ग्रन्थ लिपि
ग्रंथ लिपि (तमिल: கிரந்த ௭ழுத்து, मलयालम: ഗ്രന്ഥലിപി, संस्कृत: ग्रन्थ अर्थात् "पुस्तक") दक्षिण भारत में पहले प्रचलित एक प्राचीन लिपि है। आमतौर पर यह माना जाता है कि ये लिपि एक और प्राचीन भारतीय लिपि ब्राह्मी से उपजी है। मलयालम, तुळु व सिंहल लिपि पर इसका प्रभाव रहा है। इस लिपि का एक और संस्करण "पल्लव ग्रंथ", पल्लव लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता था, इसे "पल्लव लिपि" भी कहा जाता था। कई दक्षिण भारतीय लिपियाँ, जेसे कि बर्मा की मोन लिपि, इंडोनेशिया की जावाई लिपि और ख्मेर लिपि इसी संस्करण से उपजीं।[2]यह लिपि दक्षिण भारत की प्राचीन लिपियों में एक है।
ग्रंथ | |
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ग्रन्थ लिपि में कालिदास के कुमारसंभवम् का एक श्लोक | |
प्रकार | आबूगीदा |
भाषाएँ | संस्कृत, मणिप्रवालम्, तमिल |
समय काल | ६वीं सदी से १६वीं सदी[1] |
जननी प्रणालियाँ |
ब्राह्मी
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जनित प्रणालियाँ | मलयालम लिपि, सिंहल लिपि, तुळु लिपि, तमिल लिपि |
भगिनी प्रणालियाँ | वट्टेळुत्तु |
संस्कृत और ग्रंथ
संपादित करेंअब तो संस्कृत लिखने के लिए प्रायः देवनागरी लिपि का ही इस्तेमाल होता है, लेकिन दक्षिण एशिया के तमिल-भाषी क्षेत्रों में १९वीं सदी तक संस्कृत लिखने के लिए ग्रंथ लिपि का ही इस्तेमाल होता था। विद्वानों का मानना है कि ५वीं सदी में वैदिक पुस्तकों को पहली बार लिखने के लिए (इसके पूर्व भी यह पीढ़ी दर पीढ़ी बोल के और याद कर के ही सीखे और समझे जाते थे) ग्रंथ लिपि का प्रयोग हुआ था[3]। २०वीं सदी के प्रारंभ में धार्मिक और विद्वत्तापूर्ण ग्रंथों में ग्रंथ लिपि के बदले देवनागरी का प्रयोग होने लगा और आम लोक-केंद्रित प्रकाशनों में विशेष चिह्नों के साथ तमिल लिपि का इस्तेमाल होने लगा।
ग्रंथ लिपि का प्रयोग तमिल-संस्कृत मणिप्रवालम लिखने के लिए भी किया जाता था, यह तमिल और संस्कृत के मिश्रण से बनी एक भाषा है जिसका प्रयोग संस्कृत के लेखों की टीका के लिए होता है। यह विकसित होते-होते काफ़ी जटिल लेखन प्रणाली में परिवर्तित होती गई, जिसमें तमिल शब्दों को तमिल वट्टेऴुत्तु में और संस्कृत के शब्दों को ग्रंथ लिपि में लिखा जाता था। १५वीं सदी तक इसका विकास इस स्तर तक हो गया था कि दोनो लिपियों का प्रयोग एक ही शब्द तक में होता था - यदि शब्द की धातु संस्कृत आधारित हो तो वह ग्रंथ में लिखी जाती, किंतु यदि शब्द में तमिल प्रत्यय हों तो वे तमिल वट्टेलुतु में लिखे जाते। जैसे जैसे मणिप्रवालम की लोकप्रियता घटती गई, इस लेखन शैली का इस्तेमाल कम होता गया, लेकिन २०वीं सदी के मध्य तक मूलतः मणिप्रवालम में लिखी पुस्तकों के मुद्रित संस्करणों में इसी परंपरा का निर्वाह होता रहा।
आधुनिक समय में ग्रंथ लिपि का प्रयोग कुछ पारंपरिक तमिल-भाषी हिंदुओं द्वारा किया जाता है। विशेष तौर पर इसका प्रयोग नामकरण पर किसी शिशु का सबसे पहले नाम लिखने के लिए होता है और विवाह के आमंत्रणों के संस्कृत अंश को लिखने के लिए तथा अंतिम संस्कार की घोषणाओं के लिए होता है। कई पंचांगों में भी इसका प्रयोग होता है।
भूतपूर्व तुळु लिपि को ग्रंथ लिपि कहते थे।
दिवेस और ग्रन्थ
संपादित करेंदिवेस अकुरु का प्रयोग १२वीं से १७वीं शताब्दी के बीच दिवेही भाषा लिखने के लिए होता था। इस लिपि के ग्रन्थ से बहुत गहरे सम्बन्ध हैं।
तुळु-मलयालम लिपि को पारंपरिक ग्रंथ कहा जाता है; १३०० ईसवीं के करीब से आधुनिक लिपि का प्रयोग हो रहा है। आज कल दो संस्करणों का प्रयोग होता है: ब्राह्मणी, या चौकोर और जैन, या गोल। तुळु-मलयालम लिपि ८वीं या नवीं सदी की ग्रंथ लिपि का एक संस्करण है। संभव है कि आधुनिक तमिल लिपि भी ग्रंथ से ही आई हो, पर यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है।[1]
मलयालम और ग्रंथ
संपादित करेंमलयालम लिपि का प्रादुर्भाव ग्रंथ लिपि से हुआ। मलयालम लिपियों और ग्रंथ लिपियों में कई समानताएँ हैं। जब ग्रंथ अक्षरों को संस्कृत के अक्षर लिखने के लिए प्रयोग किया गया था तो उसे कोलेऱुत्तु (बेंत लिपि) कहा गया।[4]
तमिल और ग्रंथ
संपादित करेंयह सोचा गया है कि तमिल भी एक समय पर ग्रंथ लिपि में ही लिखी जाती थी। पर फ़िलहाल तमिल की अपनी लिपि है।
आधुनिक तमिल लिपि और ग्रंथ लिपि में काफ़ी समानता है, तमिल में महाप्राण अघोष (ख), अल्पप्राण घोष (ग) और महाप्राण घोष (घ) शृंखला के अक्षर हटा दिए गए हैं।
इन्हें भी देखें: तमिल लिपि
ग्रंथ के प्रकार
संपादित करेंग्रंथ लिपि का इस प्रकार वर्गीकरण किया जा सकता है[5]:
पल्लव ग्रंथ
संपादित करेंप्राचीन व आलंकारिक ग्रंथ को पल्लव ग्रंथ कहा जाता है। पल्लवों के शिलालेखों में इनका प्रयोग होता था। आलंकारिक ग्रंथ काफ़ी जटिल व अलंकृत थी, अतः यह संभव नहीं है कि इसका प्रयोग रोजमर्रा के लेखन में भी होता हो, संभवतः इसका इस्तेमाल केवल शिलालेखों में होता होगा। महाबलीपुरम के शिलालेख, तिरुचिरापल्ली की पत्थर कटी के गुफाओं के शिलालेख और कैलाशंत शिलालेख इसी श्रेणी में आते हैं।
संक्रांतिकालीन ग्रंथ
संपादित करेंइस ग्रंथ का प्रयोग चोल वंश द्वारा सन ६५० से ९५० के बीच हुआ। बाद के पल्लवों और पांडियन नेदुंचेज़ियन के शिलालेख भी इस शैली की ग्रंथ लिपि के उदाहरण हैं।
मध्यकालीन ग्रंथ
संपादित करेंतंजावूर के चोल वंश के साम्राज्यीय शिलालेख मध्यकालीन ग्रंथ के उदाहरण हैं। यह शैली ९५० ईसवीं से १२५० ईसवीं के बीच प्रचलित थी।
आधुनिक ग्रन्थ
संपादित करेंआधुनिक ग्रन्थ बाद के पांड्य और विजयनगर शासकों के द्वारा आई। आधुनिक ग्रन्थ आधुनिक तमिऴ लिपि से काफ़ी मिलती जुलती है।
ग्रंथ वर्णमाला
संपादित करेंनिम्नोक्त तालिकाओं के लिए इंडोलिपि की ई-ग्रंतमिल मुद्रलिपि का प्रयोग किया गया है।
नीचे दी अक्षरों की बनावट ग्रंथ लिपि का पश्चात् कालीन रूप है और इनमें आधुनिक तमिल लिपि से समानता देखी जा सकती है।
स्वर
संपादित करेंव्यंजन
संपादित करेंअन्य ध्वन्यात्मक लिपियों की तरह ग्रंथ व्यंजन चिह्नों में अंतर्निहित स्वर अ मौजूद है। अ के स्वर की अनुपस्थिति हलंत से दर्शाई जाती है:
अन्य व्यंजनों के लिए मात्राओं का इस्तेमाल होता है:
कभी कभी व्यंजनों और मात्राओं को मिला के संयुक्ताक्षर भी बन सकते हैं, जैसे:
कहीं कहीं पर हलंत के साथ व्यंजन (शुद्ध व्यंजन) के लिए अलग बनावट का प्रयोग भी है:
अङ्क
संपादित करेंव्यंजनों के संयुक्ताक्षर
संपादित करेंग्रंथ में दो प्रकार के व्यंजन संबंधित संयुक्ताक्षर हैं। "उत्तरी" प्रकार के संयुक्ताक्षरों में देवनागरी जैसी उत्तरी लिपियों की तरह दो या अधिक व्यंजनों को मिला के संयुक्ताक्षर बनता है। (ऐसे कई उदाहरण दक्षिण की मलयालम लिपि में भी मिलते हैं।) "दक्षिणी" प्रकार में अक्षरों को एक दूसरे के ऊपर नीचे क्रम में रखा जाता है जैसे कि दक्षिण की कन्नड़ और तेलुगु लिपियों में होता है (और कुछ हद तक मलयालम और उड़िया लिपियों में भी यही होता है)।
उत्तरी प्रकार के संयुक्ताक्षर
दक्षिणी प्रकार के संयुक्ताक्षर
इन संयुक्ताक्षरों को पहचानना आसान है अतः इनके कुछ उदाहरण ही यहाँ प्रस्तुत हैं:
विशेष रूप:
यदि य और र किसी संयुक्ताक्षर के प्रारंभ में नहीं होते हैं तो वे क्रमशः और बन जाते हैं।
यदि र किसी संयुक्ताक्षर के शुरू में हो तो बन के संयुक्ताक्षर के अंत में पहुँच जाता है (इसे अन्य भारतीय लिपियों में रेफ कहते हैं)।
ग्रन्थ सङ्ख्याएँ
संपादित करें१—९ और ० की सङ्ख्याएँ ग्रन्थ लिपि में इस प्रकार हैं
लेखन के नमूने
संपादित करेंहरेक ग्रंथ लिपि के नमूने के बाद उसका रोमन (आईएसओ १५९१९) और देवनागरी लिपियों में लिप्यंतरण भी है।
उदाहरण १: कालिदास के कुमारसंभवम् से
- अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः।
- पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥
उदाहरण २: संत जॉन ३:१६
यहाँ एक ही लेख को प्रदर्शित किया गया है। १८८६ के पुराने पृष्ठ की आधुनिक संस्करण से तुलना करके यह पता चलता है कि ग्रंथ के पुराने पृ्ष्ठ को बनाने में कारीगर को कितनी कठिनाई आई होगी।
- यत ईश्वरो जगतीत्थं प्रेम चकार यन्निजमेकजातं
- पुत्रं ददौ तस्मिन् विश्वासी सर्वमनुष्यो यथा
- न विनश्यानन्तं जीवनं लप्स्यते।
ग्रन्थ की अन्य समान लिपियों से तुलना
संपादित करेंस्वर
संपादित करेंध्यान दें: देवनगारी की तरह ही ऎ(दीर्घ ए) और ऒ(दीर्घ ओ) के लिए ए और ओ का ही प्रयोग होता है (ऎ और ऒ वास्तव में देवनागरी में नहीं हैं, ये इसलिए देवनागरी में छप पा रहे हैं क्योंकि देवनागरी के यूनिकोड मानक में इन्हें लिप्यन्तरण की दृष्टि से स्थान दिया गया है)। मूलतः मलयालम लिपि और तमिल लिपि में भी लघु व दीर्घ ए और ओ में कोई भेद नहीं किया जाता था, पर अब इन लिपियों में ये स्वर जुड़ गए हैं। इसके जिम्मेदार इतालवी धर्मपरिवर्तक वीरमामुनिवर (१६८०-१७७४) हैं।
व्यञ्जन
संपादित करेंतमिल अक्षर ஜ(ज) ஶ(श) ஷ(ष) ஸ(स) ஹ(ह) और संयुक्ताक्षर க்ஷ (क्ष) को "ग्रन्थ अक्षर" कहा जाता है क्योंकि संस्कृत के शब्दों को लिखने के लिए इन्हें तमिल लिपि में शामिल किया गया था। ழ(ऴ) ற(ऱ) ன(ऩ) और उनके उच्चारण केवल द्रविडीय भाषाओं में हैं।
ग्रन्थ लिपि का यूनिकोड
संपादित करेंग्रन्थ[1] Official Unicode Consortium code chart (PDF) | ||||||||||||||||
0 | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | A | B | C | D | E | F | |
U+1130x | 𑌁 | 𑌂 | 𑌃 | 𑌅 | 𑌆 | 𑌇 | 𑌈 | 𑌉 | 𑌊 | 𑌋 | 𑌌 | 𑌏 | ||||
U+1131x | 𑌐 | 𑌓 | 𑌔 | 𑌕 | 𑌖 | 𑌗 | 𑌘 | 𑌙 | 𑌚 | 𑌛 | 𑌜 | 𑌝 | 𑌞 | 𑌟 | ||
U+1132x | 𑌠 | 𑌡 | 𑌢 | 𑌣 | 𑌤 | 𑌥 | 𑌦 | 𑌧 | 𑌨 | 𑌪 | 𑌫 | 𑌬 | 𑌭 | 𑌮 | 𑌯 | |
U+1133x | 𑌰 | 𑌲 | 𑌳 | 𑌵 | 𑌶 | 𑌷 | 𑌸 | 𑌹 | 𑌼 | 𑌽 | 𑌾 | 𑌿 | ||||
U+1134x | 𑍀 | 𑍁 | 𑍂 | 𑍃 | 𑍄 | 𑍇 | 𑍈 | 𑍋 | 𑍌 | 𑍍 | ||||||
U+1135x | 𑍗 | 𑍝 | 𑍞 | 𑍟 | ||||||||||||
U+1136x | 𑍠 | 𑍡 | 𑍢 | 𑍣 | 𑍦 | 𑍧 | 𑍨 | 𑍩 | 𑍪 | 𑍫 | 𑍬 | |||||
U+1137x | 𑍰 | 𑍱 | 𑍲 | 𑍳 | 𑍴 | |||||||||||
Notes
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सन्दर्भ
संपादित करें- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 16 फ़रवरी 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 सितंबर 2009.
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 23 फ़रवरी 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 सितंबर 2009.
- ↑ "संस्कृत". मूल से 22 जनवरी 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 सितंबर 2009.
- ↑ http://p2.www.britannica.com/EBchecked/topic/359722/Malayalam-language[मृत कड़ियाँ]
- ↑ "संग्रहीत प्रति". मूल से 11 जनवरी 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2 सितंबर 2009.
- राइनहोल्ड ग्र्यूनेंडाह्ल : संस्कृत पुस्तकों व पांडुलिपियों में दक्षिण भारतीय लिपियाँ, विएस्बेडेन (जर्मनी) २००१, आईएसबीए ३-४४७-०४५०४-३
- के वेणुगोपालन: ग्रंथ अक्षरों से परिचय।
बाहरी कड़ियाँ
संपादित करें- एंशियेंटस्क्रिप्ट्.कॉम पर ग्रंथ के बारे में कुछ तथ्य
- ओम्नीग्लोट में लेख
- तमिलनाडु पुरातत्व विभाग - ग्रंथ जालपृष्ठ
- और जानकारी
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