ 1.'उत्तर भारतीय आन्ध्र-तैलंग-भट्ट-वंशवृक्ष' (भाग-2) संपादक स्व. पोतकूर्ची कंठमणि शास्त्री और करंजी गोकुलानंद तैलंग द्वारा 'शुद्धाद्वैत वैष्णव वेल्लनाटीय युवक-मंडल', नाथद्वारा से वि. सं. 2007 में प्रकाशित
- ↑ https://www.drvraghavancentre.com/
- ↑ 2./ Archived 2012-05-01 at the वेबैक मशीन
- ↑ 3.'Samvet': उत्तरदेशीय आन्ध्र संगति, जयपुर द्वारा १९७८ में प्रकाशित शोध पत्रिका समवेत प्रवेशांक : (संपादक :हेमंत शेष)
- ↑ https://www.anantaajournal.com/archives/2018/vol4issue5/PartB/4-5-4-868.pdf
- ↑ 4.‘श्रीआचार्यविजय’ (हिंदी अनुवाद), रेवासा धाम (सीकर) तथा हंसा प्रकाशन (जयपुर), 1977, ISBN 978-81-88257-96-6.
- ↑ 5।/ Archived 2012-05-01 at the वेबैक मशीन
- ↑ 'वंश प्रशस्ति' (काव्य) १९७० : लेखक : स्वयं गोस्वामी जी
- ↑ https://www.anantaajournal.com/archives/2018/vol4issue5/PartB/4-5-4-868.pdf
- ↑ ‘श्रीआचार्यविजय’ (हिंदी अनुवाद), रेवासा धाम (सीकर) तथा हंसा प्रकाशन (जयपुर), 1977 में प्रकाशित तथ्य
- ↑ 6./ Archived 2012-05-01 at the वेबैक मशीन
- ↑ 7./ Archived 2012-05-01 at the वेबैक मशीन