मलेरिया
मलेरिया या दुर्वात एक वाहक-जनित संक्रामक रोग है जो प्रोटोज़ोआ परजीवी द्वारा फैलता है। यह मुख्य रूप से अमेरिका, एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों के उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधी क्षेत्रों में फैला हुआ है। प्रत्येक वर्ष यह 52.5 करोड़ लोगों को प्रभावित करता है तथा 20 से 30 लाख लोगों की मृत्यु का कारण बनता है जिनमें से अधिकतर उप-सहारा अफ्रीका के युवा बच्चे होते हैं।[1] मलेरिया को आमतौर पर गरीबी से जोड़ कर देखा जाता है किंतु यह खुद अपने आप में गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास का प्रमुख अवरोधक है।
मलेरिया वर्गीकरण एवं बाह्य साधन | ||
मानव रक्त में प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम वलय-रूप तथा युग्मक. | ||
आईसीडी-१० | B50. | |
आईसीडी-९ | 084 | |
ओएमआईएम | २४८३१० | |
डिज़ीज़-डीबी | ७७२८ | |
मेडलाइन प्लस | ०००६२१ | |
ईमेडिसिन | med/१३८५ emerg/305 ped/1357 | |
एम.ईएसएच | C03.752.250.552 |
मलेरिया सबसे प्रचलित संक्रामक रोगों में से एक है तथा भंयकर जन स्वास्थ्य समस्या है। यह रोग प्लास्मोडियम गण के प्रोटोज़ोआ परजीवी के माध्यम से फैलता है। केवल चार प्रकार के प्लास्मोडियम (Plasmodium) परजीवी मनुष्य को प्रभावित करते है जिनमें से सर्वाधिक खतरनाक प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम (Plasmodium falciparum) तथा प्लास्मोडियम विवैक्स (Plasmodium vivax) माने जाते हैं, साथ ही प्लास्मोडियम ओवेल (Plasmodium ovale) तथा प्लास्मोडियम मलेरिये (Plasmodium malariae) भी मानव को प्रभावित करते हैं। इस सारे समूह को 'मलेरिया परजीवी' कहते हैं।
मलेरिया के परजीवी का वाहक मादा एनोफ़िलेज़ (Anopheles) मच्छर है। इसके काटने पर मलेरिया के परजीवी लाल रक्त कोशिकाओं में प्रवेश कर के बहुगुणित होते हैं जिससे रक्तहीनता (एनीमिया) के लक्षण उभरते हैं (चक्कर आना, साँस फूलना, द्रुतनाड़ी इत्यादि)। इसके अलावा अविशिष्ट लक्षण जैसे कि बुखार, सर्दी, उबकाई और जुखाम जैसी अनुभूति भी देखे जाते हैं। गंभीर मामलों में मरीज मूर्च्छा में जा सकता है और मृत्यु भी हो सकती है।
मलेरिया के फैलाव को रोकने के लिए कई उपाय किये जा सकते हैं। मच्छरदानी और कीड़े भगाने वाली दवाएं मच्छर काटने से बचाती हैं, तो कीटनाशक दवा के छिडकाव तथा स्थिर जल (जिस पर मच्छर अण्डे देते हैं) की निकासी से मच्छरों का नियन्त्रण किया जा सकता है। मलेरिया की रोकथाम के लिये यद्यपि टीके/वैक्सीन पर शोध जारी है, लेकिन अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हो सका है। मलेरिया से बचने के लिए निरोधक दवाएं लम्बे समय तक लेनी पडती हैं और इतनी महंगी होती हैं कि मलेरिया प्रभावित लोगों की पहुँच से अक्सर बाहर होती है। मलेरिया प्रभावी इलाके के ज्यादातर वयस्क लोगों मे बार-बार मलेरिया होने की प्रवृत्ति होती है साथ ही उनमें इस के विरूद्ध आंशिक प्रतिरोधक क्षमता भी आ जाती है, किंतु यह प्रतिरोधक क्षमता उस समय कम हो जाती है जब वे ऐसे क्षेत्र मे चले जाते है जो मलेरिया से प्रभावित नहीं हो। यदि वे प्रभावित क्षेत्र मे वापस लौटते हैं तो उन्हे फिर से पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिए। मलेरिया संक्रमण का इलाज कुनैन या आर्टिमीसिनिन जैसी मलेरियारोधी दवाओं से किया जाता है यद्यपि दवा प्रतिरोधकता के मामले तेजी से सामान्य होते जा रहे हैं।
इतिहास
मलेरिया मानव को ५०,००० वर्षों से प्रभावित कर रहा है शायद यह सदैव से मनुष्य जाति पर परजीवी रहा है। इस परजीवी के निकटवर्ती रिश्तेदार हमारे निकटवर्ती रिश्तेदारों मे यानि चिम्पांज़ी मे रहते हैं। जब से इतिहास लिखा जा रहा है तबसे मलेरिया के वर्णन मिलते हैं। सबसे पुराना वर्णन चीन से २७०० ईसा पूर्व का मिलता है। मलेरिया शब्द की उत्पत्ति मध्यकालीन इटालियन भाषा के शब्दों माला एरिया से हुई है जिनका अर्थ है 'बुरी हवा'। इसे 'दलदली बुखार' (अंग्रेजी: marsh fever, मार्श फ़ीवर) या 'एग' (अंग्रेजी: ague) भी कहा जाता था क्योंकि यह दलदली क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैलता था।
मलेरिया पर पहले पहल गंभीर वैज्ञानिक अध्ययन १८८० मे हुआ था जब एक फ़्रांसीसी सैन्य चिकित्सक चार्ल्स लुई अल्फोंस लैवेरन ने अल्जीरिया में काम करते हुए पहली बार लाल रक्त कोशिका के अन्दर परजीवी को देखा था। तब उसने यह प्रस्तावित किया कि मलेरिया रोग का कारण यह प्रोटोज़ोआ परजीवी है। इस तथा अन्य खोजों हेतु उसे १९०७ का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार दिया गया।
इस प्रोटोज़ोआ का नाम प्लास्मोडियम इटालियन वैज्ञानिकों एत्तोरे मार्चियाफावा तथा आंजेलो सेली ने रखा था। इसके एक वर्ष बाद क्युबाई चिकित्सक कार्लोस फिनले ने पीत ज्वर का इलाज करते हुए पहली बार यह दावा किया कि मच्छर रोग को एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक फैलाते हैं। किंतु इसे अकाट्य रूप प्रमाणित करने का कार्य ब्रिटेन के सर रोनाल्ड रॉस ने सिकंदराबाद में काम करते हुए १८९८ में किया था। इन्होंने मच्छरों की विशेष जातियों से पक्षियों को कटवा कर उन मच्छरों की लार ग्रंथियों से परजीवी अलग कर के दिखाया जिन्हे उन्होंने संक्रमित पक्षियों में पाला था। इस कार्य हेतु उन्हे १९०२ का चिकित्सा नोबेल मिला। बाद में भारतीय चिकित्सा सेवा से त्यागपत्र देकर रॉस ने नवस्थापित लिवरपूल स्कूल ऑफ़ ट्रॉपिकल मेडिसिन में कार्य किया तथा मिस्र, पनामा, यूनान तथा मारीशस जैसे कई देशों मे मलेरिया नियन्त्रण कार्यों मे योगदान दिया। फिनले तथा रॉस की खोजों की पुष्टि वाल्टर रीड की अध्यक्षता में एक चिकित्सकीय बोर्ड ने १९०० में की। इसकी सलाहों का पालन विलियम सी. गोर्गस ने पनामा नहर के निर्माण के समय किया, जिसके चलते हजारों मजदूरों की जान बच सकी. इन उपायों का प्रयोग भविष्य़ मे इस बीमारी के विरूद्ध किया गया।
मलेरिया के विरूद्ध पहला प्रभावी उपचार सिनकोना वृक्ष की छाल से किया गया था जिसमें कुनैन पाई जाती है। यह वृक्ष पेरु देश में एण्डीज़ पर्वतों की ढलानों पर उगता है। इस छाल का प्रयोग स्थानीय लोग लम्बे समय से मलेरिया के विरूद्ध करते रहे थे। जीसुइट पादरियों ने करीब १६४० इस्वी में यह इलाज यूरोप पहुँचा दिया, जहाँ यह बहुत लोकप्रिय हुआ। परन्तु छाल से कुनैन को १८२० तक अलग नहीं किया जा सका। यह कार्य अन्ततः फ़्रांसीसी रसायनविदों पियेर जोसेफ पेलेतिये तथा जोसेफ बियाँनेमे कैवेंतु ने किया था, इन्होंने ही कुनैन को यह नाम दिया।
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में, एन्टीबायोटिक दवाओं के अभाव में, उपदंश (सिफिलिस) के रोगियों को जान बूझ कर मलेरिया से संक्रमित किया जाता था। इसके बाद कुनैन देने से मलेरिया और उपदंश दोनों काबू में आ जाते थे। यद्यपि कुछ मरीजों की मृत्यु मलेरिया से हो जाती थी, उपदंश से होने वाली निश्चित मृत्यु से यह नितांत बेहतर माना जाता था। यधपि मलेरिया परजीवी के जीवन के रक्त चरण और मच्छर चरण का पता बहुत पहले लग गया था, किंतु यह 1980 मे जा कर पता लगा कि यह यकृत मे छिपे रूप से मौजूद रह सकता है। इस खोज से यह गुत्थी सुलझी कि क्यों मलेरिया से उबरे मरीज वर्षों बाद अचानक रोग से ग्रस्त हो जाते हैं।
रोग का वितरण तथा प्रभाव
मलेरिया प्रतिवर्ष ४० से ९० करोड़ बुखार के मामलो का कारण बनता है, वहीं इससे १० से ३० लाख मौतें हर साल होती हैं, जिसका अर्थ है प्रति ३० सैकेण्ड में एक मौत। इनमें से ज्यादातर पाँच वर्ष से कम आयु वाले बच्चें होते हैं, वहीं गर्भवती महिलाएँ भी इस रोग के प्रति संवेदनशील होती हैं। संक्रमण रोकने के प्रयास तथा इलाज करने के प्रयासों के होते हुए भी १९९२ के बाद इसके मामलों में अभी तक कोई गिरावट नहीं आयी है। यदि मलेरिया की वर्तमान प्रसार दर बनीं रही तो अगले २० वर्षों मे मृत्यु दर दोगुणी हो सकती है। मलेरिया के बारे में वास्तविक आकँडे अनुपलब्ध हैं क्योंकि ज्यादातर रोगी ग्रामीण इलाकों मे रहते हैं, ना तो वे चिकित्सालय जाते हैं और ना उनके मामलों का लेखा जोखा रखा जाता है।
मलेरिया और एच.आई.वी. का एक साथ संक्रमण होने से मृत्यु की संभावना बढ़ जाती है।[2] मलेरिया चूंकि एच.आई.वी. से अलग आयु-वर्ग में होता है, इसलिए यह मेल एच.आई.वी. - टी.बी. (क्षय रोग) के मेल से कम व्यापक और घातक होता है। तथापि ये दोनो रोग एक दूसरे के प्रसार को फैलाने मे योगदान देते हैं- मलेरिया से वायरल भार बढ जाता है, वहीं एड्स संक्रमण से व्यक्ति की प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर हो जाने से वह रोग की चपेट मे आ जाता है।
वर्तमान में मलेरिया भूमध्य रेखा के दोनों तरफ विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ है इन क्षेत्रों में अमेरिका, एशिया तथा ज्यादातर अफ्रीका आता है, लेकिन इनमें से सबसे ज्यादा मौते (लगभग ८५ से ९० % तक) उप-सहारा अफ्रीका मे होती हैं। मलेरिया का वितरण समझना थोडा जटिल है, मलेरिया प्रभावित तथा मलेरिया मुक्त क्षेत्र प्राय साथ साथ होते हैं। सूखे क्षेत्रों में इसके प्रसार का वर्षा की मात्रा से गहरा संबंध है। डेंगू बुखार के विपरीत यह शहरों की अपेक्षा गाँवों में ज्यादा फैलता है। उदाहरणार्थ वियतनाम, लाओस और कम्बोडिया के नगर मलेरिया मुक्त हैं, जबकि इन देशों के गाँव इस से पीडित हैं। अपवाद-स्वरूप अफ्रीका में नगर-ग्रामीण सभी क्षेत्र इस से ग्रस्त हैं, यद्यपि बड़े नगरों में खतरा कम रहता है। १९६० के दशक के बाद से कभी इसके विश्व वितरण को मापा नहीं गया है। हाल ही में ब्रिटेन की वेलकम ट्रस्ट ने मलेरिया एटलस परियोजना को इस कार्य हेतु वित्तीय सहायता दी है, जिससे मलेरिया के वर्तमान तथा भविष्य के वितरण का बेहतर ढँग से अध्ययन किया जा सकेगा।
सामाजिक एवं आर्थिक प्रभाव
मलेरिया गरीबी से जुड़ा तो है ही, यह अपने आप में खुद गरीबी का कारण है तथा आर्थिक विकास में बाधक है। जिन क्षेत्रों में यह व्यापक रूप से फैलता है वहाँ यह अनेक प्रकार के नकारात्मक आर्थिक प्रभाव डालता है। प्रति व्यक्ति जी.डी.पी की तुलना यदि १९९५ के आधार पर करें (खरीद क्षमता को समायोजित करके), तो मलेरिया मुक्त क्षेत्रों और मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में इसमें पाँच गुणा का अन्तर नजर आता है (१,५२६ डालर बनाम ८,२६८ डालर)। जिन देशों मे मलेरिया फैलता है उनके जी.डी.पी मे १९६५ से १९९० के मध्य केवल प्रतिवर्ष ०.४% की वृद्धि हुई वहीं मलेरिया से मुक्त देशों में यह २.४% हुई। यद्यपि साथ में होने भर से ही गरीबी और मलेरिया के बीच कारण का संबंध नहीं जोड़ा सकता है, बहुत से गरीब देशों में मलेरिया की रोकथाम करने के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं हो पाता है। केवल अफ्रीका में ही प्रतिवर्ष १२ अरब अमेरिकन डालर का नुकसान मलेरिया के चलते होता है, इसमें स्वास्थ्य व्यय, कार्यदिवसों की हानि, शिक्षा की हानि, दिमागी मलेरिया के चलते मानसिक क्षमता की हानि तथा निवेश एवं पर्यटन की हानि शामिल हैं। कुछ देशों मे यह कुल जन स्वास्थय बजट का ४०% तक खा जाता है। इन देशों में अस्पतालों में भर्ती होने वाले मरीजों में से ३० से ५०% और बाह्य-रोगी विभागों में देखे जाने वाले रोगियों में से ५०% तक रोगी मलेरिया के होते हैं।[3] एड्स और तपेदिक के मुकाबले २००७ के नवंबर माह में मलेरिया के लिए दुगने से भी ज्यादा ४६.९ करोड़ डालर की सहायता राशि खर्च की गई।[4]
रोग के लक्षण
मलेरिया के लक्षणों में शामिल हैं- ज्वर, कंपकंपी, जोड़ों में दर्द, उल्टी, रक्ताल्पता (रक्त विनाश से), मूत्र में हीमोग्लोबिन और दौरे। मलेरिया का सबसे आम लक्षण है अचानक तेज कंपकंपी के साथ शीत लगना, जिसके फौरन बाद ज्वर आता है। ४ से ६ घंटे के बाद ज्वर उतरता है और पसीना आता है। पी. फैल्सीपैरम के संक्रमण में यह पूरी प्रक्रिया हर ३६ से ४८ घंटे में होती है या लगातार ज्वर रह सकता है; पी. विवैक्स और पी. ओवेल से होने वाले मलेरिया में हर दो दिन में ज्वर आता है, तथा पी. मलेरिये से हर तीन दिन में।[5]
मलेरिया के गंभीर मामले लगभग हमेशा पी. फैल्सीपैरम से होते हैं। यह संक्रमण के 6 से 14 दिन बाद होता है। तिल्ली और यकृत का आकार बढ़ना, तीव्र सिरदर्द और अधोमधुरक्तता (रक्त में ग्लूकोज़ की कमी) भी अन्य गंभीर लक्षण हैं। मूत्र में हीमोग्लोबिन का उत्सर्जन और इससे गुर्दों की विफलता तक हो सकती है, जिसे कालापानी बुखार (अंग्रेजी: blackwater fever, ब्लैक वाटर फ़ीवर) कहते हैं। गंभीर मलेरिया से मूर्च्छा या मृत्यु भी हो सकती है, युवा बच्चे तथा गर्भवती महिलाओं मे ऐसा होने का खतरा बहुत ज्यादा होता है। अत्यंत गंभीर मामलों में मृत्यु कुछ घंटों तक में हो सकती है। गंभीर मामलों में उचित इलाज होने पर भी मृत्यु दर 20% तक हो सकती है। महामारी वाले क्षेत्र मे प्राय उपचार संतोषजनक नहीं हो पाता, अतः मृत्यु दर काफी ऊँची होती है और मलेरिया के प्रत्येक 10 मरीजों में से 1 मृत्यु को प्राप्त होता है।
मलेरिया युवा बच्चों के विकासशील मस्तिष्क को गंभीर क्षति पहुँचा सकता है। बच्चों में दिमागी मलेरिया होने की संभावना अधिक रहती है और ऐसा होने पर दिमाग में रक्त की आपूर्ति कम हो सकती है और अक्सर मस्तिष्क को सीधे भी हानि पहुँचाती है। अत्यधिक क्षति होने पर हाथ-पांव अजीब तरह से मुड़-तुड़ जाते हैं। दीर्घ काल में गंभीर मलेरिया से उबरे बच्चों में अकसर अल्प मानसिक विकास देखा जाता है। गर्भवती स्त्रियाँ मच्छरों के लिए बहुत आकर्षक होती हैं और मलेरिया से गर्भ की मृत्यु, निम्न जन्म भार और शिशु की मृत्यु तक हो सकते हैं। मुख्यतया यह पी. फ़ैल्सीपैरम के संक्रमण से होता है, लेकिन पी. विवैक्स भी ऐसा कर सकता है। पी. विवैक्स तथा पी. ओवेल परजीवी वर्षों तक यकृत मे छुपे रह सकते हैं। अतः रक्त से रोग मिट जाने पर भी रोग से पूर्णतया मुक्ति मिल गई है ऐसा मान लेना गलत है। पी. विवैक्स मे संक्रमण के 30 साल बाद तक फिर से मलेरिया हो सकता है। समशीतोष्ण क्षेत्रों में पी. विवैक्स के हर पाँच मे से एक मामला ठंड के मौसम में छुपा रह कर अगले साल अचानक उभरता है।
कारक
मलेरिया परजीवी
मलेरिया प्लास्मोडियम गण के प्रोटोज़ोआ परजीवियों से फैलता है। इस गण के चार सदस्य मनुष्यों को संक्रमित करते हैं- प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम, प्लास्मोडियम विवैक्स, प्लास्मोडियम ओवेल तथा प्लास्मोडियम मलेरिये। इनमें से सर्वाधिक खतरनाक पी. फैल्सीपैरम माना जाता है, यह मलेरिया के 80 प्रतिशत मामलों और 90 प्रतिशत मृत्युओं के लिए जिम्मेदार होता है।[6] यह परजीवी पक्षियों, रेँगने वाले जीवों, बन्दरों, चिम्पांज़ियों तथा चूहों को भी संक्रमित करता है।[7] कई अन्य प्रकार के प्लास्मोडियम से भी मनुष्य में संक्रमण ज्ञात हैं किंतु पी. नाउलेसी (P. knowlesi) के अलावा यह नगण्य हैं।[8] पक्षियों में पाए जाने वाले मलेरिया से मुर्गियाँ मर सकती हैं लेकिन इससे मुर्गी-पालकों को अधिक नुकसान होता नहीं पाया गया है।[9] हवाई द्वीप समूह में जब मनुष्य के साथ यह रोग पहुँचा तो वहाँ की कई पक्षी प्रजातियाँ इससे विनष्ट हो गयीं क्योंकि इसके विरूद्ध कोई प्राकृतिक प्रतिरोध क्षमता उनमें नहीं थी।[10]
मच्छर
मलेरिया परजीवी की प्राथमिक पोषक मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर होती है, जोकि मलेरिया का संक्रमण फैलाने में भी मदद करती है। एनोफ़िलीज़ गण के मच्छर सारे संसार में फैले हुए हैं। केवल मादा मच्छर खून से पोषण लेती है, अतः यह ही वाहक होती है ना कि नर। मादा मच्छर एनोफ़िलीज़ रात को ही काटती है। शाम होते ही यह शिकार की तलाश मे निकल पडती है तथा तब तक घूमती है जब तक शिकार मिल नहीं जाता। यह खड़े पानी के अन्दर अंडे देती है। अंडों और उनसे निकलने वाले लारवा दोनों को पानी की अत्यन्त सख्त जरुरत होती है। इसके अतिरिक्त लारवा को सांस लेने के लिए पानी की सतह पर बार-बार आना पड़ता है। अंडे-लारवा-प्यूपा और फिर वयस्क होने में मच्छर लगभग 10-14 दिन का समय लेते हैं। वयस्क मच्छर पराग और शर्करा वाले अन्य भोज्य-पदार्थों पर पलते हैं, लेकिन मादा मच्छर को अंडे देने के लिए रक्त की आवश्यकता होती है।
प्लास्मोडियम का जीवन चक्र
मलेरिया परजीवी का पहला शिकार तथा वाहक मादा एनोफ़िलीज़ मच्छर बनती है। युवा मच्छर संक्रमित मानव को काटने पर उसके रक्त से मलेरिया परजीवी को ग्रहण कर लेते हैं। रक्त में मौजूद परजीवी के जननाणु (अंग्रेजी:gametocytes, गैमीटोसाइट्स) मच्छर के पेट में नर और मादा के रूप में विकसित हो जाते हैं और फिर मिलकर अंडाणु (अंग्रेजी:oocytes, ऊसाइट्स) बना लेते हैं जो मच्छर की अंतड़ियों की दीवार में पलने लगते हैं। परिपक्व होने पर ये फूटते हैं और इसमें से निकलने वाले बीजाणु (अंग्रेजी:sporozoites, स्पोरोज़ॉट्स) उस मच्छर की लार-ग्रंथियों में पहुँच जाते हैं। मच्छर फिर जब स्वस्थ मनुष्य को काटता है तो त्वचा में लार के साथ-साथ बीजाणु भी भेज देता है।[11] मानव शरीर में ये बीजाणु फिर पलकर जननाणु बनाते हैं (नीचे देखें), जो फिर आगे संक्रमण फैलाते हैं।
इसके अलावा मलेरिया संक्रमित रक्त को चढ़ाने से भी फैल सकता है, लेकिन ऐसा होना बहुत असाधारण है।[12]
मानव शरीर में रोग का विकास
मलेरिया परजीवी का मानव में विकास दो चरणों में होता है: यकृत में प्रथम चरण और लाल रक्त कोशिकाओं में दूसरा चरण। जब एक संक्रमित मच्छर मानव को काटता है तो बीजाणु (अंग्रेजी: sporozoites, स्पोरोज़ॉइट्स) मानव रक्त में प्रवेश कर यकृत में पहुँचते हैं और शरीर में प्रवेश पाने के 30 मिनट के भीतर यकृत की कोशिकाओं को संक्रमित कर देते हैं। फिर ये यकृत में अलैंगिक जनन करने लगते हैं। यह चरण 6 से 15 दिन चलता है। इस जनन से हजारों अंशाणु (अंग्रेजी: merozoites, मीरोज़ॉइट्स) बनते हैं जो अपनी मेहमान कोशिकाओं को तोड़ कर रक्त में प्रवेश कर जातें हैं तथा लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित करना शुरू कर देते हैं।[13]
इससे रोग का दूसरा चरण शुरु होता है। पी. विवैक्स और पी. ओवेल के कुछ बीजाणु यकृत को ही संक्रमित करके रुक जाते हैं और सुप्ताणु (अंग्रेजी: hypnozoites, हिप्नोज़ॉइट्स) के रूप में निष्क्रिय हो जाते हैं। ये 6 से 12 मास तक निष्क्रिय रह कर फिर अचानक अंशाणुओं के रूप में प्रकट हो जाते हैं और रोग पैदा कर देते हैं।[14]
लाल रक्त कोशिका में प्रवेश करके ये परजीवी खुद को फिर से गुणित करते रहते हैं। ये वलय रूप में विकसित होकर फिर भोजाणु (अंग्रेजी: trophozoites, ट्रोफ़ोज़ॉइट्स) और फिर बहुनाभिकीय शाइज़ॉण्ट (अंग्रेजी: schizont) और फिर अनेकों अंशाणु बना देते हैं। समय समय पर ये अंशाणु पोषक कोशिकाओं को तोड़कर नयीं लाल रक्त कोशिकाओं को संक्रमित कर देते हैं। ऐसे कई चरण चलते हैं। मलेरिया में बुखार के दौरे आने का कारण होता है हजारों अंशाणुओं का एकसाथ नई लाल रक्त कोशिकाओं को प्रभावित करना।
मलेरिया परजीवी अपने जीवन का लगभग सभी समय यकृत की कोशिकाओं या लाल रक्त कोशिकाओं में छुपा रहकर बिताता है, इसलिए मानव शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र से बचा रह जाता है। तिल्ली में नष्ट होने से बचने के लिए पी. फैल्सीपैरम एक अन्य चाल चलता है- यह लाल रक्त कोशिका की सतह पर एक चिपकाऊ प्रोटीन प्रदर्शित करा देता है जिससे संक्रमित रक्त कोशिकाएँ को छोटी रक्त वाहिकाओं में चिपक जाती हैं और तिल्ली तक पहुँच नहीं पाती हैं।[15] इस कारण रक्तधारा में केवल वलय रूप ही दिखते हैं, अन्य सभी विकास के चरणों में यह छोटी रक्त वाहिकाओं की सतहों में चिपका रहता है। इस चिपचिपाहट के चलते ही मलेरिया रक्तस्त्राव की समस्या करता है।
यद्यपि संक्रमित लाल रक्त कोशिका की सतह पर प्रदर्शित प्रोटीन पीएफईएमपी1 (Plasmodium falciparum erythrocyte membrane protein 1, प्लास्मोडियम फैल्सीपैरम इरिथ्रोसाइट मैम्ब्रेन प्रोटीन 1) शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र का शिकार बन सकता है, ऐसा होता नहीं है क्योंकि इस प्रोटीन में विविधता बहुत ज्यादा होती है। हर परजीवी के पास इसके 60 प्रकार होते है वहीं सभी के पास मिला कर असंख्य रूपों में ये इस प्रोटीन को प्रदर्शित कर सकते हैं। वे बार बार इस प्रोटीन को बदल कर शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र से एक कदम आगे रहते हैं। कुछ अंशाणु नर-मादा जननाणुओं में बदल जाते हैं और जब मच्छर काटता है तो रक्त के साथ उन्हें भी ले जाता है। यहाँ वे फिर से अपना जीवन चक्र पूरा करते हैं।
निदान
लक्षणों के आधार पर मलेरिया का इलाज़ कैसे
अनेक मलेरिया-ग्रस्त क्षेत्रों में बुखार के हर मरीज को मलेरिया का आनुमानिक निदान दे दिया जाता है और कुनैन से इलाज शुरु कर दिया जाता है।[16] इसके साथ ही रक्त की पट्टिकाएँ भी बना ली जाती हैं, लेकिन इलाज शुरु करने के लिए इसके परिणामों की प्रतीक्षा नहीं की जाती। ऐसा कई ऐसे क्षेत्रों में भी किया जाता है जहाँ सामान्य प्रयोगशाला परीक्षणों की सुविधाए उपलब्ध नहीं हों। लेकिन मलावी में हुआ एक अध्ययन बताता है कि बुखार के साथ-साथ यदि गुदा का तापमान, नाखूनों में रक्तहीनता और तिल्ली के आकार को भी ध्यान में लिया जाए तो मलेरिया के अनावश्यक उपचार से बहुत बचा जा सकता है (निदान में 21 से 41 तक बढ़ोतरी)।).[17]
रक्त की सूक्ष्मदर्शी से जांच
रक्त पट्टिकाओं का सूक्ष्मदर्शी से परीक्षण करना मलेरिया के निदान का सबसे सस्ता, अच्छा तथा भरोसेमंद तरीका माना जाता है। इस परीक्षण से चारों मलेरिया परजीवियों के विशिष्ट लक्षणों के द्वारा अलग-अलग निदान किया जा सकता है। रक्त पट्टिकाएँ दो तरह से बनाई जाती हैं - पतली और मोटी। पतली पट्टिकाओं में परजीवी की बनावट को बेहतर ढंग से सुरक्षित रखा जा सकता है, वहीं दूसरी ओर मोटी पट्टिकाओं से कम समय में रक्त की अधिक मात्रा की जाँच की जा सकती है और इससे कम मात्रा के संक्रमण का भी निदान किया जा सकता है। अनुभवी परीक्षक रक्त में 0.0000001 प्रतिशत तक के संक्रमण को पहचान सकते हैं। इन कारणों से मोटी और पतली दोनों पट्टियाँ बनाई जाती हैं। साथ ही एक से अधिक वलय चरणों की जाँच करना जरूरी होता है, क्योंकि चारों परजीवियों के वलय चरण बहुधा एक जैसे दिखते हैं।.[18]
क्षेत्र परीक्षण
मलेरिया के निदान के लिए अनेक एंटीजन-आधारित डिपस्टिक (अंग्रेजी: dipstick) परीक्षण या मलेरिया रैपिड एंटीजन टेस्ट (अंग्रेजी: Malaria Rapid Antigen Tests, मलेरिया त्वरित एंटीजन परीक्षण) भी उपलब्ध हैं। इन्हें रक्त की केवल एक बूंद की आवश्यकता होती है, और सिर्फ 15-20 मिनट में ही परिणाम सामने आ जाता है, प्रयोगशाला की आवश्यकता नहीं होती है। ये सूक्ष्मदर्शी जांच से थोडे कमतर माने जाते है। लेकिन जिन क्षेत्रों में सूक्ष्मदर्शी जांच की सुविधा उपलब्ध नहीं होती या परीक्षकों को मलेरिया के निदान का अनुभव नहीं होता वहाँ प्रभावित क्षेत्र में जा कर रक्त की एक बून्द से एण्टीजन परीक्षण कर लिया जाता है। सबसे पहले इन परीक्षणों का विकास पी. फैल्सीपैरम के किण्वक ग्लूटामेट डीहाइड्रोजनेज़ को एंटीजन के रूप में प्रयोग करके किया गया।[19] लेकिन जल्दी ही एक अन्य किण्वक लैक्टेट डीहाड्रोजनेज़ का प्रयोग करके ऑप्टिमल-आईटी (अंग्रेजी: Optimal-IT) नामक परीक्षण का विकास किया गया।[20] ये किण्वक रक्त में अधिक समय तक मौजूद नहीं रहते और परजीवी का खात्मा हो जाने पर ये भी रक्त से निकल जाते हैं, अतः इन परीक्षणों का उपयोग इलाज की सफलता या विफलता जानने के लिये भी किया जाता है। ऑप्टिमल-आईटी फैल्सीपैरम और गैर-फैल्सीपैरम मलेरिया में अन्तर भी कर सकता है। यह पी. फैल्सीपैरम का 0.01 प्रतिशत और गैर-फैल्सीपैरम मलेरिया परजीवियों का 0.1 प्रतिशत तक रक्त में निदान कर सकता है। इसके अतिरिक्त पी. फैल्सीपैरम विशिष्ट हिस्टिडीन-भरपूर प्रोटीनों (अंग्रेजी: P. falciparum specific histidine-rich proteins) पर आधारित पैराचैक-पीएफ (अंग्रेजी: Paracheck-Pf) रक्त में 0.002 प्रतिशत तक मलेरिया परजीवी का निदान कर सकता है, लेकिन यह फैल्सीपैरम और गैर-फैल्सीपैरम मलेरिया में अन्तर नहीं कर पाता है।
अन्य परीक्षण
इनके अतिरिक्त पॉलीमरेज़ श्रृंखला अभिक्रिया (अंग्रेजी: polymerase chain reaction, PCR) का प्रयोग करके और आणविक विधियों के प्रयोग से भी कुछ परीक्षण विकसित किये गए हैं, लेकिन ये अभी काफी महंगे हैं, तथा केवल विशिष्ट प्रयोगशालाओं में ही उपलब्ध हैं। सस्ते, संवेदी तथा सरल परीक्षणों के विकास की अब भी आवश्यकता है, जिनका प्रयोग क्षेत्र में, मलेरिया के निदान के लिए किया जा सके।[21]
गंभीर मलेरिया का निदान
गंभीर मलेरिया को अफ्रीका मे प्रायः पहचान लेने में गलती होती है, जिसके चलते अन्य प्राणघातक बीमारियों का इलाज भी नहीं हो पाता है। रक्त में परजीवी की मौजूदगी केवल गंभीर मलेरिया से ही नहीं, अन्य कई जानलेवा बीमारियों के चलते भी हो सकती है। हाल के अध्ययन बताते हैं कि मलेरिया-जनित मूर्च्छा और गैर-मलेरिया-जनित मूर्च्छा में अन्तर करने के लिए मलेरियल रेटिनोपैथी (आँख के रेटिना के आधार पर पहचान) किसी भी अन्य परीक्षण से बेहतर है।[22]
उपचार
मलेरिया के कुछ मामले आपातकालीन होते है तथा मरीज को पूर्णतया स्वस्थ होने तक निगरानी मे रखना अनिवार्य होता है, किंतु अन्य प्रकार के मलेरिया में ऐसा आवश्यक नहीं हैं, इलाज बहिरंग विभाग में किया जा सकता है। उचित इलाज होने पर मरीज बिलकुल ठीक हो जाता है। कुछ लक्षणों का उपचार सामान्य दवाओं से किया जाता है, साथ में मलेरिया-रोधी दवाएँ भी दी जाती है। ये दवाएं दो प्रकार की होती हैं- पहली जो प्रतिरोधक होती हैं और रोग होने से पहले लिए जाने पर रोग से सुरक्षा करती हैं तथा दूसरी वे जिनका रोग से संक्रमित हो जाने के बाद प्रयोग किया जाता है। अनेक दवाएँ केवल प्रतिरोध या केवल उपचार के लिए इस्तेमाल होती हैं, जबकि अन्य कई दोनों तरह से प्रयोग में लाई जा सकती हैं। कुछ दवाएँ एक-दूसरे के प्रभाव को बढ़ाती हैं और इनका प्रयोग साथ में किया जाता है। प्रतिरोधक दवाओं का प्रयोग अक्सर सामूहिक रूप से ही किया जाता है।
कुनैन पर आधारित अनेक औषधियों को मलेरिया का अच्छा उपचार समझा जाता है। इसके अतिरिक्त आर्टिमीसिनिन जैसी औषधियाँ, जो आर्टिमीसिया एन्नुआ (अंग्रेजी:Artemisia annua) नामक पौधे से तैयार की जाती है, मलेरिया के इलाज में प्रभावी पाई गई हैं। कुछ अन्य औषधियों का प्रयोग भी मलेरिया के विरुद्ध सफल हुआ है। कुछ औषधियों पर प्रयोग जारी है। दवा के चुनाव में सबसे प्रमुख कारक होता है उस क्षेत्र में मलेरिया परजीवी किन दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित कर चुका है। अनेक दवाएँ जिनका प्रयोग पहले मलेरिया के विरुद्ध सफल समझा जाता था आजकल सफल नहीं समझा जाता क्यों कि मलेरिया के परजीवी धीरे धीरे उनके प्रति प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त कर चुके हैं।
होम्योपैथी में मलेरिया का उपचार उपलब्ध है, हालांकि अनेक चिकित्सकों का मानना है कि मलेरिया जैसी गंभीर बीमारी का इलाज एलोपैथिक दवाओं से ही किया जाना चाहिये, क्योंकि ये वैज्ञानिक शोध पर आधारित हैं। यहाँ तक कि ब्रिटिश होमियोपैथिक एसोसिएशन की सलाह यही है कि मलेरिया के उपचार के लिए होम्योपैथी पर निर्भर नहीं करना चाहिए।[23] आयुर्वेद में मलेरिया को विषम ज्वर कहा जाता है और इसके उपचार के लिये अनेक औषधियाँ उपलब्ध हैं।
यद्यपि मलेरिया के आज प्रभावी उपचार उपलब्ध है, लेकिन विश्व के अनेक अविकिसित क्षेत्रों में मलेरिया पीड़ित क्षेत्रों में या तो यह मिलता नहीं हैं या इतना महंगा होता है कि आम मरीज उसका उपयोग नहीं कर पाता है। मलेरिया की दवाओं की बढ़ती माँग को देखकर अनेक प्रभावित देशों मे बडे पैमाने पर नकली दवाओं का कारोबार होता है, जो अनेक मृत्युओं का कारण बनता है। आजकल कम्पनियाँ नई तकनीकों का प्रयोग करके इस समस्या से निपटने का प्रयास कर रही हैं।
रोकथाम तथा नियन्त्रण
मलेरिया का प्रसार इन कारकों पर निर्भर करता है- मानव जनसंख्या का घनत्व, मच्छरों की जनसंख्या का घनत्व, मच्छरों से मनुष्यों तक प्रसार और मनुष्यों से मच्छरों तक प्रसार। इन कारकों में से किसी एक को भी बहुत कम कर दिया जाए तो उस क्षेत्र से मलेरिया को मिटाया जा सकता है। इसीलिये मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों मे रोग का प्रसार रोकने हेतु दवाओं के साथ-साथ मच्छरों का उन्मूलन या उनसे काटने से बचने के उपाय किये जाते हैं। अनेक अनुसन्धान कर्ता दावा करते हैं कि मलेरिया के उपचार की तुलना मे उस से बचाव का व्यय दीर्घ काल मे कम रहेगा। 1956-1960 के दशक मे विश्व स्तर पर मलेरिया उन्मूलन के व्यापक प्रयास किये गये (वैसे ही जैसे चेचक उन्मूलन हेतु किये गये थे)। किंतु उनमे सफलता नहीं मिल सकी और मलेरिया आज भी अफ्रीका मे उसी स्तर पर मौजूद है।
मच्छरों के प्रजनन स्थलों को नष्ट करके मलेरिया पर बहुत नियन्त्रण पाया जा सकता है। खड़े पानी में मच्छर अपना प्रजनन करते हैं, ऐसे खड़े पानी की जगहों को ढक कर रखना, सुखा देना या बहा देना चाहिये या पानी की सतह पर तेल डाल देना चाहिये, जिससे मच्छरों के लारवा सांस न ले पाएं। इसके अतिरिक्त मलेरिया-प्रभावित क्षेत्रों में अकसर घरों की दीवारों पर कीटनाशक दवाओं का छिड़काव किया जाता है। अनेक प्रजातियों के मच्छर मनुष्य का खून चूसने के बाद दीवार पर बैठ कर इसे हजम करते हैं। ऐसे में अगर दीवारों पर कीटनाशकों का छिड़काव कर दिया जाए तो दीवार पर बैठते ही मच्छर मर जाएगा, किसी और मनुष्य को काटने के पहले ही। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में छिडकाव के लिए लगभग 12 दवाओं को मान्यता दी है। इनमें डीडीटी के अलावा परमैथ्रिन और डेल्टामैथ्रिन जैसी दवाएँ शामिल हैं, खासकर उन क्षेत्रों मे जहाँ मच्छर डीडीटी के प्रति रोधक क्षमता विकसित कर चुके है।
मच्छरदानियाँ मच्छरों को लोगों से दूर रखने मे सफल रहती हैं तथा मलेरिया संक्रमण को काफी हद तक रोकती हैं। एनोफिलीज़ मच्छर चूंकि रात को काटता है इसलिए बड़ी मच्छरदानी को चारपाई/बिस्तर पे लटका देने तथा इसके द्वारा बिस्तर को चारों तरफ से पूर्णतः घेर देने से सुरक्षा पूरी हो जाती है। मच्छरदानियाँ अपने आप में बहुत प्रभावी उपाय नहीं हैं किंतु यदि उन्हें रासायनिक रूप से उपचारित कर दें तो वे बहुत उपयोगी हो जाती हैं। मलेरिया-प्रभावित क्षेत्रों में मलेरिया के प्रति जागरूकता फैलाने से मलेरिया में 20 प्रतिशत तक की कमी देखी गई है। साथ ही मलेरिया का निदान और इलाज जल्द से जल्द करने से भी इसके प्रसार में कमी होती है। अन्य प्रयासों में शामिल है- मलेरिया संबंधी जानकारी इकट्ठी करके उसका बड़े पैमाने पर विश्लेषण करना और मलेरिया नियन्त्रण के तरीके कितने प्रभावी हैं इसकी जांच करना। ऐसे एक विश्लेषण में पता लगा कि लक्षण-विहीन संक्रमण वाले लोगों का इलाज करना बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि इनमें बहुत मात्रा में मलेरिया संचित रहता है।
मलेरिया के विरूद्ध टीके विकसित किये जा रहे है यद्यपि अभी तक सफलता नहीं मिली है। पहली बार प्रयास 1967 में चूहे पे किया गया था जिसे जीवित किंतु विकिरण से उपचारित बीजाणुओं का टीका दिया गया। इसकी सफलता दर 60% थी। एसपीएफ66 (अंग्रेजी: SPf66) पहला टीका था जिसका क्षेत्र परीक्षण हुआ, यह शुरू में सफल रहा किंतु बाद मे सफलता दर 30% से नीचे जाने से असफल मान लिया गया। आज आरटीएस, एसएएस02ए (अंग्रेजी: RTS,S/AS02A) टीका परीक्षणों में सबसे आगे के स्तर पर है। आशा की जाती है कि पी. फैल्सीपरम के जीनोम की पूरी कोडिंग मिल जाने से नयी दवाओं का तथा टीकों का विकास एवं परीक्षण करने में आसानी होगी।
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बाहरी कड़ियाँ