किरातार्जुनीयम्

भारवि द्वारा सातवीं शती ई. में रचित महाकाव्य
(किरातार्जुनीयम से अनुप्रेषित)

किरातार्जुनीयम् (अर्थ : किरात और अर्जुन की कथा) महाकवि भारवि द्वारा सातवीं शती ई. में रचित महाकाव्य है जिसे संस्कृत साहित्य के वृहत्त्रयी(किरातार्जुनीयम, शिशुपालवधम्, नैषधीयचरितम्) में स्थान प्राप्त है। महाभारत में वर्णित किरात वेशधारी शिव के साथ अर्जुन के युद्ध की लघुकथा को आधार बनाकर कवि ने राजनीति, धर्मनीति, कूटनीति, समाजनीति, युद्धनीति, जनजीवन आदि का मनोरम वर्णन किया है। यह काव्य विभिन्न रसों से ओतप्रोत रचना है किन्तु वीर रस प्रधान है।[1]

अर्जुन शिव को पहचान जाते हैं और नतमस्तक हो जाते हैं। (राजा रवि वर्मा द्वारा१९वीं शती में चित्रित)

संस्कृत के छः प्रसिद्ध महाकाव्य हैं – किरातार्जुनीयम्‌ (भारवि), शिशुपालवधम्‌ (माघ) और नैषधीयचरितम्‌ (श्रीहर्ष)– बृहत्त्रयी कहलाते हैं। कुमारसम्भवम्‌, रघुवंशम् और मेघदूतम् (तीनों कालिदास द्वारा रचित) - लघुत्रयी कहलाते हैं।[2]

किरातार्जुनीयम्‌ भारवि की एकमात्र उपलब्ध कृति है, जिसने एक सांगोपांग महाकाव्य का मार्ग प्रशस्त किया। माघ-जैसे कवियों ने उसी का अनुगमन करते हुए संस्कृत साहित्य भण्डार को इस विधा से समृद्ध किया और इसे नई ऊँचाई प्रदान की। कालिदास की लघुत्रयी और अश्वघोष के बुद्धचरितम्‌ में महाकाव्य की जिस धारा का दर्शन होता है, अपने विशिष्ट गुणों के होते हुए भी उसमें वह विशदता और समग्रता नहीं है, जिसका सूत्रपात भारवि ने किया।

संस्कृत में किरातार्जुनीयम्‌ की कम से कम 37 टीकाएँ हुई हैं, जिनमें मल्लिनाथ की टीका घण्टापथ सर्वश्रेष्ठ है। सन 1912 में कार्ल कैप्पलर ने हारवर्ड ओरियेंटल सीरीज के अंतर्गत किरातार्जुनीयम् का जर्मन अनुवाद किया। अंग्रेजी में भी इसके भिन्न-भिन्न भागों के छः से अधिक अनुवाद हो चुके हैं।

किरातार्जुनीयम् की कथा

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राजनीति और व्यवहार-नीति में भारवि के विशेष रुझान के चलते यह युक्तियुक्त ही था कि वे किरातार्जुनीयम्‌ का कथानक महाभारत से उठाते। उन्होंने वनपर्व के पाँच अध्यायों से पांडवों के वनवास के समय अमोघ अस्त्र के लिए अर्जुन द्वारा की गई शिव की घोर तपस्या के फलस्वरूप पाशुपतास्त्र प्राप्त करने के छोटे-से प्रसंग को उठाकर उसे अठारह सर्गों के इस महाकाव्य का रूप दे दिया।

जब युधिष्ठिर कौरवों के साथ संपन्न द्यूतक्रीड़ा में सब कुछ हार गये तो उन्हें अपने भाइयों एवं द्रौपदी के साथ 13 वर्ष के वनवास पर जाना पड़ा। उनका अधिकांश समय द्वैतवन में बीता। वनवास के कष्टों से खिन्न होकर और कौरवों द्वारा की गयी साजिश को याद करके द्रौपदी युधिष्ठिर को अक्सर प्रेरित करती थीं कि वे युद्ध की तैयारी करें और युद्ध के माध्यम से कौरवों से अपना राजपाठ वापस लें। भीम भी द्रौपदी की बातों का पक्ष लेते हैं।

गुप्तचर के रूप में हस्तिनापुर भेजे गए एक वनेचर (वनवासी) से सूचना मिलती है कि दुर्योधन अपने सम्मिलित राज्य के सर्वांगीण विकास और सुदृढ़ीकरण में दत्तचित्त है, क्योंकि कपट-द्यूत से हस्तगत किए गए आधे राज्य के लिए उसे पांडवों से आशंका है। पांडवों को भी लगता है कि वनवास की अवधि समाप्त होने पर उनका आधा राज्य बिना युद्ध के वापस नहीं मिलेगा। द्रौपदी और भीम युधिष्ठिर को वनवास की अवधि समाप्त होने की प्रतीक्षा न कर दुर्योधन पर तुरंत आक्रमण के लिए उकसाते हैं, लेकिन आदर्शवादी, क्षमाशील युधिष्ठिर व्यवहार की मर्यादा लाँघने को तैयार नहीं।

उधर आ निकले व्यास सलाह देते हैं कि भविष्य के युद्ध के लिए पांडवों को अभी से शक्ति-संवर्धन करना चाहिए। उन्हीं के द्वारा बताए गए उपाय के अनुसार अर्जुन शस्त्रास्त्र के लिए इन्द्र (अपने औरस पिता) को तप से प्रसन्न करने के लिए एक यक्ष के मार्गदर्शन में हिमालय-स्थित इन्द्रकील पर्वत की ओर चल पड़ते हैं। वहां एक आश्रम बनाकर की गई तपस्या के फलस्वरूप अप्सराओं आदि को भेजकर परीक्षा लेने के बाद इंद्र एक वृद्ध मुनि के वेष में उपस्थित होते हैं और तपस्या के नाशवान लौकिक लक्ष्य को निःसार बताते हुए परमार्थ की महत्ता का निदर्शन करते हैं। अर्जुन इसकी काट में कौरवों द्वारा किए गए छल एवं अन्याय का लेखा-जोखा प्रस्तुतकर शत्रु से प्रतिशोध लेने की अनिवार्यता, सामाजिक कर्तव्य-पालन तथा अन्याय के प्रतिकार का तर्क देकर इंद्र को संतुष्ट कर देते हैं। फलस्वरूप इंद्र अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर अर्जुन को मनोरथ-पूर्ति के लिए शिव की तपस्या करने की सलाह देते हैं।

अर्जुन फिर से घोर, निराहार तपस्या में लीन हो जाते हैं। अर्जुन इंद्रकील के लिए एक अजनबी तपस्वी है, जटा, वल्कल और मृगचर्म तो उसके पास हैं लेकिन साथ ही शरीर में कवच भी है, यज्ञोपवीत की जगह प्रत्यंचा-समेत गांडीव धनुष है, दो विशाल तरकस हैं और एक उत्तम खड्ग भी। उसे मुनिधर्म-विरोधी समझकर वहाँ के अन्य तपस्वी आतंकित हैं और शंकर के पास निवेदन के लिये पहुँच जाते हैं।उसके क्रम में शिव जी किरातों की स्थानीय जनजाति के सेनापति का वेश धारणकर किरातवेशधारी अपने गणों की सेना लेकर अर्जुन के पास पहुँच जाते हैं। तभी 'मूक' नाम का एक दानव अर्जुन की तपस्या को देवताओं का कार्य समझकर, विशाल शूकर का शरीर धारणकर, उसको मारने के लिए झपटता है। शिव और अर्जुन दोनों द्वारा एक साथ चलाए गए एक-जैसे बाण से उस सूअर की जीवनलीला समाप्त हो जाती है। शिव का बाण तो उसके शरीर को बेधता हुआ धरती में धँस जाता है और अर्जुन जब अपना बाण उसके शरीर से निकालने जाते हैं तो शिव अपने एक गण को भेजकर विवाद खड़ा करा देते हैं। परिणामतः दोनों के बीच युद्ध आरम्भ हो जाता है। अर्जुन गणों की सेना को तो बाण-वर्षा से भागने को मजबूर कर देते हैं पर शिव के साथ हुए युद्ध में परास्त हो जाते हैं। पराजय से हताश अर्जुन किरात-सेनापति के वेश में शिव को पहचानकर समर्पण कर देते हैं, जिससे प्रसन्न होकर शिव प्रकट होते हैं और पाशुपतास्त्र प्रदानकर उसका प्रशिक्षण देते हैं। इस तरह अर्जुन का मंतव्य पूरा होने के साथ महाकाव्य-विधा के भी सारे मंतव्य सिद्ध हो जाते हैं।

किरात वेशधारी शिव के इस लोकोत्तर मिथक से इतर इस प्रसंग की अपनी एक विशिष्ट जनजातीय अभिव्यंजना भी है, जो इस काव्य को वर्तमान भावबोध के करीब लाती है। युधिष्ठिर और गुप्तचर बने वनेचर के बीच घटित संवाद में वनेचर की जो अटूट स्वामिभक्ति, अदम्य निर्भीकता और उच्च राजनीतिक समझ सामने आती है, वह वनवासियों के प्रति भारवि की पक्षभरता में संदेह की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ती। वनेचर शुरू में ही स्पष्ट कर देता है—

क्रियासु युक्तैर्नृपचारचक्षुषो न वंचनीयाः प्रभवोऽनुजीविभिः।
अतोऽर्हसि क्षन्तुमसाधु साधु वा हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः॥ 1.4॥
स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः।
सदाऽनुकूलेषु हि कुर्वते रतिं नृपेष्वमात्येषु च सर्वसंपदः ॥1:5॥
(किसी कार्य के लिए नियुक्त कर्मचारी द्वारा स्वामी को धोखा नहीं दिया जाना चाहिए। अस्तु, मैं प्रिय या अप्रिय आपको जो भी बताऊँ, उसके लिए क्षमा करेंगे। वस्तुतः ऐसी वाणी, जो हितकारी भी हो और मनोहर भी लगे, दुर्लभ है। वह मंत्री कैसा जो उचित (किन्तु अप्रिय लगनेवाली) सलाह न दे, और वह राजा कैसा जो हितकारी (किन्तु कठोर) बात न सुन सके। राजा और मंत्री में परस्पर अनुकूलता (पूर्ण विश्वास) होने पर ही राज्य के प्रति सभी प्रकार की समृद्धियां अनुरक्त होती हैं।)

इस पूरे प्रकरण के आरम्भ में द्रौपदी की बातों के समर्थन में भीम द्वारा युधिष्ठिर के प्रति कुछएक नीतिवचन कहे गये हैं। उन्हीं में से एक नीचे उद्धृत है:

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्।
वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ॥३०॥ (किरातार्जुनीयम्, द्वितीय सर्ग)

(किसी कार्य को बिना सोचे-विचारे अनायास नहीं करना चाहिए। विवेकहीनता आपदाओं का परम आश्रय है। गुणों की लोभी संपदाएं अच्छी प्रकार से विचार करने वाले का स्वयमेव वरण करती हैं, अर्थात् उसके पास स्वयं चली आती हैं।)

काव्यसौन्दर्य एवं अर्थगौरव

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भारवि अपने अर्थ-गौरव (गहन भाव-सम्पदा) के लिए जाने जाते हैं—‘उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम्‌’। इस अर्थ-गौरव से मेल खाती एक विदग्ध भाषा और अभिव्यक्ति-कौशल उनकी सम्पदा है। राजनीति और व्यवहार-नीति सहित जीवन के विविध आयामों में उनकी असाधारण पैठ है। आदर्श और व्यवहार के द्वंद्व तथा यथार्थ जीवन के अतिरेकों के समाहार से अर्जित संतुलन उनके लेखन को ‘समस्तलोकरंजक’ बनाता है। लेकिन भारवि मूलत: जीवन की विडंबनाओं और विसंगतियों के कवि हैं, उनका सामना करते हैं और उनके खुरदुरे यथार्थ के बीच संगति बिठाने का प्रयास करते हैं। किरातार्जुनीयम्‌ के पहले सर्ग में द्रौपदी और दूसरे में भीम द्वारा युधिष्ठिर को दुर्योधन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के लिए उकसाने और युधिष्ठिर द्वारा उसे अनीतिपूर्ण बताकर अस्वीकार कर देने के क्रम में भारवि ने राजनीति के दो छोरों के बीच के द्वंद्व पर बहुत सार्थक विमर्श प्रस्तुत किया है। इसी तरह ग्यारहवें सर्ग में मोक्ष के स्थान पर शक्ति और प्रभुता के लिए किए जा रहे अर्जुन के तप को इन्द्र द्वारा गर्हित बताए जाने पर, अर्जुन के प्रत्युत्तर के रूप में भारवि ने जीवन-व्यवहार में अन्याय के प्रतिकार, लौकिक सफलता, यश और आत्म-सम्मान के महत्व पर जो गम्भीर विचार दिए हैं वे स्वस्थ इहलौकिक जीवन का एक संतुलित आदर्श का चित्र उपस्थित करते हैं।

भाषा पर अपने अप्रतिम अधिकार के चलते चित्रकाव्य के जिस भाषिक चमत्कार (किरातार्जुनीयम्‌ के पंद्रहवें सर्ग में) की परम्परा भारवि ने शुरू की, उनके बाद के कवियों के लिए वह कसौटी बन गई और माघ (शिशुपालवधम्‌) में जाकर वह चरमोत्कर्ष पर पहुँची।

निम्नलिखित पंक्तियों में चित्रालंकार देखिए-

न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु।
नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत्॥
अनुवाद : हे नाना मुख वाले (नानानन)! वह निश्चित ही (ननु) मनुष्य नहीं है जो जो अपने से कमजोर से भी पराजित हो जाय। और वह भी मनुष्य नहीं है (ना-अना) जो अपने से कमजोर को मारे (नुन्नोनो)। जिसका नेता पराजित न हुआ हो वह हार जाने के बाद भी अपराजित है (नुन्नोऽनुन्नो)। जो पूर्णनतः पराजित को भी मार देता है (नुन्ननुन्ननुत्) वह पापरहित नहीं है (नानेना)।

इसी प्रकार निम्नलिखित श्लोक को ध्यान से देखिये। इसे सर्वतोभद्र (सभी तरफ से सुन्दर) कहते हैं। इसमें पहली पंक्ति को बायें से पढिये या दायें से- समान है। इसी तरह सभी पंक्तियों के प्रथम अक्षर (मात्रा सहित) लीजिये या अन्तिम अक्षर लीजिये - 'देवाकानि मिलता है।

देवाकानिनि कावादे वाहिकास्वस्वकाहि वा।
काकारेभभरे का का निस्वभव्यव्यभस्वनि ॥

एक अन्य श्लोक देखिये। इसमें महायमक अलंकार है। एक ही पद (विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा) चार बार आया है किन्तु अर्थ भिन्न-भिन्न हैं।

विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः।
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः ॥

कीरातार्जुनीयम् में १८ सर्ग हैं।

किरातार्जुनीयम्‌ के पहले सर्ग में द्रौपदी और दूसरे में भीम द्वारा युधिष्ठिर को दुर्योधन के विरुद्ध युद्ध की घोषणा के लिए उकसाने और युधिष्ठिर द्वारा उसे अनीतिपूर्ण बताकर अस्वीकार कर देने के क्रम में भारवि ने राजनीति के दो छोरों के बीच के द्वंद्व पर बहुत सार्थक विमर्श प्रस्तुत किया है। तीसरे सर्ग में व्यास कौरव पक्ष के भीष्म, द्रोण, कर्ण-जैसे धुरंधरों को पांडवों द्वारा अजेय बताते हुए 13 साल की अवधि में हर तरह से शक्ति-संवर्धन करने और भविष्य के अवश्यम्भावी युद्ध की तैयारी के लिए उसका उपयोग करने की सलाह देते हैं। इसके लिये वे अर्जुन को उच्च कोटि के शस्त्रास्त्र हेतु तपस्या से इंद्र को प्रसन्न करने के लिए प्रेरित करते हैं और अपने साथ लाए एक यक्ष को भी छोड़ जाते हैं जो अर्जुन को इंद्र की तपस्या के लिए उपयुक्त स्थान तक ले जाएगा। चौथे सर्ग में यक्ष के मार्गदर्शन में अर्जुन की द्वैतवन से हिमालय तक की यात्रा का सजीव एवं रोचक वर्णन है, जिसमें शरद ऋतु की थिर और संयत प्रकृति और उसके साथ घुले-मिले जन-जीवन का उल्लास नाना रूपों में तरंगित है। पाँचवाँ सर्ग यक्ष के साथ अर्जुन के यात्रा-प्रसंग से गिरिराज हिमालय के पर्वतीय प्रदेश के विशद, अलंकारिक वर्णन की छटा से दीप्त है।

छठे सर्ग का वर्ण्य विषय है : अर्जुन की आँखों से देखी इंद्रनील की अप्रतिम शोभा, वहाँ पहुंचकर अर्जुन द्वारा तप का प्रारम्भ, प्रकृति के विभिन्न उपादानों का तप में सहयोग, वहाँ तैनात वनदेवों द्वारा अमरावती पहहुँचकर इन्द्र को सूचित करना, इंद्र द्वारा देवांगनाओं को उनके सहचर गंधर्वों के साथ वहाँ जाकर अपने हाव-भाव और सौन्दर्य से अर्जुन की तपस्या में विघ्न डालने का आदेश देना, ताकि उनकी निष्ठा की परीक्षा हो सके। सातवें सर्ग में अप्सराएँ तथा उनके सहचर गन्धर्व पूरे उल्लास-विलास के साथ आकाश मार्ग से विशेष प्रकार के हाथियों और रथों पर सवार देव गंगा के किनारे-किनारे अमरावती से इंद्रकील तक की यात्रा करते हैं। इंद्रकील के पास नीचे उतरकर वे पृथ्वी-गंगा के रम्य तट पर अपनी माया से गंधर्व-नगरी जैसा दिव्य शिविर बना लेते हैं। आठवाँ सर्ग में अप्सराएँ अपने शिविरों से वन-विहार के लिए निकलती हैं। यहाँ से शृंगार रस का रंग चढ़ना शुरू होता है, जो इसी सर्ग में वर्णित जल-क्रीड़ा में गाढ़ा होता है और नवें सर्ग में मद्य-पान के साथ सम्पन्न काम-केलि में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है। दसवाँ सर्ग अप्सराओं द्वारा अर्जुन का ध्यान खींचकर उसे तपस्या से च्युत करने के अभियान और उसकी असफलता का है।

ग्यारहवें सर्ग में वयोवृद्ध मुनि के वेष में इन्द्र के आगमन और उनके द्वारा तपस्या के सांसारिक लक्ष्य की निस्सारता का निदर्शन है जिसके प्रत्युत्तर में अर्जुन लौकिक जीवन के मूल्यों, प्राथमिकताओं का अपना आख्यान रचते हैं। इस सर्ग के अंत में अर्जुन के तर्क से संतुष्ट देवराज अपने स्वरूप में प्रकट होकर उसके लक्ष्य के अनुरूप शिव की आराधना का उपदेश देते हैं। बारहवें सर्ग में अर्जुन घोर तपस्या आरम्भ कर देते हैं जिससे घबराकर अन्य संन्यासी शंकर के पास जा पहुंचते हैं। शंकर किरात का वेश धरकर अर्जुन से मिलते हैं। तेरहवें सर्ग में अर्जुन और किरात रूपधारी शिव दोनों सूकर रूपधारी (मूक दानव) पर तीर से आक्रमण करते हैं।

किरातार्जुनीयम्‌ के अंतिम पाँच सर्ग (१४ से १८) अपनी गण-सेना के साथ किरातवेशधारी शिव और अर्जुन के बीच युद्ध को समर्पित हैं। १५वें सर्ग में , जिसमें युद्ध का यह चरण आता है, भारवि ने चित्रकाव्य (अलंकारिक छंद) का प्रयोगकर महाकाव्य के दायरे के भीतर एक नई परम्परा का सूत्रपात किया है।

किरातार्जुनीयम् समालोचकों को अतिप्रिय है। इस पर ४२ से अधिक टीकाएँ हैं।

  1. Amaresh Datta, ed. (2006), The Encyclopaedia Of Indian Literature Volume One (A To Devo), Sahitya Akademi, p. 462, ISBN 978-81-260-1803-1
  2. "Har 1983, p. iii". मूल से 28 नवंबर 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 19 सितंबर 2015.

इन्हें भी देखें

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बाहरी कड़ियाँ

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