डुँगरदासराम
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जानने योग्य जानकारी (-श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के विषय में)।
संपादित करेंजानने योग्य जानकारी (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के विषय में)।
प्रश्न- क्या आप श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज के विषय में कुछ बता सकते हैं?
उत्तर- हाँ, बता सकते हैं।
प्रश्न- तो बताइये, वे कहाँ के थे और क्या करते थे? तथा उनके सिद्धान्त कैसे थे?। सही- सही बताना।
उत्तर- जी, हाँ । सही-सही बातें ही बतायी जायेगी; क्योंकि हमको यह जानकारी उन (श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज) के द्वारा ही मिली है।
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ने अपने रहने के लिये कहीं भी कोई स्थान नहीं बनवाया। आप गाँव गाँव और शहर आदि में जा- जाकर कर लोगों को सत्संग सुनाया करते थे और भिक्षान्न से ही अपना शरीर निर्वाह करते थे। जहाँ भी रहते थे,उस स्थान को भी अपना नहीं मानते थे।
"एक संतकी वसीयत" नामक पुस्तक के पृष्ठ संख्या १२ पर 'मेरे विचार ' नामक लेख में स्वयं श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज कहते हैं कि
५. मेरा कोई स्थान, मठ अथवा आश्रम नहीं है । मेरी कोई गद्दी नहीं है और न ही मैंने किसीको अपना शिष्य, प्रचारक अथवा उत्तराधिकारी बनाया है । ...
३. मैंने किसी भी व्यक्ति, संस्था, आश्रम आदिसे व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं जोड़ा है । यदि किसी हेतुसे सम्बन्ध जोड़ा भी हो, तो वह तात्कालिक था, सदाके लिये नहीं । मैं सदा तत्त्व का अनुयायी रहा हूँ, व्यक्तिका नहीं ।
४. मेरा सदासे यह विचार रहा है कि लोग मुझमें अथवा किसी व्यक्तिविशेषमें न लगकर भगवानमें ही लगें । व्यक्तिपूजाका मैं कड़ा निषेध करता हूँ । आदि आदि।
इस प्रकार आप एक महान् विलक्षण महापुरुष थे। आप कौन थे? इस विषय में तो स्वयं आप ही जानते हैं , दूसरे नहीं। दूसरे लोग तो अटकलें लगाकर अपनी बुद्धि का परिचय देते हैं।
आपने श्री मद् भगवद् गीता पर एक अद्वितीय हिन्दी टीका लिखी है। जिसका कोई अगर मन लगाकर ठीक तरह से अध्ययन करे, तो परमात्मतत्त्व का बोध हो सकता है। गीताजी का रहस्य समझ में आ सकता है। घर परिवार और संसार में रहने की विद्या आ सकती है। सब दुख,चिन्ता, भय आदि सदा- सदा के लिये मिट सकते हैं और आनन्द हो सकता है।
इसी प्रकार उनकी "गीता-दर्पण", "गीता-माधुर्य", "साधन-सुधा-सिन्धु," "गृहस्थ में कैसे रहें?" आदि करीब सत्तर अस्सी से भी अधिक पुस्तकें छपी हुई है और उनके सत्संग, प्रवचनों की की हुई लगातार सोलह वर्षों (1990 से 2005 तक ) की ओडियो रिकोर्डिंग है तथा उससे पहले के सत्संग प्रवचनों की भी काफी रिकोर्डिंग है।
गीताप्रेस के संस्थापक सेठजी श्री जयदयाल जी गोयन्दका और आपने पुस्तकों तथा सत्संग प्रवचनों के द्वारा दुनियाँ का बङा भारी उपकार किया है । दुनियाँ सदा-सदा के लिये आपकी ऋणी रहेंगी।
आपका कहना है कि परमात्मा की प्राप्ति कठिन नहीं है। परमात्मा की प्राप्ति बङी सुगमता से हो सकती है और बहुत जल्दी, तत्काल हो सकती है। मनुष्य मात्र परमात्मप्राप्ति का जन्मजात अधिकारी है, चाहे कोई कैसा ही क्यों न हो। कम से- कम समय में और मूर्ख से मूर्ख मनुष्य को तथा पापी से पापी मनुष्य को भी परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है।
जो मनुष्य जहाँ और जिस परिस्थिति में है, वह उसी परिस्थिति में और वहीं परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है, कल्याण कर सकता है, मुक्ति पा सकता है। (परिस्थिति आदि बदलने की जरूरत नहीं है)।
... वास्तविक बोध करण- निरपेक्ष (अपने- आप से) ही होता है।
(गीता "साधक-संजीवनी" २|२९;)।
भगवत्प्राप्ति के लिये न तो कहीं जाने की जरूरत है और न वेष बदल कर साधू बनने की जरूरत है ।
जिस परमात्मा से सम्पूर्ण प्राणियों की प्रवृत्ति (उत्पत्ति) होती है (और) जिससे यह सम्पूर्ण संसार व्याप्त है, उस परमात्मा का अपने कर्म के द्वारा पूजन करके मनुष्यमात्र सिद्धि को प्राप्त हो जाता है।
(गीता "साधक-संजीवनी" १८|४६;)
(सिद्धि अर्थात् परमात्मा को प्राप्त हो जाता है) ।
मेरा आश्रय लेनेवाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा से शाश्वत अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है।
(गीता "साधक-संजीवनी" १८|५६;)। यदि परमात्मप्राप्ति की उत्कट अभिलाषा अभी जाग्रत हो जाय, तो अभी ही परमात्मा का अनुभव हो जाय।
(गीता "साधक-संजीवनी" ३|२०;)।
ऐसी अनेक बातें आपने अपने गीता साधक-संजीवनी आदि ग्रंथों में और अपने सत्संग प्रवचनों में बताई है; जो बङी सरल, श्रेष्ठ और शीघ्र भगवत्प्राप्ति करवाने वाली हैं। हमारे को चाहिये कि शीघ्र ही उनसे लाभ ले लें।
आपने भगवत्प्राप्ति के ऐसे नये- नये अनेक साधनों का आविष्कार किया है।
प्रश्न- तब श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज साधू क्यों बने?
उत्तर- ऐसा प्रश्न एक व्यक्ति ने श्री स्वामी जी महाराज से भी किया था कि आप साधू क्यों बने?
जवाब में श्री स्वामी जी महाराज बोले कि मैं साधू नहीं बना। (मेरी माँ ने साधू बना दिया। आपका माताजी के प्रति बङा आदर भाव था)।
प्रश्न- माताजी ने आपको साधू क्यों बनाया?
उत्तर- आपकी माताजी बङी श्रेष्ठ और भगवान् का भजन करने वाली थी। आप भगवान् के भजन से ही मानव जीवन की सफ़लता मानती थी। आप राम नाम जपती थी। आपको बहुत भजन कण्ठस्थ थे। अनेक संतों की वाणी आती (याद) थी । आप संत- महात्माओं में बङी श्रद्धा भक्ति रखती थी। संत- महात्माओं पर भी असर था कि ये माताजी बङे जानकार हैं। माताजी का गाँव था माडपुरा (जिला नागौर; राजस्थान)।
आपके यहाँ जब कोई संत-महात्मा पधारते, तब आप और सखियाँ भजन (हरियश) गाया करती थी।
एक बार की बात है कि आपके यहाँ संत श्री जियारामजी महाराज पधारे । सखियों ने आप (माताजी) से भजन गाने के लिये कहा। आपने गाया नहीं। तब किसी ने महाराज से कह दिया कि ये भजन नहीं गा रही है। किसी ने कहा कि ये गावे कैसे ! इनके तो लङका चला हुआ है (शान्त हो गया है। आपके बालक जन्मते थे और शान्त हो जाते थे,ज्यादा जीते नहीं थे) । तब श्री जियाराम जी महाराज ने कहा कि रामजी और देंगे (लङका) । आप तो भजन गाओ। तब आपने भजन गाया।
भगवत्कृपा से जब आपके लङका हुआ तो लाकर जियारामजी महाराज को सौंप दिया। महाराज ने कहा कि यह बालक तो आप रखो। अबकी बार बालक होवे तब दे देना। तब उस बालक को माताजी ने अपने पास में रख लिया।
उसके बाद (संवत १९५८ में) जियारामजी महाराज परम धाम पधार गये (शरीर छोङ दिया)। फिर दो वर्षों के बाद (संवत १९६० में) माताजी के जब दूसरा बालक हुआ और वो चार वर्ष का हो गया, तब उसको माताजी ने जियारामजी महाराज के बाद वाले संतों को दे दिया, साधू बना दिया। संतों ने इनको अपना शिष्य बना लिया। बालक के जन्म का नाम था सुखदेव। फिर इनका नाम हुआ - श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराज ।
गुरुजनों के प्रति आपका बङा आदर भाव था। उनके कहने से आपने संस्कृत आदि विद्याएँ पढीं और आचार्य तक की परीक्षा भी दी।
आपकी रुचि तो बचपन से ही भगवद् भजन करने की थी। आपको भगवान् की बातें अच्छी लगती थी। गीता पढ़ना अच्छा लगता था। बारह वर्ष की अवस्था में ही आपका गीता जी से सम्बन्ध हो गया था। बाद में ध्यान देने पर आपको गीता जी कण्ठस्थ मिली, कण्ठस्थ करनी नहीं पङी। पाठ करते- करते गीता जी याद हो गई थी।
आपने गीता- पाठशाला खोल रखी थी और आप लोगों को गीता पढाते थे। कभी-कभी आपके मन में गीता जी के नये- नये ऐसे भाव आते कि जो किसी भी गीता की टीका में देखने को नहीं मिलते। इस प्रकार और भी कई बातें हैं। (परन्तु यहाँ संक्षेप में कही जा रही है)।
"मेरे विचार " नामक लेख के सिद्धान्तों में वे स्वयं बताते हैं कि
२. मेरे दीक्षागुरुका शरीर शान्त होनेके बाद जब वि० सं० १९८७ में मैंने उनकी बरसी कर ली, तब ऐसा पक्का विचार कर लिया कि अब एक तत्त्वप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं करना है । किसीसे कुछ माँगना नहीं है । रुपयोंको अपने पास न रखना है, न छूना है । अपनी ओरसे कहीं जाना नहीं है, जिसको गरज होगी, वह ले जायगा । इसके बाद मैं गीताप्रेसके संस्थापक सेठजी श्रीजयदयालजी गोयन्दकाके सम्पर्कमें आया । वे मेरी दृष्टिमें भगवत्प्राप्त महापुरुष थे । मेरे जीवन पर उनका विशेष प्रभाव पड़ा ।
(इन दोनों महापुरुषों के प्रथम मिलन का वर्णन तारीख एक अप्रैल उन्नीस सौ इकरानवें (दि.19910401/900 ) के दिन नौ बजेके प्रवचनमें स्वयं 'परम श्रद्धेय स्वामीजी श्री रामसुखदासजी महाराज' ने गीताप्रेस, गोरखपुरमें किया है और दि. 19951205/830 बजेके सत्संगमें भी किया है।
"महापुरुषों के सत्संग की बातें " नामक पुस्तक में भी आप दोनों महापुरुषों के मिलन का वर्णन किया गया है)।
किसीके देने पर भी आप न रुपये लेते थे और न रुपये अपने पास में रखते थे। रुपयों को छूते भी नहीं थे। किसी वस्तु की आवश्यकता होने पर भी आप किसी से कुछ माँगते नहीं थे। कष्ट उठा लेते थे पर कहते नहीं थे। आप बङा संकोच रखते थे।
आप अपनी मान बङाई नहीं करवाते थे। मान दूसरों को देते थे। आप स्वार्थ, अभिमान, कञ्चन, कामिनी आदि के त्यागी थे। आप पुष्पमाला आदि का सत्कार स्वीकार नहीं करते थे। आप वर्षा में भी अपने ऊपर छाता नहीं लगाने देते थे। आप न रुई के बिछोनों पर बैठते थे और न सोते थे। खाट पर भी न बैठते थे और न सोते थे। बुनी हुई कुर्सी पर भी आप नहीं बैठते थे।
कहीं पर भी आसन बिछाने से पहले आप उस जगह को कोमलता पूर्वक आसन की ही हवा आदि से झाङकर, वहाँ से सूक्ष्म जीव जन्तुओं को हटाकर बिछाते थे। बिना आसन के बैठते समय भी आप जीव जन्तुओं बचा कर बैठते थे।
चलते समय भी आप ध्यान रखते थे कि कहीं कोई जीव जन्तु पैर के नीचे दब कर मर न जाय। आपका बङा कोमल शील स्वभाव था। आपके हृदय में हमेशा परहित बसा रहता था जो दूसरों को भी दिखायी देता था।
आप हमेशा जल छान कर ही काम में लेते थे। छने हुए जल को भी चार या छः घंटों के बाद वापस छानते थे; क्योंकि चातुर्मास में चार घंटों के बाद और अन्य समय में छः घंटों के बाद में (छाने हुए जल में भी) जीव पैदा हो जाते हैं। जल में जीव बहुत छोटे होते हैं, दीखते नहीं। इसलिये आप गाढ़े कपङे को डबल करके जल को छानते थे और सावधानी पूर्वक जीवाणूं करके उन जीवों को जल में छोङते थे। इस प्रकार आप छाने हुए जल को काम में लेते थे । खान, पान, शौच, स्नान आदि सब में आप जल छानकर ही काम में लेते थे।
अपने निर्वाह के लिये कमसे- कम आवश्यकता रखते थे। आवश्यकता वाली वस्तुएँ भी सीमित ही रखते थे। परिस्थिति को अपने अनुसार न बना कर खुद को परिस्थिति के अनुसार बना लेते थे। किसी वस्तु, व्यक्ति आदि की पराधीनता नहीं रखते थे।
आपने मिलने वाले जिज्ञासुओं को हमेशा छूट दे रखी थी कि आपके कोई साधन-सम्बन्धी बात पूछनी हो तो मेरे को नींद में से जगाकर भी पूछ सकते हो। लोगों के लिये आप अनेक कष्ट सहते थे, फिर भी उनको जनाते नहीं थे।
आप न चेला चेली बनाते थे और न भेंट पूजा स्वीकार करते थे। आप न तो किसी से चरण छुआते थे और न किसी को चरण छूने देते थे। चलते समय पृथ्वी पर जहाँ आपके चरण टिकते , वहाँ की भी चरणरज नहीं लेने देते थे। कभी कोई स्त्री भूल से भी चरण छू लेती तो आप भोजन करना छोङ देते थे। उपवास रख कर उसका प्रायश्चित्त करते थे। आप न तो स्त्री को छूते थे और न स्त्री को छूने देते थे। रास्ते में चलते समय भी ध्यान रखते थे कि उनका स्पर्श न हों। आपके कमरे में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित था।
स्त्री जाती के प्रति आपका बङा आदर भाव था। आप स्त्रियों पर बङी दया रखते थे। लोगों को समझाते थे कि छोटी बच्ची भी मातृशक्ति है। माता का दर्जा पिता से सौ गुना अधिक है।
आप गर्भपात करवाने का भयंकर विरोध करते थे। जिस घर में एक स्त्री ने भी गर्भपात करवा लिया हो, तो आप उस घर का अन्न नहीं लेते थे और जल भी नहीं लेते थे।
शास्त्र में गर्भपात को ब्रह्महत्या से भी दुगुना महापाप बताया गया है। आप परिवार- नियोजन, दहेज- प्रथा और विधवा- विवाह आदि का विरोध करते थे। विवाह से पहले वर- वधू के मिलन को पाप मानते थे और इसका निषेध करते थे।
आप गुरु बनाने का भी निषेध करते थे। आपने गौहत्या रोकने की बङी कोशिश की थी। गौरक्षा के लिये आपकी हमेशा कोशिश रही। गाय के सूई लगाकर दुहने को आप बङा पाप मानते थे और इसका निषेध करते थे।
आप कूङे- कचरे के आग लगाने का प्रबल विरोध करते थे। इस आग में असंख्य जीव- जन्तु जिन्दा ही जल जाते हैं, जो बङा भारी पाप है।
आप न तो अपना चित्र खिंचवाते थे और न किसी को चित्र खींचने देते थे। कोई चित्र खींच लेता तो उसका कङा विरोध करते थे। खींची हुई फोटो को नष्ट करवा देते थे। आप मनुष्य की फोटो को महत्त्व न देकर भगवान् की फोटो को महत्त्व देते थे और रखने की सलाह देते थे।
आप सत्संग को बहुत अधिक महत्त्व देते थे। सत्संग तो मानो आपका जीवन ही था। आप बताते थे कि सत्संग से जितना लाभ होता है उतना एकान्त में रहकर साधन करने से भी नहीं होता।
वर्षों तक एकान्त में रहकर साधन करने से भी जो लाभ नहीं होता है, वो लाभ एक बार के सत्संग से हो जाता है ।
सत्संग करे और (फिर उसके अनुसार) साधन करे। साधन करे और सत्संग करे। इस प्रकार करने से (जल्दी ही) बहुत बङा लाभ होता है।
सत्संग सब की जननी है। सत्संग से जितना लाभ होता है, उस लाभ को कोई कह नहीं सकता।
आप जहाँ भी विराजते थे वहाँ नित्य- सत्संग होता था। प्रातः पाँच बजे वाली सत्संग तो यात्रा में भी चलती रहती थी। कभी- कभी यात्रा के कारण गाङी में चल रहे होते और प्रातः पाँच बजे वाली प्रार्थना सत्संग का समय हो जाता तो गाङी में ही प्रार्थना, गीता-पाठ और सत्संग कर लिया जाता था।
दिन में भी कई बार सत्संग होता रहता था। सत्संग के बिना ख़ाली दिन आपको पसन्द नहीं था। इस प्रकार बहुत बढ़िया सत्संग चलता रहा। ...
अन्त में संवत २०६२, आषाढ़ के कृष्णपक्ष वाली एकादशी की रात्रि में, साढ़े तीन बजे के बाद, गीताभवन ऋषिकेश, गंगातट पर शरीर छोङकर आप परमधाम को पधार गये।
अधिक जानने के लिए " महापुरुषों के सत्संग की बातें " नामक पुस्तक पढें। वो पुस्तक वेब से नि:शुल्क डाउनलोड कर सकते हैं।
प्रश्न-
क्या उनकी चिता भस्म को गंगाजी समेट कर ले गई?
उत्तर- जी हाँ, उनकी अन्तिम क्रिया गंगाजी के किनारे की गई थी। दाहक्रिया के बाद दूसरे तीसरे दिन ही गंगाजी इतनी बढ़ी कि वहाँ के चिताभस्म आदि सब अवशेष बहाकर अपने साथ में ले गई। वहाँ की धरती ही बदल गई। मानो गंगाजी भी ऐसे अवसर को पाना चाहती थी। महापुरुषों के स्नान से गंगाजी भी पवित्र हो जाती है ।
महापुरुषों के वहाँ से प्रस्थान कर जाने पर प्रकृति ने भी अपने नियम बदल दिये। दो वर्षों तक आम के पेङों के आम के फल लगने बन्द हो गये। (ये घटनाएँ अनेक लोगों ने अपनी आँखों से देखी है)। हर साल उन पेङों के इतने आम्रफल लगते थे कि बिक्री आदि के लिये आम ठेके पर दिये जाते थे; परन्तु अबकी बार वो लगे ही नहीं। मानो महापुरुषों के वियोग का दुख पेङ- पौधे भी नहीं सह सके। गोस्वामी जी श्री तुलसीदास जी महाराज ने ठीक ही कहा है-
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।। बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं।।
(रामचरितमानस ५|३,४:)।
डुँगरदासराम (वार्ता) 18:29, 15 जुलाई 2018 (UTC)
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MediaWiki message delivery (वार्ता) 16:32, 30 जून 2021 (UTC)
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