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-- नया सदस्य सन्देश (वार्ता) 07:52, 11 अक्टूबर 2017 (UTC)उत्तर दें

अहिंसा एवं शाकाहार : आधुनिक जीवन शैली के आवश्यक अंग संपादित करें

मानव जीवन में अहिंसा एवं शाकाहार का विशेष महत्व है। अहिंसा एक श्रावक के लिये अणुव्रत धर्म है बहीं दूसरी ओर मुनियों के लिये महाव्रत है। मनुष्य दैनिक जीवन चर्या में सूक्ष्म हिंसा का भागीदार हो ही जाता है लेकिन साधू की चर्या अहिंसात्मक है। जैन आचार्यों, मुनियों तथा कुछ श्रावकों में ही पुर्ण आचरण की शुद्धिता पायी जाती है, जिनकी करनी तथा कथनी एक होती है। यदि हमें चारित्रिक विकास करना है तो निश्चित रूप से, मन वचन काय से एकरूपता लानी होगी| त्रस एवं स्थावर जीवों को मन, वचन, काय से तथा कृत-कारित अनुमोदना से किसी भी परिस्थिति में दु:खित न करना अहिंसा महाव्रत है। मन में दूसरे को पीड़ित करने की सोचना तथा किसी के द्वारा दूसरे को पीड़ित करने पर उसका समर्थन करना भी हिंसा है। अहिंसा ब्रत के पालन करने के लिये यह भी आवश्यक है कि आपका अहित करने बाले के प्रति भी क्षमाभाव रखना, उसे अभयदान देना तथा उसके प्रति जरा भी क्रोध न करना। अहिंसाणुव्रत : रत्नकरण्डक श्रावकाचार में आचार्य समंतभद्र स्वामी ने अहिंसाणुव्रत के बारे में लिखा है कि मन से, वचन से तथा काय से जानबूझकर हिंसा न तो करना, न करवाना और न किये जाने का अनुमोदन/ समर्थन करना अहिंसाणुव्रत का परिपालन है। अंग छेदन, बंधन, पीड़न, अधिक भार लादना तथा आहार को रोकना ये पांच अहिंसाणुव्रत के अतिचार हैं। अहिंसा जैन धर्म का आधार स्तम्भ है। जैन धर्म में प्राणी मात्र के कल्याण की भावना निहित है। जैन धर्म में मनुष्य, पशु-पक्षी, कीड़े–मकोड़े के अलावा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीव माना गया है। जैन धर्म के अनुसार इन जीवों को न मारना ही अहिंसा है। जैन दार्शिनिकों ने उस क्रिया को हिंसा कहा है जो प्रमाद अथवा कषायपूर्वक होती है। हिंसा दो प्रकार की होती है : भाव हिंसा और द्रव्य हिंसा। भाव हिंसा का सम्बंध कषाय से है। द्रव्य हिंसा भाव हिंसा से उत्पन्न होती है और भाव हिंसा को उत्पन्न भी करती है। एक व्यक्ति ऐसा है जो केवल वध की भावना करता है; दूसरा भावना के साथ वध करता है; और तीसरा व्यक्ति बिना भावना के ही वध कर देता है, अत: इन तीनों ही हिंसा में असमानता है। डा. मोहन लाल मेहता (श्रमण, फरवरी 1980) ने लिखा है कि हिंसा अहिंसा के निम्न चार रूप बनते हैं: 1. जो हिंसा भावरूप भी है और द्रव्यरूप भी, ऐसी हिंसा को हम पूर्ण हिंसा कहेंगे। 2. जो हिंसा केवल भावरूप है, ऐसी हिंसा किसी अंश में अपूर्ण होती है।इसे अपूर्ण अहिंसा भी कह सकते हैं। 3. जो हिंसा केवल द्रव्यरूप है, ऐसी हिंसा को अपूर्ण अहिंसा अथवा अपूर्ण हिंसा कहा जा सकता है। इसमें केवल प्राणवध होता है। 4. जहां न भावरूप हिंसा हैन द्रव्यरूप हिंसा, ऐसी स्थति का नाम पूर्ण अहिंसा है। इसमें न प्रमत्त प्रवृत्ति होती है न प्राण वध॥ क्षमावाणी पर्व : जब जैन धर्मानुआयी दशलक्षण पर्व मनाते हैं और प्रतिदिन एक एक करके दश धर्मों पर प्रवचन सुनते हैं और उन पर आचरण करने का प्रयास करते हैं तब हमारी भावनायें, मन वचन कर्म में एकरूपता आने लगती है और अंत में हम सभी क्षमावाणी पर्व मनाते हैं जिसमें एक दूसरे से क्षमा मांगकर मन की शुद्धि करते हैं। आज क्षमावाणी पर्व एक विश्वव्यापी जैन त्यौहार बन गया है। वाराणसी शहर में भगवान पार्श्वनाथ की जन्म स्थली पर इसे विशेष रूप में मनाया जाता है। इस दिन समाज के सभी लोग एक दूसरे से गले मिलकर, क्षमापनाकर मन की शुद्धि कर लेते हैं। मेरे विचार से इस क्षमावाणी पर्व से अनेक मनोविकार दूर हो जाते हैं तथा स्वास्थ्य लाभ भी होता होगा। खान पान का असर हमारे जीवन और व्यवहार पर बहुत ज्यादा पड़ता है। मनुष्य स्वाभाविक रूप से एक शाकाहारी प्राणी है लेकिन आधुनिक जीवन शैली ने उसे सर्वहारी बना दिया है। अत: आत्म चिंतन तथा स्व मूल्यांकन की आवश्यकता है इससे अनेक समस्याओं का स्वत: समाधान हो जायेगा। अत: हम अंधी प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ में ना भागें बल्कि स्वविवेक पूर्वक कार्य करें। कहा भी गया है कि : जैसा खाओगे अन्न, वैसा होगा मन। एक सामान्य श्रावक से अहिंसा अणुव्रत पालन करने के लिये बुंदेली कवि श्री बाबूलाल जैन सुधेश ने अपनी पुस्तक स्वतंत्र रचनावली में लिखा है: नहीं सतायें किसी जीव को, चाहे कुंजर कीरि हो। हरे वेदना सब जीवों की, समझें निज सम पीर हो॥ रहे दया का भाव सदा ही, तब हम प्रभू के पास रे। दर्शन ज्ञान चरित उन्नत कर पाओ मोक्ष निवास रे॥ अणुव्रत पालन करो बंधुओ, सत श्रद्धा के साथ रे। दर्शन ज्ञान चरित उन्नत कर पाओ मोक्ष निवास रे॥ अहिंसा को आचरणीय कहा गया है क्योंकि संसार के सभी प्राणी जीना चाहते हैं, कोई भी प्राणी मरना नहीं चाहता। जिस प्रकार सभी को सुख प्रिय है और दुख प्रिय नहीं है इसलिये किसी को भी हिंसा नहीं करनी चाहिये। सभी धर्मों में अहिंसा का महत्व बताया गया है लेकिन फिर भी सारे विश्व में धर्म के नाम पर ही दंगा, फसाद और हिंसक गतिविधियां होती हैं। इसके पीछे का प्रमुख कारण धार्मिक कट्टरता, धार्मिक उन्माद, सहिष्णुता तथा भाईचारे की कमी है। अत: धार्मिक सहिष्णुता एवं वार्तालाप के द्वारा शांति और सद्भाव का वातावरण बनाने का प्रयास करना चाहिये। जैन धर्म की दृष्टि से हिंसा एक कषाय है जो कषाय से उत्पन्न होती है और कषाय को उत्पन्न भी करती है। जबकि अहिंसा न तो कषाय का कारण है न कषाय का कार्य । अत: अहिंसा आचरणीय है। जैन धर्म को जन सामान्य तक पहुंचाने के लिये उसे सरल भाषा में संकलित करना होगा। आज विश्व में शाकाहार की तरफ लोगों का रूझान वढ़ रहा है। वर्तमान में जैन धर्म के विस्तार एवं अंतर्राष्ट्रीयकरण में ऑनलाइन जैन डिजिटल ई-लाईब्रेरी (www.jainelibrary.com) तथा इण्टरनेशनल दिगम्बर जैन ऑर्गेनाइजेशन (www.idjo.org) का विशेष योगदान है। आज जैन धर्म तथा जैन साहित्य विश्व के 100 से अधिक देशों में डिजिटल लाईब्रेरी के माध्यम से पहुंच रहा है। जैन धर्म विश्व शांति धर्म की ओर बढ़ रहा है।

जैन धर्म के सिद्धांत : अनेकांतवाद तथा स्यादवाद हमें सर्व धर्म समभाव की सीख देते हैं बहीं भगवान महावीर का सिद्धांत “जिओ और जीने दो” सब जीवों के कल्याण की राह दिखाता है। बहीं “परस्परोपग्रहो जीवानाम” का सिद्धांत सभी जीवों पर उपकार करते हुये, भलाई का कार्य करते हुये जीवन जीने की प्रेरणा देता है। अंत में कहना चाहता हूं कि आज विश्व को भगवान महावीर के सिद्धांतों को अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि विश्व कल्याण के लिये, विश्व शांति के लिये अहिंसा ही एक मात्र समाधान है। अहिंसा परमो धर्म की जय।

निष्कर्ष: मनुष्य को जीवन में जागरूक रहते हुये सात्विकता पूर्ण आचरण करना चाहिये। इसके अलावा खान पान में पूर्ण शाकाहार का पालन करना चाहिये। इस तरह से जीवन में श्रेष्ठता तथा सम्पन्नता आयेगी। प्रकृति का संरक्षण होगा। यह सभी जीवों के हित में है इसमें किसी का भी अहित नहीं है इसीलिये यह एक आधुनिक श्रेष्ठ जीवन शैली है। इसे अपनाकर मानव अपनी श्रेष्ठता सावित कर सकता है।

सन्दर्भ संपादित करें

• मेहता, मोहन लाल (1999). जैन धर्म-दर्शन. बेंग्लौर, सेठ मूथा छगनमल मेमोरियल फाउण्डेशन. पृ। 629-631. • जैन, शेखर चंद्र (2009). जैन धर्म जानिए. जयपुर, ज्ञान प्रकाशन. पृ. 13. • जैन, बाबूलाल (2004). स्वतंत्र रचनावली. टीकमगढ़, देवीदास जैन शोध एवं अध्ययन केंद्र. पृ. 17. • आचार्य समंतभद्र. रत्नकरण्डक श्रावकाचार. • सिंह, महेंद्रनाथ (2004). बौद्ध तथा जैन धर्म. वाराणसी, विश्वविद्यालय प्रकाशन. पृ. 159-160.

== ==220.227.97.99 (वार्ता) 10:06, 11 अक्टूबर 2017 (UTC)Vivekanand Jainउत्तर दें