प्रिन्शु लोकेश
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मधुवर्षण:- (कवि: प्रिन्शु लोकेश ) संपादित करें
अंबर में मेघों को देखो लिए हाथ में प्याले हैं। रवि,शशि दोनों दिखते छिपते सब पी कर मतवाले हैं।
सभी देव पीकर लड़खाते देखो कैसी गर्जन हो रही। देखो सखी मधुवर्षण हो रही।
अंबर में ज्यों लुढ़का प्याला तरु पतिका से मदिरा टपके। वर्षों से आश लगाऐ बैठा प्यासा चातक रस को झपके।
उसी रसो में डूबी लतिका हरी भरी आकर्षक हो रही। देखो सखी मधुवर्षण हो रही।
रवि के ताप से तपती वसुधा हिमरस पाते प्रमुदित हो गई। तिमिर गेह में पडीं जो बीजें मधुरस पाते हर्षित हो गई।
पी कर खड़े हुए नवतरु वर नशे में डाली चरमर हो रही। देखो सखी मधुवर्षण हो रही।
हुआ आगमन निज प्रियतम का एक बूंद अधरों में पड़ गई। कौन प्रियतमा किसकी प्रियतम नशे में जाने क्या-क्या कह गई।
नशे में नैन हुए अंगूरी काम में वो तो शंकर हो रही। देखो सखी मधुवर्षण हो रही।
रूप अप्सरा चली गई फिर पूर्ण रूप से गलगल हो कर। वसुधा का आंचल फिर देखा दादुर बोले गदगद हो कर।
किसी का प्याला चटका नभ पर देखो कैसी लपकन हो रही। देखो सखी मधुवर्षण हो रही।
इन मेघों में न जाने कितना मदिरा भरा हुआ है। हिमशिखरों से हिम भी लाते जो मदिरा में पड़ा हुआ है।
देहगुहा में भर लो रसना अबकी अद्भुत वर्षण हो रही। देखो सखी मधुवर्षण हो रही।
निशा निशा में पीती ही थी आज उषा में आई है। तिमिर उषा में मानों ऐसे निशा निशा ही छाई है।
निशा उषा सब साथ मे पीते जाने कैसे दर्शन हो रही। देखो सखी मधुवर्षण हो रही। प्रिन्शु लोकेश (वार्ता) 05:00, 14 नवम्बर 2019 (UTC)
साहित्य मदिरा (कवि:- प्रिन्शु लोकेश ) संपादित करें
इन घड़ियों को ना व्यर्थ करो वरना मदिरा ना पाओगे। हर शहरों में बंद हो रही बिन मदिरा मर जाओगे।
सुमन गंध में खींचे चलो तुम काले औ मतवाले भंवरे। अम्बर में भी प्याला लेकर घूमो बन बादल चितकबरे। लुप्त हो रही है ये मदिरा इन अंग्रेजी चक्कर में जहां खुली मधुशाला पाओ खूब पियो तुम प्यारे भंवरे।
एक बार गर झांक लिए तुम घुसे वहीं रह जाओगे। इन घड़ियों को ना व्यर्थ करो वरना मदिरा ना पाओगे।१।
अंधकार की निशा मिटा कर प्राची की किरणें लाती है। एक बार जो पान किया याद बनी रह जाती है। तीर चलाओ तुम मदिरा का लक्ष्य जहां है रहने दो एक अनोखा ढंग मदिरा का तीरों को लक्ष्य बुलाती है।
बस एक बार हिय में उतरे फिर जन जन तक पहुंचाओगे। इन घड़ियों को ना व्यर्थ करो वरना मदिरा ना पाओगे।२।
छूत हीन औ जूठ हीन साहित्य कि पावन मदिरा है। आंसू से निकली है प्रसाद के दिनकर की सावन मदिरा है। रूप हीन औ गंध हीन भाव रूप से भरी हुई तुलसी की राम कथा देखो भाव - भाव में मदिरा है।
मेरे लेखनि के स्याही में हर बूंद में मदिरा पाओगे। इन घड़ियों को ना व्यर्थ करो वरना मदिरा ना पाओगे।३।
आसमान से झांक रहा वो मदिरा की बीज लगाने वाला। सौंप दिए जिसको हम प्याला जाग रहा क्या वो रखवाला। मैं एकाकी बचा पहरूआ
हे पुरखों इस मदिरा की
न जाने किस रस में डूबे जिनको तूने था पाला।
हो तुम इस मदिरा के पाले छोड़ इसे क्यों जाओगे। इन घड़ियों को ना व्यर्थ करो वरना मदिरा ना पाओगे।४।
साहित्य नाम की ये मदिरा बड़ी अनोखी होती है। गीतों में मीठी -मीठी सी व्यंग्यों में तीखी होती है। आओ सब मिल पान करें दूर इसे न जाने दें ये ऐसी है सोन चिरैया जो कभी ना खोखी होती है।
किये अनादर जो मदिरा का जीवन भर पछताओगे। इन घड़ियों को ना व्यर्थ करो वरना मदिरा ना पाओगे।५। प्रिन्शु लोकेश (वार्ता) 05:02, 14 नवम्बर 2019 (UTC)
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