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-- नया सदस्य सन्देश (वार्ता) 22:58, 21 अप्रैल 2018 (UTC)उत्तर दें

ईश्वर दयाल गोस्वामी की कविता संपादित करें

                  ग़ज़ल

मैं शे'र कह रहा हूँ , इंसान की कड़ी के । हालत-ए-हाज़रा के, ग़ुजरी हुई सदी के ।।

ख़ूँ में कलम को डोबकर जो शे'र कह गए, अफ़साने बन गए हैं उनकी ही शा'यरी के ।।

जो डूबते हैं आजकल अद़ब-ए-बहार में , खिलते हैं ग़ुल उन्हीं के शे'रों में चाँदनी के ।।

हँस कर कहें या रोकर कहते हैं शे'र जमकर, अंदाज़ निराले हैं उनकी ही खोपड़ी के ।।

'ईश्वर'  है  रौश़नी जहाँ  पै तीरग़ी  के साथ ,

वो शे'र कह रहा हूँ महलों के , झोपड़ी के ।।

  ....            ईश्वर दयाल गोस्वामी । ISHWAR DAYAL GOSWAMI (वार्ता) 23:31, 21 अप्रैल 2018 (UTC)उत्तर दें

रानगिर पर आलेख - ईश्वर दयाल गोस्वामी संपादित करें

रानगिर की हवा में शामिल हैं दक्षकन्या की स्मृतियाँ दिव्य-कन्या बन गई पाषाण-प्रतिमा- तीन रूपों में होते हैं हरसिद्धि के दर्शन


मध्यप्रदेश के सागर जिला की रहली तहसील का छोटा सा पहाड़ी गाँव रानगिर न केवल सुरम्य वन ,सुंदर पर्वत श्रृंखलाओं और कलकल करती देहार नदी की प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है, बल्कि- यह गाँव दक्षप्रजापति की पुत्री और भगवान शिव की पत्नी सती की स्मृतियों को भी अपनी फ़िज़ा में घोले हुए है । रान एक देशज-शब्द है जो लोक-व्यवहार में हिंदी के जंघा और संस्कृत के ऊरू शब्दों का समानार्थी है । जनश्रुति के अनुसार जब सती ने यज्ञ-कुण्ड में कूदकर अपना देह-त्याग कर दिया था तो उनके शरीर के 52 खण्ड हो गए थे जो पवनदेव द्वारा भारत के विभिन्न 52 स्थलों पर गिरा दिए गए थे, ये सभी स्थल आज भी भारतीय धर्म मनीषा में 52 शक्तिपीठ के नाम से विख्यात हैं। कदाचित् लोगों का मानना है कि- यहाँ सती की रानें अर्थात् जंघाएँ गिरी थीं इसलिए इस स्थान का नाम रानगिर पड़ा । इस धार्मिक स्थल में पुराण-प्रसिद्ध मां हरसिद्धि का मंदिर है । मंदिर के परकोटे का प्रवेशद्वार पूर्व दिशा में है, जिससे कुछ सीढ़ियां उतरकर हम मंदिर की परिधि में पहुंचते हैं । इस धार्मिक स्थल तक जाने के दो मार्ग हैं सागर शहर से दक्षिण में झांसी-लखनादौन राष्ट्रीयकृत राजमार्ग क्र.-26 पर 24 कि.मी. चलकर तिराहे से पूर्व में 8 कि.मी. पक्की सड़क से आप सीधे मंदिर पहुंच जाएंगे, रहली से सागर मार्ग पर 8 कि.मी. चलकर पांच मील से दक्षिण में पक्की सड़क से 12 कि.मी. चलेंगे तो सीधे मंदिर ही पहुंचेंगे । रहस्यमयी अनगढ़-प्रतिमा — रानगिर में विराजमान मां हरसिद्धि की प्रतिमा देखने में अनगढ़ प्रतीत होती है यानि- इसे किसी शिल्पी ने नहीं गढ़ा अन्यथा यह अधिक सुंदर और सुडौल होती और न ही किसी पुरोहित ने इस प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा की अन्यथा यह भूमितल से ऊंचे मंदिर में ऊंची वेदिका पर विराजमान होती जबकि- यह प्रतिमा भूमितल से नीचे विराजमान है । वस्तुतः कन्या रूप धारिणी यह प्रतिमा ऐंसे दृष्टिगोचर होती है कि कोई कन्या यहां खड़ी-खड़ी पाषण में रूपांतरित हो गई हो । एक किंवदंती भी है कि रानगिर में एक अहीर था जो दुर्गा का परम भक्त था उसकी नन्हीं बेटी जंगल में रोज़ गाय-भैंस चराने जाती थी जहाँ पर उसे एक कन्या रोज़ भोजन भी कराती थी और चांदी के सिक्के भी देती थी ।यह बात बिटिया रोज़ अपने पिता को सुनाती थी । एकदिन झुरमुट में छिपकर अहीर ने देखा कि एक दिव्य कन्या बिटिया को भोजन करा रही है तो वह समझ गया कि यह तो साक्षात जगदम्बा हैं जैसे ही अहीर दर्शन के लिए आगे बढ़ा तो कन्या अदृश्य हो गई और उसके बाद वहां यह अनगढ़ पाषाण प्रतिमा प्रकट हो गई और इसके बाद इसी अहीर ने इस प्रतिमा पर छाया प्रबंध कराया तब से प्रतिमा आज भी उसी स्थान पर विराजमान है । अन्य जनश्रुतियां – जनश्रुतियां यह भी बताती हैं कि- शिवभक्त रावण ने इस पर्वत पर घोर तपस्या की फलस्वरूप इस स्थान का नाम रावणगिरि रखा गया जो कालांतर में संक्षिप्त होकर रानगिर बन गया । किंतु पुराण-पुरुष भगवान राम ने भी वनवास के समय इस पर्वत पर अपने चरण रखें हों और इस पर्वत का नाम रामगिरि रखा गया हो जो अपभ्रंश स्वरूप आज का रानगिर बन गया हो ऐंसा भी संभव प्रतीत होता है क्योंकि इस पर्वत के समीप स्थित एक गाँव आज भी रामपुर के नाम से जाना जाता है । मंदिर का निर्माण-काल :- वैसे तो मंदिर निर्माण काल के स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते किंतु सन् 1726 ईस्वी में इस पर्वत पर महाराजा छत्रसाल और धामोनी के फ़ौज़दार ख़ालिक के बीच युद्ध हुआ था यद्यपि महाराजा छत्रसाल ने सागर जिला पर अनेक बार आक्रमण किया जिसका विवरण लालकवि ने अपने ग्रंथ छत्रप्रकाश में इस प्रकार किया है – “वहाँ तै फेरी रानगिर लाई , ख़ालिक चमूं तहौं चलि आई, उमड़ि रानगिर में रन कीन्हों,ख़ालिक चालि मान मैं दीन्हौं” इस लड़ाई में महाराजा छत्रसाल विजयी हुए थे तो हो सकता है रानगिर की महिमा से प्रभावित होकर उन्होंने ही मंदिर का निर्माण करवाया हो पर यह मूलतः अनुमान ही है । दुर्ग-शैली में बना है भव्य मंदिर :- मंदिर का निर्माण दुर्ग-शैली में किया गया है बाहरी परकोटे से चौकोर बरामदा जोड़ा गया है जिसकी छत पर चढ़कर ऊपर ही ऊपर मंदिर की परिक्रमा की जा सकती है । नवीं देवी हैं हरसिद्धि :- दुर्गा सप्तशती में दुर्गा कवच के आधार पर स्वयं ब्रह्मा जी ऋषियों को नवदुर्गा के नामों का उल्लेख करते हुए कहते है कि- “प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी । तृतीयं चंद्रघण्टेति, कूष्माण्डेति चतुर्थकम् । पंचमं स्कंदमातेति,षष्ठं कात्यायनीति च , सप्तमं कालरात्रिती , महागौरिती चाष्टमम् । नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा प्रकीर्तिताः । यही नवीं देवी सिद्धिदात्री ही रानगिर में हरसिद्धि नाम से जानी जाती हैं

                                    आलेख - ईश्वर दयाल गोस्वामी 
                                                  कवि , लेखक रहली (सागर) 
                                                  मध्यप्रदेश ISHWAR DAYAL GOSWAMI (वार्ता) 23:48, 21 अप्रैल 2018 (UTC)उत्तर दें

महात्मा गांधी की मध्यप्रदेश यात्रा संपादित करें

अनंतपुरा की फ़िजा में घुली हुई है बापू की पद-चाप  :-ईश्वर दयाल गोस्वामी छिरारी (रहली)जिला-सागर(मध्यप्रदेश) से 8 कि मी दक्षिण में स्थित ग्राम अनंतपुरा में दिसम्बर 1933 में बापू आए थे । बापू का यह आगमन उनकी अस्पृश्यता निवारण यात्रा का एक मुख्य खंड था । बापू ने 22 नवम्बर से 8 दिसम्बर तक मध्यप्रदेश की यात्रा की। इसी तारतम्य में बापू ने 30 नवम्बर को देवरी के रामलखन मंदिर में हरिजनों को प्रवेश दिलाया था जिससे नाराज होकर पुजारी अयोध्या प्रसाद चौबे ने मंदिर छोड़ दिया था । फिर बापू 1 दिसम्बर को उबड़ - खाबड़ मार्ग से अनंतपुरा के लिए रवाना हुए ।अनंतपुरा में उस समय लगभग 200 घर और 1000 की आबादी थी । गांधी जी ने गाँव का निरीक्षण किया व 1 दिन और 1 रात गांव में विश्राम भी किया । बापू ने लोगों को बताया कि हम सब एक ही परम पिता की संतान हैं ,छुआछूत धर्म विरुद्ध और अन्यायपूर्ण है । शाम को तारों के झिलमिल प्रकाश में बापू ने प्रार्थना सभा भी की । बापू के आदर्शों से प्रभावित होकर जेठाभाई ने खादी आश्रम के लिए 50 एकड़ भूमि दान की और कुछ अन्य लोगों ने भी भूमि दान की जो लगभग 85 एकड़ हो गई थी किन्तु बाद में जेठाभाई ने वह जमीन बेच दी और कलकत्ता में रहने लगे । इसलिए न तो आज गाँव में खादी आश्रम है और न ही आश्रम के नाम पर कोई ज़मीन ।हाँ ग्रामीणों ने उस पेड़ के नीचे एक पत्थर का चबूतरा बनाकर उस पर पत्थर लगाकर उसमें गाँधी स्मारक 1933 लिखा है किन्तु आज की संकीर्ण विचारधारा के लोगों ने अतिक्रमण कर उक्त पेड़ व चबूतरा को जीर्ण-शीर्ण स्थिति में कर दिया है । बापू ने गाँव को स्वाबलंबी जीवन जीने के लिए एक चरखा भी दिया था जो आज सागर के एक नेता जी के पास है, इसी तरह बापू का चश्मा जो बापू ने एक भक्त के आग्रह पर स्मृति चिह्न के रूप में ग्राम को दिया था वह भी आज यहाँ नहीं है। विचारणीय बात यह है कि बापू ने अपनी इस यात्रा का नाम हरिजनों को छुआछूत से मुक्त करने के लिए हरिजन यात्रा ही रखा था । किन्तु जिस तरह अनंतपुरा में केवल फ़िजा में ही बापू की पद-चाप और रघुपति राघव राजाराम की अनुगूंज घुलकर रह गई उसी तरह वोट की मौका-पऱस्त राजनीति के कारण हरिजन भी बापू के उपकार को भूल ही गए । ISHWAR DAYAL GOSWAMI (वार्ता) 23:14, 1 मई 2018 (UTC)उत्तर दें