राव गोपाल सिंह खरवा
राव गोपालसिंह खरवा (1872–1939), राजपुताना की खरवा रियासत के शासक थे। अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने के आरोप में उन्हें टोडगढ़ दुर्ग में ४ वर्ष का कारावास दिया गया था। वहा से राव गोपाल सिंह जी को जेल से छुड़ाने के लिए उनके काका ठा मोड़ सिंह जी गए थे और उन्होने जेल तोड़ दी थी फिर वह वहाँ से निकल गये ओर कुछ दिनों बद मै राव साहब गोपाल सिंह जी और उनके काका ठा मोड़ सिंह जी को अजमेर के पास घिर गए थे फिर मोर्चे के लिए तैयारी कर ली थी मध्यस्ता के लिए अंग्रेजों ने राजा साहब किशनगढ़ वालों को बुलाये और कहा कि आप आत्मसमरपं कर दे तब ही ठा साहब मोड़ सिंह जी ने कहा मरना मंजूर है लेकिन आत्मस्मारपं नही करेंगे फिर यहे निर्णय हुआ की आप हमारे सामने नही आप भगवान श्री कृष्ण के सामने हतियार डाल दीजिये यह निर्णय हुआ सभी ने अजमेर के पास सलेमाबाद नामक जगह श्री कृष्ण का मंदिर है वहा डाल दिये हतियार और उनके हतियार अभीतक उस मंदिर मे है फिर राव साहब गोपाल सिंह जी का समजोता हुआ की आपके पुत्र को हम हमारी सेना मे कैप्टन बनाएंगे और आप को राव की पद से मुक्त करेंगे और आप खरवा गढ़ में नही रहे सकते हैं फिर ये समजोता हो गया फिर राव साहब के लिए उनके पुत्र कैप्टन गंपत् सिंह जी ने उनके लिये एक बंगला बनाया खरवा के बाहर उसमे रहा करते थे राव गोपाल सिंह जी वो आज भी मौजूद है खरवा मे बंगले के नाम से जाना जाता है और ठा मोड़ सिंह जी को 7 वर्ष की सजा सुनाई गई थी अंग्रेजों के द्वारा
राव गोपाल सिंह खरवा | |
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जन्म | वि.स.१९३० काती बदी ११ गुरुवार,१९ अक्टूबर १८७३ ई. |
निधन | १२ मार्च १९३९, वि.स.१९९५ चैत्र कृष्णसप्तमी |
घराना | खरवा |
पिता | राव माधोसिंह |
परिचय
संपादित करेंगोपाल सिंह खरवा का जन्म खरवा के शासक राव माधोसिंह जी की रानी गुलाब कुंवरीजी चुण्डावत के गर्भ से वि.स.१९३० काती बदी ११ गुरुवार, तदनुसार १९ अक्टूबर १८७३ ई.को हुआ था। उस उनके पिता माधोसिंहजी खरवा के कुंवर पद पर थे। उनकी माता करेड़ा (मेवाड़) के राव भवानीसिंह चुण्डावत की पुत्री थी। कुंवरगोपालसिंह १२ वर्ष की उम्र में ही घुड़सवारी और निशानेबाजी में सिद्धहस्त हो चुके थे। साहस और निर्भीकता उनमे कूट कूट कर भरी थी। गोपालसिंह खरवा स्वाधीनता संग्राम के उद्भट सेनानी, देशप्रेम का दीवाने, क्रांति के अग्रदूत और त्याग के तीर्थ थे।एक प्रतिष्ठित सामन्ती घराने में जन्म लेकर उन्होंने देश की आजादी के लिए अपनी वंशानुगत जागीर सहित अपना सब कुछ दांव पर लगा कर ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का बिगुल बजा दिया था।
शिक्षा दीक्षा
संपादित करेंवि.स.१९४२.(१८८५ई.) में आपने मेयो कालेज अजमेर में दाखिला लिया जहाँ छह वर्ष तक शिक्षा ग्रहण के बाद आपने मेयो कालेज छोड़ दिया। अपनी पढाई बीच में छोड़ देने के चलते राव गोपाल सिंह की शिक्षा उच्च स्तर तक नहीं पहुँच पाई पर घर पर उन्होंने संस्कृत,हिंदी,अंग्रेजी,इतिहास,राजनीती व वेदांत का उचित अध्ययन किया। प्राचीन ग्रंथो के साथ भारतीय क्षत्रियों के इतिहास व खनिज धातुओं के वे अच्छे विशेषज्ञ थे। अंग्रेजी वे धाराप्रवाह बोलने माहिर थे।
राज्याभिषेक
संपादित करेंवि.स.१९५५ कार्तिक कृष्णा ९ (१६ अक्टूबर १८९७ई.) को उनके पिता राव माधोसिंह के निधन के बाद राव गोपालसिंह खरवा रियासत के विधिवत शासक बने।
छपना अकाल में जन सहायता
संपादित करेंराव गोपालसिंह के शासक बनते ही वि.स.१९५६ में राजस्थान में भयानक अकाल पड़ा। बिना अन्न मनुष्य व बिना चारे के पशु मरने लगे। बुजुर्ग बताते हैं कि उस अकाल में अन्न की इतनी कमी थी कि लोग खेजड़ी के पेड़ों की छाल पीस कर खा लेते थे। पूरे राजस्थान में हा हा कार मच गया था। उस विषम स्थिति से निपटने व अपनी जनता को भुखमरी से बचाने के लिए राव गोपालसिंह खरवा ने अपने छोटे से राज्य के खजाने जनता को भोजन उपलब्ध कराने के लिए खोल दिए थे। भूखे लोगों को भोजन के लिए उन्होंने जगह जगह भोजनालय खोल दिए थे जहाँ खिचड़ा बनवाकर लोगों को खिलाया जाता था। चूँकि उनकी जागीर के आय के स्रोत बहुत सिमित थे अत: जनता को भुखमरी से बचाने हेतु उन्हें अपनी जागीर के कई गांव गिरवी रखकर अजमेर व ब्यावर के सेठो से कर्ज लेना पड़ा था। उनके इस उदार व मानवीय चरित्र की हर और प्रशंसा हुई वे जनता के दिलों में राज करने लगे।
पाली प्रजा गोपालसीं, परम धरम चहुँ पेख।
राणी जाया राजवी, जुड़े न दूजा जोड़।
शिक्षा प्रसार कार्य
संपादित करेंराजस्थान में उस कालखंड में शिक्षा के साधन नगण्य थे लोगों में शिक्षा के प्रति रूचि का अभाव था। राव गोपालसिंह ने शिक्षा की महत्ता को पहचाना और पढने के इच्छुक अनेक बालको को छात्रवृतियां प्रदान की और उन्हें आर्य समाज के छात्रवासों में भर्ती कराया। उन्होंने अजमेर व मारवाड़ राज्यों के गांवों में शिक्षा को बढ़ावा देने व अपने बालको को शिक्षा के लिए भेजने को प्रेरित करने हेतु प्रचारक-उपदेशक भेजे। कई गांवों के जागीरदारों ने उनके इस कार्य की मुक्त कंठ से प्रसंसा की और उन्हें धन्यवाद के पत्र भेजे।
स्वाधीनता के लिए सशस्त्र क्रांति की ओर
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स्वाधीनता संग्राम में आपके प्रमुख साथी
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विदेशी वस्त्रों की होली
संपादित करेंखरवा उस कालखंड में राष्ट्रीयता का प्रमुख केंद्र बन चूका था। देशप्रेम की भावना वहां के जनमानस में हिलोरें मार रही थी। ब्यावर के सेठ दामोदरदास राठी के खरवा बार बार आने से वहां के महाजनों के मन में भी देश के प्रति समर्पण की भावना का उदय हुआ। १४ मई १९०७ ई. को खरवा के दुकानदारों और महाजनों ने अपनी देशभक्ति का जबरदस्त प्रदर्शन करने हेतु बिलायती खांड बेचना बंद करने का निर्णय लिया साथ ही विदेशी वस्त्रों की होली जलाई और राव गोपालसिंह के कहने पर स्वदेशी वस्त्र ही पहनने की शपथ ली। इस कार्य में महाजनों के अतिरिक्त सभी वर्गों ने साथ देकर स्वाधीनता संग्राम में अपना योगदान दिया।
नजरबन्द
संपादित करेंजून १९१५ ई. में ए.जी.जी राजपुताना के आदेश से राव गोपाल सिंह खरवा को टोडगढ़ के सुदूर पहाड़ी स्थान पर नजर-कैद किया गया। तब उन्हें अपने हथियारों व कुछ सेवको और विश्वस्त साथियों को साथ रखने की छुट भी दी गयी थी। उस काल लाहौर कांड में पकडे गए एक क्रांतिकारी ने अपने बयानों में राव गोपाल सिंह खरवा के सेकेट्री भूपसिंह जो बाद में विजयसिंह पथिक के नाम से मशहूर हुआ से मिलने व खरवा से बंदूकें व कारतूस मिलने की बात कही थी। नजर बंदी के दौरान राव साहब को पता चला कि सरकार उनके हथियार छिनकर उन्हें निहत्था करना चाहती है और वे निहत्था होना क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध मानते थे। साथ ही उन्हें उनके नजर बंद किये जाने के बाद खरवा के ग्रामीणों पर पुलिस अत्याचार की खबरे भी मिल चुकी थी। अत: स्वाभिमान के धनि राव साहब ने अपने निजी सेवकों को उनके घर भेज दिया व ९ जुलाई १९१५ को वे नजर बंदी की अवज्ञा कर टोडगढ़ से अपनी घेराबंदी तोड़ कर निकल गए।
अंग्रेजों द्वारा आरोप पत्र
संपादित करेंराव गोपाल सिंह खरवा की अंग्रेज विरोधी नीति से अंग्रेज अधिकारी पहले ही नाराज थे और नीमेज हत्याकांड में पकडे गए क्रांतिकारी सोमदत्त लहरी के बयानों के बाद अंग्रेज सरकार को पक्का संदेह हो गया कि राव गोपाल सिंह खरवा क्रांतिकारियों को सहयोग दे रहे हैं व खुद भी अंग्रेज विरोधी गतिविधियों में शामिल है अत: अजमेर के जिला कलेक्टर मि.ए टी होमर ने २३ अक्टूबर १९१४ ई.को एक आरोप पत्र भेज जबाब माँगा -
१- आप राजपूतों को सरकार के विरुद्ध बगावत करने को तैयार कर रहे हैं।
२- नीमेज हत्याकांड का आरोपी सोमदत्त भी आपके खर्चे से पढ़ा हुआ, ऐसे कार्यों में सलंग्न व्यक्ति है।
३-विष्णुदत्त एक अराजक नेता है। कोटा और नीमेज हत्याकांडों का प्रमुख अभियुक्त है। वह आपके पास आता जाता है और उपदेशक के रूप में गांवों में भेजा जाता है।
४-नारायणसिंह जिस पर आराजकता का अभियोग था और बंदी बनाएं जाने से पूर्व ही मर गया आपके खर्च पर शिक्षा पाया हुआ था।
५- गाडसिंह भी आपके रहने वाला व्यक्ति था।
६-मि.आर्मस्ट्रांग की तहकीकात में आप स्वीकार कर चुके हैंकि ठाकुर केसरी सिंह बारहट आपका मित्र है और वह खरवा आता रहता था।
उपयुक्त आरोपों का राव गोपाल सिंह खरवा ने समुचित उत्तर देकर टाल दिया।
महाराणा फ़तेहसिंह को दिल्ली दरबार में शरीक होने से रोकना
संपादित करेंजनवरी १९०३ में सम्राट एडवर्ड के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में लार्ड कर्जन ने दिल्ली में एक भव्य दरबार का आयोजन किया जिसमे भारतवर्ष के सभी राजा महाराजा और नबाब आमंत्रित किये गए। पर राजस्थान के क्रांतिकारियों को मेवाड़ के महाराणा फ़तेहसिंह का उस दरबार में शरीक होना पच नहीं रहा था सो उन्हें रोकने के लिए राव गोपालसिंह खरवा ने जयपुर के मलसीसर हॉउस में एक बैठक कर महाराणा को रोकने के काम का जिम्मा ठाकुर केसरी सिंह बारहट को दिया। केसरी सिंह बारहट ने महाराणा को रोकने के लिए १३ दोहे लिखे जो इतिहास में "चेतावनी रा चुंगटिया" नाम से प्रसिद्ध है। ये दोहे राव गोपालसिंह खरवा ने महाराणा को चलती ट्रेन में भेंट हेतु भेजे जिन्हें पढने के बाद महाराणा फ़तेहसिंह जी ने लार्ड कर्जन द्वारा आहूत दरबार में न जाने का निश्चय किया और वे नहीं गए। महाराणा की दिल्ली वापसी पर नसीराबाद रेलवे स्टेशन पर उपस्थित होकर राव गोपाल सिंह खरवा ने खुद महाराणा फ़तेहसिंह जी को राष्ट्रिय गौरव की रक्षा के धन्यवाद निवेदन करते दो दोहे प्रस्तुत किये -
सबल फता साबास, आरज लज राखी अजां॥
करजन कुटिल किरात, ससक नृपत ग्रहिया सकल।
कश्मीर में मुस्लिम विद्रोह दबाने जाने को रवाना
संपादित करेंसन १९३१ ई. में पहली बार शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर का बादशाह बनने का स्वप्न देखा और वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों को भड़काया कर वहां के क्षत्रिय राजा के विरुद्ध बगावत का झंडा उठाया। देश के अन्य भागों से भी मजहबी जोश में जिहाद के नाम पर मुस्लिम कश्मीर पहुँचने लगे। उसकी प्रतिक्रियास्वरूप हिन्दू जत्थे भी राजा की सहायता के लिए कश्मीर के लिए रवाना हुए। उस समय हिन्दू राष्ट्रीयता के समर्थक राव गोपाल सिंह खरवा भी शस्त्रों से सज्जित हो अपना बलिदानी जत्था लेकर क्षत्रिय राजा की सहायतार्थ कश्मीर के लिए रवाना हुए। राव गोपाल सिंह खरवा के लाहौर पहुँचने पर पंजाब के गवर्नर ने उनके इरादों को देखते हुए उनके कश्मीर जाने पर पाबंदी लगा दी। बाद में उन्हें बताया गया कि मुस्लिम विद्रोह दबा दिया गया है अब आपके वहां जाने का कोई औचित्य नहीं है उल्टा आपके जाने पर अशांति होगी।
लाहौर में राव गोपाल सिंह खरवा का हिन्दू, सिखों व आर्यसमाजियों ने हार्दिक स्वागत किया और उन्हें "हिन्दू-सिख हितकारिणी सभा"का सभापति बनाया। उक्त सभा में उन्हें "राजस्थान केसरी" की उपाधि से अलंकृत भी किया गया।
देबा जस रो दौर, हिक गोपाल तन सुं हुवे॥
महाप्रयाण
संपादित करेंजीवन के अंतिम दिनों में राव गोपाल सिंह खरवा बीमार रहने लगे। हृदय की धड़कन, पेट की खराबी और स्नायविक दुर्बलता उन्हें सताने लगी। चिकित्सा हेतु वे अजमेर आये और लगातार दो महीने तक भूमि को शय्या बनाकर उस भीषण रोग से संघर्ष करते रहे और अंत में वि.स.१९९५ में चैत्र कृष्णा सप्तमी (१२ मार्च १९३९) को उस युग के उस महामानव ने परलोक गमन किया।
सन्दर्भ
संपादित करेंराव गोपालसिंह खरवा : लेखक सुरजनसिंह शेखावत
बाहरी कड़ियाँ
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