सांसण

कर-मुक्त भूमि अनुदान

सांसण ('स्व-शासित' के लिए डिंगल) शासकों द्वारा चारणों और राजप्रोहित आंशिक या पूरे गांवों के रूप में प्रदान किया जाने वाला एक कर-मुक्त भूमि अनुदान था। ये अनुदान सदा के लिए दिए जाते थे और अन्य भूधृति व्यवस्थाओं की तुलना में इन्हें श्रेष्ठ अधिकार प्राप्त थे।

सांसण की अवधारणा राजस्व दायित्वों से मुक्त राज्य द्वारा उपहार या पुरस्कार के रूप में चारणों को दिए गए गांवों को संदर्भित करती है। [1] [2] समाज में चारणों का स्थान उच्चत्तम था। उन्हें राजदरबारों में उच्च पदों से सम्मानित किया जाता था[3] और कुलीन अभिजात वर्ग माना जाता था। उन्हें प्रदान की गई भूमि स्थायी रूप से कर-मुक्त और वंशानुगत जागीर, या सांसण अधिकारों से युक्त थी। [4] प्रशासन, [5] इतिहास लेखन, सैन्य, [6] और साहित्यिक योग्यता में उनकी सराहनीय सेवाओं के लिए ये जागीरें प्रदान उन्हें प्रदान की जाती थी। [7] वे सामाजिक रूप से प्रमाणित स्मृति को संरक्षित रखते थे। [8] ब्रिटिश रिपोर्टों ने उन्हें "[राजपूत] राज्य के अग्रणी जनों" में सूचीबद्ध किया। उन्हें उच्च आदर प्राप्त था और पवित्र और अवध्य माना जाता था। उन्हें देवीपुत्र कहा जाता था और वे "गौ-ब्राह्मण" के साथ वर्गीकृत थे। [9]

चारणों का शासकों के साथ घनिष्ठ संबंध था और वे राजनीतिक मामलों में मध्यस्थ के रूप में कार्य करते थे। [10] वे राजवंश और मुख्य सामन्त क्षत्रियों के इतिहास का लेखन भी किया करते थे, और राजपूत शासक के उच्चतम पद की पुष्टि करते हुए उसके वंश और अन्य चारणों के मध्य उसकी वीरता और पद-प्रतिष्ठा को मान्यता प्रदान करते थे। [11] अन्य आनुष्ठानिक उपहारों के अलावा, उन्हें धन, गाय-घोड़े-हाथी, और राजस्व-मुक्त भूमि अनुदान, जिसे सांसण अनुदान कहा जाता है, के उपहारों से पुरस्कृत किया गया। [12] ये भूमि अनुदान सभी दायित्वों से मुक्त थे, और अनुदान धारक अपने सांसण क्षेत्रों में भू-राजस्व और अन्य उपकर एकत्र करने के हकदार थे। [13]

ब्रिटिश एजेंट आर्चीबाल्ड एडम्स ने राजपूताना राज्यों के अपने इतिहास में उल्लेख करते है कि चारण "एक पवित्र जाति थे, जिनके पास भूमि के विशाल धार्मिक अनुदान थे"। [14] मारवाड़ राज्य में, लगभग 1880 में, चारणों के नियंत्रण में 350 से अधिक कर-मुक्त जागीरें थी, जो कुल राजस्व मूल्यांकन में 400,000 रुपये से कई अधिक होने का अनुमान था। [15]

विशेषताएँ

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सांसण अनुदान में प्रदान की गई भूमि सामान्य जागीर से कई मायनों में भिन्न थीं: [16] [17] [18]

  • कर-मुक्त:- चारणों की जागीर भूमि पर कोई कर या लगान नहीं देना पड़ता था। सासन क्षेत्र की सभी आय चारणों के लिए निमित्त थी। कभी-कभी, कुछ चारण जागीरदारों ने राज्य को अपनी आय का एक हिस्सा देने का विकल्प चुना, हालांकि वे ऐसे किसी दायित्व के अधीन नहीं थे।
  • क्षेत्राधिकार:- सांसण भूमि स्वायत्त हुआ करती थी और उसमें प्रशासन और शासन के मामलों में कोई बाहरी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता था। सांसण क्षेत्र के भीतर, राजा का निवासियों पर कोई अधिकार क्षेत्र नहीं था, और सभी विवादों का न्याय चारण द्वारा हल किया जाता था।
  • अविच्छेद्य एंव वंशानुगत:- सांसण भूमि उसके प्राप्तकर्ता चारण व उसके वंशजों को सदा के लिए प्रदान की जाती थी। इसे राज्य वापस नहीं ले सकता था। हालांकि, बाद की अवधि में, यदि मूल अनुदेयी का वंश समाप्त हो जाता था, तो आम तौर पर राज्य द्वारा सांसण जागीर फिर से वापस ले लिया जाता था। [19]

इसके अलावा, अनुदेयी को अपने सांसण जागीर से राजस्व के अपने अधिकार को गिरवी रखने, उपहार देने, हस्तांतरण करने और कभी-कभी दूसरों को बेचने का भी अधिकार था। उदाहरण के लिए, मुहता नैणसी की विगत में दर्ज है कि किशना नामक एक चारण ने अपने गाँव का एक हिस्सा कचरा नामक एक ब्राह्मण को बेच दिया था, जिसे पहले उसी व्यक्ति के पास गिरवी रखा गया था। [20] बाद की अवधि में, सांसण भूमि को बेचने या उपहार देने पर प्रतिबंध लगाए गए थे, हालांकि गिरवी रखने की अनुमति थी। [21]

अनुदान अभिलेख

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इन सांसण जागीरों का अनुदान मौखिक रूप से दर्ज किया जाता था और ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण भी किया जाता था, जो समय की मार झेल सकते थे। [22] [23] इन ताम्रपत्रों में आमतौर पर अनुदान के उद्देश्य के साथ-साथ अनुदानकर्ता और अनुदेयी के नाम शामिल होते हैं। [7] इन अनुदानों के लिए सभी सनद और परवानों को दीवान के कार्यालय में रखा जाता था, [24] और इनमें प्राचीन उक्ति का प्रयोग किया जाता था कि अनुदान "जब तक चंद्र और सूर्य रहे " तब जारी रहना चाहिए। [20]

"सांसण" शब्द एक व्यापक शब्द बन गया जिसका उपयोग कर-मुक्त या धार्मिक प्रकृति के सभी भूमि अनुदानों को दर्शाने के लिए किया जाता था, इस प्रकार इसमें चारणों, साधुओं, नाथ जोगियों, ब्राह्मणों, भाटों, यतियों और मंदिरों को दिए गए सभी अनुदानों को शामिल किया गया। [12] धर्मडा, पुण्यार्थ भोम, माफी, पुण्य और उदिक-इनाम जैसे शब्द, जो अनुदान की धार्मिक प्रकृति को दर्शाते थे, सांसण के पर्यायवाची थे। [22]

शाही दरबारों के आधिकारिक दस्तावेज जागीरदारों द्वारा प्राप्त विभिन्न भूमि अनुदानों की संरचना के बारे में विवरण प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए, 1614 में, बीकानेर साम्राज्य में 175 गाँव कर-मुक्त या सांसण जागीरों के रूप में थे। इनमें से 111 गाँव चारणों के पास थे जबकि शेष 64 ब्राह्मणों को दे दिए गए थे। [8] मेवाड़ साम्राज्य में, भूमि के कुल 13.5 भागों में से, 7 भाग जागीरदारों और भोमिया के थे, 3 भाग सांसण के थे, और 3.5 भाग राज्य के खालसा के थे। [25] नैणसी ने 'मारवाड़ रा परगना री विगत' में सांसण श्रेणी के तहत गांवों का वितरण दर्ज किया। [20]

सन 1891 में मारवाड़ के सांसण
(कुल 621 सांसण गाँव)
मर्दुमशुमारी राजमारवाड़ [26] ██ फकीर (1%)██ नगारची (0%)██ नाथ (3%)██ मंदिर (2%)██ अज्ञात (6%)██ सन्यासी (साधुगोसाई सम्मिलित) (2%)██ भाट व राव (2%)██ भोपा (1%)██ ब्राह्मण (all sects) (30%)██ चारण (53%)

17वीं शताब्दी के दौरान मारवाड़ में सांसण गांवों की संरचना [20]
मारवाड़ रा परगनां री विगत
क्र.सं. परगना चारण ब्राह्मण भट्ट मिश्रित
1. जोधपुर 75 62 01 08
2. सोजत 17 15 - -
3. जैतारण 8.5 08.5 - 01
4. फलौदी 01 04 - 04
5. मेर्टा 27 15.2 01 04
6. सिवाना 13 17 - -
7. पोखरण 11 04 - -
8. सचोर 09 - - 02
9. जालौर 12 01 02 07
कुल 173.5 127 04 26
कुल सांसण ग्रामों का प्रतिशत 52.34 % 38.42 % 1.20 % 7.86 %

सांसण अनुदानों की समकालीन मुगल 'मदद-ए माश' अनुदानों से तुलना करने पर निम्नलिखित अवलोकन किए जा सकते हैं:- [20]

  • दोनों प्रकार के अनुदानों का उद्देश्य धार्मिक दान के समान उद्देश्य की पूर्ति करना है। जबकि मदद-ए माश अनुदान मुख्य रूप से शहरी निवासियों को दिया जाता था, सांसण-अनुदान प्राप्त करने वाले अधिकतर ग्रामीण निवासी थे।
  • दोनों अनुदानों में कुल राजस्व का कुल आय का अनुपात था जो लगभग बराबर था। अकबर के समय में मदद-ए माश अनुदान का राजस्व कुल जमा के 5.84% से अधिक नहीं था, जबकि मारवाड़ में सांसण अनुदान का राजस्व सोजत को छोड़कर कुल जमा के 5.09% से अधिक नहीं था।
  • सांसण अनुदान जमींदारों के साथ एक वर्ग के उभरने की संभावना का सुझाव देते हैं, जबकि मदद-ए माश भूमि ऐसी प्रवृत्ति का संकेत नहीं देती है, सिवाय औरंगजेब के समय में जब मदद-ए माश अनुदानों को 1690 में वंशानुगत कर दिया गया था।

अदालत षटदर्शन

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षटदर्शन की अवधारणा सामाजिक-धार्मिक चरित्र वाले छह समुदायों को संदर्भित करती है, जिनमें चारण, ब्राह्मण, महंत, नाथ, यति और जोगी (तपस्वी) शामिल हैं। मेवाड़ में, सांसण अनुदान के लाभार्थी जागीरदारों को षटदर्शन के रूप में जाना जाता था। [27] [28]

चारण राज्य द्वारा न्याय प्राप्त करने और अपनी मांगों को पूरा करने के लिए त्रागा (आत्महत्या के लिए अनुष्ठान आत्म-विकृति) की परंपरा का भी प्रयोग करते थे। हालाँकि, ब्रिटिश राज द्वारा लाए गए सामाजिक-कानूनी व्यवस्था में बदलाव पर उन्होंनें कृषि की ओर ज़ोर किया। इसके कारण भाईयों के बीच भूमि का अवैध कब्जों के विवाद बढ़े और उनके संपत्ति के बराबर विभाजन के उत्तराधिकार के रिवाज के कारण उनके भागीदारों के साथ मुकदमेबाजी आरंभ हुई। हालांकि, इसने अँग्रेजी औपनिवेशिक कानूनों की स्वीकृति की दिशा में एक बदलाव को चिह्नित किया क्योंकि वे पहले खुद को कानून से ऊपर मानते थे। चारणों के बीच भूमि विवाद इतने अधिक थे कि उनके निपटारे के लिए एक अलग अदालत, 'अदालत षटदर्शन' स्थापित की गई। यह 'अदालत षटदर्शन' 1839 में जोधपुर (मारवाड़) में कुलीन चारणों के प्रभार [29] में चारणों, ब्राह्मणों और पुरोहितों से जुड़े विवादों को निपटाने के लिए स्थापित की गई। [30] [31] इस अदालत के माध्यम से, भूमि उपयोग, पानी के बुनियादी ढांचे और अन्य कृषि-सामाजिक शिकायतों पर विवादों का निवारण किया जाता था। [32]

यह सभी देखें

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ग्रन्थसूची

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