राधा कृष्ण
राधा कृष्ण (अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृत लिप्यन्तरण वर्णमाला लुआ त्रुटि मॉड्यूल:Lang में पंक्ति 1670 पर: attempt to index field 'engvar_sel_t' (a nil value)।, संस्कृत राधा कृष्ण) एक हिंदू देवी-देवता हैं। कृष्ण को गौड़ीय वैष्णव धर्मशास्त्र में अक्सर स्वयं भगवान के रूप में सन्दर्भित किया गया है और राधा एक युवा नारी हैं, एक गोपी जो कृष्ण की सर्वोच्च प्रेयसी हैं।[1] कृष्ण के साथ, राधा को सर्वोच्च देवी स्वीकार किया जाता है और यह कहा जाता है कि वह अपने प्रेम से कृष्ण को नियंत्रित करती हैं।[2] यह माना जाता है कि कृष्ण संसार को मोहित करते हैं, लेकिन राधा "उन्हें भी मोहित कर लेती हैं। इसलिए वे सभी देवी में सर्वोच्च देवी हैं।"[3]
राधा कृष्ण | |
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संबंध | भगवान विष्णु के आठवें अवतार |
निवासस्थान | वृन्दावन |
जीवनसाथी | राधा |
हालांकि भगवान के ऐसे रूप की पूजा करने के काफी आरंभिक सन्दर्भ मौजूद हैं, पर जब सन् बारहवीं शताब्दी में जयदेव गोस्वामी ने प्रसिद्ध गीत गोविन्द लिखा, तो दिव्य कृष्ण और उनकी भक्त राधा के बीच के आध्यात्मिक प्रेम सम्बन्ध को सम्पूर्ण भारतवर्ष में पूजा जाने लगा। [4] यह माना जाता है कि कृष्ण ने राधा को खोजने के लिए रास नृत्य के चक्र को छोड़ दिया था। चैतन्य सम्प्रदाय का मानना है कि राधा के नाम और पहचान को भागवत पुराण में इस घटना का वर्णन करने वाले छंद में गुप्त भी रखा गया है और उजागर भी किया गया है।[5] यह भी माना जाता है कि राधा मात्र एक चरवाहे की कन्या नहीं हैं, बल्कि सभी गोपियों या उन दिव्य व्यक्तित्वों का मूल हैं जो रास नृत्य में भाग लेती हैं। 
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सत्रहवीं सदी के बंगाल से प्राप्त ग्रन्थ वासुदेव रहस्य राधतन्त्र के षष्ठ पटल में राधा की प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा की सास का नाम जटिला और पति का नाम अभिमन्युक: लिखा है। कुटिला ननद और वृन्दा के देवर का नाम दुर्मद है।
श्वश्रूस्तु जटिला ख्याता पतिर्म्मान्योऽतिमन्युकः ॥ ननान्दा कुटिलानाम्नी देवरो दुर्म्मदाभिधः ।
इति वासुदेवरहस्ये राधातन्त्रे षष्ठः पटलः ॥
संपादित करेंपौर्णमासी भगवती सर्व्वसौभाग्यवर्द्धिनी । पितामहो महीभानुर्व्विन्दुर्म्मातामहो मतः ॥
मातामहीपितामह्यौ सुखदामोक्षदाभिधे । रत्नभानुः स्वभानुश्च भानुश्च भ्रातरः पितुः ॥
भद्रकीर्त्तिर्म्महाकीर्त्तिः कीर्त्तिचन्द्रश्च मातुलः स्वसा कीर्त्तिमती मातुर्भानुमुद्रा पितृष्वसा॥
पितृष्वसृपतिः काश्यो मातृष्वसृपतिः कृशः मातुली मेनकामेना षष्ठी धात्री तु धातकी ॥
श्रीदामा पूर्वज भ्राता कनिष्ठानङ्गमञ्जरी परमप्रेष्ठसख्यस्तु ललिता च विशाखिका ॥
विचित्रा चम्पकलता रङ्गदेवी सुदेविका । तुङ्गवेद्यङ्गलेखा च इत्यष्टौ च गणा मताः ॥
प्रियसख्यः कुरङ्गाक्षी मण्डली मानकुण्डला । मालती चन्द्रलतिका माधवामदनालसा ॥
मञ्जुमेया शशिकला सुमध्या मधुमेक्षणा । कमला कामलतिका कान्तचूडा वराङ्गना ॥
मधूरी चन्द्रिका प्रेममञ्जरी तनुमध्यमा । कन्दर्पसुन्दरी मञ्जुवेशी चाद्यास्तु कोटिशः रक्ताजीवितयाख्याता कलिका केलिसुन्दरी पृष्ठ ४/१४०कादम्बरी शशिमुखी चन्द्ररेखा प्रियंवदा ॥
मदोन्मादा मधुमती वासन्ती कलभाषिणी । रत्नवेणी मालवती कर्पूरतिलकादयः ॥
एता वृन्दावनेश्वर्य्याः प्रायः सारूप्यमागताः । नित्यसख्यस्तु कस्तूरी मनोज्ञा मणिमञ्जरी
सिन्दूरा चन्दनवती कौमुदी मुदितादयः । काननादिगतास्तस्या विहारार्थं कला इव ॥
अथ तस्याः प्रकीर्त्त्यन्ते प्रेयस्यः परमाद्भुताः वनादित्योप्युरुप्रेमसौन्दर्य्यभरभूषिताः ॥
चन्द्रावली च पद्मा च श्यामा सैका च भद्रिका । तारा चित्रा च गन्धर्व्वी पालिका चन्द्रमालिका ॥
मङ्गला विमला नीला भवनाक्षी मनोरमा । कल्पलता तथा मञ्जुभाषिणी मञ्जुमेखला
कुमुदा कैरवी पारी शारदाक्षी विशारदा । शङ्करी कुसुमा कृष्णा सारङ्गी प्रविलाशिनी तारावती गुणवती सुमुखी केलिमञ्जरी । हारावली चकोराक्षी भारती कामिनीति च ॥
आसां यूथानि शतशः ख्यातान्यन्यानि सुभ्रुवाम् लक्षसंख्यास्तु कथिता यूथे यूथे वराङ्गनाः ॥
मुख्यास्तु तेषु यूथेषु कान्ताः सर्व्वगुणोत्तमाः । राधा चन्द्रावली भद्रा श्यामला पालिकादयः ॥
जन्मनाम्नाथ सा ख्याता मधुमासे विशेषतः । पुष्यर्क्षे च नवम्यां वै शुक्लपक्षे शुचिस्मिते
जाता राधा महेशानी स्वयं प्रकृतिपद्मिनी । तासु रेमे महेशानि स्वयं कृष्णः शुचिस्मिते । रमणं वासुदेवस्य मन्त्रसिद्धेस्तु कारणम् ॥
देव्युवाच । भो देव तापसां श्रेष्ठ विस्ताराद्वद ईश्वर। कथं सा पद्मिनी राधा सदा पद्मवने स्थिता॥
पितरं मातरं त्यक्त्वा आत्मतुल्यां ससर्ज्ज सा । पद्ममाश्रित्य देवेश वृन्दावनविलासिनी । सदाध्यास्ते महेशानि एतद्गुह्यं वद प्रभो ॥ “ =====इति वासुदेवरहस्ये राधातन्त्रे सप्तमः पटलः॥
अब इसी प्रकरण की समानता के लिए देखें नीचे
=="श्रीश्रीराधाकृष्णगणोद्देश्य दीपिका-==
प्रस्तुतिकरण- यादव योगेश रोहि
में वर्णित राधा जी के पारिवारिक सदस्यों की सूची वासुदेव- रहस्य- राधा तन्त्र नामक ग्रन्थ के ही समान हैं परन्तु श्लोक विपर्यय ( उलट- फेर) हो गया है। और कुछ शब्दों के वर्ण- विन्यास ( वर्तनी) में भी परिवर्तन वार्षिक परिवर्तन हुआ है।
"वृषभानु: पिता तस्या राधाया वृषभानरिवोज्ज्जवल:।१६८।(ख)
रत्नगर्भाक्षितौ ख्याति कीर्तिदा जननी भवेत्।।१६९।(क)
अनुवाद:- श्री राधा के पिता वृषभानु वृष राशि में स्थित भानु( सूर्य ) के समान उज्ज्वल हैं।१६८-(ख)
श्री राधा जी की माता का नाम कीर्तिदा है। ये पृथ्वी पर रत्नगर्भा- के नाम से प्रसिद्ध हैं।१६९।(क)
"पितामहो महीभानुरिन्दुर्मातामहो मत:।१६९(ख) मातामही पितामह्यौ मुखरा सुखदे उभे।१७०(क)
राधा जी के पिता का नाम महीभानु तथा नाना का नाम इन्दु है। राधा जी दादी का नाम सुखदा और नानी का नाम मुखरा है।१७०।(क)
" रत्नभानु:, सुभानुश्च भानुश्च भ्रातर: पितु:"१७०(ख)
भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्रश्च मातुला:। मातुल्यो मेनका , षष्ठी , गौरी,धात्री और धातकी।।१७१।
अनुवाद:-
भद्रकर्ति , महाकीर्ति, कीर्तिचन्द्र मामा:। और मेनका , षष्ठी , गौरी धात्री और धातकी ये राधा की पाँच मामीयाँ हैं।१७१/।
"स्वसा कीर्तिमती मातुर्भानुमुद्रा पितृस्वसा। पितृस्वसृपति: काशो मातृस्वसृपति कुश:।१७२।।
अनुवाद:- श्रीराधा जी की माता की बहिन का नाम कीर्तिमती,और भानुमुद्रा पिता की बहिन ( बुआ) का नाम है। फूफा का नाम "काश और मौसा जी का नाम कुश है।
"श्रीदामा पूर्वजो भ्राता कनिष्ठानङ्गमञ्जरी।१७३।(क)
अनुवाद:- श्री राधा जी के बड़े भाई का नाम श्रीदामन्- तथा छोटी बहिन का नाम श्री अनंगमञ्जरी है।१७३।(क)
"राधा जी की प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा जो ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री है उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों के नाम भी बताना आवश्यक है। वह राधा के अँश से उत्पन्न राधा के ही समान रूप ,वाली गोपी है। वृन्दावन नाम उसी के कारण प्रसिद्ध हो जाता है। रायाण गोप का विवाह उसी वृन्दावन के साथ होता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के श्रीकृष्ण जन्मखण्ड के अध्याय-(86) में श्लोक संख्या134-से लगातार 143 तक वृन्दा और रायाण के विवाह ता वर्णन है।
उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४
श्रीभगवानुवाच- त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः । तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि ।१३५ ।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।१३६
"वृन्दे ! त्वं वृषभानसुता च राधाच्छाया भविष्यसि। मत्कलांशश्च रायाणस्त्वां विवाह ग्रहीष्यति ।१३७।
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह । राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा ।१३८।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति। १३९।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति । राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति । च गोकुले ।१४० ।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नारि पश्यन्ति बल्लवाः स्वयं राधा मम क्रोडे छाया वृन्दा रायाणकामिनी ।१४१।
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी । उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसन्निभः ।। पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् । १४२।
वृन्दोवाच देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः । न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३ ।
उपर्युक्त संस्कृत श्लोकों का नीचे अनुवाद देखें-
अनुवाद:- तब भगवान कृष्ण जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले।
श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है।
वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ।
वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी।
सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में हे वृन्दे ! तुम पुन: राधा की वृषभानु की कन्या राधा की छायाभूता होओगी।
उस समय मेरे कलांश से ही उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे।
फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे पुन: प्राप्त करोगी।
स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह मनु के पौत्र केदार की पुत्री वृन्दा " से हुआ था। जो राधाच्छाया के रूप में व्रज में उपस्थित थी।
जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी।
हे वृन्दे ! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही पाणि-ग्रहण करेंगे;
परंतु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे। ___________________________
उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरी हृदय स्थल में रहती हैं !
इस प्रकार भगवान कृष्ण के वचन के सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये।
उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौंदर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर को श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। _____________ सन्दर्भ:- ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः-( ८६ ) राधा जी की प्रतिरूपा( छाया) वृन्दा जो ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री है उसके ससुराल पक्ष के सदस्यों के नाम भी बताना आवश्यक है।
"वीरा जटिलाया: प्रियतमा जावटाख्य पुरस्थिता। राधाया: प्रतिच्छाया वृन्दया: श्वशुरो वृकगोपश्च देवरो दुर्मदाभिध:।१७३।(ख)
श्वश्रूस्तु जटिला ख्याता पतिमन्योऽभिमनयुक:। ननन्दा कुटिला नाम्नी सदाच्छिद्रविधायनी।१७४।
"अनुवाद:- राधा की प्रतिछाया रूपा वृन्दा के श्वशुर -वृकगोप देवर- दुर्मद नाम से जाने जाते थे। और सास- का नाम जटिला और पति अभिमन्यु - पति का अभिमान करने वाला था। हर समय दूसरे के दोंषों को खोजने वाली ननद का नाम कुटिला था।१७४।
सन्दर्भ:- श्री-श्री-राधागणोद्देश्यदीपिका( लघुभाग- श्री-कृष्णस्य प्रेयस्य: प्रकरण- रूपादिकम्-
*परिचय*-
गर्गसंहिता खण्डः १ गोलोकखण्डः अध्याय-8)
"श्रीराधिकाजन्मवर्णनं"
श्रुत्वा तदा शौनक भक्तियुक्तः श्रीमैथिलो ज्ञानभृतां वरिष्ठः । नत्वा पुनः प्राह मुनिं महाद्भुतं देवर्षिवर्यं हरिभक्तिनिष्ठः ॥ १ ॥
"बहुलाश्व उवाच - त्वया कुलं कौ विशदीकृतं मे स्वानंददोर्यद्यशसामलेन । श्रीकृष्णभक्तक्षणसंगमेन जनोऽपि सत्स्याद्बहुना कुमुस्वित् ॥२॥
श्रीराधया पूर्णतमस्तु साक्षा- द्गत्वा व्रजे किं चरितं चकार । तद्ब्रूहि मे देवऋषे ऋषीश त्रितापदुःखात्परिपाहि मां त्वम् ॥ ३ ॥
"श्रीनारद उवाच - धन्यं कुलं यन्निमिना नृपेण श्रीकृष्णभक्तेन परात्परेण । पूर्णीकृतं यत्र भवान्प्रजातो शुक्तौ हि मुक्ताभवनं न चित्रम् ॥ ४॥
अथ प्रभोस्तस्य पवित्रलीलां सुमङ्गलां संशृणुतां परस्य । अभूत्सतां यो भुवि रक्षणार्थं न केवलं कंसवधाय कृष्णः ॥ ५॥
अथैव राधां वृषभानुपत्न्या- मावेश्य रूपं महसः पराख्यम् । कलिन्दजाकूलनिकुञ्जदेशे सुमन्दिरे सावततार राजन् ॥ ६॥
घनावृते व्योम्नि दिनस्य मध्ये भाद्रे सिते नागतिथौ च सोमे । अवाकिरन्देवगणाः स्फुरद्भि- स्तन्मन्दिरे नन्दनजैः प्रसूनैः ॥ ७॥
राधावतारेण तदा बभूवु- र्नद्योऽमलाभाश्च दिशः प्रसेदुः । ववुश्च वाता अरविन्दरागैः सुशीतलाः सुन्दरमन्दयानाः ॥ ८॥
सुतां शरच्चन्द्रशताभिरामां दृष्ट्वाऽथ कीर्तिर्मुदमाप गोपी । शुभं विधायाशु ददौ द्विजेभ्यो द्विलक्षमानन्दकरं गवां च ॥९॥
प्रेङ्खे खचिद्रत्नमयूखपूर्णे सुवर्णयुक्ते कृतचन्दनाङ्गे । आन्दोलिता सा ववृधे सखीजनै- र्दिने दिने चंद्रकलेव भाभिः ॥ १० ॥
यद्दर्शनं देववरैः सुदुर्लभं यज्ञैरवाप्तं जनजन्मकोटिभिः । सविग्रहां तां वृषभानुमन्दिरे ललन्ति लोका ललनाप्रलालनैः ॥११॥
श्रीरासरङ्गस्य विकासचन्द्रिका दीपावलीभिर्वृषभानुमन्दिरे । गोलोकचूडामणिकण्ठभूषणां ध्यात्वा परां तां भुवि पर्यटाम्यहम् ॥ १२।
"श्रीबहुलाश्व उवाच -
वृषभानोरहो भाग्यं यस्य राधा सुताभवत् ।
कलावत्या सुचन्द्रेण किं कृतं पूर्वजन्मनि ॥ १३ ॥
"श्रीनारद उवाच -
नृगपुत्रो महाभाग सुचन्द्रो नृपतीश्वरः ।
चक्रवर्ती हरेरंशो बभूवातीव सुन्दरः ॥ १४ ॥
पितॄणां मानसी कन्यास्तिस्रोऽभूवन्मनोहराः कलावती रत्नमाला मेनका नाम नामतः।१५॥
कलावतीं सुचन्द्राय हरेरंशाय धीमते । वैदेहाय रत्नमालां मेनकां च हिमाद्रये । पारिबर्हेण विधिना स्वेच्छाभिः पितरो ददुः ।१६ ॥
सीताभूद्रत्नमालायां मेनकायां च पार्वती । द्वयोश्चरित्रं विदितं पुराणेषु महामते ॥ १७॥
सुचन्द्रोऽथ कलावत्या गोमतीतीरजे वने । दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैस्तताप ब्रह्मणस्तपः ॥ १८॥
अथ विधिस्तमागत्य वरं ब्रूहीत्युवाच ह ।
श्रुत्वा वल्मीकदेशाच्च निर्ययौ दिव्यरूपधृक्॥१९॥
तं नत्वोवाच मे भूयाद्दिव्यं मोक्षं परात्परम् । तच्छ्रुत्वा दुःखिता साध्वी विधिं प्राह कलावती॥ २०॥
पतिरेव हि नारीणां दैवतं परमं स्मृतम् । यदि मोक्षमसौ याति तदा मे का गतिर्भवेत् ॥२१॥
एनं विना न जीवामि यदि मोक्षं प्रदास्यसि । तुभ्यं शापं प्रदास्यामि पतिविक्षेपविह्वला ॥ २२ ॥
"श्रीब्रह्मोवाच - त्वच्छापाद्भयभीतोऽहं मे वरोऽपि मृषा न हि । तस्मात्त्वं प्राणपतिना सार्धं गच्छ त्रिविष्टपम् ॥२३॥
भुक्त्वा सुखानि कालेन युवां भूमौ भविष्यथः । गंगायमुनयोर्मध्ये द्वापरान्ते च भारते ॥ २४॥
युवयो राधिका साक्षात्परिपूर्णतमप्रिया । भविष्यति यदा पुत्री तदा मोक्षं गमिष्यथः ॥२५ ॥
"श्रीनारद उवाच - इत्थं ब्रह्मवरेणाथ दिव्येनामोघरूपिणा । कलावतीसुचन्द्रौ च भूमौ तौ द्वौ बभूवतुः ॥२६॥
कलावती कान्यकुब्जे भलन्दननृपस्य च । जातिस्मरा ह्यभूद्दिव्या यज्ञकुण्डसमुद्भवा ॥२७ ॥
सुचन्द्रो वृषभान्वाख्यः सुरभानुगृहेऽभवत् । जातिस्मरो गोपवरः कामदेव इवापरः ॥ २८॥
सम्बन्धं योजयामास नन्दराजो महामतिः । तयोश्च जातिस्मरयोरिच्छतोरिच्छया द्वयोः ॥ २९ ॥
वृषभानोः कलावत्या आख्यानं शृणुते नरः । सर्वपापविनिर्मुक्तः कृष्णसायुज्यमाप्नुयात् ॥ ३० ॥
"इति श्रीगर्गसंहितायां गोलोकखण्डे"
"अनुवाद- श्रीगर्ग जी कहते हैं- शौनक ! राजा बहुलाश्व का हृदय भक्तिभाव से परिपूर्ण था। हरिभक्ति में उनकी अविचल निष्ठा थी। उन्होंने इस प्रसंग को सुनकर ज्ञानियों में श्रेष्ठ एवं महाविलक्षण स्वभाव वाले देवर्षि नारद जी को प्रणाम किया और पुन: पूछा।
राजा बहुलाश्व ने कहा- भगवन् ! आपने अपने आनन्दप्रद, नित्य वृद्धिशील, निर्मल यश से मेरे कुल को पृथ्वी पर अत्यंत विशद (उज्ज्वल) बना दिया; क्योंकि श्रीकृष्ण भक्तों के क्षणभर के संग से साधारण जन भी सत्पुरुष महात्मा बन जाता है।
इस विषय में अधिक कहने से क्या लाभ। श्रीराधा के साथ भूतल अवतीर्ण हुए साक्षात परिपूर्णतम भगवान ने व्रज में कौन-सी लीलाएँ कीं- यह मुझे कृपा पूर्वक बताइये।
देवर्षे ! ऋषीश्वर ! इस कथामृत द्वारा आप त्रिताप-दु:ख से मेरी रक्षा कीजिये।
श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! वह कुल धन्य है, जिसे परात्पर श्रीकृष्ण भक्त राजा निमि ने समस्त सदगुणों से परिपूर्ण बना दिया है और जिसमें तुम- जैसे योगयुक्त एवं भव-बन्धन से मुक्त पुरुष ने जन्म लिया है।
तुम्हारे इस कुल के लिये कुछ भी विचित्र नहीं है। अब तुम उन परम पुरुष भगवान श्रीकृष्ण की परम मंगलमयी पवित्र लीला का श्रवण करो।
वे भगवान केवल कंस का संहार करने के लिये ही नहीं, अपितु भूतल के संतजनों की रक्षा के लिये अवतीर्ण हुए थे।
अथैव राधां वृषभानुपत्न्या- मावेश्य रूपं महसः पराख्यम् । कलिन्दजाकूलनिकुञ्जदेशे सुमन्दिरे सावततार राजन् ॥ ६ ॥
अनुवाद-
उन्होंने अपनी तेजोमयी पराशक्ति श्री राधा का वृषभानु की पत्नी कीर्ति रानी के गर्भ में प्रवेश कराया।
वे श्री राधा कलिन्दजाकूलवर्ती( यमुना के किनारे वाले) निकुंज प्रदेश के एक सुन्दर मन्दिर में अवतीर्ण हुईं।
उस समय भाद्रपद का महीना था। शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि एवं सोम का दिन था। मध्याह्न का समय था और आकाश में बादल छाये हुए थे। देवगण नन्दनवन के भव्य प्रसून लेकर भवन पर बरसा रहे थे।
उस समय श्री राधिका जी के अवतार धारण करने से नदियों का जल स्वच्छ हो गया।
सम्पूर्ण दिशाएँ प्रसन्न-निर्मल हो उठीं। कमलों की सुगन्ध से व्याप्त शीतल वायु मन्द गति से प्रवाहित हो रही थी। शरत्पूर्णिमा के शत-शत चन्द्रमाओं से भी अधिक अभिरामा( सुन्दरी) कन्या को देखकर गोपी कीर्तिदा आनन्द में निमग्न हो गयीं।
गोलोक खण्ड : अध्याय 8 का शेष भाग
उन्होंने मंगल कृत्य कराकर पुत्री के कल्याण की कामना से आनन्ददायिनी दो लाख उत्तम गौएँ ब्राह्मणों को दान की। जिनका दर्शन बड़े-बड़े देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, तत्त्वज्ञ मनुष्य सैकड़ों जन्मों तक तप करने पर भी जिनकी झाँकी नहीं पाते, वे ही श्री राधिका जी जब वृषभानु के यहाँ साकार रूप से प्रकट हुईं और गोप-ललनाएँ जब उनका लालन-पालन करने लगी, तब सर्वधारण एवं सुन्दर रत्नों से खचित, चन्दन निर्मित तथा रत्न किरण मंडित पालने में सखी जनों द्वारा नित्य झुलायी जाती हुई श्री राधा प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की कला की भाँति बढ़ने लगी।
श्री राधा क्या हैं- रास की रंगस्थली को प्रकाशित करने वाली चन्द्रिका, वृषभानु-मन्दिर की दीपावली, गोलोक-चूड़ामणि श्रीकृष्ण के कण्ठ की हारावली।
मैं उन्हीं पराशक्ति का ध्यान करता हुआ भूतल पर विचरता रहता हूँ।
राजा बहुलाश्व ने पूछा- मुने ! वृषभानु जी का सौभाग्य अदभुत है, अवर्णनीय है; क्योंकि उनके यहाँ श्री राधिका जी स्वयं पुत्री रूप से अवतीर्ण हुईं। कलावती और सुचन्द्र ने पूर्वजन्म में कौन सा पुण्यकर्म किया था, जिसके फलस्वरूप इन्हें यह सौभाग्य प्राप्त हुआ।
श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! राजराजेश्वर महाभाग सुचन्द्र राजा नृग के पुत्र थे। परम सुन्दर सुचन्द्र चक्रवर्ती नरेश थे। उन्हें साक्षात भगवान का अंश माना जाता है। पूर्वकाल में (अर्यमा प्रभृति) पितरों के यहाँ तीन मानसी कन्याएँ उत्पन्न हुई थी। वे सभी परम सुन्दरी थी। उनके नाम थे- कलावती, रत्नमाला और मेनका।
पितरों ने स्वेच्छा से ही कलावती का हाथ श्री हरि के अंश भूत बुद्धिमान सुचन्द्र के हाथ में दे दिया। रत्नमाला को विदेहराज के हाथ में और मेनका को हिमालय के हाथ में अर्पित कर दिया।
साथ ही विधि पूर्वक दहेज की वस्तुएँ भी दी। महामते ! रत्नमाला से सीताजी और मेनका के गर्भ से पार्वती जी प्रकट हुई। इन दोनों देवियों की कथाएँ पुराणों में प्रसिद्ध हैं। तदनंतर कलावती को साथ लेकर महाभाग सुचन्द्र गोमती के तट पर ‘नैमिष’( नीमसार)नामक वन में गये।
उन्होंने ब्रह्माजी की प्रसन्नता के लिये तपस्या आरम्भ की। वह तप देवताओं के कालमान से बारह वर्षों तक चलता रहा।
तदनंतर ब्रह्माजी वहाँ पधारे और बोले- ‘वर माँगो।’ राजा के शरीर पर दीमकें चढ़ गयी थी।
ब्रह्मवाणी सुनकर वे दिव्य रूप धारण करके बाँबी( दीमक के द्वारा बनाये गये घर) से बाहर निकले।
उन्होंने सर्वप्रथम ब्रह्माजी को प्रणाम किया और कहा- ‘मुझे दिव्य परात्पर मोक्ष प्राप्त हो।’ राजा की बात सुनकर साध्वी रानी कलावती का मन दु:खी हो गया। अत: उन्होंने
ब्रह्माजी से कहा- ‘पितामह ! पति ही नारियों के लिये सर्वोत्कृष्ट देवता माना गया है।
यदि ये मेरे पति देवता मुक्ति प्राप्त कर रहे हैं तो मेरी क्या गति होगी ? इनके बिना मैं जीवित नहीं रहूँगी।
यदि आप इन्हें मोक्ष देंगे तो मैं पतिसाहचर्य में विक्षेप के कारण विह्वल हो आपको शाप दे दूँगी।
ब्रह्माजी ने कहा- देवि ! मैं तुम्हारे शाप के भय से अवश्य डरता हूँ; किंतु मेरा दिया हुआ वर कभी विफल नहीं हो सकता। इसलिये तुम अपने प्राणपति के साथ स्वर्ग में जाओ। वहाँ स्वर्ग सुख भोगकर कालांतर में फिर पृथ्वी पर जन्म लोगी।
द्वापर के अंत में भारतवर्ष में, गंगा और यमुना के बीच, तुम्हारा जन्म होगा। तुम दोनों से जब परिपूर्ण भगवान की प्रिया साक्षात श्रीराधिका जी पुत्री रूप में प्रकट होंगी, तब तुम दोनों साथ ही मुक्त हो जाओगे।
श्री नारद जी कहते हैं- इस प्रकार ब्रह्माजी के दिव्य एवं अमोघ वर से कलावती और सुचन्द्र- दोनों की भूतल पर उत्पत्ति हुई।
वे ही गोकुल ( महावन) में ‘कीर्ति’ तथा ‘श्री वृषभानु’ दाम्पति हुए हैं। कलावती कान्यकुब्ज देश (कन्नौज) में राजा भलन्दन के यज्ञ कुण्ड़ से प्रकट हुई।
उस दिव्य कन्या को अपने पूर्वजन्म की सारी बातें स्मरण थीं।
पूर्वजन्म के कलावती और सुचन्द्र ही इस जन्म के कीर्तिदा और वृषभानु हुए।
सुरभानु गोप के घर सुचन्द्र का जन्म हुआ। उस समय वे ‘श्रीवृषभानु’ नाम से विख्यात हुए।
उन्हें भी पूर्वजन्म की स्मृति बनी रही। वे गोपों में श्रेष्ठ होने के साथ ही दूसरे कामदेव के समान परम सुन्दर थे।
परम बुद्धिमान नन्दराज जी ने इन दोनों का विवाह-सम्बन्ध जोड़ा था। उन दोनों को पूर्वजन्म की स्मृति थी ही, अत: वह एक-दूसरे को चाहते थे और दोनों की इच्छा से ही यह सम्बन्ध हुआ।
जो मनुष्य वृषभानु और कलावती के इस उपाख्यान को श्रवण करता है, वह सम्पूर्ण पापों से छूट जाता है और अंत में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के सायुज्य को प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार श्री गर्ग संहिता में गोलोक खण्ड के अंतर्गत नारद-बहुलाश्व संवाद में ‘श्री राधिका के पूर्वजन्म का वर्णन’ नामक आठवाँ अध्याय
(पौराणिक शब्दावली में राधा नाम का अस्तित्व)
अरिष्टराधाकुण्डाभ्यां स्नानात्फलमवाप्नुयात्।।
राजसूयाश्वमेधानां नात्र कार्या विचरणा ।।३७।।
"अनुवाद-अरिष्टासुर का वध जहाँ किया गया और राधा जी का जहाँ कुण्ड है उन दोनों नें स्नान करने से वह फल मिलता है जो राजसूय और अश्वमेध से भी नहीं मिलता है। यहाँ कोई विचार नहीं करा चाहिए ।३७।
गोनरब्रह्महत्यायाः पापं क्षिप्रं विनश्यति ।। तीर्थं हि मोक्षराजाख्यं नृणां मुक्तिप्रदायकम् ।३८।
अनुवाद गाय " मनुष्य और ब्रह्मज्ञानी की हत्या का पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।३८।
"श्रीवराहपुराणे मथुरामाहात्म्यान्तर्गते गोवर्द्धनमाहात्म्येऽन्नकूटपरिक्रमप्रभावो नाम चतुःषष्ट्यषिकशततमोऽध्यायः।१६४।
हरनिकट निवासी कृष्णसेवाविलासी प्रणतजनविभासी गोपकन्याप्रहासी । हरकृतबहुमानो गोपिकेशैकतानो विदितबहुविधानो जायतां कीर्तिहानौ ॥२,४३.६॥ "अनुवाद- 6-विघ्नेश्वर वह व्यक्ति न हो जो यश का नाश करता हो - जो सदैव हर (शिव) के समीप रहता है, जो कृष्ण की सेवा का मनोहर कार्य करता है, जो अपने सामने झुकने वाले लोगों को चमका देता है, जो गोपियों को हंसाता है, जो हर द्वारा भी आदरणीय है, जो गोपियों के स्वामी (अर्थात कृष्ण) के प्रति समर्पित होकर एकचित्त रहता है और जिसने अनेक प्रकार के उपायों को समझ लिया है।
प्रभुनियतमाना यो नुन्नभक्तान्तरायो त्दृतदुरितनिकायो ज्ञानदातापरायोः। सकलगुणगरिष्ठो राधिकाङ्केनिविष्टो मम कृतमपराधं क्षन्तुमर्हत्वगाधम् ॥ २,४३.७ ॥ अनुवाद 7. कृष्ण मेरे अपराध को क्षमा करने के अधिकारी हैं, भले ही वह बहुत गंभीर हो, कृष्ण जिन्होंने अपने मन को रोककर उसे भगवान (परमेश्वर-शिव) की ओर लगाया है, जिन्होंने अपने भक्तों की बाधाओं को दूर किया है, जिन्होंने पापों के समूह को हटा दिया है, जो उन लोगों को ज्ञान प्रदान करते हैं जिनके पास कोई धन नहीं है, जो सभी अच्छे गुणों से युक्त हैं और जो राधा की गोद में लेटे हैं
या राधा जगदुद्भवस्थितिलयेष्वाराध्यते वा जनैः शब्दं बोधयतीशवक्त्रंविगलत्प्रेमामृतास्वादनम् । रासेशी रसिकेश्वरी रमणत्दृन्निष्ठानिजानन्दिनी नेत्री सा परिपातु मामवनतं राधेति य कीर्त्यते ॥ २,४३.८ ॥ अनुवाद
8. वह नेता मेरी रक्षा करें क्योंकि मैं उस नेता को प्रणाम करता हूँ जो राधा के रूप में महिमामंडित है, जो ब्रह्मांड के परिणाम, पालन और संहार के समय लोगों द्वारा प्रसन्न की जाती है, जो दूसरों को भगवान के मुंह से निकलने वाले प्रेम के अमृत की सराहना करने के लिए अनुकूल शब्द समझाती है, जो रास नृत्य की अधिष्ठात्री है, जो रसिकों (जो सौंदर्य बोध रखती हैं) की देवी है और जो अपने प्रेमी के हृदय के प्रति अपनी दृढ़ निष्ठा के माध्यम से अपने समूह से संबंधित लोगों को प्रसन्न करती है।
यस्या गर्भसमुद्भवो ह्यतिविराड्यस्यांशभूतो विराट्यन्नाभ्यंबुरुहोद्भवेन विधिनैकान्तोपदिष्टेन वै सृष्टं सर्वमिदं चराचरमयं विश्वं च यद्रोमसु ब्रह्माण्डानि विभान्ति तस्य जननी शश्वत्प्रसन्नास्तु सा ॥२,४३.९ । अनुवाद
9. वह सदैव प्रसन्न रहे, जिसके गर्भ से अतिविराट (अत्यंत श्रेष्ठ) उत्पन्न हुआ है और जिसका विराट अंश मात्र है। यह समस्त चर-अचर जगत ब्रह्मा द्वारा रचित है , जो भगवान की नाभि से निकले कमल से उत्पन्न हुए हैं और जिन्हें एकांत स्थान में शिक्षा दी गई थी। भगवान के शरीर के रोम छिद्रों में ब्रह्माण्डीय अण्डे चमकते हैं। वह जो उस भगवान की माता है, सदैव प्रसन्न रहे।
पायाद्यः स चराचरस्य जगतो व्यापी विभुः सच्चिदानन्दाब्धिः प्रकटस्थितो विलसति प्रेमान्धया राधया । कृष्णः पूर्णतमो ममोपरि दयाक्लिन्नान्तरः स्तात्सदा येनाहं सुकृती भवामि च भवाम्यानन्दलीनान्तरः ॥ २,४३.१० ॥ अनुवाद
10. हे कृष्ण, मुझ पर कृपा करें, हे कृष्ण, जो चर-अचर प्राणियों से युक्त इस ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं; जो सर्वव्यापी हैं; जो अस्तित्व, ज्ञान और आनन्द के सागर हैं, तथा जो प्रेम के कारण अन्धी राधा के साथ स्वयं को सुन्दरता से प्रकट करते हैं। हे पूर्ण और सम्पूर्ण कृष्ण, मुझ पर कृपा करें, जिससे मैं पुण्यवान बन जाऊँ और आनन्द में लीन हो सकूँ।”
"वशिष्ठ-उवाच स्तुत्वैवं जामदग्न्यस्तु विरराम ह तत्परम् । विज्ञाताखिलतत्त्वार्थो हृष्टरोमा कृतार्थवत् ॥ २,४३.११ ॥ अनुवाद
वसिष्ठ ने कहा : 11. इस प्रकार परम पुरुष की स्तुति करके जमदग्निपुत्र रुक गये। वे समस्त तत्त्वों का अर्थ समझ गये थे, उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये, मानो उनकी मनोकामना पूर्ण हो गयी हो।
अथोवाच प्रसन्नात्मा कृष्णः कमललोचनः ।
भार्गवं प्रणतं भक्त्या कृपापात्रं पुरस्थितम् ॥ २,४३.१२ ॥
अनुवाद
12. तब प्रसन्नचित्त कमलनेत्र कृष्ण ने भार्गव से कहा। भार्गव ने उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम किया, जो उनकी सहानुभूति के पात्र थे और उनके सामने खड़े हो गये।
"कृष्ण उवाच
सिद्धोऽसि भार्गवेन्द्र त्वं प्रसादान्मम संप्रतम्। अद्य प्रभृति वत्सास्मिं ल्लोके श्रेष्ठतमो भव ॥२,४३.१३ ॥
अनुवाद
कृष्ण ने कहा :
13. हे भृगुवंश के प्रमुख सदस्य ! मेरे आशीर्वाद से अब आप आध्यात्मिक रूप से सिद्ध व्यक्ति बन गए हैं। हे प्रिय, अब से इस संसार में सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति बनो।
तुभ्यं वरो मया दत्तः पुरा विष्णुपदाश्रमे । तत्सर्वं क्रमतो भाव्यं समा बह्वीस्त्वया विभो ॥ २,४३.१४ ॥
अनुवाद
14. पूर्वकाल में विष्णुपाद की तपस्या स्थली पर मैंने तुम्हें वरदान दिया था। हे पवित्र प्रभु, यह सब कुछ कई वर्षों में घटित होगा।
दया विधेया दीनेषु श्रेय उत्तममिच्छता । योगश्च सादनीयो वै शत्रूणां निग्रहस्तथा ॥ २,४३.१५ ॥
अनुवाद
15. उत्तम कल्याण चाहने वाले को दुःखी और दीन-दुःखी लोगों पर दया करनी चाहिए, योग का अभ्यास करना चाहिए तथा शत्रुओं का नाश करना चाहिए।
त्वत्समो नास्ति लोकेऽस्मिंस्तेजसा च बलेन च । ज्ञानेन यशसा वापि सर्वश्रेष्ठतमो भवान् ॥ २,४३.१६ ।
अनुवाद
16. इस संसार में तेज और शारीरिक बल की दृष्टि से आपके समान कोई नहीं है। विद्या और यश की दृष्टि से भी आप सबमें श्रेष्ठ हैं।
अथ स्वगृहमासाद्य पित्रोः शुश्रूषणं कुरु । तपश्चर यथाकालं तेन सिद्धिः करस्थिता ॥ २,४३.१७ ॥
अनुवाद
17. घर पहुंचकर माता-पिता की सेवा करो, उचित समय पर तप करो। इससे आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति तुम्हारी पहुंच में होगी।
राधोत्संगात्समुत्थाप्य गणेशं राधिकेश्वरः । आलिङ्ग्य गाढं रासेण मैत्रीं तस्य चकार ह ॥ २,४३.१८ ॥
अथोभावपि सम्प्रीतौ तदा रामगणेश्वरौ । कृष्णाज्ञया महाभागौ बभूवतुररिन्दम॥२,४३.१९॥
एतस्मिन्नन्तरे देवी राधा कृष्णप्रिया सती । उभाभ्यां च वरं प्रादात्प्रसन्नास्या मुदान्विता ॥ २,४३.२० ॥ इति श्री ब्रह्माण्डे
"अनुवाद-
18. तब राधाजी ने गणेशजी को राधा की गोद से उठाकर हृदय से लगा लिया और राम से उनका मैत्री-संबंध स्थापित कर दिया।
19 हे शत्रुदमन! कृष्ण के कहने पर महान् भाग्यवान राम और गणेश दोनों ही अत्यन्त प्रसन्न हुए।
20. इस बीच, कृष्ण की सती-प्रियतम देवी राधा प्रसन्न हुईं और उन्होंने अपने चेहरे पर स्पष्ट प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उन दोनों को वरदान दिए।
राधोवाच।
सर्वस्य जगतो वन्द्यौ दुराधर्षौं प्रियावहौ ।
मद्भक्तौ च विशेषेण भवन्तौ भवतां सुतौ ॥ २,४३.२१॥
भवतोर्नाम चौच्चार्य यत्कार्यं यः समारभेत् । सिद्धिं प्रयातु ततसर्वं मत्प्रसादाद्धि तस्य तु ॥ २,४३.२२ ॥
अथोवाच जगन्माता भवानी भववल्लभा । वत्स राम प्रसन्नाहं तुभ्यं कं प्रददे वरम् । तं प्रब्रूहि महाभाग भयं त्यक्त्वा सुदूरतः । "राम उवाच जन्मान्तरसहस्रेषु येषुयेषु व्रजाम्यहम्॥२,४३.२३॥
कृष्णयोर्भवयोर्भक्तो भविष्यामीति देहि मे ।
अभेदेन च पश्यामि कृष्णौ चापि भवौ तथा ॥ २,४३.२४ ॥
"पार्वत्युवाच एवमस्तु महाभाग भक्तोऽसि भवकृष्णयोः । चिरञ्जीवी भवाशु त्वं प्रसादान्मम सुव्रत ॥ २,४३.२५ ॥
"अनुवाद-
राधा ने कहा :
21. तुम्हारे दोनों पुत्र समस्त लोकों के पूजनीय तथा उनके सुखदाता होंगे। तुम अजेय होगे। विशेषकर तुम मेरे भक्त होगे।
22. जो कोई आपका नाम लेकर कोई कार्य आरम्भ करेगा, उसे उस कार्य में सफलता मिलेगी। सब कुछ मेरे आशीर्वाद से होगा।
२३-२४. तब भव (शिव) की प्रियतमा , जगत् की माता भवानी ने कहाः—
"हे राम! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें क्या वरदान दूँ? हे भाग्यवान, भय त्यागकर उसका वर्णन करो।"
राम ने कहा :
मुझे यह वरदान दीजिए कि मैं भविष्य में होने वाले हजारों जन्मों में कृष्ण और उनकी प्रेमिका के साथ-साथ भाव और उनकी प्रेमिका का भी भक्त बनूँ। मैं कृष्ण (अर्थात कृष्ण और राधा) और भाव (भाव और भवानी) में कोई अंतर नहीं देखूँगा।” [3]
पार्वती ने कहा :
25. "हे परम भाग्यशाली, ऐसा ही हो। तुम भव (शिव) और कृष्ण के भक्त हो। हे पवित्र अनुष्ठानों के ज्ञाता, मेरे आशीर्वाद से तुम दीर्घायु हो।
अथोवाच धराधीशः प्रसन्नस्तमुमापतिः । प्रणतं भार्गवेन्द्रं तु वरार्हं जगदीश्वरः ॥२,४३.२६ ॥
"शिव उवाच रामभक्तोऽसि मे वत्स यस्ते दत्तो वरो मया । स भविष्यति कार्त्स्येन सत्यमुक्तं न चान्यथा ॥ २,४३.२७ ॥
अद्यप्रभृति लोकेऽस्मिन् भवतो बलवत्तरः । न कोऽपि भवताद्वत्स तेजस्वी च भवत्परः ॥ २,४३.२८ ॥
"वसिष्ठ उवाच अथ कृष्णोऽप्यनुज्ञाप्य शिवं च नगनन्दिनीम् । गोलोकं प्रययौ युक्तः श्रीदाम्ना चापि राधया ॥ २,४३.२९ ॥
"अनुवाद-
26 तब प्रसन्न होकर पर्वतराज, उमा के पति, ब्रह्माण्ड के स्वामी ने भृगुवंश के प्रमुख सदस्य से, जो नतमस्तक होकर वर देने के योग्य थे, कहा।
शिव ने कहा :
27. "हे राम! तुम मेरे भक्त हो। मैंने तुम्हें जो वरदान दिया है, वह तुम्हारे लिए पूर्णतः फलदायी होगा। मैंने सत्य कहा है। इससे भिन्न कभी नहीं होगा।
28. अब से इस संसार में तुमसे अधिक शक्तिशाली या तुमसे अधिक ऐश्वर्यवान कोई नहीं होगा।”
वसिष्ठ ने कहा :
29. शिवजी और पर्वत पुत्री उमा की अनुमति लेकर कृष्ण श्रीदामन और राधा के साथ गोलोक वापस चले गये।
अथ रामोऽपि धर्मात्मा भवानींच भवं तथा ।सम्पूज्य चाभिवाद्याथ प्रदक्षिणमुपा क्रमीत् ॥ २,४३.३० ॥
"अनुवाद-
30-तत्पश्चात् धर्मात्मा राम ने भवानी और भव की पूजा की और उन्हें प्रणाम करके उनकी प्रदक्षिणा की।
गणेशं कार्त्तिकेयं च नत्वापृच्छ्य च भूपते । अकृतव्रणसंयुक्तो निश्चक्राम गृहान्तरात् ॥ २,४३.३१ ॥
"अनुवाद-
31. हे पृथ्वी के स्वामी, गणेश और कार्तिकेय को प्रणाम करके तथा उनसे विदा लेकर वह अकृतव्रण के साथ घर की ओर चल पड़ा ।
निष्क्रम्यमाणो रामस्तु नन्दीश्वरमुखैर्गणैः । नमस्कृतो ययौ राजन्स्वगृहं परया मुदा ॥ २,४३.३२ ॥"
अनुवाद-
32. प्रस्थान करते समय राम को गणों के प्रधान नन्दीश्वर ने प्रणाम किया और हे राजन! वे बड़े आनन्द से अपने घर चले गये।
फ़ुटनोट और संदर्भ:
[1] :
कुछ अक्षरों का अनुप्रास (जैसे श्लोक ४अ और ४ब में नम और त: तथा श्लोक ५ में शि , श्लोक ६अ और ६ब में सि और नो) ध्यान देने योग्य हैं।
इस प्रार्थना में परशुराम शिव परिवार के महत्वपूर्ण सदस्यों राधा और कृष्ण की स्तुति करते हैं, जिन्होंने गणेश का दांत तोड़कर उन्हें संकट से बाहर निकालने में मदद की थी।
[2] :
“ लेख- पाटविनाशी के स्थान पर लेखा-तप-प्राणशी के रूप में संशोधित किया गया क्योंकि पाठ अस्पष्ट है।
[3] :
यह पुराण विशेष रूप से वैष्णव और शैव धर्म को एक साथ लाने का प्रयास करता है। यहाँ मांगा गया वरदान इस बात पर जोर देता है।
महापुराणे वायुप्रोक्ते मध्यमाभागे तृतीय- उपोद्धातपादे भार्गवचरिते त्रिचत्वारिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ४३॥
—
राधा जी - श्री कृष्ण की सबसे प्रिय पत्नी थी राधा मूल प्रकृति हैं इन्हीं के अंश से लक्ष्मी देवी के दो रूप माने जाते हैं। जब कृष्ण गोकुल में दो हाथों वाले पुरुष के रूप में रहते हैं, तब राधा उनकी सबसे प्रिय पत्नी होती हैं।
लेकिन जब वे चार हाथों वाले विष्णु के रूप में वैकुंठ में अपने अंश से रहते हैं, तब महालक्ष्मी उनकी सबसे प्रिय पत्नी होती हैं। और वे ही नारायण के साथ लक्ष्मी रूप में होती हैं।
सन्दर्भ:-
(देवी भागवत 9, 1;
पञ्चप्राणाधिदेवी या पञ्चप्राणस्वरूपिणी ।
प्राणाधिकप्रियतमा सर्वाभ्यः सुन्दरी परा ॥ ४४ ॥
सर्वयुक्ता च सौभाग्यमानिनी गौरवान्विता ।
वामाङ्गार्धस्वरूपा च गुणेन तेजसा समा ॥ ४५ ॥
परावरा सारभूता परमाद्या सनातनी ।
परमानन्दरूपा च धन्या मान्या च पूजिता ॥ ४६ ॥
रासक्रीडाधिदेवी श्रीकृष्णस्य परमात्मनः ।
रासमण्डलसम्भूता रासमण्डलमण्डिता।४७ ॥
रासेश्वरी सुरसिका रासावासनिवासिनी ।
गोलोकवासिनी देवी गोपीवेषविधायिका ।४८॥
परमाह्लादरूपा च सन्तोषहर्षरूपिणी ।
निर्गुणा च निराकारा निर्लिप्ताऽऽत्मस्वरूपिणी ॥ ४९ ॥
निरीहा निरहङ्कारा भक्तानुग्रहविग्रहा ।
वेदानुसारिध्यानेन विज्ञाता मा विचक्षणैः ॥ ५० ॥
दृष्टिदृष्टा न सा चेशैः सुरेन्द्रैर्मुनिपुङ्गवैः ।
वह्निशुद्धांशुकधरा नानालङ्कारभूषिता ॥ ५१ ॥
कोटिचन्द्रप्रभा पुष्टसर्वश्रीयुक्तविग्रहा ।
श्रीकृष्णभक्तिदास्यैककरा च सर्वसम्पदाम् ।५२ ॥
अवतारे च वाराहे वृषभानुसुता च या ।
यत्पादपद्मसंस्पर्शात्पवित्रा च वसुन्धरा।५३ ॥
ब्रह्मादिभिरदृष्टा या सर्वैर्दृष्टा च भारते ।
स्त्रीरत्नसारसम्भूता कृष्णवक्षःस्थले स्थिता ।५४।
यथाम्बरे नवघने लोला सौदामनी मुने ।
षष्टिवर्षसहस्राणि प्रतप्तं ब्रह्मणा पुरा ॥ ५५ ॥
यत्पादपद्मनखरदृष्टये चात्मशुद्धये ।
न च दृष्टं च स्वप्नेऽपि प्रत्यक्षस्यापि का कथा।५६।
तेनैव तपसा दृष्टा भुवि वृन्दावने वने ।
कथिता पञ्चमी देवी सा राधा च प्रकीर्तिता ।५७।
अंशरूपाः कलारूपाः कलांशांशांशसम्भवाः ।
प्रकृतेः प्रतिविश्वेषु देव्यश्च सर्वयोषितः ॥ ५८ ॥
परिपूर्णतमाः पञ्च विद्यादेव्यः प्रकीर्तिताः ।
या याः प्रधानांशरूपा वर्णयामि निशामय ॥ ५९ ॥
प्रधानांशस्वरूपा सा गङ्गा भुवनपावनी ।
विष्णुविग्रहसम्भूता द्रवरूपा सनातनी ॥ ६० ॥
पापिपापेध्मदाहाय ज्वलदग्निस्वरूपिणी ।
सुखस्पर्शा स्नानपानैर्निर्वाणपददायिनी ॥ ६१ ॥
गोलोकस्थानप्रस्थानसुखसोपानरूपिणी ।
पवित्ररूपा तीर्थानां सरितां च परावरा ॥ ६२ ॥
शम्भुमौलिजटामेरुमुक्तापंक्तिस्वरूपिणी ।
तपःसम्पादिनी सद्यो भारतेषु तपस्विनाम् ॥ ६३ ॥
चन्द्रपद्मक्षीरनिभा शुद्धसत्त्वस्वरूपिणी ।
निर्मला निरहङ्कारा साध्वी नारायणप्रिया।६४ ॥
प्रधानांशस्वरूपा च तुलसी विष्णुकामिनी ।
विष्णुभूषणरूपा च विष्णुपादस्थिता सती।६५ ॥
तपःसंकल्पपूजादिसङ्घसम्पादिनी मुने ।
सारभूता च पुष्पाणां पवित्रा पुण्यदा सदा ॥ ६६ ॥
दर्शनस्पर्शनाभ्यां च सद्यो निर्वाणदायिनी ।
कलौ कलुषशुष्केध्मदहनायाग्निरूपिणी ॥ ६७ ॥
यत्पादपद्मसंस्पर्शात्सद्यः पूता वसुन्धरा ।
यत्स्पर्शदर्शने चैवेच्छन्ति तीर्थानि शुद्धये ॥ ६८ ॥
यया विना च विश्वेषु सर्वकर्म च निष्फलम् ।
मोक्षदा या मुमुक्षूणां कामिनी सर्वकामदा ॥ ६९ ॥
कल्पवृक्षस्वरूपा या भारते वृक्षरूपिणी ।
भारतीनां प्रीणनाय जाता या परदेवता ॥ ७० ॥
अनुवाद
श्रीनारायण बोले- सृष्टि-विधान में मूलप्रकृति पाँच प्रकारकी कही गयी है-गणेशजननी दुर्गा, राधा, लक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री ॥ 1 ॥
नारद जी बोले हे ज्ञानियों में श्रेष्ठ! आप कृपापूर्वक बतायें कि किस निमित्त उस प्रकृति का आविर्भाव होता है, उनका स्वरूप क्या है, उनका लक्षण क्या है तथा वे किस प्रकार पाँच रूपोंमें प्रकट हुई।
हे साधो! इन सभी स्वरूपोंका चरित्र, पूजाविधान, अभीष्ट गुण तथा किसका अवतार कहाँ हुआ-यह सब विस्तारपूर्वक मुझे बतायें ll 2-3 ll
श्रीनारायण बोले- हे वत्स! देवी प्रकृतिके सम्पूर्ण लक्षण कौन बता सकता है? फिर भी धर्मराज के मुख से मैंने जो सुना है, उसे यत्किंचित् रूप से बताता हूँ ॥ 4 ॥
'प्र' अक्षर प्रकृष्टका वाचक है और 'कृति' से सृष्टिका बोध होता है। जो देवी सृष्टिप्रक्रियामें प्रकृष्ट हैं, वे ही प्रकृति कही गयी हैं। 'प्र' शब्द प्रकृष्ट सत्त्वगुण, 'कृ' रजोगुण और 'ति' शब्द तमोगुणका प्रतीक कहा गया है।
जो त्रिगुणात्मिका हैं, वे ही सर्वशक्तिसे सम्पन्न होकर प्रधानरूपसे सृष्टिकार्य में संलग्न रहती हैं, अतः उन्हें 'प्रकृति' या 'प्रधान' कहा जाता है।5-7।
प्रथम का बोधक 'प्र' और सृष्टिवाचक 'कृति' शब्द के संयोग से सृष्टि के प्रारम्भ में जो देवी विद्यमान रहती हैं, उन्हें प्रकृति कहा गया है ॥ 8 ॥
सृष्टि के लिये योगमाया का आश्रय लेकर परमात्मा दो रूपोंमें विभक्त हो गये, जिनका दक्षिणार्थं भाग पुरुष और वामार्थ भाग प्रकृति कहा जाता है ॥ 9॥
वे ब्रह्मस्वरूपा हैं, नित्या हैं और सनातनी हैं। जैसे अग्नि में दाहिका शक्ति अभिन्नरूपसे स्थित है, वैसे ही परमात्मा और प्रकृतिरूपा शक्ति भी अभिन्न हैं ॥ 10 ॥
हे ब्रह्मन्! हे नारद! इसीलिये योगीजन परमात्मा में स्त्री और पुरुषभाव से भेद नहीं मानते और सब कुछ ब्रह्ममय है ऐसा निरन्तर चिन्तन करते हैं॥11॥
विशेष:- परमेश्वर वाची ब्रह्मन्- शब्द सदा नपुंसक लिंग में व्यवहृत( प्रयुक्त) है। व्याकरण पद्धति से भी नपुंसकम् शब्द की व्युत्पत्ति-न= नहीं + नपुंसक= पुरुष और स्त्री।अर्थाात जो पुरुष और स्त्री दोनों लैगिक गुणों से भी परे है।
नपुंसकम्, क्ली, (न स्त्री न पुमान् । “नभ्राण्नपा- दिति ।” ६ । ३ । ७५ । इति निपातनात् स्त्रीपुंसयोः पुंसक-आदेशः -) क्लीवम् ।
स्वतन्त्रभाव वाले श्रीकृष्ण की इच्छा से वे मूलप्रकृति भगवती सृष्टि करने की कामना से सहसा प्रकट हो गयीं।
उनकी आज्ञा से भिन्न-भिन्न कर्मो की अधिष्ठात्री होकर एवं भक्तोंके अनुरोध से उन पर अनुग्रह करने हेतु विग्रह धारण करनेवाली वे पाँच रूपों में अवतरित हुईं ॥ 12-13 ॥
१-जो गणेश-माता दुर्गा, शिवप्रिया तथा शिवरूपा हैं, वे ही विष्णुमाया नारायणी हैं तथा पूर्णब्रह्म स्वरूपा हैं ब्रह्मादि देवता, मुनि तथा मनुगण सभी उनकी पूजा स्तुति करते हैं वे सबकी अधिष्ठात्रीदेवी हैं, सनातनी हैं तथा शिवस्वरूपा हैं ।। 14-15 ।।
वे धर्म, सत्य, पुण्य तथा कीर्तिस्वरूपा हैं वे यश, कल्याण, सुख, प्रसन्नता और मोक्ष भी देती हैं तथा शोक, दुःख और संकटोंका नाश करनेवाली हैं ॥ 16 ॥
वे अपनी शरण में आये हुए दीन और पीडित जनों की निरन्तर रक्षा करती हैं। वे ज्योतिस्वरूपा हैं, उनका विग्रह परम तेजस्वी है और वे भगवान् श्रीकृष्ण के तेज की अधिष्ठात्री देवता हैं ।17।
वे सर्वशक्तिस्वरूपा हैं और महेश्वर की शाश्वत शक्ति हैं। वे ही साधकों को सिद्धि देनेवाली, सिद्धिरूपा, सिद्धेश्वरी, सिद्धि तथा ईश्वरी हैं। बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, पिपासा, छाया, तन्द्रा, दया, स्मृति, जाति, क्षान्ति, भ्रान्ति, शान्ति, कान्ति, चेतना, तुष्टि, पुष्टि, लक्ष्मी, धृति तथा माया-ये इनके नाम हैं।
वे परमात्मा श्रीकृष्णके पास सर्वशक्तिस्वरूपा होकर स्थित रहती हैं ।॥ 18-20 ॥
श्रुतियों में इनके प्रसिद्ध गुणों का थोड़े में वर्णन किया गया है, जैसा कि आगमों में भी वर्णन उपलब्ध है। उन अनन्ता के अनन्त गुण हैं।
२-अब दूसरे स्वरूपके विषयमें सुनिये ॥ 21 ॥
जो शुद्ध सत्त्वरूपा महालक्ष्मी हैं, वे भी परमात्माकी ही शक्ति हैं, वे सर्वसम्पत्स्वरूपिणी तथा सम्पत्तियोंकी
अधिष्ठातृदेवता हैं ॥ 22 ।
वे शोभामयी, अति संयमी, शान्त, सुशील, सर्वमंगलरूपा हैं और लोभ, मोह, काम, क्रोध, मद, अहंकारादि से रहित हैं ॥ 23 ॥
भक्तों पर अनुग्रह करने वाली, अपने स्वामी के लिये सबसे अधिक पतिव्रता, प्रभु के लिये प्राणतुल्य, उनकी प्रेमपात्र तथा प्रियवादिनी, सभी धन-धान्यकी अधिष्ठात्री तथा आजीविका स्वरूपिणी वे देवी सती महालक्ष्मी वैकुण्ठ में अपने स्वामी भगवान् विष्णु की सेवा में तत्पर रहती हैं । ll24-25 ॥
वे स्वर्ग स्वर्गलक्ष्मी राजाओं में राजलक्ष्मी, गृहस्थ मनुष्योंके घर में गृहलक्ष्मी और सभी प्राणियों तथा पदार्थोंमें शोभा रूपसे विराजमान रहती हैं।
वे मनोहरा हैं। वे पुण्यवान् लोगों में कीर्तिरूप से, राजपुरुषों में प्रभारूप से, व्यापारियों में वाणिज्यरूप से तथा पापियों में कलहरूप से विराजती हैं। वे दयारूपा कही गयी हैं, | वेदों में उनका निरूपण हुआ है, वे सर्वमान्या, सर्वपूज्या तथा सबके लिये वन्दनीया हैं।
३-अब आप अन्य स्वरूपके विषयमें मुझसे सुनिये ॥ 26-283 ll
जो परमात्माको वाणी, बुद्धि, विद्या तथा ज्ञानकी अधिष्ठात्री हैं सभी विद्याओंकी विग्रहरूपा हैं, वे देवी सरस्वती हैं। वे मनुष्योंको बुद्धि, कवित्व शक्ति, मेधा, प्रतिभा और स्मृति प्रदान करती हैं। वे भिन्न भिन्न सिद्धान्तोंके भेद निरुपण का सामर्थ्य रखनेवाली, व्याख्या और बोधरूपिणी तथा सारे सन्देहोंका नाश करनेवाली कही गयी हैं।
वे विचारकारिणी, ग्रन्थकारिणी, शक्तिरूपिणी तथा स्वर-संगीत-सन्धान तथा ताल की कारणरूपा हैं।
वे ही विषय, ज्ञान तथा वाणीस्वरूपा है सभी प्राणियोंको संजीवनी शक्ति है; वे व्याख्या और वाद-विवाद करनेवाली हैं; शान्तिस्वरूपा है तथा वीणा और पुस्तक धारण करनेवाली हैं। वे शुद्धसत्त्वगुणमयी, सुशील तथा श्रीहरिकी प्रिया है। उनको कान्ति हिम्, चन्दन, कुन्द, चन्द्रमा, कुमुद और श्वेत कमलके समान है।
रत्नमाला लेकर परमात्मा श्रीकृष्णका जप करती हुई वे साक्षात् तपःस्वरूपा हैं तथा तपस्वियोंको उनकी तपस्याका फल प्रदान करनेवाली हैं।
वे सिद्धिविद्यास्वरूपा और सदा सब प्रकारको सिद्धियाँ प्रदान करनेवाली हैं। जिनकी कृपाके बिना विप्रसमूह सदा मूक और मृततुल्य रहता है, उन श्रुतिप्रतिपादित तथा आगम में वर्णित तृतीया शक्ति जगदम्बिका भगवती सरस्वतीका यत्किंचित् वर्णन मैंने किया। अब अन्य शक्ति के विषयमें आप मुझसे सुनिये ॥ 29-37 ॥
वे विचक्षण सावित्री चारों वर्णों, वेदांगों, छन्दों, सन्ध्यावन्दनके मन्त्रों एवं समस्त तन्त्रों की जननी हैं। वे द्विजातियोंकी जातिरूपा हैं; जपरूपिणी, तपस्विनी, ब्रह्मज्ञानीयों की तेजरूपा और सर्वसंस्काररूपिणी हैं ।। 38-39 ।।
३-४-वे तीसरी और चौथी ब्रह्मप्रिया सावित्री और गायत्री परम पवित्र रूपसे विराजमान रहती हैं, तीर्थ भी अपनी शुद्धिके लिये जिनके स्पर्शकी इच्छा करते हैं ।। 40 ।।
वे शुद्ध स्फटिक की कान्तिवाली, शुद्धसत्त्व गुणमयी, सनातनी, पराशक्ति तथा परमानन्दरूपा हैं। हे नारद! वे परब्रह्मस्वरूपा, मुक्तिप्रदायिनी, ब्रह्मतेजोमयी शक्तिस्वरूपा तथा शक्तिकी अधिष्ठातृ देवता भी हैं, जिनके चरणरज से समस्त संसार पवित्र हो जाता है।
इस प्रकार चौथी शक्ति का वर्णन कर दिया। अब ५-पाँचवीं शक्ति राधा के विषय में आपसे कहता हूँ ॥ 41-43 ll
जो पंच प्राणोंकी अधिष्ठात्री, पंच प्राणस्वरूपा, सभी शक्तियोंमें परम सुन्दरी, परमात्मा के लिये प्राणों से भी अधिक प्रियतम्, सर्वगुणसम्पन्न, सौभाग्यमानिनी, गौरवमयी, श्रीकृष्णकी वामांगार्धस्वरूपा और गुण तेज में परमात्माके समान ही हैं; वे परावरा, सारभूता, परमा, आदिरूपा, सनातनी, परमानन्दमयी, धन्या मान्या और पूज्या हैं ॥ 44-46 ॥
वे परमात्मा श्रीकृष्णके रासक्रीडाकी अधिष्ठातृदेवी हैं, रासमण्डलमें उनका आविर्भाव हुआ है, वे रासमण्डलसे सुशोभित हैं; वे देवी रासेश्वरी, सुरसिका, रासरूपी आवासमें निवास करनेवाली, गोलोकमें निवास करनेवाली, गोपीवेष धारण करनेवाली, परम आह्लाद स्वरूपा, सन्तोष तथा हर्षरूपा, आत्मस्वरूपा, निर्गुण, निराकार और सर्वथा निर्लिप्त हैं ।। 47-49 ।।
वे इच्छारहित, अहंकाररहित और भक्तोंपर अनुग्रह करनेवाली हैं। बुद्धिमान् लोगोंने वेदविहित मार्गसे ध्यान करके उन्हें जाना है ॥ 50 ॥
वे ईश्वरों, देवेन्द्रों और मुनिश्रेष्ठोंके दृष्टिपथमें भी नहीं आतीं। वे अग्निके समान शुद्ध वस्त्रोंको धारण करनेवाली, विविध अलंकारोंसे विभूषित, कोटिचन्द्रप्रभासे युक्त और पुष्ट तथा समस्त ऐश्वर्यौसे समन्वित विग्रहवाली हैं। वे भगवान् श्रीकृष्णकी अद्वितीय दास्यभक्ति तथा सम्पदा प्रदान करनेवाली हैं ॥ 51-52 ॥
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वाराह कल्प में उन्होंने [व्रजमण्डलमें] वृषभानु की पुत्री के रूपमें जन्म लिया, जिनके चरणकमलों के स्पर्शसे पृथ्वी पवित्र हुई। ब्रह्मादि देवों के द्वारा भी जो अदृष्ट थीं, वे भारतवर्ष में सर्वसाधारण को दृष्टिगत हुई।
हे मुने! स्त्रीरत्नोंमें सारस्वरूप वे राधा भगवान् श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में उसी प्रकार सुशोभित हैं, जैसे आकाशमण्डल में नवीन मेघों के बीच विद्युत् लता सुशोभित होती है।
पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने आत्मशुद्धिहेतु जिनके चरणकमल के नख के दर्शन के लिये साठ हजार वर्षोंतक तपस्या की, किंतु स्वप्न में भी नखज्योति का दर्शन नहीं हुआ; साक्षात् दर्शन की तो बात ही क्या ? उन्हीं ब्रह्मा ने पृथ्वीतल के वृदावन में तपस्या के द्वारा उनका दर्शन किया।
मैंने पाँचवीं देवी का वर्णन कर दिया; वे ही राधा कही गयी हैं ।।53-57 ॥
प्रत्येक भुवन में सभी देवियाँ और नारियाँ इन्हीं राधा प्रकृतिदेवी की अंश, कला, कलांश अथवा अंशांश से उत्पन्न हैं ॥ 58 ॥
भगवतीके पूर्णावताररूप में जो-जो प्रधान अंशस्वरूपा पाँच विद्यादेवियाँ कही गयी हैं, उनका वर्णन कर रहा हूँ; सुनिये ॥ 59 ॥
लोकपावनी गंगा प्रधान अंशस्वरूपा हैं, वे भगवान् विष्णु के श्रीविग्रह से प्रकट हुई हैं तथा सनातनरूप से ब्रह्मद्रव होकर विराजती हैं।60।
गंगा पापियों के पापरूप ईंधन के दाह के लिये धधकती अग्निके समान हैं; किंतु [भक्तोंके लिये ] सुखस्पर्शिणी तथा स्नान- आचमनादि से मुक्तिपद प्रदायिनी हैं ॥ 61 ॥
गंगा गोलोकादि दिव्य लोकों में जाने के लिये सुखद सीढ़ीके समान, तीर्थो को पावन करनेवाली तथा नदियों में श्रेष्ठतम हैं। भगवान् शंकरके जटाजूट में मुक्तामाल की भाँति सुशोभित होनेवाली वे गंगा भारतवर्ष में तपस्वीजनों की तपस्याको शीघ्र सफल करती रहती हैं।
उनका जल चन्द्रमा, दुग्ध और श्वेत कमलके समान धवल है और वे शुद्ध सत्त्वरूपिणी हैं। वे निर्मल, निरहंकार, साध्वी और नारायणप्रिया हैं ॥ 62-64 ॥
विष्णुवल्लभा तुलसी भी भगवती की प्रधानांशस्वरूपा हैं। वे सती सदा भगवान् विष्णुके चरणपर विराजती हैं और उनकी आभूषणरूपा हैं।
हे मुने ! उनसे तप, संकल्प और पूजादि के सभी सत्कर्मों का सम्पादन होता है, वे सभी पुष्पों की सारभूता हैं तथा सदैव पवित्र एवं पुण्यप्रदा हैं ॥ 65-66।
वे अपने दर्शन एवं स्पर्शसे शीघ्र ही मोक्षपद देनेवाली हैं। कलि के पापरूप शुष्क ईंधन को जलानेके लिये वे अग्निस्वरूपा हैं।
जिनके चरणकमलके संस्पर्श से पृथ्वी शीघ्र पवित्र हो जाती है और तीर्थ भी जिनके दर्शन तथा स्पर्शसे स्वयंको पवित्र करनेके लिये कामना करते हैं ।। 67-68 ।।
जिनके बिना सम्पूर्ण जगत् में सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं। जो मुमुक्षुजनों को मोक्ष देनेवाली हैं, कामिनी हैं और सब प्रकार के भोग प्रदान करनेवाली हैं। कल्पवृक्षस्वरूपा हैं जो परमा-देवता भारतीयों को प्रसन्न करनेके लिये भारतवर्ष में वृक्षरूप में प्रादुर्भूत हुई ।। 69-70 ॥
उपर्युक्त सन्दर्भित- श्लोक देवीमहा-भागवत पुराण के नवम स्कन्ध के प्रथम अध्याय से हैं।
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ब्रह्मवैवर्त पुराण, 2, 49 और 56-57 और आदि पर्व अध्याय 11)।
राधा के जन्म के बारे में पुराणों में अलग-अलग कथाएं दी गई हैं, जो इस प्रकार हैं:—
(i) उनका जन्म गोकुल में वृषभानु और कलावती की पुत्री के रूप में हुआ था। (ब्रह्मवैवर्त पुराण, 2, 49; 35-42; और
नारद पुराण, 2. 81) में राधा जी सन्दर्भ-
मह्यं प्रोवाच देवर्षे भविष्यच्चरितं हरेः ।। सुखमास्तेऽधुना देवः कृष्णो राधासमन्वितः।। ८१-२५।।
गोलोकेऽस्मिन्महेशान गोपगोपीसुखावहः ।। स कदाचिद्धरालोके माथुरे मंडले शिव।८१-२६ ।
आविर्भूयाद्भुतां क्रीडां वृन्दाग्ण्ये करिष्यति ।। वृषभानुसुता राधा श्रीदामानं हरेः प्रियम् ।। ८१-२७ ।।
सखायं विरजागेहद्वाःस्थं क्रुद्धा शपिष्यति ।। ततः सोऽपि महाभाग राधां प्रतिशपिष्यति ।। ८१-२८ ।।
याहि त्वं मानुषं लोकं मिथः शापाद्धरां ततः ।। प्राप्स्यत्यथ हरिः पश्चाद्ब्रह्मणा प्रार्थितः क्षितौ ।। ८१-२९ ।।
भूभारहरणायैव वासुदेवो भविष्यति ।। वसुदेवगृहे जन्म प्राप्य यादवनंदनः ।। ८१-३० ।।
कंसासुरभिया पश्चाद्व्रजं नन्दस्य यास्यति ।। तत्र यातो हरिः प्राप्तां पूतनां बालघातिनीम् ।। ८१-३१ ।।
श्रीबृहन्नारदीयपुराणे बृहदुपाख्याने उत्तरभागे वसुमोहिनीसंवादे वसुचरित्रनिरूपणं नामैकाशीतितमोऽध्यायः ।। ८१ ।।
(उपर्युक्त सन्दर्भ- राधा जी के विषय में "नारद पुराण "के उत्तरभाग के (81)वें अध्याय से है।)
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(ii) जब राजा वृषभानु यज्ञ करने के लिए भूमि तैयार कर रहे थे, तब उन्हें भूमि-कन्या के रूप में प्राप्त किया गया था।
(पद्म पुराण;
ब्रह्मखण्ड अध्याय-7)
"कृष्णेन राधया तत्र स्थिता व्रतप्रसादतः ।
राधाष्टमीव्रतं तात यो न कुर्य्याच्च मूढधीः ३१।
नरकान्निष्कृतिर्नास्ति कोटिकल्पशतैरपि ।
स्त्रियश्च या न कुर्वंति व्रतमेतच्छुभप्रदम् ३२।
राधा कृष्णोः प्रीतिकरं सर्वपापप्रणाशनम् ।
अंते यमपुरीं गत्वा पतंति नरके चिरम् ३३।
(iii) वह कृष्ण के बायीं ओर से उत्पन्न हुई थी। (ब्रह्मवैवर्त पुराण)
(iv) कृष्ण के जन्म के समय भगवान विष्णु ने अपने अनुचरों से पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए कहा। तदनुसार, कृष्ण की प्रिय पत्नी राधा ने भाद्रपद माह में शुक्लष्टमी के दिन प्रातः ज्येष्ठा नक्षत्र में गोकुल में जन्म लिया। (आदिपर्व 11),
(v) एक बार कृष्ण गोपी स्त्री विराजा के साथ भोग-कक्ष (रासमण्डल) में गए। यह जानकर राधा उनके पीछे-पीछे उस कक्ष में चली गईं, लेकिन वे दोनों ही दिखाई नहीं दिए।
एक अन्य अवसर पर जब राधा ने विरजा को कृष्ण और सुदामा के साथ पाया, तो उन्होंने बहुत क्रोधित होकर कृष्ण का अपमान किया, जिसके बाद सुदामा ने उसे मनुष्य योनि में जन्म लेने और कृष्ण से वियोग की पीड़ा सहने का शाप दे दिया।
सन्दर्भ:-
- ब्रह्मवैवर्त पुराण 2. 49)
और राधा ने उसे दानव वंश में जन्म लेने का श्राप दे दिया। राधा के इस श्राप के कारण ही सुदामा का जन्म शंखचूड़ नामक असुर के रूप में हुआ। (ब्रह्मवैवर्तपुराण, 2. 4. 9. 34)
(vi) राधा को उन पाँच शक्तियों में से एक माना जाता है जो सृष्टि प्रक्रिया में भगवान विष्णु की सहायता करती हैं। (देवी भागवत 9.1;
नारदपुराण- उत्तर भाग - में राधा के जन्म होने के सन्दर्भ
नारद पुराण भाग 2 का 81वाँ अध्याय)
-गोलोकेऽस्मिन्महेशान गोपगोपीसुखावहः ।।
स कदाचिद्धरालोके माथुरे मण्डले शिव ।८१-२६
आविर्भूयाद्भुतां क्रीडां वृन्दाग्ण्ये करिष्यति ।।
वृषभानुसुता राधा श्रीदामानं हरेः प्रियम् ।। ८१-२७ ।।
सखायं विरजागेहद्वाःस्थं क्रुद्धा शपिष्यति ।। ततः सोऽपि महाभाग राधां प्रतिशपिष्यति ।। ८१-२८ ।।
याहि त्वं मानुषं लोकं मिथः शापाद्धरां ततः ।। प्राप्स्यत्यथ हरिः पश्चाद्ब्रह्मणा प्रार्थितः क्षितौ ।। ८१-२९ ।।
भूभारहरणायैव वासुदेवो भविष्यति ।। वसुदेवगृहे जन्म प्राप्य यादवनंदनः ।। ८१-३० ।।
(vii) राधा श्री कृष्ण की मानसिक शक्ति हैं। (विवरण के लिए पंचप्राण देखें)
शिवपुराण रूद्रसंहिता के तृतीय अध्याय के श्लोक.२ के अनुसार, राधा कृष्ण की पत्नी हैं और कलावती की पुत्री के रूप में पैदा हुई थीं, जिसे सनत्कुमार ने शाप दिया था।
—तदनुसार, जैसा कि सनत्कुमार ने स्वधा की तीनों पुत्रियों (अर्थात् मैना, धन्या, कलावती) को शाप देने के बाद कहा था:—“
हे पितरों की तीनों पुत्रियों (अर्थात् कलावती), मेरे वचनों को प्रसन्नता से सुनो, जो तुम्हारा दुःख दूर करेंगे और तुम्हें सुख प्रदान करेंगे।
सबसे छोटी कलावती गोप-वृषभान की पत्नी होगी। द्वापर के अंत में राधा उसकी पुत्री होंगी। वृषभान के पुण्य से कलावती एक जीवित मुक्त आत्मा बन जाएगी और अपनी पुत्री के साथ गोलोक को प्राप्त करेगी।
इसमें कोई संदेह नहीं है। हे पितरों की बेटियाँ (यानी, कलावती) तुम स्वर्ग में चमकोगी। विष्णु के दर्शन से तुम्हारे बुरे कर्म शांत हो गए हैं। कलावती की बेटी राधा, गोलोक में रहने वाली कृष्ण की पत्नी बनेगी और उनके साथ गुप्त प्रेम में बंध जाएगी"।
— वैष्णव धर्म शब्दावली में राधा
स्रोत : शुद्ध भक्ति: बृहद् भागवतमृतम्
राधा का अर्थ है: - श्री कृष्ण की शाश्वत पत्नी और ह्लादिनी शक्ति का अवतार, जिसे महाभाव-स्वरूपिणी के रूप में जाना जाता है, दिव्य प्रेम के सर्वोच्च आनंद का व्यक्तित्व
वह सभी गोपियों, द्वारका की रानियों और वैकुण्ठ की लक्ष्मी का स्रोत है।
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अध्यायः -६ पद्मपुराण /खण्डः ४ (ब्रह्मखण्डः)
अध्यायः ७ में
अध्यायः ८ में राधा का वर्णन-→
शौनक उवाच-
कथयस्व महाप्राज्ञ गोलोकं याति कर्मणा ।
सुमते दुस्तरात्केन जनः संसारसागरात् ।
राधायाश्चाष्टमी सूत तस्या माहात्म्यमुत्तमम् १।
सूत उवाच-
ब्रह्माणं नारदोऽपृच्छत्पुरा चैतन्महामुने ।
तच्छृणुष्व समासेन पृष्टवान्स इति द्विज २।
नारद उवाच-
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविदां वर ।
राधाजन्माष्टमी तात कथयस्व ममाग्रतः ३।
तस्याः पुण्यफलं किंवा कृतं केन पुरा विभो
अकुर्वतां जनानां हि किल्बिषं किं भवेद्द्विज ४।
केनैव तु विधानेन कर्त्तव्यं तद्व्रतं कदा ।
कस्माज्जाता च सा राधा तन्मे कथय मूलतः ५।
ब्रह्मोवाच-
राधाजन्माष्टमीं वत्स शृणुष्व सुसमाहितः । कथयामि समासेन समग्रं हरिणा विना ६।
कथितुं तत्फलं पुण्यं न शक्नोत्यपि नारद ।
कोटिजन्मार्जितं पापं ब्रह्महत्यादिकं महत् ७।
कुर्वंति ये सकृद्भक्त्या तेषां नश्यति तत्क्षणात् ।
एकादश्याः सहस्रेण यत्फलं लभते नरः ८।
राधाजन्माष्टमी पुण्यं तस्माच्छतगुणाधिकम् मेरुतुल्यसुवर्णानि दत्वा यत्फलमाप्यते ९।
सकृद्राधाष्टमीं कृत्वा तस्माच्छतगुणाधिकम्
कन्यादानसहस्रेण यत्पुण्यं प्राप्यते जनैः १०।
वृषभानुसुताष्टम्या तत्फलं प्राप्यते जनैः ।
गंगादिषु च तीर्थेषु स्नात्वा तु यत्फलं लभेत् ११।
कृष्णप्राणप्रियाष्टम्याः फलं प्राप्नोति मानवः एतद्व्रतं तु यः पापी हेलया श्रद्धयापि वा १२।
करोति विष्णुसदनं गच्छेत्कोटिकुलान्वितः ।
पुरा कृतयुगे वत्स वरनारी सुशोभना १३।
सुमध्या हरिणीनेत्रा शुभांगी चारुहासिनी ।
सुकेशी चारुकर्णी च नाम्ना लीलावती स्मृता १४।
तया बहूनि पापानि कृतानि सुदृढानि च ।
एकदा साधनाकांक्षी निःसृत्य पुरतः स्वतः १५।
गतान्यनगरं तत्र दृष्ट्वा सुज्ञ जनान्बहून् ।
राधाष्टमीव्रतपरान्सुंदरे देवतालये १६।
गंधपुष्पैर्धूपदीपैर्वस्त्रैर्नानाविधैः फलैः ।
भक्तिभावैः पूजयंतो राधाया मूर्तिमुत्तमाम् १७।
केचिद्गायंति नृत्यंति पठंति स्तवमुत्तमम् ।
तालवेणुमृदंगांश्च वादयंति च के मुदा १८।
तांस्तांस्तथाविधान्दृष्ट्वा कौतूहलसमन्विता
जगाम तत्समीपं सा पप्रच्छ विनयान्विता १९।
भोभोः पुण्यात्मानो यूयं किं कुर्वंतो मुदान्विताः ।
कथयध्वं पुण्यवंतो मां चैव विनयान्विताम् २०।
तस्यास्तु वचनं श्रुत्वा परकार्यहितेरताः ।
आरेभिरे तदा वक्तुं वैष्णवा व्रततत्पराः २१।
राधाव्रतिन ऊचुः-
भाद्रे मासि सिताष्टम्यां जाता श्रीराधिका यतः ।
अष्टमी साद्य संप्राप्ता तां कुर्वाम प्रयत्नतः २२।
गोघातजनितं पापं स्तेयजं ब्रह्मघातजम् ।
परस्त्रीहरणाच्चैव तथा च गुरुतल्पजम् २३।
विश्वासघातजं चैव स्त्रीहत्याजनितं तथा ।
एतानि नाशयत्याशु कृता या चाष्टमी नृणाम् २४।
तेषां च वचनं श्रुत्वा सर्वपातकनाशनम् ।
करिष्याम्यहमित्येव परामृष्य पुनः पुनः २५।
तत्रैव व्रतिभिः सार्द्धं कृत्वा सा व्रतमुत्तमम् ।
दैवात्सा पंचतां याता सर्पघातेन निर्मला २६।
ततो यमाज्ञया दूताः पाशमुद्गरपाणयः ।
आगतास्तां समानेतुं बबंधुरतिकृच्छ्रतः २७।
यदा नेतुं मनश्चक्रुर्यमस्य सदनं प्रति ।
तदागता विष्णुदूताः शंखचक्रगदाधराः २८।
हिरण्मयं विमानं च राजहंसयुतं शुभम् ।
छेदनं चक्रधाराभिः पाशं कृत्वा त्वरान्विताः २९।
रथे चारोपयामासुस्तां नारीं गतकिल्बिषाम्
निन्युर्विष्णुपुरं ते च गोलोकाख्यं मनोहरम् ३०।
कृष्णेन राधया तत्र स्थिता व्रतप्रसादतः ।
राधाष्टमीव्रतं तात यो न कुर्य्याच्च मूढधीः ३१।
नरकान्निष्कृतिर्नास्ति कोटिकल्पशतैरपि । स्त्रियश्च या न कुर्वंति व्रतमेतच्छुभप्रदम् ३२।
राधाविष्णोः प्रीतिकरं सर्वपापप्रणाशनम् ।
अंते यमपुरीं गत्वा पतंति नरके चिरम् ३३।
कदाचिज्जन्मचासाद्य पृथिव्यां विधवा ध्रुवम्
एकदा पृथिवी वत्स दुष्टसंघैश्च ताडिता ३४।
गौर्भूत्वा च भृशं दीना चाययौ सा ममांतिकम्
निवेदयामास दुःखं रुदंती च पुनः पुनः ३५।
तद्वाक्यं च समाकर्ण्य गतोऽहं विष्णुसंनिधिम् ।
कृष्णे निवेदितश्चाशु पृथिव्या दुःखसंचयः ३६।
तेनोक्तं गच्छ भो ब्रह्मन्देवैः सार्द्धं च भूतले ।
अहं तत्रापि गच्छामि पश्चान्ममगणैः सह ३७।
तच्छ्रुत्वा सहितो दैवैरागतः पृथिवीतलम् ।
ततः कृष्णः समाहूय राधां प्राणगरीयसीम् ३८।
उवाच वचनं देवि गच्छेहं पृथिवीतलम् ।
पृथिवीभारनाशाय गच्छ त्वं मर्त्त्यमंडलम् ३९।
इति श्रुत्वापि सा राधाप्यागता पृथिवीं ततः ।
भाद्रे मासि सिते पक्षे अष्टमीसंज्ञिके तिथौ ४०।
वृषभानो र्यज्ञभूमौ जाता सा राधिका दिवा ।
यज्ञार्थं शोधितायां च दृष्टा सा दिव्यरूपिणी ४१।
राजानं दमना भूत्वा तां प्राप्य निजमंदिरम् ।
दत्तवान्महिषीं नीत्वा सा च तां पर्यपालयत् ४२।
इति ते कथितं वत्स त्वया पृष्टं च यद्वचः ।
गोपनीयं गोपनीयं गोपनीयं प्रयत्नतः ४३।
सूत उवाच-
य इदं शृणुयाद्भक्त्या चतुर्वर्गफलप्रदम् । सर्वपापविनिर्मुक्तश्चांतेयातिहरेर्गृहम् ४४।
इति श्रीपाद्मे महापुराणे ब्रह्मखण्डे ब्रह्मनारदसंवादे श्रीराधाष्टमीमाहात्म्यंनाम सप्तमोऽध्यायः ।७।
"अनुवाद:-
अध्याय 7 - राधाष्टमी की महानता-
सौनक ने कहा : हे अति बुद्धिमान्, हे अति बुद्धिमान्, किस कर्म के कारण मनुष्य उस भवसागर से, जिसे पार करना कठिन है, गौओं के लोक में जाता है, यह बताओ और हे सूत ! राधाष्टमी तथा उसके उत्तम माहात्म्य के विषय में बताओ।
सूतजी ने कहा :हे ब्राह्मण ! हे महामुनि! पूर्वकाल में नारदजी ने ब्रह्माजी से यही प्रश्न पूछा था । उन्होंने उनसे जो पूछा था, उसे संक्षेप में सुनिए।
नारद ने कहा :
३-५. हे पितामह, हे परम बुद्धिमान, हे समस्त पवित्र शास्त्रों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ, हे प्रियतम, मुझे राधाजन्माष्टमी के विषय में बताइए। हे प्रभु, इसका धार्मिक फल क्या है? प्राचीन काल में इसका व्रत किसने किया था? हे ब्रह्मन् , जो मनुष्य इसका व्रत नहीं करते, उनका क्या पाप होता है? व्रत का पालन किस प्रकार किया जाता है? व्रत का पालन कब किया जाता है? मुझे आदिकाल से लेकर अब तक वह सब बताइए, जिससे राधा का जन्म हुआ।
ब्रह्मा ने कहा :
हे नारद! भगवान विष्णु के अतिरिक्त अन्य कोई भी इसका पुण्यफल नहीं बता सकता। करोड़ों योनियों से अर्जित किया हुआ ब्रह्महत्या जैसा पाप, भक्तिपूर्वक व्रत करने से क्षण भर में नष्ट हो जाता है। एक हजार एकादशियों का व्रत करने से जो फल मिलता है, उससे राधाजन्माष्टमी का धार्मिक पुण्य सौ गुना अधिक है। एक बार राधाजन्माष्टमी का व्रत करने से जो पुण्य मिलता है, वह मेरु (पर्वत) के बराबर सोना दान करने से मिलने वाले फल से सौ गुना अधिक है।
लोग राधाष्टमी से वह फल प्राप्त करते हैं, जो (पुण्य) एक हजार कुमारियों के विवाह से प्राप्त होता है। मनुष्य को कृष्ण की प्रियतमा (अर्थात राधाष्टमी) की अष्टमी का वह फल मिलता है, जो उसे गंगा आदि तीर्थों में स्नान करने से मिलता। जो पापी भी इस व्रत को भोगपूर्वक या भक्तिपूर्वक करता है, वह अपने एक करोड़ परिवार के सदस्यों के साथ भगवान विष्णु के स्वर्ग में जाता है।
13-20. हे बालक! कृतयुग में पूर्वकाल में एक उत्तम, अत्यन्त सुन्दरी स्त्री थी, जिसकी कमर सुन्दर (अर्थात् पतली) थी, जिसकी आँखें हिरणी के समान थीं, जिसका रूप सुन्दर था, जिसके केश सुन्दर थे, जिसके कान सुन्दर थे, उसका नाम लीलावती था।
उसने बड़े भारी पाप किये थे। एक बार वह धन की लालसा में अपने नगर से निकलकर दूसरे नगर में चली गई। वहाँ उसने एक सुन्दर मन्दिर में बहुत से बुद्धिमान व्यक्तियों को राधाष्टमी व्रत का पालन करते देखा। वे लोग राधा की उत्तम मूर्ति की चन्दन, पुष्प, धूप, दीप, वस्त्र और नाना प्रकार के फलों से भक्तिपूर्वक पूजा कर रहे थे। कुछ लोग गा रहे थे, नाच रहे थे, उत्तम स्तुति का पाठ कर रहे थे। कुछ लोग आनन्दपूर्वक वीणा बजा रहे थे और ढोल बजा रहे थे। उन्हें इस प्रकार देखकर वह कौतुहल से भरकर उनके पास गई और उनसे विनम्रतापूर्वक पूछाः "हे धर्मात्माओं! तुम लोग आनंद में भरकर क्या कर रहे हो? हे पुण्यात्माओं! मुझे बताओ कि मैं भी विनम्रता से क्या कर रहा हूँ।"
२१-२४। व्रत के पालन में तत्पर तथा दूसरों का उपकार करने में रुचि रखने वाले वे भक्तजन बोलने लगे।
राधा व्रत करने वालों ने कहा: "आज वह अष्टमी तिथि आ गई है, जिस दिन - अर्थात् शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को - राधा का जन्म हुआ था। हम लोग इसे सावधानी से कर रहे हैं। इस प्रकार किया जाने वाला यह अष्टमी व्रत, मनुष्य के पापों को शीघ्र ही नष्ट कर देता है, जैसे गोहत्या, चोरी, ब्राह्मण की हत्या, परस्त्री हरण, गुरु की शय्या (अर्थात् पत्नी) का अपमान आदि पाप।"
उनके वचन सुनकर और बार-बार यह सोचकर कि 'मैं सब पापों को नष्ट करने वाले इस व्रत को करूँगी' उसने व्रत करने वालों के साथ वहीं उस उत्तम व्रत का पालन किया। वह पतिव्रता स्त्री सर्प के दंश से मर गई।
तब यमराज की आज्ञा से पाश और हथौड़े लेकर यम के दूत वहाँ आए और उसे बहुत कष्ट देकर बाँध दिया। जब उन्होंने उसे यमलोक ले जाने का निश्चय किया, तब शंख और गदा धारण किए हुए विष्णु के दूत वहाँ आए। वे अपने साथ सोने का बना हुआ शुभ विमान लाए थे, जिसमें राजसी हंस जुते हुए थे। उन्होंने चक्रों के किनारों से पाशों को तुरन्त काटकर उस पापरहित स्त्री को रथ में डाल दिया।
वे उसे स्वराट विष्णु के मनोहर नगर गोलोक में ले गए , जहाँ व्रत की अनुकूलता के कारण वह कृष्ण और राधा के साथ रहने लगी। हे प्रिये, जो मूर्ख मनुष्य राधाष्टमी का व्रत नहीं करता, उसके लिए सैकड़ों करोड़ कल्पों तक भी नरक से मुक्ति नहीं मिलती। जो स्त्रियाँ भी शुभ देने वाले, राधा और कृष्ण को प्रसन्न करने वाले, समस्त पापों का नाश करने वाले इस व्रत को नहीं करतीं, वे अन्त में यम के नगर में जाती हैं और दीर्घकाल तक नरक में पड़ती हैं।
यदि संयोग से उन्हें पृथ्वी पर जन्म मिल भी जाए, तो वे अवश्य ही विधवा हो जाती हैं। हे बालक, एक बार यह पृथ्वी दुष्टों के समूहों से आक्रांत हो गई थी।
वह अत्यंत असहाय होकर गाय बन गई और मेरे पास आई। बार-बार रोती हुई उसने मुझसे अपना दुःख कहा। उसके वचन सुनकर मैं भगवान विष्णु के समीप गया। मैंने तुरन्त ही भगवान कृष्ण को उसके दुःख की तीव्रता बताई।
उन्होंने मुझसे कहा, "हे ब्रह्मन्! तुम देवताओं के साथ पृथ्वी पर जाओ। तत्पश्चात मैं भी अपने सेवकों के साथ वहाँ जाऊँगा।" यह सुनकर मैं देवताओं के साथ पृथ्वी पर आया।
तब भगवान कृष्ण ने राधा को अपने प्राणों से भी बढ़कर बताते हुए कहा, "हे देवी ! मैं पृथ्वी का भार हरने के लिए पृथ्वी पर जा रहा हूँ। तुम भी पृथ्वी पर जाओ।" यह सुनकर राधा भी पृथ्वी पर चली गईं। वह राधिका भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को वृषभानु की यज्ञ भूमि पर दिन के समय उत्पन्न हुई।
यज्ञ के लिए शुद्ध होने पर वह दिव्य रूप वाली दिखाई दी। राजा प्रसन्न होकर उसे अपने घर ले गया और अपनी रानी को सौंप दिया। उसने भी उसका पालन-पोषण किया।
43. इस प्रकार, हे बालक! जो बातें मैंने तुझसे कही हैं, उन्हें गुप्त रखना है, गुप्त रखना है, सावधानी से गुप्त रखना है।
सूतजी ने कहा :
जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस व्रत कथा को सुनता है, वह चारों पुरुषार्थों का फल देने वाला है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर अन्त में भगवान विष्णु के घर जाता है।
" यह स्कन्द पुराण के वैष्णव खण्ड के वासुदेव- महात्म्यका सोलहवाँ अध्याय है।जिसमें राधा जी का परिचय है।
अध्याय 16 - गोलोक का वर्णन
मूल: अनुभाग 9 - वासुदेव-माहात्म्य-
नोट: गोलोक दिव्य लोकों में सबसे ऊपर है।
महाभारत , शांति 347.52)। महाभारत, अनुशासन 83.37-44 में गोलोक का वर्णन यहाँ दिए गए वर्णन से कुछ अलग है।
यह गोलोक वृंदावन क्षेत्र का प्रतिरूप है जहाँ कृष्ण ने अपना बचपन ग्वालों के समुदाय में बिताया था। वही लोग - गोपियाँ राधा , उनकी सहेलियाँ, कृष्ण के साथ खेलने वाले साथी, उनका रास नृत्य, गायें आदि, इस पुराण के गोलोक में अति दिव्य हैं ।
स्कंद ने कहा :
1. मेरु पर्वत की चोटी पर चढ़कर नारद जी ने अपनी दिव्य दृष्टि से श्वेत द्वीप तथा उसमें उपस्थित हजारों मुक्त आत्माओं को देखा।
2. भगवान वासुदेव पर दृष्टि केन्द्रित करके महायोगी उसी क्षण ऊपर उठे और तुरन्त उस स्थान पर पहुँच गये ।
3. श्वेत द्वीप पर पहुँचकर नारद जी को बहुत प्रसन्नता हुई, उन्होंने वहाँ शुभ भक्तों को देखा, जो श्वेत वर्ण के थे, तथा चन्द्रमा के समान कान्ति वाले थे।
4. उसने सिर झुकाकर उनकी पूजा की और उनके द्वारा मन ही मन पूजा की गई। परब्रह्म के दर्शन की इच्छा से वह लज्जित होकर (अर्थात् कठिन परिस्थिति में) खड़ा रहा।
5. यह जानकर कि वे (नारद) भगवान विष्णु के अनन्य भक्त हैं, वे भागवत (भगवान के अनुयायी) मन में प्रसन्न (अर्थात संतुष्ट) हुए। वे भगवान के बारह अक्षरों वाले मंत्र का उच्चारण करते हुए उनसे बोले:
श्वेत-मुक्तों ने कहा :
6. हे श्रेष्ठ मुनि! आप कृष्ण के भक्त हैं। इसलिए आप हमें देख पाते हैं, जिन्हें देवताओं के लिए भी देखना कठिन है। आपको कौन सी इच्छा सता रही है?
नारद ने कहा :
मैं भगवान कृष्ण को देखने के लिए बहुत उत्सुक हूँ, जो स्वयं परब्रह्म हैं, जो (ब्रह्मांड के) शासक हैं। हे उनके प्रिय महान भक्तों, उन्हें (मुझे) दिखाओ।
स्कंद ने कहा :
8. तब एक श्वेत मुक्तात्मा ने, अपने हृदय में कृष्ण द्वारा निर्देशित होकर कहा, "आओ, मैं तुम्हें कृष्ण दिखाऊँगा।" यह कहकर वह आगे बढ़ गया।
9. तब अत्यन्त प्रसन्न हुए नारद मुनि देवताओं के निवासस्थानों को देखकर उनके साथ आकाशमार्ग से ऊपर चले गये।
10. हे श्रेष्ठ ब्राह्मण! सप्तर्षियों ( उर्स मेजर ) और ध्रुव तारा को देखकर वह कहीं भी आसक्त नहीं हुआ। उसने महर्लोक , जनलोक , तपोलोक नामक क्षेत्रों को पार कर लिया ।
11. तत्पश्चात् ब्रह्माजी के लोक को देखकर श्वेतमुक्त मुनि ने कृष्ण की इच्छा से आठों कोशों में से भी अपना मार्ग पा लिया।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत् और प्रकृति इन तत्त्वों को, जिनमें से प्रत्येक अपने से दस गुना बड़ा है, पार करके वे अद्भुत गोलोक में पहुँचे ।
13. यह एक शानदार निवास था, जो केवल कृष्ण के प्रति समर्पित लोगों के लिए सुलभ था। जाते समय उन्होंने विरजा नदी को देखा जो बहुत चौड़ी और अथाह थी । [2]
14. बहुत से ग्वालों और गोपियों के स्नान के कारण उसमें चंदन की सुगंध आ गई थी। वह सफेद, लाल और नीले रंग के कमलों से बहुत सुंदर दिखाई दे रहा था।
15. वह नदी के किनारे पर पहुंचा जो बहुत ही विस्तृत, मन को लुभाने वाला, स्फटिक-मणियों से भरा हुआ था। वह नदी सफेद, हरे, लाल और पीले रंग के उत्तम रत्नों से सुशोभित थी।
16. यह मन्नत पूरी करने वाले वृक्षों की कतारों से भरा हुआ था। यह मूंगे की टहनियों से सुशोभित था। यह स्यामंतक , नीलम और अन्य कीमती पत्थरों की खानों से सुशोभित था।
17. वह घाट अत्यंत सुन्दर था, तथा उसकी सीढ़ियाँ नाना प्रकार के उत्तम रत्नों से जड़ी हुई थीं। वहाँ हंस, कारणडव बत्तखें (तथा अन्य जलचर पक्षी) मधुर स्वर में चहचहा रहे थे।
18-19. उस नदी का शानदार, पारदर्शी जल अनेक इच्छाधारी गायों, श्रेष्ठ हाथियों और घोड़ों द्वारा पिया जा रहा था। उसने उसे पार कर लिया। भगवान की इच्छा से, भगवान के निवास के चारों ओर खाई बनाने वाली दिव्य नदी को क्षण भर में पार करके, वह शतशृंग पर्वत ('सौ चोटियों वाला') पर पहुँच गया।
20. वह सोने का बना हुआ, सुन्दर था। उसकी ऊंचाई दस करोड़ योजन थी। उसका विस्तार सौ करोड़ योजन था और वह मन को लुभाने वाला था।
21-22. यह हजारों इच्छापूर्ति करने वाले वृक्षों और पारिजात आदि वृक्षों तथा मल्लिका , युथिका (चमेली की विभिन्न किस्में), लौंग और इलायची जैसी लताओं से सुशोभित था। यह स्वर्ण केले के वृक्षों तथा स्वर्ग के मृगों, हाथियों और मधुर स्वर वाले पक्षियों की भीड़ से सुशोभित था।
23. उन्होंने सुन्दर चोटियों पर अपने महल जैसे निवास में भगवान के मन को लुभाने वाले रासमण्डप ( अर्थात रास नामक नृत्य के लिए बने भवन) फैले हुए देखे।
24. वे चारों ओर से बगीचों की श्रृंखला से घिरे हुए थे, जो पूरी तरह खिले हुए फूलों से महक रहे थे। चारों दिशाओं में रत्न जड़ित पैनल वाले दरवाजे के साथ वे सुंदर दिख रहे थे।
25. वे अद्भुत मेहराबदार द्वारों से सुसज्जित थे, और उनमें रत्नजटित हजारों खंभे थे। उनमें केले के वृक्षों के खंभे और मोतियों की मालाओं से लटकी खिड़कियाँ थीं।
26. उन्हें शुभ दूर्वा घास, भुने हुए अनाज, अखंडित चावल और फल प्रदान किए गए। उनके चतुर्भुज स्थानों पर चंदन, अण्डज, कस्तूरी और केसर छिड़के गए।
वे हृदय को लुभाने वाले थे, तथा भाँति-भाँति के मधुर वाद्यों की ध्वनि कानों को प्रिय लगने वाली थी (और इसलिए सुनने योग्य थी)। वहाँ उसने करोड़ों गोपियों की टोलियाँ देखीं।
28-30. वे अमूल्य वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित थे, उनके हाथों में उत्तम रत्नजड़ित चूड़ियाँ, करधनी, नूपुर, बाजूबंद और अंगूठियाँ थीं। वे यौवन, रूप और आकृति की सुन्दरता से संपन्न थे और उनकी वाणी अतुलनीय रूप से मधुर थी।
उनका रंग राधा और लक्ष्मी के समान था और उनके हाथ प्रेममय थे। वे विभिन्न प्रकार के मनोरंजन के सामान से सुसज्जित कक्ष में बैठकर कृष्ण के विषय में मधुर गीत गाते हुए मनोरंजन कर रहे थे।
31. हे सावर्णि ! उस पर्वत की तलहटी में नारद मुनि ने वृन्दावन नामक एक महान वन देखा ।
कृष्णस्य राधिकायाश्च प्रियं तत्क्रीडनस्थलम्।।
कल्पद्रुमालिभी रम्यं सरोभिश्च सपङ्कजैः ।३२ ।।
श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीवासुदेवमाहात्म्ये गोलोकवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ।।१६।।
:-
अनुवाद-
32. यह कृष्ण और राधा का पसंदीदा खेल का मैदान था। यह जगह इच्छापूर्ति करने वाले वृक्षों की पंक्तियों और खिले हुए कमलों वाली झीलों के कारण सुंदर थी।
३३-३७. यह स्थान आम, बेर, कदम्ब, बेर , अनार, खजूर, सुपारी, नारंगी, नारियल, चंदन, गुलाब, नीबू, ब्रेडफ्रूट, अखरोट, केला, चम्पाक, अंगूर, लता, स्वर्ण केतक आदि वृक्षों से सुशोभित (प्रकाशित) था । ये सभी वृक्ष फलों और फूलों के भार से झुके हुए थे।
यह एक मंद हवा से संचालित था, जिसमें मल्लिका, माधवी , कुंदा , लौंग और चमेली के फूलों की ठंडी और मीठी खुशबू आ रही थी। चारों ओर, यह शतशृंग से निकलने वाले झरने के पानी से भीगा हुआ था।
यह वसंत ऋतु की सुंदरता से भरपूर था। यह असंख्य कुंजों से सुसज्जित था, रत्नों से जड़े दीपों की पंक्तियों से सुशोभित था और कामुक खेलों के लिए उपयुक्त सामग्री से सुसज्जित था।
38 हे मुनि! वह स्थान ग्वालों और गोपियों द्वारा किये जा रहे कृष्ण के गुणगान, गायों और बछड़ों की रंभाहट, पक्षियों के कलरव, विविध आभूषणों की झनकार तथा दही के मंथन की ध्वनि से गूंज रहा था।
39. वहाँ अन्य बत्तीस वन थे, जो नाना प्रकार के वृक्षों से अत्यन्त सुन्दर थे, तथा पूर्णरूपेण खिले हुए फूलों और फलों के भार से झुके हुए थे, तथा दर्शकों के मन को आकर्षित कर रहे थे।
४०-४३. उसे देखकर उसे बहुत खुशी हुई। वह गोलोक की दैदीप्यमान नगरी (राजधानी) में पहुँचा। यह रत्नों से भरा एक गोलाकार गढ़ था। यह राजसी मार्गों से सुशोभित था। यह कृष्ण के भक्तों के करोड़ों भवनों, उत्तम रत्नों से जड़े रथों और अनेक छोटी-छोटी झनझनाती घंटियों से सुशोभित होने के कारण भव्य प्रतीत हो रहा था। यह करोड़ों अद्भुत भवनों, उत्तम कीमती पत्थरों के भण्डारों से भरे, कीमती पत्थरों के खंभों से सुशोभित होने के कारण सुंदर था - सभी पंक्तियों में व्यवस्थित थे।
यह सुंदर खेल आलयों( विशाल- कक्षों) से भव्य दिखाई देता था। इसे उत्कृष्ट कीमती पत्थरों से बनाया गया था। और इसे रत्न-जड़ित वेदियों या चतुर्भुजों (उत्तम रत्नों से जड़े हुए) दीपों की पंक्तियों से सुसज्जित किया गया था।
44. उसका प्रांगण पुष्प, अण्डज, कस्तूरी और केसर के तंतुओं से मिश्रित द्रव से तथा दही, दूर्वा, भुने हुए अन्न और केले के वृक्षों के ढेरों से छिड़का हुआ था।
45. सोने के जल से भरे घड़े और बनाए गए मेहराबों से शुभता उत्पन्न हुई। इसमें बहुत से हाथी और घोड़े बहुमूल्य पत्थरों से बने राजमार्गों पर चल रहे थे।
श्रीकृष्णदर्शनायातैर्न्नैकब्रह्माण्डनायकैः ।।
विरिञ्चिशंकराद्यैश्च बलिहस्तैः सुसंकुलम् ।।४६।।
व्रजद्भिः कृष्णवीक्षाथ गोपगोपीकदम्बकैः ।
सुसंकुलमहामार्गं मुमोदालोक्य तन्मुनिः ।।४७।।
कृष्णमन्दिरमापाऽथ सर्वाश्चर्यं मनोहरम् ।।
नन्दादिवृषभान्वादिगोपसौधालिभिर्वृतम् ।। ४८ ।।
चतुर्द्वारैः षोडशभिर्दुर्गैः सपरिखैर्युतम्।।
कोटिगोपवृतैकैकद्वारपालसुरक्षितैः ।। ४९ ।।
रत्नस्तम्भकपाटेषु द्वार्षु स्वाग्रस्थितेषु सः ।।
उपविष्टान्क्रमेणैव द्वारपालान्ददर्श ह ।।2.9.16.५०।।
वीरभानुं चन्द्रभानुं सूर्यभानुं तृतीयकम् ।
वसुभानुं देवभानुं शक्रभानुं ततः परम् । ५१ ।।
रत्नभानुं सुपार्श्वं च विशालमृषभं ततः ।।
अंशुं बलं च सुबलं देवप्रस्थं वरूथपम् ।५२ ।।
श्रीदामानं च नत्वाऽसौ प्रविष्टोंतस्तदाज्ञया ।
महाचतुष्के वितते तेजोऽपश्यन्महोच्चयम् ।५३।
इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र्यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीवासुदेवमाहात्म्ये गोलोकवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ।१६।
अनुवाद
46. वह स्थान भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए आये हुए अनेक ब्रह्माण्ड के देवताओं से भरा हुआ था, तथा ब्रह्मा और शंकर जैसे महान देवता भी अपने हाथों में पूजा की सामग्री लिये हुए थे।
47. वह मार्ग ग्वालों और गोपियों की भीड़ से भरा हुआ था जो कृष्ण के दर्शन के लिए जा रहे थे। उस महान मार्ग को इतना भीड़-भाड़ वाला देखकर ऋषि बहुत प्रसन्न हुए।
48. फिर वह कृष्ण के भवन में पहुंचा जो बहुत ही सुन्दर था और सभी को अद्भुत लग रहा था। वह भवन नन्द , वृषभानु आदि गोपों के भवनों की पंक्तियों से घिरा हुआ था।
49. इसमें चार द्वार थे और सोलह गढ़ थे जिनके चारों ओर खाइयां थीं। इसके प्रत्येक द्वार की रक्षा एक करोड़ ग्वालों द्वारा द्वारपाल के रूप में की जाती थी।
50. सामने रत्नजटित खम्भों और पटलों वाले द्वारों पर उसने क्रमशः द्वारपालों को देखा, जो वहाँ (कर्तव्य पर) बैठे हुए थे।
51-53. (वे थे) १-वीरभानु, २-चंद्रभानु , ३-सूर्यभानु तीसरे (द्वारपाल), ४-वसुभानु, ५-देवभानु और फिर उसके बाद ६-शक्रभानु; ७-रत्नभानु, ८सुपार्श्व ,९- विशाल , और फिर १०-वृषभ , ११-अंशु , १२-बल , १३-सुबल , १४-देवप्रस्थ , १५-वरूथप और १६-श्रीदामन । उसने उन्हें (श्रीदामन को) प्रणाम किया और उनकी अनुमति से प्रवेश किया। (अपने सामने) विशाल चतुर्भुज में उसने एक बहुत बड़ा वैभव देखा।
फ़ुटनोट और संदर्भ:
[1] :
यह एक पौराणिक अवधारणा है कि हमारा ब्रह्मांड पाँच तत्वों, अहंकार, महत और प्रकृति से घिरा हुआ है। एक योगी को ब्रह्म (यहाँ गोलोक के रूप में प्रतीक) को प्राप्त करने से पहले इन तत्वों को भेदना पड़ता है।
[2] :
ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार , विराजा एक आभीर( गोप) (कृष्ण की एक प्रेमिका) थी जो राधा के श्राप से नदी में बदल गई थी। वैष्णव वेदांत में यह वह नदी है जिसे पार करने के बाद भगवान के दर्शन होते हैं।
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- अध्यायः २८ शिवपुराणम्/संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः ५ (युद्धखण्डः)
अध्यायः -२९ में राधा जी का वर्णन-
सनत्कुमार उवाच ।।
स्वगेहमागते तस्मिञ्शंखचूडे विवाहिते।। तपः कृत्वा वरं प्राप्य मुमुदुर्दानवादयः । १।
स्वलोकादाशु निर्गत्य गुरुणा स्वेन संयुताः । सर्वे सुरास्संमिलितास्समाजग्मुस्तदंतिकम्।।२।।
प्रणम्य तं सविनयं संस्तुत्य विविधादरात् ।।
स्थितास्तत्रैव सुप्रीत्या मत्वा तेजस्विनं विभुम्।३।।
सोपि दम्भात्मजो दृष्ट्वा गतं कुल गुरुं च तम्
प्रणनाम महाभक्त्या साष्टांगं परमादरात् ।। ४ ।।
अथ शुक्रः कुलाचार्यो दृष्ट्वाशिषमनुत्तमम् ।
वृत्तांतं कथयामास देवदानवयोस्तदा ।। ५ ।।
स्वाभाविकं च तद्वैरमसुराणां पराभवम् ।।
विजयं निर्जराणां च जीवसाहाय्यमेव च ।।६।।
ततस्स सम्मतं कृत्वा सुरैस्सर्वैस्समुत्सवम् ।
दानवाद्यसुराणां तमधिपं विदधे गुरुः ।।७।।
तदा समुत्सवो जातोऽसुराणां मुदितात्मनाम्
उपायनानि सुप्रीत्या ददुस्तस्मै च तेऽखिलाः ।६ ।।
अथ दम्भात्मजो वीरश्शंखचूडः प्रतापवान्।।
राज्याभिषेकमासाद्य स रेजे सुरराट् तदा ।। ९ ।।
स सेनां महतीं कर्षन्दैत्यदानवरक्षसाम् ।।
रथमास्थाय तरसा जेतुं शक्रपुरीं ययौ ।।2.5.29.१०।।
गच्छन्स दानवेन्द्रस्तु तेषां सेवनकुर्वताम् ।।
विरेजे शशिवद्भानां ग्रहाणां ग्रहराडिव ।। ११ ।।
आगच्छंतं शङ्खचूडमाकर्ण्याखण्डलस्स्वराट् ।।
निखिलैरमरैस्सार्द्धं तेन योद्धुं समुद्यतः ।। १२ ।।
तदाऽसुरैस्सुराणां च संग्रामस्तुमुलो ह्यभूत् ।
वीराऽऽनन्दकरः क्लीबभयदो रोमहर्षणः ।। १३ ।।
महान्कोलाहलो जातो वीराणां गर्जतां रणे ।
वाद्यध्वनिस्तथा चाऽऽसीत्तत्र वीरत्ववर्द्धिनी ।१४ ।
देवाः प्रकुप्य युयुधुरसुरैर्बलवत्तराः ।।
पराजयं च संप्रापुरसुरा दुद्रुवुर्भयात् ।। १५।।
पलायमानास्तान्दृष्ट्वा शंखचूडस्स्वयं प्रभुः
युयुधे निर्जरैस्साकं सिंहनादं प्रगर्ज्य च ।। १६ ।।
तरसा सहसा चक्रे कदनं त्रिदिवौकसाम् ।।
प्रदुद्रुवुस्सुरास्सर्वे तत्सुतेजो न सेहिरे ।। १७
यत्र तत्र स्थिता दीना गिरीणां कंदरासु च ।। तदधीना न स्वतंत्रा निष्प्रभाः सागरा यथा ।। १८।।
सोपि दंभात्मजश्शूरो दानवेन्द्रः प्रतापवान् ।
सुराधिकारान्संजह्रे सर्वाँल्लोकान्विजित्य च ।।१९।।
त्रैलोक्यं स्ववशंचक्रे यज्ञभागांश्च कृत्स्नशः ।
स्वयमिन्द्रो बभूवापि शासितं निखिलं जगत् ।।2.5.29.२०।।
कौबेरमैन्दवं सौर्यमाग्नेयं याम्यमेव च ।।
कारयामास वायव्यमधिकारं स्वशक्तितः ।।२१।।
देवानामसुराणां च दानवानां च रक्षसाम् ।।
गंधर्वाणां च नागानां किन्नराणां रसौकसाम् ।२२।
त्रिलोकस्य परेषां च सकलानामधीश्वरः ।।
स बभूव महावीरश्शंखचूडो महाबली ।। २३
एवं स बुभुजे राज्यं राजराजेश्वरो महान् ।।
सर्वेषां भुवनानां च शंखचूडश्चिरं समाः ।। २४ ।।
तस्य राज्ये न दुर्भिक्षं न मारी नाऽशुभग्रहाः ।
आधयो व्याधयो नैव सुखिन्यश्च प्रजाः सदा ।।२५।।
अकृष्टपच्या पृथिवी ददौ सस्यान्यनेकशः ।।
ओषध्यो विविधाश्चासन्सफलास्सरसाः सदा ।।२६।।
मण्याकराश्च नितरां रत्नखन्यश्च सागराः।।
सदा पुष्पफला वृक्षा नद्यस्तु सलिलावहाः ।२७ ।।
देवान् विनाखिला जीवास्सुखिनो निर्विकारकाः ।।
स्वस्वधर्मा स्थितास्सर्वे चतुर्वर्णाश्रमाः परे ।।२८।।
तस्मिच्छासति त्रैलोक्ये न कश्चिद् दुःखितोऽभवत्।
भ्रातृवैरत्वमाश्रित्य केवलं दुःखिनोऽमराः।।२९।।
स शंखचूडः प्रबलः कृष्णस्य परमस्सखा ।।
कृष्णभक्तिरतस्साधुस्सदा गोलोकवासिनः ।। 2.5.29.३० ।।
पूर्वशापप्रभावेण दानवीं योनिमाश्रितः ।।
न दानवमतिस्सोभूद्दानवत्वेऽपि वै मुने ।। ३१ ।।
ततस्सुरगणास्सर्वे हृतराज्या पराजिताः ।।
संमंत्र्य सर्षयस्तात प्रययुर्ब्रह्मणस्सभाम् ।। ३२ ।।
तत्र दृष्ट्वा विधातारं नत्वा स्तुत्वा विशेषतः ।
ब्रह्मणे कथयामासुस्सर्वं वृत्तांतमाकुलाः ।। ३३ ।।
ब्रह्मा तदा समाश्वास्य सुरान् सर्वान्मुनीनपि ।
तैश्च सार्द्धं ययौ लोके वैकुण्ठं सुखदं सताम्।३४ ।।
ददर्श तत्र लक्ष्मीशं ब्रह्मा देवगणैस्सह ।।
किरीटिनं कुंडलिनं वनमालाविभूषितम् ।। ३५ ।।
शंखचक्रगदापद्मधरं देवं चतुर्भुजम् ।।
सनंदनाद्यैः सिद्धैश्च सेवितं पीतवाससम् ।। ३६ ।।
दृष्ट्वा विष्णुं सुरास्सर्वे ब्रह्माद्यास्समुनीश्वराः
प्रणम्य तुष्टुवुर्भक्त्या बद्धाञ्जलिकरा विभुम् ।।३७।।
देवा ऊचु ।।
देवदेव जगन्नाथ वैकुंठाधिपते प्रभो ।। रक्षास्माञ्शरणापन्नाञ्छ्रीहरे त्रिजगद्गुरो ।। ३८ ।।
त्वमेव जगतां पाता त्रिलोकेशाच्युत प्रभो ।।
लक्ष्मीनिवास गोविन्द भक्तप्राण नमोऽस्तु ते ।३९ ।
इति स्तुत्वा सुरास्सर्वे रुरुदुः पुरतो हरेः ।।
तच्छ्रुत्वा भगवान्विष्णुर्ब्रह्माणमिदमब्रवीत् ।। 2.5.29.४० ।।
विष्णुरुवाच ।।
किमर्थमागतोसि त्वं वैकुण्ठं योगिदुर्लभम् । किं कष्टं ते समुद्भूतं तत्त्वं वद ममाग्रतः ।। ४१ ।।
सनत्कुमार उवाच ।।
इति श्रुत्वा हरेर्वाक्यं प्रणम्य च मुहुर्मुहुः ।।
बद्धाञ्जलिपुटो भूत्वा विन यानतकन्धरः ।४२ ।।
वृत्तांतं कथयामास शंखचूडकृतं तदा ।।
देवकष्टसमाख्यानं पुरो विष्णोः परात्मनः ।४३ ।।
हरिस्तद्वचनं श्रुत्वा सर्वतसर्वभाववित् ।।
प्रहस्योवाच भगवांस्तद्रहस्यं विधिं प्रति ।।४४ ।।
श्रीभगवानुवाच ।।
शंखचूडस्य वृत्तांतं सर्वं जानामि पद्मज ।।
मद्भक्तस्य च गोपस्य महातेजस्विनः पुरा ।।४५।।।
शृणुतस्सर्ववृत्तान्तमितिहासं पुरातनम् ।।
संदेहो नैव कर्तव्यश्शं करिष्यति शङ्करः ।।४६।।
सर्वोपरि च यस्यास्ति शिवलोकः परात्परः ।।
यत्र संराजते शंभुः परब्रह्म परमेश्वरः ।।४७।।
प्रकृतेः पुरुषस्यापि योधिष्ठाता त्रिशक्तिधृक्
निर्गुणस्सगुणस्सोपि परं ज्योतिः स्वरूपवान् ।।४८।।
यस्यांगजास्तु वै ब्रह्मंस्त्रयस्सृष्ट्यादिकारकाः
सत्त्वादिगुणसंपन्ना विष्णुब्रह्महराभिधाः ।।४९।।
स एव परमात्मा हि विहरत्युमया सह ।।
यत्र मायाविनिर्मुक्तो नित्यानित्य प्रकल्पकः ।।2.5.29.५०।।
तत्समीपे च गोलोको गोशाला शंकरस्य वै
तस्येच्छया च मद्रूपः कृष्णो वसति तत्र ह ।५१ ।।
तद्गवां रक्षणार्थाय तेनाज्ञप्तस्सदा सुखी।।
तत्संप्राप्तसुखस्सोपि संक्रीडति विहारवित्।।५२।।
तस्य नारी समाख्याता राधेति जगदम्बिका।।
प्रकृतेः परमा मूर्तिः पंचमी सुविहारिणी ।।५३।।
बहुगोपाश्च गोप्यश्च तत्र संति तदंगजाः ।।
सुविहारपरा नित्यं राधाकृष्णानुवर्तिनः ।।५४।।
स एव लीलया शंभोरिदानीं मोहितोऽनया ।।
संप्राप्तो दानवीं योनिं मुधा शापात्स्वदुःखदाम् ।। ५५ ।।
रुद्रशूलेन तन्मृत्यु कृष्णेन विहितः पुरा।।
ततस्स्वदेहमुत्सृज्य पार्षदस्स भविष्यति ।।५६।।
इति विज्ञाय देवेश न भयं कर्तुमर्हसि।।
शंकर शरणं यावस्स सद्यश्शंविधास्यति ।। ५७ ।।
अहं त्वं चामरास्सर्वे तिष्ठंतीह विसाध्वसाः ।५८ ।।
सनत्कुमार उवाच ।।
इत्युक्त्वा सविधिर्विष्णुः शिवलोकं जगाम ह ।।
संस्मरन्मनसा शंभुं सर्वेशं भक्तवत्सलम् ।। ५९ ।।
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां पञ्चमे युद्धखंडे शंखचूडवधोपाख्याने शंखचूडराज्यकरणवर्णनपूर्वक तत्पूर्वभववृत्तचरित्रवर्णनं नामैकोनत्रिंशोऽध्यायः ।। २९ ।।
संपादित करेंनीचे इसी शिवपुराण के रूद्र संहिता पर्वती खण्ड में द्वितीय अध्याय में राधा जी के जन्म और कर्म की अलौकिक घटनाओं की वर्णन हैं।
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शिवपुराण /संहिता २ (रुद्रसंहिता)/खण्डः ३ (पार्वतीखण्डः)/अध्यायः ०२
नारद उवाच ।।
विधे प्राज्ञ वदेदानीं मेनोत्पत्तिं समादरात् ।। अपि शापं समाचक्ष्व कुरु संदेहभंजनम् ।।१।।
ब्रह्मोवाच ।।
शृणु नारद सुप्रीत्या मेनोत्पत्तिं विवेकतः ।।
मुनिभिः सह वक्ष्येहं सुतवर्य्य महाबुध ।।२।।
दक्षनामा मम सुतो यः पुरा कथितो मुने ।।
तस्य जाताः सुताः षष्टिप्रमितास्सृष्टिकारणाः ।३।।
तासां विवाहमकरोत्स वरैः कश्यपादिभिः ।।
विदितं ते समस्तं तत्प्रस्तुतं शृणु नारद ।। ४ ।।
तासां मध्ये स्वधानाम्नीं पितृभ्यो दत्तवान्सुताम् ।।
तिस्रोभवन्सुतास्तस्यास्सुभगा धर्ममूर्तयः ।। ५ ।।
तासां नामानि शृणु मे पावनानि मुनीश्वर ।।
सदा विघ्नहराण्येव महामंगलदानि च ।।६।।
मेनानाम्नी सुता ज्येष्ठा मध्या धन्या कलावती।।
अन्त्या एतास्सुतास्सर्वाः पितॄणाम्मानसोद्भवाः।७।
अयोनिजाः स्वधायाश्च लोकतस्तत्सुता मताः।।।
आसाम्प्रोच्य सुनामानि सर्वान्कामाञ्जनो लभेत् ।।८।।
जगद्वंद्याः सदा लोकमातरः परमोददाः ।।
योगिन्यः परमा ज्ञाननिधानास्तास्त्रिलोकगाः ।।९।।
एकस्मिन्समये तिस्रो भगिन्यस्ता मुनीश्वर ।।
श्वेतद्वीपं विष्णुलोकं जग्मुर्दर्शनहेतवे।।2.3.2.१०।।
कृत्वा प्रणामं विष्णोश्च संस्तुतिं भक्तिसंयुताः ।।
तस्थुस्तदाज्ञया तत्र सुसमाजो महानभूत् ।। ११ ।।
तदैव सनकाद्यास्तु सिद्धा ब्रह्मसुता मुने ।।
गतास्तत्र हरिं नत्वा स्तुत्वा तस्थुस्तदाज्ञया ।१२।
सनकाद्यान्मुनीन्दृष्ट्वोत्तस्थुस्ते सकला द्रुतम् ।
तत्रस्थान्संस्थितान्नत्वा देवाद्याँल्लोकवन्दितान् । १३।
तिस्रो भगिन्यस्तांस्तत्र नोत्तस्थुर्मोहिता मुने ।।
मायया दैवविवशाश्शङ्करस्य परात्मनः ।१४ ।।
मोहिनी सर्व लोकानां शिवमाया गरीयसी ।।
तदधीनं जगत्सर्वं शिवेच्छा सा प्रकीर्त्यते ।।१५।।
प्रारब्धं प्रोच्यते सैव तन्नामानि ह्यनेकशः ।।
शिवेच्छया भवत्येव नात्र कार्या विचारणा ।।१६।।
भूत्वा तद्वशगास्ता वै न चक्रुरपि तन्नतिम्।।
विस्मितास्सम्प्रदृश्यैव संस्थितास्तत्र केवलम् ।। १७ ।।
तादृशीं तद्गतिं दृष्ट्वा सनकाद्या मुनीश्वराः ।।
ज्ञानिनोऽपि परं चक्रुः क्रोधं दुर्विषहं च ते ।१८ ।।
शिवेच्छामोहितस्तत्र सक्रोधस्ता उवाच ह ।।
सनत्कुमारो योगीशश्शापन्दण्डकरं ददन् ।। १९ ।।
सनत्कुमार उवाच ।।
यूयं तिस्रो भगिन्यश्च मूढाः सद्वयुनोज्झिताः ।।
अज्ञातश्रुतितत्त्वा हि पितृकन्या अपि ध्रुवम् ।। 2.3.2.२० ।।
अभ्युत्थानं कृतं नो यन्नमस्कारोपि गर्वतः ।।
मोहिता नरभावत्वात्स्वर्गाद्दूरा भवन्तु हि ।। २१ ।।
नरस्त्रियः सम्भवन्तु तिस्रोऽपि ज्ञानमोहिताः ।।
स्वकर्मणः प्रभणावे लभध्वं फलमीदृशम् ।२२ ।।
" ब्रह्मोवाच"
इत्याकर्ण्य च साध्व्यस्तास्तिस्रोऽपि चकिता भृशम्।
पतित्वा पादयोस्तस्य समूचूर्नतमस्तकाः ।। २३ ।।
"पितृतनया ऊचुः ।।
मुनिवर्य्य दयासिन्धो प्रसन्नो भव चाधुना ।।
त्वत्प्रणामं वयं मूढाः कुर्महे स्म न भावतः ।२४ ।।
प्राप्तं च तत्फलं विप्र न ते दोषो महामुने ।।
अनुग्रहं कुरुष्वात्र लभेम स्वर्गतिम्पुनः ।। २५ ।।
"ब्रह्मोवाच"
श्रुत्वा तद्वचनं तात प्रोवाच स मुनिस्तदा ।।
शापोद्धारं प्रसन्नात्मा प्रेरितः शिवमायया ।। २६ ।।
"सनत्कुमार उवाच"
पितॄणां तनयास्तिस्रः शृणुत प्रीतमानसाः ।।
वचनं मम शोकघ्नं सुखदं सर्वदैव वः ।। २७ ।।
विष्णोरंशस्य शैलस्य हिमाधारस्य कामिनी ।।
ज्येष्ठा भवतु तत्कन्या भविष्यत्येव पार्वती ।२८ ।।
धन्या प्रिया द्वितीया तु योगिनी जनकस्य च ।
तस्याः कन्या महालक्ष्मीर्नाम्ना सीता भविष्यति । २९ ।
वृषभानस्य गोपस्य कनिष्ठा च कलावती ।
भविष्यति प्रिया राधा तत्सुता द्वापरान्ततः । 2.3.2.३० ।
मेनका योगिनी पत्या पार्वत्याश्च वरेण च ।
तेन देहेन कैलासं गमिष्यति परम्पदम् । ३१ ।
धन्या च सीतया सीरध्वजो जनकवंशजः ।।
जीवन्मुक्तो महायोगी वैकुण्ठं च गमिष्यति ।३२ ।
कलावती वृषभानस्य कौतुकात्कन्यया सह ।।
जीवन्मुक्ता च गोलोकं गमिष्यति न संशयः।३३ ।
विना विपत्तिं महिमा केषां कुत्र भविष्यति ।।
सुकर्मिणां गते दुःखे प्रभवेद्दुर्लभं सुखम् ।३४ ।
यूयं पितॄणां तनयास्सर्वास्स्वर्गविलासिकाः ।।
कर्मक्षयश्च युष्माकमभवद्विष्णुदर्शनात् ।३५ ।।
इत्युक्त्वा पुनरप्याह गतक्रोधो मुनीश्वरः ।
शिवं संस्मृत्य मनसा ज्ञानदं भुक्तिमुक्तिदम् ।३६ ।
अपरं शृणुत प्रीत्या मद्वचस्सुखदं सदा ।।
धन्या यूयं शिवप्रीता मान्याः पूज्या ह्यभीक्ष्णशः ।। ३७ ।।
मेनायास्तनया देवी पार्वती जगदम्बिका ।
भविष्यति प्रिया शम्भोस्तपः कृत्वा सुदुस्सहम् । ३८।
धन्या सुता स्मृता सीता रामपत्नी भविष्यति ।।
लौकिकाचारमाश्रित्य रामेण विहरिष्यति ।। ३९ ।।
कलावतीसुता राधा साक्षाद्गोलोकवासिनी ।।
गुप्तस्नेहनिबद्धा सा कृष्णपत्नी भविष्यति ।।2.3.2.४० ।।
"ब्रह्मोवाच"
इत्थमाभाष्य स मुनिर्भ्रातृभिस्सह संस्तुतः ।।
सनत्कुमारो भगवाँस्तत्रैवान्तर्हितोऽभवत् ।४१ ।।
तिस्रो भगिन्यस्तास्तात पितॄणां मानसीः सुताः ।।
गतपापास्सुखं प्राप्य स्वधाम प्रययुर्द्रुतम् ।।४२।।
इति श्रीशिवमहापुराणे द्वितीयायां रुद्रसंहितायां तृतीये पार्वतीखंडे पूर्वगतिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ।। २ ।।
उत्तानपादपुत्रश्च ध्रुव एव महायशाः
तत्पुत्रो नन्दसावर्णिः केदारश्च तदात्मजः ।
सृष्टि के आदि में ब्रह्मा के पुत्र स्वायम्भुव मनु हुए। उनकी स्त्री का नाम शतरूपा था, जो स्त्रियों में धन्या और माननीया थी। उन दोनों के प्रियव्रत और उत्तानपाद नाम के दो पुत्र हुए।
उत्तानपाद के पुत्र महायशस्वी ध्रुव हुए।
ध्रुव के पुत्र नन्दसावर्णि और पुत्र केदार हुए। इन्हीं केदार की पुत्री वृन्दा रायाण की पत्नी वृन्दा थी। जो गोलोक में राधा जी के रोमकूपों से समरूपण( प्रतिछाया) विधि से उत्पन्न हुई थी ।
"राधारोमोद्भवा गोप्यस्ताश्च सर्वा इहागताः॥
काश्चित्पुण्यैःकृतैः पूर्वैः प्राप्ताः कृष्णं वरैःपरैः॥२२॥
इति श्रीगर्गसंहितायां श्रीविश्वजित्खण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे दंतवक्त्रयुद्धे करुषदेशविजयो नामैकादशोऽध्यायः॥११॥
कृष्णरोमसमुद्भूताः सर्वे गोपगणा नृप ॥ २० ॥
सहचर्यस्तथा गोप्यो राधारोमोद्भवा नृप । एवं गोलोकरचनां चकार मधुसूदनः ॥ २४ ॥
सन्दर्भ-
श्रीगर्गसंहितायां गिरिराजखण्डे श्रीनारदबहुलाश्वसंवादे गिरिराजोत्पत्तिवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
अनुवाद :- गोलोक में ही कृष्ण के रोमकूपों से गोप लोग उत्पन्न हुए जो स्वरूप में कृष्ण की ही तरह थे उसी के साथ राधा जी के रोमकूपों से गोपिकाऐं उत्पन्न हुईं जो स्वरूप में उन्हीं के समान थीं।
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अर्थात उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव और उनके पुत्र केदार की पुत्री "वृन्दा" थी जिनके नाम से वृन्दावन प्रसिद्ध हुआ।
उन्हीं वृन्दा का राधा की छाया( प्रतिरूपा) के रूप में कृष्ण के अंश- रायाण गोप से विवाह होने का प्रसंग पुराणों में वर्णित है।
नकि मूल राधा का जो वृषभानुपुत्री राधा थी रायाण गोप से राधा जी का कभी विवाह नहीं हुआ । क्यों की राधा स्वयं आदि प्रकृति हैं का समष्टि ( समूह) रूप हैं और रायाण कृष्ण का अंश ( व्यष्टि) इकाई रूप है। अब इका का समूह से क्या मेल शास्त्र- संगत है ? कभी नहीं-
"आधे अधूरे पुराण पढ़ कर जो लोग आज राधा की रायाण से शादी दिखा रहे हैं ।
वह निहायत मूर्ख हैं। उन्हें राधा जी को जानने के लिए उन्हीं की शरण में आना चाहिए-
नीचे हम मूल ब्रह्मवैवर्त पुराण से उत्तानपाद के प्रपौत्र केदार की पुत्री वृन्दा के रायाण गोप के साथ विवाह होने का प्रमाण दे रहे हैं।
उवाच वृन्दां भगवान्सर्वात्मा प्रकृतेः परः ।१३४
श्रीभगवानुवाच-
त्वयाऽऽयुस्तपसा लब्धं यावदायुश्च ब्रह्मणः ।
तदेव देहि धर्माय गोलोकं गच्छ सुन्दरि।१३५ ।
तन्वाऽनया च तपसा पश्चान्मां च लभिष्यसि ।
पश्चाद्गोलोकमागत्य वाराहे च वरानने ।।१३६ ।
" वृन्दा त्वं वृषभानुसुता च राधाच्छाया भविष्यसि ।
मत्कलांशश्च रायाणो वृन्दां विवाह ग्रहीष्यति ।१३७।
मां लभिष्यसि रासे च गोपीभी राधया सह ।
राधा श्रीदामशापेन वृषभानसुता यदा।१३८ ।।
सा चैव वास्तवी राधा त्वं च च्छायास्वरुपिणी
विवाहकाले रायाणस्त्वां च च्छायां ग्रहीष्यति ।। १३९ ।।
त्वां दत्त्वा वास्तवी राधा साऽन्तर्धाना भविष्यति ।
राधैवेति विमूढाश्च विज्ञास्यन्ति ।।
च गोकुले ।। १४० ।।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं न रि पश्यन्ति बल्लवाः ।
स्वयं राधा मम क्रोडे छाया रायाणकामिनी ।१४१
विष्णोश्च वचनं श्रुत्वा ददावायुश्च सुन्दरी ।
उत्तस्थौ पूर्ण धर्मश्च तप्तकाञ्चनसन्निभः ।।
पूर्वस्मात्सुन्दरः श्रीमान्प्रणनाम परात्परम् ।। १४२।
वृन्दोवाच
देवाः शृणुत मद्वाक्यं दुर्लङ्घ्यं सावधानतः ।
न हि मिथ्या भवेद्वाक्यं मदीयं च निशामय ।१४३ ।
उपर्युक्त संस्कृत श्लोकों का नीचे अनुवाद देखें-
अनुवाद:- तब भगवान कृष्ण जो सर्वात्मा एवं प्रकृति से परे हैं; वृन्दा से बोले।
श्रीभगवान ने कहा- सुन्दरि! तुमने तपस्या द्वारा ब्रह्मा की आयु के समान आयु प्राप्त की है।
वह अपनी आयु तुम धर्म को दे दो और स्वयं गोलोक को चली जाओ।
वहाँ तुम तपस्या के प्रभाव से इसी शरीर द्वारा मुझे प्राप्त करोगी।
सुमुखि वृन्दे ! गोलोक में आने के पश्चात वाराहकल्प में हे वृन्दे ! तुम पुन: राधा की छायाभूता होओगी जो । वृषभानु की कन्या और मेरी आदिशक्ति व परा प्रकृति हैं।
उस समय मेरे कलांश से ही उत्पन्न हुए रायाण गोप ही तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे।
फिर रासक्रीड़ा के अवसर पर तुम गोपियों तथा राधा के साथ मुझे पुन: प्राप्त करोगी।
स्पष्ट हुआ कि रायाण गोप का विवाह मनु के प्रपौत्र केदार की पुत्री वृन्दा " से हुआ था। जो राधाच्छाया ( प्रतिरूपा) के रूप में व्रज में उपस्थित थी।
जब राधा श्रीदामा के शाप से वृषभानु की कन्या होकर प्रकट होंगी, उस समय वे ही वास्तविक राधा रहेंगी।
हे वृन्दे! तुम तो उनकी छायास्वरूपा होओगी। विवाह के समय वास्तविक राधा तुम्हें प्रकट करके स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी और रायाण गोप तुम छाया को ही पाणि-ग्रहण करेंगे;
परंतु गोकुल में मोहाच्छन्न लोग तुम्हें ‘यह राधा ही है’- ऐसा समझेंगे।
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उन गोपों को तो स्वप्न में भी वास्तविक राधा के चरण कमल का दर्शन नहीं होता; क्योंकि स्वयं राधा मेरी हृदय स्थल में रहती हैं !
इस प्रकार भगवान कृष्ण के वचन सुनकर सुन्दरी वृन्दा ने धर्म को अपनी आयु प्रदान कर दी। फिर तो धर्म पूर्ण रूप से उठकर खड़े हो गये।
उनके शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति चमक रही थी और उनका सौंदर्य पहले की अपेक्षा बढ़ गया था। तब उन श्रीमान ने परात्पर परमेश्वर श्रीकृष्ण को प्रणाम किया।
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ब्रह्मवैवर्तपुराण /खण्डः ४ (श्रीकृष्णजन्मखण्डः)/अध्यायः-( 86)
यशोदा का पैतृक परिवार
कृष्ण की पालिका माता यशोदा के पिता- माता जिनके कृष्ण के नाना नानी का सम्बन्ध होने पर -
३- यशोदा के पिता—सुमुख।
४-माता –पाटला।
१६- (यशोदा के चार भाई थे)—यशोवर्धन, यशोधर, यशोदेव, सुदेव।
यशोदा की बहिन थी ।"
१८—यशोदेवी (दधिसारा), यशस्विनी (हविस्सारा)।
_________________________
"श्री राधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका" के अनुसार
यशोदा सुमुख गोप की पुत्री थीं।
सुमुख के तीन पुत्रियाँ और चार पुत्र थे परन्तु रायण किसी का नाम नहीं है।अत: रायण यशोदा के भाई नहीं थे।
भगवान नारायण ने कहा– सुन्दरी कलावती कमला के अंश से प्रकट हुई पितरों की मानसी कन्या है और वृषभानु की पतिव्रता पत्नी है। उसी की पुत्री राधा हुईं जो श्रीकृष्ण को प्राणों से भी बढ़कर प्रिय हैं। वे श्रीकृष्ण के आधे अंश से प्रकट हुई हैं; इसलिये उन्हीं के समान तेजस्विनी हैं। उनके चरणकमलों की रज के स्पर्श से वसुन्धरा पवित्र हो गयी है। सभी संत-महात्मा सदा ही श्रीराधा के प्रति अविचल भक्ति की कामना करते हैं।
नारद जी ने पूछा– मुने! व्रज में रहने वाले एक मानव ने कैसे, किस पुण्य से और किस प्रकार पितरों की परम दुर्लभ मानसी कन्या को पत्नीरूप में प्राप्त किया? व्रज के महान अधिपति वृषभानु पूर्वजन्म में कौन थे, किसके पुत्र थे और किस तपस्या से राधा उनकी कन्या हुईं?
सूत जी कहते हैं– नारद जी की यह बात सुनकर ज्ञानिशिरोमणि महर्षि नारायण हँसे और प्रसन्नतापूर्वक उस प्राचीन इतिहास को बताने लगे
नारद जी ने पूछा– भगवन! भारतवर्ष में इस कानन का नाम ‘वृन्दावन’ क्यों हुआ? इसकी व्युत्पत्ति अथवा संज्ञा क्या है? आप उत्तम तत्त्वज्ञ हैं, अतः इस तत्त्व को बताइये।
सूतजी कहते हैं– नारद जी का प्रश्न सुनकर नारायण ऋषि ने सानन्द हँसकर सारा ही पुरातन तत्त्व कहना आरम्भ किया।
भगवान नारायण बोले– नारद! पहले सत्ययुग की बात है।
राजा केदार सातों द्वीपों के अधिपति थे। ब्रह्मन! वे सदा सत्य धर्म में तत्पर रहते थे और अपनी स्त्रियों तथा पुत्र-पौत्रवर्ग के साथ सानन्द जीवन बिताते थे।
उन धार्मिक नरेश ने समस्त प्रजाओं का पुत्रों की भाँति पालन किया। सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके भी राजा केदार ने इन्द्र पद पाने की इच्छा नहीं की।
वे नाना प्रकार के पुण्यकर्म करके भी स्वयं उनका फल नहीं चाहते थे।
उनका सारा नित्यनैमित्तिक कर्म श्रीकृष्ण की प्रीति के लिये होता था। केदार के समान राजाधिराज न तो कोई पहले हुआ है और न पुनः होगा ही।
उन्होंने अपनी त्रिभुवन मोहिनी पत्नी तथा राज्य की रक्षा का भार पुत्रों पर रखकर जैगीषव्य मुनि के उपदेश से तपस्या के लिये वन को प्रस्थान किया। वे श्रीहरि के अनन्य भक्त थे और निरन्तर उन्हीं का चिन्तन करते थे। मुने ! भगवान का सुदर्शन चक्र राजा की रक्षा के लिये सदा उन्हीं के पास रहता था। वे मुनिश्रेष्ठ नरेश चिरकाल तक तपस्या करके अन्त में गोलोक को चले गये। उनके नाम से केदारतीर्थ प्रसिद्ध हुआ।
अवश्य ही आज भी वहाँ मरे हुए प्राणी को तत्काल मुक्तिलाभ होता है।
"उनकी कन्या का नाम वृन्दा था, जो लक्ष्मी की अंश थी। उसने योगशास्त्र में निपुण होने के कारण किसी को अपना पुरुष नहीं बनाया।
दुर्वासा ने उसे परम दुर्लभ श्रीहरि का मन्त्र दिया। वह घर छोड़कर तपस्या के लिये वन में चली गयी।
उसने साठ हजार वर्षों तक निर्जन वन में तपस्या की। तब उसके सामने भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए। उन्होंने प्रसन्नमुख से कहा– ‘देवि! तुम कोई वर माँगो।’
वह सुन्दर विग्रह वाले शान्तस्वरूप राधिका-कान्त को देखकर सहसा बोल उठी– ‘तुम मेरे पति हो जाओ।’ उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।
वह कौतूहलवश श्रीकृष्ण के साथ गोलोक में गयी और वहाँ राधा के समान श्रेष्ठ सौभाग्यशालिनी गोपी हुई।
वृन्दा ने जहाँ जप किया था, उस स्थान का नाम ‘वृन्दावन’ हुआ।
अथवा वृन्दा ने जहाँ क्रीड़ा की थी, इसलिये वह स्थान ‘वृन्दावन’ कहलाया।
वत्स ! अब दूसरा पुण्यदायक इतिहास सुनो– जिससे इस कानन का नाम ‘वृन्दावन’ पड़ा।
वह प्रसंग मैं तुमसे कहता हूँ, ध्यान दो ! राजा कुशध्वज के दो कन्याएँ थीं। दोनों ही धर्मशास्त्र के ज्ञान में निपुण थीं।
उनके नाम थे– तुलसी और वेदवती। संसार चलाने का जो कार्य है, उससे उन दोनों बहिनों को वैराग्य था।
"सीता वेदवती थी-
उनमें से वेदवती ने तपस्या करके परम पुरुष नारायण को प्राप्त किया। वह जनक-कन्या सीता के नाम से सर्वत्र विख्यात है।
तुलसी ने तपस्या करके श्रीहरि को पतिरूप में प्राप्त करने की इच्छा की, किंतु दैववश दुर्वासा के शाप से उसने शंखचूड़ को प्राप्त किया।
फिर परम मनोहर कमलाकान्त भगवान नारायण उसे प्राणवल्लभ के रूप में प्राप्त हुए।
भगवान श्रीहरि के शाप से देवेश्वरी तुलसी वृक्षरूप में प्रकट हुई और तुलसी के शाप से श्रीहरि शालग्रामशिला हो गये। उस शिला के वक्षःस्थल पर उस अवस्था में भी सुन्दरी तुलसी निरन्तर स्थित रहने लगीं। मुने! तुलसी का सारा चरित्र तुमसे विस्तारपूर्वक कहा जा चुका है, तथापि यहाँ प्रसंगवश पुनः उसकी कुछ चर्चा की गयी। तपोधन! उस तुलसी की तपस्या का एक यह भी स्थान है; इसलिये इसे मनीषी पुरुष ‘वृन्दावन’ कहते हैं।
(तुलसी और वृन्दा समानार्थक शब्द हैं) अथवा मैं तुमसे दूसरा उत्कृष्ट हेतु बता रहा हूँ, जिससे भारतवर्ष का यह पुण्यक्षेत्र वृन्दावन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। राधा के सोलह नामों में एक वृन्दा नाम भी है, जो श्रुति में सुना गया है।
उन वृन्दा नामधारिणी राधा का यह रमणीय क्रीड़ा-वन है; इसलिये इसे ‘वृन्दावन’ कहा गया है।
पूर्वकाल में श्रीकृष्ण ने श्रीराधा की प्रीति के लिये गोलोक में वृन्दावन का निर्माण किया था।
फिर भूतल पर उनकी क्रीड़ा के लिये प्रकट हुआ वह वन उस प्राचीन नाम से ही ‘वृन्दावन’ कहलाने लगा।
राधा जगाम वाराहे गोकुलं भारतं सती ।। वृषभानोश्च वैश्यस्य सा च कन्या बभूव ह । ३६।
अयोनिसम्भवा देवी वायुगर्भा कलावती ।। सुषुवे मायया वायुं सा तत्राविर्बभूव ह ।। ३७ ।।
अतीते द्वादशाब्दे तु दृष्ट्वा तां नवयौवनाम् ।। सार्धं रायाणवैश्येन तत्सम्बन्धं चकार सः ।३८।
छायां संस्थाप्य तद्गेहे साऽन्तर्द्धानमवाप ह ।। बभूव तस्य वैश्यस्य विवाहश्छायया सह ।। ३९।
गते चतुर्दशाब्दे तु कंसभीतेश्छलेन च ।। जगाम गोकुलं कृष्णः शिशुरूपी जगत्पतिः ।। 2.49.४० ।।
कृष्णमाता यशोदा या रायाणस्तत्सहोदरः गोलोके गोपकृष्णांशः सम्बन्धात्कृष्णमातुलः।४१।
कृष्णेन सह राधायाः पुण्ये वृन्दावने वने ।। विवाहं कारयामास विधिना जगतां विधिः।।४२।
स्वप्ने राधापदाम्भोजं नहि पश्यन्ति बल्लवाः।। स्वयं राधा हरेः क्रोडे छाया रायाणमन्दिरे।।४३।।
षष्टिवर्षसहस्राणि तपस्तेपे पुरा विधिः।। राधिकाचरणाम्भोजदर्शनार्थी च पुष्करे ।।४४।।
भारावतरणे भूमेर्भारते नन्दगोकुले ।। ददर्श तत्पदाम्भोजं तपसस्तत्फलेन च।४५।।
किञ्चित्कालं स वै कृष्णः पुण्ये वृन्दावने वने ।। रेमे गोलोकनाथश्च राधया सह भारते।। ४६ ।।
ततः सुदामशापेन विच्छेदश्च बभूव ह ।। तत्र भारावतरणं भूमेः कृष्णश्चकार सः ।। ४७ ।।
शताब्दे समतीते तु तीर्थयात्राप्रसंगतः ।। ददर्श कृष्णं सा राधा स च तां च परस्परम् ।। ४८ ।।
ततो जगाम गोलोकं राधया सह तत्त्ववित् ।। कलावती यशोदा च पर्यगाद्राधया सह ।। ४९ ।।
वृषभानुश्च नन्दश्च ययौ गोलोकमुत्तमम् ।। सर्वे गोपाश्च गोप्यश्च ययुस्ता याः समागताः ।। 2.49.५० ।।
छाया गोपाश्च गोप्यश्च प्रापुर्मुक्तिं च सन्निधौ ।। रेमिरे ताश्च तत्रैव सार्द्धं कृष्णेन पार्वति ।। ५१ ।।
षट्त्रिंशल्लक्षकोट्यश्च गोप्यो गोपाश्च तत्समाः ।। गोलोकं प्रययुर्मुक्ताः सार्धं कृष्णेन राधया । ५२।
द्रोणः प्रजापतिर्नन्दो यशोदा तत्प्रिया धरा ।। संप्राप पूर्वतपसा परमात्मानमीश्वरम् ।५३ ।
वसुदेवः कश्यपश्च देवकी चादितिः सती । देवमाता देवपिता प्रतिकल्पे स्वभावतः । ५४।
पितॄणां मानसी कन्या राधामाता कलावती ।। वसुदामापि गोलोकाद् वृषभानुः समाययौ । ५५।
इत्येवं कथितं दुर्गे राधिकाख्यानमुत्तमम् ।। सम्पत्करं पापहरं पुत्रपौत्रविवर्धनम् ।। ५६ ।।
श्रीकृष्णश्च द्विधारूपो द्विभुजश्च चतुर्भुजः ।। चतुर्भुजश्च वैकुण्ठे गोलोके द्विभुजः स्वयम् ।। ५७ ।।
चतुर्भुजस्य पत्नी च महालक्ष्मीः सरस्वती ।। गंगा च तुलसी चैव देव्यो नारायणप्रियाः ।।५८।।
श्रीकृष्णपत्नी सा राधा तदर्द्धाङ्गसमुद्भवा ।। तेजसा वयसा साध्वी रूपेण च गुणेन च ।५९ ।।
आदौ राधां समुच्चार्य पश्चात्कृष्णं वदेद्बुधः ।। व्यतिक्रमे ब्रह्महत्यां लभते नात्र संशयः ।। 2.49.६० ।।
कार्त्तिकीपूर्णिमायां च गोलोके रासमण्डले ।। चकार पूजां राधायास्तत्सम्बन्धिमहोत्सवम् ।। ६१ ।।
सद्रत्नघुटिकायाश्च कृत्वा तत्कवचं हरिः ।। दधार कण्ठे बाहौ च दक्षिणे सह गोपकैः ।६२ ।।
कृत्वा ध्यानं च भक्त्या च स्तोत्रमेतच्चकार सः राधाचर्वितताम्बूलं चखाद मधुसूदनः ।। ६३ ।।
राधा पूज्या च कृष्णस्य तत्पूज्यो भगवान्प्रभुः ।। परस्पराभीष्टदेवे भेदकृन्नरकं व्रजेत् ।६४ ।।
द्वितीये पूजिता सा च धर्मेण ब्रह्मणा मया ।। अनन्तवासुकिभ्यां च रविणा शशिना पुरा ।। ६५ ।।
महेन्द्रेण च रुद्रैश्च मनुना मानवेन च ।। सुरेन्द्रैश्च मुनीन्द्रैश्च सर्वविश्वैश्च पूजिता ।। ६६ ।।
तृतीये पूजिता सा च सप्तद्वीपेश्वरेण च ।। भारते च सुयज्ञेन पुत्रैर्मित्रैर्मुदाऽन्वितैः ।। ६७ ।।
ब्राह्मणेनाभिशप्तेन देवदोषेण भूभृता ।। व्याधिग्रस्तेन हस्तेन दुःखिना च विदूयता ।६८ ।।
संप्राप राज्यं भ्रष्टश्रीः स च राधावरेण च ।। स्तोत्रेण ब्रह्मदत्तेन स्तुत्वा च परमेश्वरीम् ।६९ ।।
अभेद्यं कवचं तस्याः कण्ठे बाहौ दधार सः ।। ध्यात्वा चकार पूजां च पुष्करे शतवत्सरान् ।। 2.49.७० ।।
अन्ते जगाम गोलोकं रत्नयानेन भूमिपः ।। इति ते कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ।। ७१ ।।
सन्दर्भ:-
इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे द्वितीये प्रकृतिखण्डे नारदनारायणसंवादान्तर्गत हरगौरीसंवादे राधोपाख्याने राधायाः सुदामशापादिकथनं नामैकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ।। ४९ ।।
अनुवाद:-
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 49

श्रीराधा और श्रीकृष्ण के चरित्र तथा श्रीराधा की पूजा-परंपरा का अत्यन्त संक्षिप्त परिचय-
श्रीमहादेव जी कहते हैं– पार्वति! एक समय की बात है, श्रीकृष्ण विरजा नामवाली सखी के यहाँ उसके पास थे। इससे श्रीराधा जी को क्षोभ हुआ। इस कारण विरजा वहाँ नदीरूप होकर प्रवाहित हो गयी। विरजा की सखियाँ भी छोटी-छोटी नदियाँ बनीं। पृथ्वी की बहुत-सी नदियाँ और सातों समुद्र विरजा से ही उत्पन्न हैं। राधा ने प्रणय कोप से श्रीकृष्ण के पास जाकर उनसे कुछ कठोर शब्द कहे। सुदामा ने इसका विरोध किया। इस पर लीलामयी श्रीराधा ने उसे असुर होने का शाप दे दिया। सुदामा ने भी लीलाक्रम से ही श्रीराधा को मानवीरूप में प्रकट होने की बात कह दी। सुदामा माता राधा तथा पिता श्रीहरि को प्रणाम करके जब जाने को उद्यत हुआ तब श्रीराधा पुत्र विरह से कातर हो आँसू बहाने लगीं। श्रीकृष्ण ने उन्हें समझा-बुझाकर शान्त किया और शीघ्र उसके लौट आने का विश्वास दिलाया। सुदामा ही तुलसी का स्वामी शंखचूड़ नामक असुर हुआ था, जो मेरे शूल से विदीर्ण एवं शाप मुक्त हो पुनः गोलोक चला गया। सती राधा इसी वाराहकल्प में गोकुल में अवतीर्ण हुई थीं। वे व्रज में वृषभानु वैश्य की कन्या हुईं। वे देवी अयोनिजा थीं, माता के पेट से नहीं पैदा हुई थीं। उनकी माता कलावती ने अपने गर्भ में ‘वायु’ को धारण कर रखा था।
उसने योगमाया की प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया; परंतु वहाँ स्वेच्छा से श्रीराधा प्रकट हो गयीं।
बारह वर्ष बीतने पर उन्हें नूतन यौवन में प्रवेश करती देख माता-पिता ने ‘रायाण’ वैश्य के साथ उसका सम्बन्ध निश्चित कर दिया। उस समय श्रीराधा घर में अपनी छाया को स्थापित करके स्वयं अन्तर्धान हो गयीं। उस छाया के साथ ही उक्त रायाण का विवाह हुआ। वस्तुत: वह छाया केदार की पुत्री वृन्दा थी।
‘जगत्पति श्रीकृष्ण कंस के भय से रक्षा के बहाने शैशवावस्था में ही गोकुल पहुँचा दिये गये थे। वहाँ श्रीकृष्ण की माता जो यशोदा थीं, उनका सहोदर भाई ‘रायाण’ था। गोलोक में तो वह श्रीकृष्ण का अंशभूत गोप था, पर इस अवतार के समय भूतल पर वह श्रीकृष्ण का मामा लगता था।

जगत्स्रष्टा ब्रह्मा ने पुण्यमय वृन्दावन में श्रीकृष्ण के साथ साक्षात श्रीराधा का विधिपूर्वक विवाह कर्म सम्पन्न कराया था। व्रज के साधारण गोपगण तो स्वप्न में भी श्रीराधा के चरणारविन्द का दर्शन नहीं कर पाते थे। साक्षात राधा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में वास करती थीं और छाया रूपी वृन्दा रायाण के घर में निवास करती हैं।
रायाण यद्यपि श्रीकृष्ण का अंशभूत हैं। और वृन्दा राधा का अंशभूत रूप वृन्दा है। जो सतयुग में उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव के पुत्र केदार की पुत्री हैं। केदार परम धार्मिक राजा थे। सो वृन्दा नामक पुत्री उनकी अंश रूप में राधा से ही उत्पन्न थी। और रायण कृष्ण अंश से उत्पन्न था। अंश से अंश का मिलन आनुपातिक साम्य है।
परन्तु जैसे इकाई और समूह की मात्राओं के अनुपात में बड़ा अन्तर होता है। उसी प्रकार राधा और वृन्दा का आनुपातिक रूप था।
राधा की छाया( (प्रतिरूपा) वृन्दा का विवाह रायाण गोप से हुआ। राधा स्वयं श्रीकृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी थी । जो सदैव उन कृष्ण के वक्ष: स्थल पर प्रतिष्ठित रहती थीं।
पुराणों में राधा से ही सम्पूर्ण गोपियाँ उत्पन्न हुईं यह प्रसिद्ध ही है।
"तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो
गोपाङ्गनागणः । आविर्बभूव रूपेण वेशेनैव च तत्समः ।। 1.5.४० ।।
लक्षकोटीपरिमितः शश्वत्सुस्थिरयौवनः ।।
संख्याविद्भिश्च संख्यातो गोलोके गोपिकागणः ।। ४१ ।।
कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने ।।
आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः।। ४२
श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणे ब्रह्मखण्डे पञ्चमोऽध्यायः । ५ ।
- अनुवाद:-
उस राधा किशोरी के रोमकूपों से तत्काल ही गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष के द्वारा भी उसी राधा जी की समानता करती थीं।
उनकी संख्या लक्षकोटि थी। वे सब-की-सब नित्य सुस्थिर-यौवना थीं। संख्या के जानकार विद्वानों ने गोलोक में गोपांगनाओं की उक्त संख्या ही निर्धारित की है।
मुने ! फिर तो श्रीकृष्ण के रोमकूपों से भी उसी क्षण गोपगणों का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेष में भी उन्हीं कृष्ण के के समान थे।
संख्यावेत्ता महर्षियों का कथन है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गयी है।
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प्राय: गोप कृष्ण के समान रूप वाले थे । जैसे रायाण गोप -
और गोपयाँ राधा के रूप वाली थी जैसे वृन्दा थी।
ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में श्रीराधा के चरणारविन्द का दर्शन पाने के लिये ही पुष्कर में साठ हजार वर्षों तक तपस्या की थी;
उसी तपस्या के फलस्वरूप इस समय उन्हें श्रीराधा-चरणों का दर्शन प्राप्त हुआ था।
राधा के पिता वृषभानु मूलत: गोकुल के ही निवासी थे यही गोकुल महावन था।
गोकुल:-एक प्राचीन गाँव । विशेष—यह वर्तमान मथुरा से पूर्व दक्षिण की ओर प्रायः तीन कोस दूर जमुना के दूसरे पार था और इसे आजकल महाबन कहते हैं । श्रीकष्ण चंद्र ने अपनी बाल्यावस्था यही बिताई थी ।आजकल जिस स्थान को गोकुल कहते हैं वह नवीन और इससे भिन्न है ।
ब्रह्मवैवर्त पुराण प्रकृतिखण्ड में यशोदा के पिता- गिरिभानु और माता पद्मावती हैं। जबकि श्री श्री राधा कष्ण गणोद्देश्य दीपिका में सुमुख और पाटिला यशोदा के माता पिता का नाम है।
नीचे ब्रह्मवैवर्त पुराण में गिरिभानुव और माता पद्मावती का विवरण देखें-
सर्वेषां गोपपद्मानां गिरिभानुश्च भास्करः ।। पत्नी पद्मासमा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।।३८।। तस्याः कन्या यशोदा त्वं यशोवर्द्धनकारिणी। बल्लवानां च प्रवरो लब्धो नंदश्च वल्लभः ।।३९।
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सन्दर्भ:-
श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे नारायणनारदसंवादे कृष्णान्नप्राशन वर्णननामकरणप्रस्तावो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ।।१३ ।।
"श्री-श्रीराधाकष्ण गणोद्देश्य दीपिका" नामक पुस्तक में नन्द , यशोदा व वृषभानु के पारिवारिक सदस्यों के परिचय के अन्तर्गत कुछ का वर्णन निम्न है।
"राजन्यौ यौ तु दायादौ नाम्ना तौ चाटु वाटकौ। दधिस्सारा- हविस्सारे सधर्मिण्यौ क्रमात्तयो:।।४१।( ख)
चाटु और वाटु नंद महाराज के दो चचेरे भाईयों का परिचय हैं ये पर्जन्य के भाई राजन्य के पुत्र हैं। जो वासुदेव महाराज के वंश में पैदा हुए थे। चाटु की पत्नी दधिसारा और वाटु की पत्नी हविस्सारा है जो यशोदा की सहोदरा बहिनें हैं।
"मातामहो महोत्साह: स्यादस्य सुमुखभिध:। लम्बकम्बुसमश्मश्रु: पक्वजम्बूफलच्छवि:।।४२।
कृष्ण के ऊर्जावान और उत्साही नाना का नाम सुमुख है। उनकी लंबी दाढ़ी एक बड़े शंख की तरह है और उनका रंग पके हुए जम्बू फल के रंग का है।
मातामही तु महिषी दधिपाण्डर कुन्तला। पाटला पाटलीपुष्प पटलाभा हरित्पटा।४३।।
यशोदा की माता का नाम पाटला यह श्रीकृष्ण की नानी हैं और वे ब्रजभूमि में बहुत प्रसिद्ध हैं। उनके बाल दही के समान सफेद रंग के हैं, उनका रंग पाटल के फूल के समान गुलाबी रंग का है और उनके वस्त्र हरे हैं।
"यशोधर यशोदेव सुदेवाद्यास्तु मातुला: मातामही भ्राता धूमलो वसनच्छवि: ।।४५(ख)
यशोधर, यशोदेव और सुदेव आदि यशोदा के भाई व कृष्ण के मामा हैं। इनके कपडे़ धूमल रंग के हैं।
"यशोदेवी- यशस्विन्यावुभे मातु: सहोदरे।४९।(ख)
दधिसारा- हवि:सारे इत्यन्ये नामनी तयो:। ज्येष्ठा श्यामानुजा गौरी हिङ्गुलोपमवासमी।।५०।।"
यशोदेवी ,और यशस्विनी श्रकृष्ण की माता यशोदा की सगी बहिनें हैं। ये दोनों दधिसारा और हवि: सारा नाम से भी जानी जाती हैं। बड़ी बहिन यशेदेवी श्याम रंग की और छोटी बहिन यशस्विनी तपे हुए सोने के समान गौर वर्ण की है। दोनों ही हिंगुल( सफेद - पीले और लाल ) रंग के वस्त्र धारण करती हैं।४९ (ख)-५०।
"श्रीदामन: वृषभानु: पिता तस्य माता च कीर्तिदा सती। राधा अनङ्गमञ्जरी च कनिष्ठा भगिनू भवेत्।।३८।
श्रीदामा के पिता वृषभानु और माता कीर्तिदा देवी हैं। कीर्तिदा वड़ी सती हैं राधा और अनंगमञ्जरी इसकी बहिनें हैं।३८।
" शास्त्रों की मनमानी गलत व्याख्या करने वाले पुरोहित- कथावाचकों को मिलने वाली दुर्गति तथा पापपरिणामों स्वरूप मिलने वाली यौनियाँ-
कविः प्रहर्ता विदुषां माण्डूकः सप्तजन्मसु ।असत्कविर्ग्रामविप्रो नकुलः सप्तजन्मसु ।१९२।
कुष्ठी भवेच्च जन्मैकं कृकलासस्त्रिजन्मसु ।जन्मैकं वरलश्चैव ततो वृक्षपिपीलिका ।१९३।
ततः शूद्रश्च वैश्यश्च क्षत्रियो ब्राह्मणस्तथा ।कन्याविक्रयकारी च चतुर्वर्णो हि मानवः ।१९४।
सद्यः प्रयाति तामिस्रं यावच्चन्द्रदिवाकरौ । ततौ भवति व्याधश्च मांसविक्रयकारकः ।१९५।
ततो व्याधि(धो)र्भवेत्पश्चाद्यो यथा पूर्वजन्मनि ।मन्नामविक्रयी विप्रो न हि मुक्तो । भवेद् ध्रुवम् । १९६ ।
मृत्युलोके च मन्नामस्मृतिमात्रं न विद्यतेः पश्चाद्भवेत्स गो योनौ जन्मैकं ज्ञानदुर्बलः ।१९७।
ततश्चागस्ततो मेषो महिषःसप्तजन्मसु। महाचक्री च कुटिलो धर्महीनस्तु मानवः।१९८।
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इति श्रीब्रह्मवैवर्तपुराण श्रीकृष्णजन्मखण्ड उत्तरार्द्ध- पञ्चाशीतितमोऽध्यायः। ८५ ।
अनुवाद:-
विद्वानों के कवित्व पर प्रहार करने वाला सात जन्म तक मेढक होता है। जो झूठे ही अपने के विद्वान कहकर गाँव की पुरोहिती और शास्त्रों की मनमानी व्याख्या करता है; वह सात जन्मों तक नेवला एक जन्म में कोढ़ी और तीन जन्मों तक गिरगिट होता है।
फिर एक जन्म में बर्रै होने के बाद वृक्ष की चीटीं होता है। तत्पश्चात क्रमशः शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण होता है।
चारों वर्णों में कन्या बेचने वाला मानव तामिस्र नरक में जाता है ।
और वहाँ तब तक निवास करता है, जब तक सूर्य-चंद्रमा की स्थिति रहती है। इसके बाद वह मांस बेचने वाला व्याध होता है।
तत्पश्चात पूर्वजन्म में जो जैसा होता है, उसी के अनुसार उसे व्याधि आ घेरती है।
मेरे नाम को बेचने वाले ब्राह्मण की मुक्ति नहीं होती- यह ध्रुव है।
मृत्युलोक में जिसके स्मरण मेरा नाम आता ही नहीं; वह अज्ञानी एक जन्म में गौ की योनि में उत्पन्न होता है। इसके बाद बकरा, फिर मेढा और सात जन्मों तक भैंसा होता है।
प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार रोहि==========
संपादित करेंनाम
संपादित करेंराधाकृष्ण को दो भागों में तोड़ा जा सकता है - कृष्ण, विष्णु के आठवें अवतार[7] और उनकी सहचरी राधा।[8] वृन्दावन में कृष्ण को कभी-कभी बाएं तरफ खड़ी राधा के साथ चित्रित किया जाता है।[9]
शक्ति और शक्तिमान
संपादित करेंशक्ति और शक्तिमान की आम व्युत्पत्ति अर्थात भगवान में स्त्री और पुरुष सिद्धांत का अर्थ है कि शक्ति और शक्तिमान एक ही हैं।[10] हर देवता की अपनी साथी जो उनकी 'अर्धांगिनी' या शक्ति होती है और उस शक्ति के बिना उन्हें कभी-कभी अपरिहार्य शक्ति रहित माना जाता है।[11] हिन्दू धर्म में यह असामान्य बात नहीं है कि जब किसी एक व्यक्तित्व के बजाय एक जोड़ी की पूजा से भगवान की पूजा की जाती है, राधा कृष्ण की पूजा ऐसी ही है। वह परंपरा जिसमें कृष्ण की पूजा स्वयं भगवान के रूप में की जाती है और उनकी राधा को सर्वोच्च के रूप में पूजा जाता है। इस विचार को स्वीकार किया जाता है कि राधा और कृष्ण का संगम, शक्ति के साथ शक्तिमान के संगम को इंगित करता है और यह विचार रूढ़िवादी वैष्णव या कृष्णवाद के बाहर अच्छी तरह से मौजूद है।[12]
दर्शन
संपादित करेंवैष्णव दृष्टिकोण से दैवीय स्त्री ऊर्जा (शक्ति) के एक दिव्य स्रोत को प्रतिबिंबित करती है। जैसे "सीता राम से संबंधित हैं, लक्ष्मी नारायण की सहचरी हैं, उसी तरह राधा कृष्ण की सहचरी हैं।" चूंकि कृष्ण को ईश्वर के सभी रूपों का स्रोत माना जाता है, श्री राधा, उनकी सहचरी सभी शक्तियों का मूल स्रोत हैं अथवा दैवीय ऊर्जा का स्त्री रूप हैं।[13]
परंपरा के अनुसार, आराधना को समझने के लिए विभिन्न व्याख्याओं में एक निजवादी समान मूल है। विशेष रूप से चैतन्य गौड़ीय वैष्णव सिद्धांत और मिशन गहरे रूप से "निजवादी" (आत्मनिष्ठवादी) है, जो कृष्ण की सर्वोच्चता, राधा-कृष्ण के रूप में चैतन्य की पहचान, स्व की वास्तविकता और नित्यता और सर्वप्रथम और महत्वपूर्ण रूप से एक व्यक्ति के रूप में एकमात्र सत्य और ईश्वर तक पहुंचने की घोषणा करता है।[14]
जीव गोस्वामी ने अपने प्रीति सन्दर्भ में कहा है कि प्रत्येक गोपी भिन्न स्तर के मनोभाव की तीव्रता को व्यक्त करती है, जिसमें से राधा का सर्वोच्च स्थान है।[15]
अपने प्रसिद्ध संवादों में रामानंद राय चैतन्य के लिए राधा को वर्णित करते हैं और अन्य पंक्तियों के बीच चैतन्य चरितामृत एक छंद को उद्धृत करते हैं, जिसके बाद वे वृन्दावन के प्राचीन समय में राधा की भूमिका वर्णित करते हैं।[16]
इस ब्रह्मविद्या का केंद्र बिंदु रस शब्द से संबंधित है। इस शब्द का धार्मिक प्रयोग आरंभिक काल में देखा जा सकता है, निम्बार्क या चैतन्य सम्प्रदाय से दो हजार साल पहले, एक वाक्यांश में जिसे परंपरा में अक्सर उद्धृत किया गया है: "वास्तव में, ईश्वर रस है" (रसो वै सह) ब्रह्म सूत्र से यह पंक्ति इस विचार को व्यक्त करती है कि, भगवान ही ऐसा जो परम रस या आध्यात्मिक उत्साह, भावावेश का आनंद लेता है।[17]
परम्पराएं
संपादित करेंहिंदू धर्म की निम्नलिखित परंपराओं में राधा कृष्ण की पूजा की जाती है:
बिश्नुप्रिया मणिपुरी वैष्णव
संपादित करेंराजा गरीब निवाज ने 1709 से 1748 तक शासन किया और उन्होंने चैतन्य परंपरा के वैष्णव शाखा में दीक्षा ली, जो कृष्ण की पूजा सर्वोच्च ईश्वर के रूप में करता है, स्वयं भगवान . उन्होंने लगभग बीस वर्षों तक इस धर्म का अभ्यास किया। प्रचारकों और तीर्थयात्रियों का आगमन भारी संख्या में होता था और आसाम के साथ सांस्कृतिक संपर्क बनाया गया।[18] मणिपुरी वैष्णव कृष्ण की अकेले पूजा नहीं करते हैं, बल्कि राधा-कृष्ण की करते हैं।[19] वैष्णव मत के प्रसार के साथ कृष्ण और राधा की पूजा मणिपुर क्षेत्र में प्रभावी पद्धति बन गई। वहां के हर गांव में एक ठाकुर-घाट और एक मंदिर होता है।[20] रास और अन्य नृत्य अक्सर क्षेत्रीय लोक और धार्मिक परंपरा की एक विशेषता हैं, उदाहरण के लिए, एक महिला नर्तकी एक ही नाटिका में कृष्ण और उनकी सहचरी, राधा दोनों का अभिनय करेगी। [21]
भागवत
संपादित करेंवैदिक और पौराणिक साहित्य में, राधा और इस धातु के अन्य रूप >राध का अर्थ है 'पूर्णता', 'सफलता' और 'संपदा' भी.[उद्धरण चाहिए] सफलता के देवता, इंद्र को राधास्पति के रूप में सन्दर्भित किया गया था। भाग्य के देवता के रूप में महाविष्णु के सन्दर्भ में और जयदेव द्वारा जय जयदेव हरे के रूप में स्वतंत्र रूप से प्रयुक्त - विजयी हरि और राधास्पति, सभी को कई जगहों पर देखा गया है। शब्द राधा, अथर्ववेद, तैत्रीय ब्राह्मण और तैत्रीय संहिता में मिलता है।[उद्धरण चाहिए]
चारलोट वाडेविल, ने इवोल्यूशन ऑफ़ लव सिम्बोलिज़म इन भागावतिज़म लेख में नाप्पिनाई के साथ कुछ समानताएं दिखाई हैं, जो गोधा की उत्कृष्ट रचना थिरुप्पवाई में प्रदर्शित होते हैं और नाम्माल्वर द्वारा नाप्पिनानी के सन्दर्भ में, जो नन्दगोप की बहू हैं। नाप्पिनाई को, प्राकृत और संस्कृत साहित्य में राधा की अवधारणा का स्रोत माना जाता है, हालांकि कृष्ण के साथ उनके चारित्रिक सम्बन्ध में भिन्नता है। एक अनुष्ठान नृत्य में जिसे कुरावाई कहते हैं, कृष्ण अपनी पत्नी नाप्पिनाई के साथ नृत्य करते हैं।
"यह एक जटिल संबंध है, क्योंकि भक्त `समान है फिर भी भिन्न है' भगवान से और इसलिए मिलन की खुशी में वहां विरह का दर्द है। यमुनाचार्य के अनुसार, वास्तव में भक्ति का उच्चतम रूप, मिलन में नहीं होता बल्कि मिलन के बाद होता है, 'विरह के नए डर' में.[22]
यसस्तिलाका चम्पुकाव्य (959 ई.), जयदेव के काल से पहले ही राधा और कृष्ण को अच्छी तरह से सन्दर्भित करता है। ब्रह्म वैवर्त और पद्म पुराण में वहां राधा के कई विस्तृत सन्दर्भ मौजूद हैं।[23]
गौड़ीय वैष्णव
संपादित करेंगौड़ीय वैष्णव, जैसा कि नाम से पता चलता है, आमतौर पर बंगाल के क्षेत्र को दर्शाता है। आरंभिक बंग्ला साहित्य में इस चित्रण का और राधा और कृष्ण की समझ के विकास का का विशद वर्णन मिलता है।[24] हालांकि, यह माना जाता है कि जयदेव गोस्वामी की कविता गीत गोविन्द में उनकी नायिका का स्रोत संस्कृत साहित्य में एक पहेली बना हुआ है। साथ ही गीता गोविन्द से पहले की कृतियों के बारे में भी लिखित सन्दर्भ भली प्रकार मौजूद हैं जो करीब गिनती में बीस हैं। राधा का व्यक्तित्व संस्कृत साहित्य में सबसे अधिक गूढ़ चरित्रों में से एक है; उनका वर्णन प्राकृत या संस्कृत कविता में सिर्फ कुछ चुनिन्दा छंदों में ही किया गया है, कुछ शिलालेखों और व्याकरण, कविता और नाटक की कुछ कृतियों में. जयदेव ने उनका सन्दर्भ लिया और बारहवीं सदी में भावुक भक्ति से ओत-प्रोत एक उत्कृष्ट कविता की रचना की और इस काव्य से आरम्भ होते हुए एक विशाल आंदोलन विशिष्ट रूप से बंगाल में शुरु हुआ।[25]
बारू चंडीदास एक कवि हैं जो आरम्भिक मध्य बंगाल के एक ऐतिहासिक व्यक्तित्व के रूप में उल्लेखनीय हैं; उनकी कविता श्रीकृष्णकीर्तन का काल अभी भी अनुत्तरित है, हालांकि यह कृति बंग्ला साहित्य और धर्म में "गोपिका राधा के लिए भगवान कृष्ण के प्रेम" की लोकप्रिय कथा के चित्रण का एक सबसे महत्वपूर्ण प्रारंभिक साक्ष्य है। श्रीकृष्णकीर्तन के 412 गीतों को तेरह खण्डों में विभाजित किया गया है जो राधा-कृष्ण के पौराणिक चक्र के मर्म को प्रदर्शित करते हैं और इसके कई भिन्न रूप उत्कृष्ट तुलनात्मक सामग्री प्रदान करते हैं। पांडुलिपि से स्पष्ट रूप से पता चलता है कि ये गीत ऐसे गीत थे जिन्हें गाने के लिए विशेष राग की आवश्यकता थी। महत्वपूर्ण धार्मिक अर्थ वाले इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता को लेकर काफी बहस होती है।[26] चैतन्य वैष्णववाद की इस बंगाली परंपरा में आध्यात्मिक स्थिति और राधा की आराधना को माना जाता है कि कृष्णदास द्वारा अपने चैतन्य चरितामृत में स्थापित किया गया था जहां वे उस सिद्धांत को प्रदर्शित करते हैं जो चैतन्य के 1533 में महावसान के बाद वृंदावन के चैतन्यवादियों में व्याप्त रहा। यह माना जाता है कि कृष्ण ने, यह अनुभव करने के लिए कि राधा के रूप में कृष्ण को प्रेम करने की क्या अनुभूति होती है, चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतार लिया। और कृष्ण की लालसा में जो राधा (चैतन्य के रूप में प्रकट होते हुए) करती हैं वह है उनके नाम का उच्चारण.[27] गोपाल भट्ट गोस्वामी द्वारा स्वयं स्थापित एक भगवान को राधा रमण कहा जाता है, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि राधा रमण को न केवल कृष्ण के रूप में देखा जाता है बल्कि राधा-कृष्ण के रूप में भी.[28] और उनके मंदिर में पूजा-अर्चना जो वृन्दावन के केंद्र में स्थित है, एक सतत दैनिक क्रिया है, जिसमें शामिल है दिन भर के कई निर्धारित कार्य,[29] जिसका लक्ष्य है सैद्धांतिक और दूर होते हुए भी राधा और कृष्ण के साथ प्रत्यक्ष रूप से समीप होने और जुड़ने की संभावना की आकांक्षा करना। [30]
निम्बार्क सम्प्रदाय
संपादित करेंनिम्बार्क सम्प्रदाय बाल कृष्ण की पूजा करता है, चाहे अकेले या उनकी सहचरी राधा के साथ, जैसा कि रुद्र सम्प्रदाय करता है और इसका आरम्भिक काल है कम से कम बारहवीं शताब्दी.[31] निम्बार्क के अनुसार राधा, विष्णु-कृष्ण की सदा की संगिनी थीं और ऐसा भी मत है, यद्यपि एक स्पष्ट वक्तव्य नहीं, कि वह अपने प्रेमी कृष्ण की पत्नी बन गई।[32] यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि निम्बार्क इस साहित्य के प्रकल्पित अनैतिक निहितार्थ से राधा को बचाते हैं और उन्हें वह गरिमा प्रदान करते हैं जो उन्हें कहीं और नहीं मिली। [33]
निम्बार्क द्वारा स्थापित निम्बार्क सम्प्रदाय, चार वास्तविक वैष्णव परंपराओं में से एक है। 13वीं सदी और 14वीं सदी में मथुरा और वृंदावन के विनाश के कारण साक्ष्य के अभाव का मतलब है कि सही तिथि और इस परंपरा का मूल रहस्य में डूबा है और जांच की ज़रूरत है।
सत्यानन्द जोसेफ, प्रो॰ रसिक बिहारी जोशी, प्रो॰ एम.एम. अग्रवाल आदि विद्वानों द्वारा निम्बार्क को, उसी काल का माना जाता है जिस काल में शंकराचार्य हुए थे और वे प्रथम आचार्य थे जो कृष्ण के साथ राधा की आराधना सखी भाव उपासना पद्धति में करते थे। अपने वेदांत कामधेनु दशश्लोकी में, यह स्पष्ट कहा गया है: -
अंगे तू वामे वृषभानुजम मुदा विराजमानम अनुरूपसौभागम. सखीसहस्रैह परिसेविताम सदा स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम. छंद 6. परमपिता परमेश्वर के शरीर का बायां हिस्सा श्रीमती राधा हैं, जो हर्ष के साथ बैठी हैं और स्वयं परमेश्वर जैसी ही सुंदर हैं; जिनकी सेवा में हज़ारों गोपियां हैं: हम उस सर्वोच्च देवी का ध्यान करते हैं, जो सभी इच्छाओं की पूर्ती करने वाली हैं।
इस विषय को जयदेव गोस्वामी और उस समय के अन्य कवियों द्वारा अपनाया गया जिन्होंने उस अन्तर्निहित सुन्दरता और आनंद को देखा जिससे इस दर्शन का निर्माण हुआ था।
इस सम्प्रदाय में राधा का महत्व, श्री कृष्ण के महत्व से कम नहीं है। निम्बार्क के इस सम्प्रदाय में दोनों ही संयुक्त रूप से आराधना की वस्तु हैं।[34] वेदांत-पारिजात-सौरभ नाम के तहत निम्बार्क, ब्रह्म सूत्र के पहले टिप्पणीकारों में से भी एक हैं। 13वीं और 14वीं सदी में निम्बार्क सम्प्रदाय के बाद के आचार्यों ने इस दैवीय जोड़ी पर अधिक साहित्यिक रचनाएं की। जयदेव के मुंह-बोले बड़े भाई, स्वामी श्री श्रीभट्ट ने जयदेव की तरह संगीतमय प्रस्तुति की ध्रुपद शैली के लिए युगल शतक की रचना की, लेकिन जयदेव के विपरीत, जिन्होंने अपनी रचना संस्कृत में लिखी थी, स्वामी श्रीभट्ट की रचनाएं व्रज भाषा में हैं, जो हिन्दी का एक स्थानीय रूप है जिसे व्रज के सभी निवासियों द्वारा समझा जाता था। वास्तव में इस परंपरा के आचार्यों ने व्रज भाषा में लिखा और आधुनिक समय में इस भाषा के अल्प प्रसार के कारण, बहुत कम शोध किया गया है, हालांकि ये आचार्य, वृन्दावन के छह गोस्वामियों से कई सड़ी पहले हुए थे।
किसी भी मामले में, निम्बार्क सम्प्रदाय में पूजा की एकमात्र वस्तु संयुक्त दिव्य दम्पत्ति राधा कृष्ण हैं। 15वीं सदी के जगद्गुरु स्वामी श्री हरिव्यास देवाचार्य द्वारा लिखित महावाणी के अनुसार
राधामकृष्णस्वरूपम वै, कृष्णम राधास्वरुपिनम; कलात्मानाम निकुंजस्थं गुरुरूपम सदा भजे मैं निरंतर राधा का गुणगान करता हूं जो कोई और नहीं बल्कि कृष्ण हैं और श्री कृष्ण, राधा ही हैं, जिनके योग को कामबीज द्वारा दर्शाया गया है और जो सदा निकुंज गोलोक वृन्दावन में निवास करते हैं।
राधा कृष्ण के दर्शन में निम्बार्क सम्प्रदाय के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है, क्योंकि यह दर्शन और धर्मशास्त्र इसी से आरंभ हुआ था। [उद्धरण चाहिए]
स्वामीनारायण संप्रदाय
संपादित करेंस्वामीनारायण सम्प्रदाय में राधा कृष्ण देव का स्थान विशेष है क्योंकि स्वामीनारायण ने राधा कृष्ण को खुद शिक्षापत्री में सन्दर्भित किया जिसे उन्होंने लिखा था।[9] इसके अलावा, उन्होंने खुद मंदिरों के निर्माण का आदेश दिया जिसमें राधा कृष्ण को देवताओं के रूप में स्थापित किया गया है। स्वामीनारायण ने "बताया कि कृष्ण कई रूपों में प्रकट होते हैं। जब वे राधा के साथ होते हैं, तो उन्हें राधा-कृष्ण नाम के अंतर्गत सर्वोच्च ईश्वर माना जाता है; रुक्मणी के साथ लक्ष्मी-नारायण जाना जाता है।"[35] इस सम्प्रदाय में प्रथम मंदिर का निर्माण 1822 ई. में अहमदाबाद में किया गया, जिसके केंद्रीय कक्ष में नर नारायण, अर्जुन और कृष्ण के रूपों को स्थापित किया गया है। हॉल के बाएं तरफ के मंदिर में राधा कृष्ण की मूर्तियां है।[36] इस परंपरा के दर्शन के अनुसार कृष्ण की कई महिला साथी थीं, गोपियां, लेकिन उनमें से राधा को सर्वोत्कृष्ट भक्त माना जाता था। जो कृष्ण के करीब आने की चाह रखते हैं उन्हें राधा जैसी भक्ति के गुण विकसित करना चाहिए। [37] इस सिद्धांत के अनुसार संप्रदाय ने गोलोक को एक सर्वोच्च स्वर्ग या निवास (वास्तव में, अपने कुछ मंदिरों में जैसे मुम्बई मंदिर में स्थापित मूर्तियां श्री गौलोकविहारी और राधिकाजी की हैं) के रूप में अलग रखा है, क्योंकि माना जाता है कि वहां कृष्ण अपनी गोपियों के साथ आनंद लेते हैं,[38] जो स्वामीनारायण सम्प्रदाय के अनुसार वे ग्वालिनें हैं जिनके साथ कृष्ण नाचे थे; उनके साथ कृष्ण का संबंध भगवान और भक्त के प्रतिदान संबंध का प्रतीक है।[39]
वल्लभ सम्प्रदाय
संपादित करेंचैतन्य से भी पहले पुष्टिमार्ग के संस्थापक, वल्लभाचार्य राधा की पूजा करते थे, जहां कुछ संप्रदायों के अनुसार, भक्तों की पहचान राधा की सहेलियों (सखी) के रूप में होती है जिन्हें राधाकृष्ण के लिए अंतरंग व्यवस्था करने के लिए विशेषाधिकार प्राप्त होता है।[40]
इस परंपरा के एक प्रमुख कवी, ध्रुवदास जिन्हें राधा वल्लभी भी कहा जाता है, वे मुख्यतः राधा और कृष्ण के निजी संबंधों के साथ जुड़े होने के लिए उल्लेखनीय थे। अपनी कविता चौरासी पद में और अपने अनुयायियों की टिप्पणियों में, जोर दिया जाता है अनंत लीला के निरंतर मनन के अद्वितीय लाभ पर.
अपने वैष्णव सह-धर्मियों के साथ राधावल्लभी, भागवत पुराण के प्रति अपार श्रद्धा रखते हैं, लेकिन कुछ अंतरंगता जो राधा और गोपियों के साथ रिश्तों की परिधि के बाहर है वह इस सम्प्रदाय के दर्शन में शामिल नहीं है। रिश्ते की मिठास पर बल दिया गया है, या रस पर.[41]
हिंदू धर्म के बाहर
संपादित करेंकुछ हिंदू विद्वानों और हिंदू धर्म के जानकारों की राय में एक स्वर्ण युग था जब हिन्दू और मुस्लिमों ने एक आम संस्कृति का निर्माण किया जिसका मुख्य कारण था कुछ मुस्लिम शासकों द्वारा संस्कृत और संस्कृत से फ़ारसी में अनुवाद को संरक्षण प्रदान करना, जबकि वहां मुस्लिम नाम वाले ऐसे कवि थे जो कृष्ण और राधा के बारे में लिखा करते थे।[42]
मंदिर
संपादित करें- भारत में
वृन्दावन और मथुरा को राधा-कृष्ण की पूजा का केंद्र माना जाता है। वृन्दावन के सबसे महत्वपूर्ण मंदिर हैं
श्री राधा रास बिहारी अष्ट सखी मंदिर (http://www.ashtasakhimandir.org Archived 2018-11-18 at the वेबैक मशीन) वृंदावन में, भगवान कृष्ण का "लीला स्थान" (दिव्य मनोभाव खेल का स्थान), पर यह मंदिर है जहां कृष्ण के उन भक्तों के लिए जाना आवश्यक है जो 84 कोष व्रज परिक्रमा यात्रा को पूरा करते हैं। यह मंदिर सदियों पुराना है और पहला भारतीय मंदिर है जो इस दिव्य युगल और उनकी अष्ट सखियों को समर्पित है - राधा की आठ "सहेलियां" जो कृष्ण के साथ उनकी प्रेम लीला में अन्तरंग रूप से शामिल थीं। इन अष्ट सखियों की चर्चा वेद पुराणों और श्रीमद भागवत के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित हैं। इस मंदिर को कहा जाता है - श्री राधा रास बिहारी अष्ट सखी मंदिर और यह भगवान कृष्ण और राधारानी की दिव्य रास लीला का स्थान है। यह श्री बांके बिहारी मंदिर के निकट स्थित है। किंवदंती है कि श्री राधा रास बिहारी अष्ट सखी मंदिर, मथुरा, वृंदावन में उन दो स्थानों में से एक है जहां भगवान कृष्ण अपनी प्रेयसी राधा और उनकी सखियों के साथ रास लीला में शामिल होते हैं। इन रातों में, भक्तों ने पायलों की आवाज सुनने की सूचना दी है, जो किसी दिव्य धुन के साथ बज रही थी।
मदन-मोहन, गोविन्ददेव, राधा-रमन, राधा-गोकुलानंद, राधा-दामोदर, बांकी-बिहारी, राधावल्लभ, जुगल किशोर, राधा-गोपीनाथ, राधा श्यामसुन्दर और कृष्ण-बलराम मंदिर जहां राधा और कृष्ण की पूजा उनकी मूर्ति रूपों में की जाती है।[43]
- भारत से बाहर
ऐसी कई परंपरा है जिसने राधा-कृष्ण की आराधना को कई अन्य देशों में प्रसारित किया है, चाहे वह प्रवास से जुड़ी हो अथवा साधुओं की उपदेशात्मक गतिविधियों से. ऐसा ही एक प्रमुख पंडित, प्रभुपाद ने स्वयं कई केन्द्र खोले जहां वे म्लेच्छ से ब्राह्मण बने छात्रों को राधा-कृष्ण की मूर्ति की पूजा करने और "ईश्वर की सेवा में समर्पित" होने की शिक्षा देते थे।[44]
लोकप्रिय गीत और प्रार्थनाएं
संपादित करेंश्री राधिका कृष्णाष्टक (राधाष्टक भी कहा जाता है) एक भजन है। कहा जाता है कि पढ़नेवाला इसके जप द्वारा राधा के माध्यम से कृष्ण को पा सकता है।
इन्हें भी देखें
संपादित करेंपाद-टिप्पणियां
संपादित करें- ↑ Schweig 2005, पृष्ठ 3
- ↑ Rosen 2002, पृष्ठ 50
- ↑ Rosen 2002, पृष्ठ 52 चैतन्य-चरितामृत आदि-लीला 4.95 Archived 2008-08-24 at the वेबैक मशीन,
- ↑ Schwartz 2004, पृष्ठ 49
- ↑ Schweig 2005, पृष्ठ 41–42
- ↑ Schweig 2005, पृष्ठ 43
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सन्दर्भ
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लिंक
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