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-- नया सदस्य सन्देश (वार्ता) 10:50, 29 मई 2019 (UTC)उत्तर दें

ध्यान रहस्य संपादित करें

--Yogaguru Pdt.Manas Rajrishi (वार्ता) 11:38, 29 मई 2019 (UTC) अध्याय .1 ध्यान की परिभाषा – “तत्र प्रत्ययैक तानता ध्यानं” || योगसूत्र-3/2 अर्थात – जहाँ चित्त को लगाया जाए उसी में वृत्ति का एकटक चलना ध्यान है | धारणा का अर्थ चित्त को एक जगह लाना या ठहराना है | लेकिन ध्यान का अर्थ है जहां भी चित्त ठहरा हुआ है उसमे वृत्ति का एकटक चलना ध्यान है | उसमे जाग्रत रहना ध्यान है |उत्तर दें

“भीतर से जाग जाना ध्यान है” – ओशो

“शरीर को प्रयोगशाला बनाकर ईश्वर को पाने के मार्ग का नाम ध्यान है ” - संत राजेन्द्र सिंह जी, संत कृपाल रूहानी मिशन

“ध्यान का अर्थ चंचलता का विरोध करना ,या चंचलता को कम करना |” - आचार्य महाप्रज्ञ



ध्यान के प्रकार – यहाँ ध्यान को मूलतः दो भागों में विभक्त किया गया है - 1. अन्तः ध्यान 2. बहिर्ध्यान अन्तः ध्यान – जिस ध्यान में शरीर के भीतर क्रिया, ऊर्जा, शब्द एवं दृश्य का ध्यान करतें हैं वह अन्तः ध्यान की श्रेणी में रखा गया है | बहिर्ध्यान - जिस ध्यान में शरीर के बाहर क्रिया, शब्द, ऊर्जा एवं दृश्य का ध्यान लगाया जाता है वह बहिर्ध्यान की श्रेणी में रखा गया है | यहाँ अन्तः और बाह्य की श्रेणी के मूल से ही दो प्रकार के ध्यान और अतिरिक्त हैं 3.अन्तःबहिर्ध्यान और 4.अनंत ध्यान घेरंड संहिता के अनुसार ध्यान तीन प्रकार के हैं 1. स्थूल ध्यान (बड़ा ध्यान) –किसी स्थान जैसे की वन, उपवन आदि | 2. ज्योतिर्मय ध्यान (नेत्र का ध्यान) - दोनों भौहों के बीच | 3. सूक्ष्म ध्यान (छोटा ध्यान) – उनके लिए जो योग की पराकाष्ठा तक पहुँच गये हैं |

भक्ति सागर के अनुसार ध्यान चार प्रकार के होते हैं – 1. पदस्थ ध्यान , 2.पिंडस्थ ध्यान, 3.रुपस्थ ध्यान, 4.रूपातीत ध्यान इसके अतिरिक्त भगवान् बुद्ध ने विपश्ना ध्यान की खोज की है |

अध्याय -2 ध्यान के मुख्य तत्व – विधिओं के अनुसार ध्यान में निम्नलिखित क्रियाओं के द्वारा ध्यान में जाया जाता है | 1.क्रिया तत्व – ध्यान में जब शरीर या शरीर के बाहर किसी क्रिया पर एकाग्रता की जाती है | 2.दृश्य तत्व – ध्यान में जब बाहर या भीतर साक्षात् अथवा असाक्षात दृश्य की एकाग्रता की जाती है | 3.शब्द तत्व - ध्यान में जब ध्वनि पर एकाग्रता की जाती है | 4.गंध तत्व - ध्यान में जब प्राकृतिक सुगंध में एकाग्रता की जाती है | 5.स्पर्श तत्व –ध्यान में जब स्पर्श में एकाग्रता की जाती है | 6.मिश्रित तत्व – ध्यान में जब क्रिया के साथ दृश्य, शब्द, स्पर्श और गंध सभी तत्वों पर चित्त एकाग्र हो जाता है |

अध्याय - 3 अन्तःध्यान

      अन्तः ध्यान अर्थात शरीर के भीतर का ध्यान | यदि सीधे ध्यान में जाने का अभ्यास नहीं है तो पहले थोडा इनमें से कोई भी क्रिया कर सकतें हैं | इन क्रियाओं से चित्त का स्थिर होना आसान हो जायेगा |

1. 10 मिनट लगातार तेज श्वसन-प्रश्वसन की क्रिया | जैसे भ्रष्त्रिका, कपालभाति, लयबद्ध श्वसन, अनुलोम-विलोम आदि | 2. शरीर के पूरे अंगों पर सात-सात बार चाटें मारना (अनुपयुक्त स्थान छोड़कर)

3. ध्यान से पहले स्नान लेना |

4. ठहाके मार कर हँसना | 5. भावयुक्त प्रार्थना करना | 6. योगासनों के बाद अन्तः ध्यान की मुख्य विधियां प्राणाकर्षण ध्यान – प्राणायाम की विधियों में प्राणाकर्षण का जिक्र आता है मूलतः यह प्राणाकर्षण प्राणायाम ही प्राणाकर्षण ध्यान है | इस ध्यान से प्राण शक्ति पर विशेष असर पड़ता है ,साथ ही शरीर में किसी रोग को जल्द निकालने या दर्द समाप्त करने के लिए प्राणाकर्षण ध्यान सर्वोत्तम है | विधि – सर्वप्रथम शवासन, सिद्धासन, सुखासन, वज्रासन या पद्मासन में बैठ जायें | नेत्रों को बंदकर श्वास पर ध्यान केन्द्रित करें | श्वास के प्रभाव को भीतर जहाँ तक अनुभव कर सकते हैं करें | जब श्वास का अनुभव पूरी तरह से होने लगे तब श्वास की क्रिया को पूरक, अन्तः कुम्भक, रेचक व् बाह्य कुम्भक के साथ करें | अर्थात धीरे-धीरे पूरी श्वास भीतर लें, फिर कुछ समय स्वास को भीतर रोककर रखें, फिर धीरे-धीरे स्वांस बाहर निकालें फिर कुछ समय बाहर रोककर रखें | आगे श्वास के रेचक पर चित्त एकाग्र करें | अर्थात श्वास के बहार निकलने पर मन स्थिर करें | लगभग 5 मिनट श्वास के बाहर निकलने के साथ मुख्य भाव बनाएं कि जब भी श्वास बाहर निकलती है तब भीतर की अशुद्धि बाहर निकलती है फिर एक के बाद एक भाव बनाएं कि भीतर का अहंकार श्वास के साथ बाहर निकल रहा, भीतर की नकारात्मकता श्वास के साथ बहार निकल रही, भीतर की अशक्ति श्वास के साथ बाहर निकल रही, भीतर का क्रोध श्वास के साथ बाहर निकल रहा , भीतर का आलस्य श्वास के साथ बाहर निकल रहा, भीतर का लोभ श्वास के साथ बाहर निकल रहा, भीतर का दुःख श्वास के साथ बाहर निकल रहा, भीतर का अज्ञान श्वास के साथ बाहर निकल रहा, भीतर का दुर्भाग्य श्वास के साथ बाहर निकल रहा, भीतर का दुःख श्वास के साथ बाहर निकल रहा और भीतर का रोग श्वास के साथ बाहर निकल रहा | 5 मिनट रेचक पर उपरोक्त ध्यान करने के बाद 5 मिनट पूरक अर्थात श्वास के भीतर जानें पर ध्यान केन्द्रित करें | पूरक में मुख्य भाव बनाएं कि जब भी श्वास भीतर प्रवेश कर रही है श्वास के साथ प्रकृति की उर्जायें, ब्रह्मांडीय उर्जायें और ईश्वरीय उर्जायें भीतर जा रही हैं | फिर एक के बाद एक पूरक के साथ भाव बनाएं – श्वास के भीतर जाने के साथ सूर्य की उर्जाएं भीतर जा रहीं हैं, श्वास के भीतर जाने के साथ सकारात्मकता भीतर प्रवेश कर रही, श्वास के भीतर जाने के साथ श्रद्धा भीतर प्रवेश कर रही, श्वास के भीतर जाने के साथ दयाभाव भीतर जा रहा, श्वास के भीतर जाने के साथ ज्ञान ऊर्जा भीतर जा रही, श्वास के भीतर जाने के साथ प्रेम ऊर्जा भीतर जा रही, श्वास के भीतर जाने के साथ निडरता भीतर जा रही है, श्वास के भीतर जाने के साथ सौभाग्यकारी ऊर्जा भीतर जा रही है | फिर सबसे बाद में श्वास के साथ आनंद और शान्ति को भीतर प्रवेश करता अनुभव करें | अंत में ध्यान के बाद प्राप्त सकारात्मक प्रभावों को अनुभव करें तत्पश्चात पैर एवं हाथ की अँगुलियों में थोडा हलचल कर सामान्य अवस्था में आ जायें | इस तरह 5 मिनट रेचक और 5 मिनट पूरक के ध्यान में कुम्भक ज्यादा देर लगाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि एकाग्रता का मूल तत्व पूरक एवं रेचक है | इस ध्यान के सिद्ध होने पर अन्तः कुम्भक और बाह्य कुम्भक पर ध्यान लगाया जा सकता है | भृकुटी ध्यान ( रुपस्थ ध्यान) – किसी भी यथायोग्य आसन में बैठकर दोनों भौहों में मध्य दृष्टि ज़माना भृकुटी ध्यान है, यह ध्यान पहली बार कर रहे हैं तो 3 मिनट करना बहुत है बाद में अभ्यास बढ़ाते जाने से काफी देर तक किया जा सकता है | लाभ - इस ध्यान से एकाग्रता शक्ति पर विशेष प्रभाव पड़ता है | भीतर का ज्ञान स्फुटित होता है | राजयोग की प्राप्ति होती हैं | अनेक संतों ने भृकुटी ध्यान को साधना के मुख्य विषयों में भी शामिल किया है | कुछ सामान्य विधियाँ – विशिष्ट महापुरुषों के अनुभवों तक पहुँचने की मेरी सामर्थ्य नहीं है कि इस ध्यान की सर्वोत्तम विधि बतला सकूँ | किन्तु सांसारिक पुरुषों हेतु सामान्य विधि का वर्णन कर रहा हूँ |

सर्वप्रथम नेत्रों को बंदकर किसी भी योग्य योग आसन में बैठ कर शरीर, मन को स्वतः शांत होने दे, तत्पश्चात दोनों भौहों के मध्य धीरे–धीरे दृष्टि एकाग्र  करने का प्रयास करें | दृष्टि एकाग्र हो जाने पर मध्य में दिखाई देने वाले दृश्य को समझें | सर्व प्रथम छोटे छोटे अग्निकण दिखाई देतें हैं | कई दिनों तक करने पर दीपक की लौ जैसी ज्योति दृश्यमान  होने लगती है | धीरे धीरे कुछ दिनों में सितारों की माला, बिजली चमकना, चाँद,सूरज,आकाश आदि दृष्टिगोचर होते हैं |

इस तरह सामान्य क्रिया को 3 से 5 मिनट नित्य करें | इस तरह अभ्यास आ जाने पर आगे चक्रबीजमंत्र ध्यान का वर्णन है उसमें आज्ञा चक्र की विधि को समझकर अलग से भी 10-15 मिनट कर सकतें हैं |


चक्र ध्यान किसी भी चक्र ध्यान से पहले यह विशेष कवच है इस कवच से ध्यान में जाना आसान हो जाता है |

कवच विधि - किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठकर पहले शरीर के बाहरी कवच अर्थात त्वचा पर चित्त को एकाग्र करतें हैं | त्वचा से स्पर्श एवं ताप का अनुभव होता है | त्वचा पर वायु स्पर्श एवं वातावरणीय ताप को अनुभव करें | पुनः भीतर के दूसरे कवच में जायें अर्थात मांसपेशियों को अनुभव करें , मांसपेशियों के बीच रक्तसंचार को अनुभव करें | फिर आगे अस्थिकवच पर ध्यान केन्द्रित करें | कुछ देर महसूस करें की आप सिर्फ एक अस्थिपंजर हैं फिर सारे अस्थिपंजरों से सिमटते हुए सिर्फ मेरुदंड पर ध्यान एकाग्र कर दें | पुनःमेरुदंड के भीतर जायें यहाँ सुसुम्ना नाड़ी के प्रवाह को सूक्ष्मता से अनुभव करें | आपको ऐसा प्रतीत होगा जैसे की मेरुदंड के मध्य एक गुफानुमा रास्ता है जिसमें भीतर की सबसे अधिक शक्तिशाली ऊर्जा का प्रवाह है | ध्यान की समाप्ति से पहले कवच से ठीक वापस उल्टा वैसे ही आना होता है | अर्थात सुसुम्ना से सकारात्मक उर्जाएं लेकर मेरुरज्जु तक आयें, फिर पूरे अस्थिपंजर से होते हुए मांसपेसियों से होकर त्वचा तक सकारात्मक अनुभव करते हुए सामान्य अवस्था में आयें |

इस ऊर्जा को अनुभव कर लेने के बाद चक्रों को अनुभव करना आसन हो जायेगा | इन्हीं चक्रों की सीध में शरीर के अग्र छोर पर चक्रों का आभास होगा | चक्रों का जुडाव मेरुदंड और सुसुम्ना से ऐसा है जैसे वृक्ष का जुडाव भूमि और पोषकतत्व से | 

चक्रानुभूति ध्यान - योग ग्रंथों में मुख्यतः 7 प्रकार के चक्रों का वर्णन है -1.मूलाधार 2.स्वाधिष्ठान 3.मणिपुर 4.अनहत 5.विशुद्धि 6.आज्ञा और 7.सहस्रार | इन सात चक्रों के स्थान को जानकर मूलाधार चक्र से प्रारंभ कर एक के बाद एक सारे चक्रों को अनुभव करना चक्रानुभूति ध्यान है | चक्रों के ध्यान की यह पहली विधि है | विधि – सर्वप्रथम मूलाधार चक्र से चक्रानुभूति करते हैं | अनुभूति न होने पर गुदामार्ग को हल्का ऊपर भी खींच सकतें हैं | अनुभूति होने पर एक चक्र पर लगभग 3 मिनट चित्त एकाग्र करें, फिर सामान्य अवस्था पर आकर वापस सुसुम्ना नाड़ी को अनुभव करें, फिर सुसुम्ना नाड़ी के मार्ग को समझ कर उसी मार्ग में ऊपर उठें, स्वाधिष्ठान अर्थात नाभि की सीध में पंहुचें फिर वहां चक्रानुभूति करें | लगभग 3 मिनट के पश्चात् वापस सुसुम्ना नाड़ी में आकर मार्ग से मणिपुर तक आकर चक्रानुभूति करें | इस प्रकार एक के बाद एक चक्रों को अनुभव करें | आज्ञा चक्र में भृकुटी ध्यान करें बाकि सभी चक्रों के ऊपर पूर्ववत अभ्यास करे | विशेष - .साधक व्यक्ति बगैर प्राथमिक क्रियाओं के सीधे भी चक्रानुभूति कर सकतें हैं | किन्तु प्राथमिक क्रियाओं को करने से चक्र ध्यान के साथ सुसुम्ना नाड़ी पर भी ध्यान हो जाता है | चक्रों के बारे में जगह-जगह से पढ़कर या सुनकर ध्यान करने से बेहतर है की चक्रों को अनुभव कर ध्यान किया जाए | चक्र घूर्णन ध्यान – सभी चक्र चित्र की भाति घूर्णन करतें हैं इस ध्यान में चक्रों के घूर्णन को महसूस कर उसमें लयबद्धता बढा घूर्णन में लयबद्ध प्रवाह देना चक्र घूर्णन ध्यान कहलाता है | विधि- किसी भी ध्यानात्मक ध्यान में बैठ जायें उपरोक्त ध्यान में प्राथमिक कवच को पूर्ण करें फिर सुसुम्णा नाड़ी की अनुभूति के द्वारा चक्रों को अनुभव कर उनमे होते हुए घूर्णन का अनुभव करें | सर्वप्रथम मूलाधार चक्र से प्रारंभ करें | मूलाधार चक्र पर चक्र के घूर्णन को अनुभव करें | न अनुभव होने पर पूरा ध्यान वहाँ पर साधें | कुछ देर में चक्र घूर्णन की अनुभूति होने लगेगी | चक्र की सही दिशा घडी की दिशा में होती है अतः साथ में जाँच करें की क्या वह घूर्णन सही दिशा में लयबद्ध है अथवा नहीं | जाँच पूर्ण होने पर चक्र घूर्णन पर और गहरा ध्यान केन्द्रित करें | चित्त को घूर्णन की परिधि के अन्दर स्थापित कर दें | चित्त को घूर्णन के साथ घुमाएं | प्रकृति के संगीतमय प्रवाह को सुने | संगीतमय प्रवाह के साथ चित्त को घूर्णन की गति में घुमाएं | एक चक्र पूर्ण होने पर एक के बाद एक चक्र पर लगभग 3 मिनट करें | अंत में वापस एक-एक चक्रों के लयबद्ध घूर्णन को महसूस करते हुए वापस एक-एक कवच से बहार आ जायें | चक्र बीजमंत्र – चक्रों की योग साधना में चक्रों की बीजमंत्र क्रिया सबसे महत्वपूर्ण है | योगसाधना की क्रियायें वेदमंत्रों से रहित होतीं हैं, किन्तु बीज मन्त्र वेदोंमन्त्रों की तरह आदिमंत्र ही है | जिस प्रकार अन्य मन्त्रों के जप के विशेष विधि-विधान होते हैं उसी प्रकार योगसाधना में चक्रों के बीजमंत्र को जपने के लिए इसकी विधि को समझना आवश्यक है | आज कल चक्रों के नाम पर ढोंगी लोगों ने बाज़ार बना लिया है | इस क्रिया के दो भाग हैं पहला भाग सप्तचक्र साधना दूसरा एकचक्र साधना | एक के बाद एक चक्र पर ध्यान करते हुए सातों चक्र पर बीजमन्त्र ध्यान करना | साधारण साधक पहले लगातार कई दिन सामान्य क्रिया ही करें | विधि- पहले किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठ जायें, पूर्वोक्त चक्र क्रिया के अनुसार नेत्रों को बंदकर ध्यान कवच पूर्ण करें | कवच के बाद जब सुसुम्णा नाड़ी तक चित्त एकाग्र हो जाये तब चित्त को मूलाधार पर ले जायें | प्राणवायु को चक्र के साथ जोड़े | पूरक करें, श्वास के प्रभाव को चक्र तक अनुभव करें | अनुभव करें कि चक्र तक श्वास पहुँच रही | पूरक के बाद कुम्भक को भी चक्र पर अनुभव करें | चक्र पर कुम्भक के समय “चार पंखुड़ियों वाले लाल कमल” की कल्पना करें | जब तक कुम्भक रहे तब तक बीज मन्त्र “लं” को मानसिक शब्दों से चक्र पर बार-बार उच्चारित करें ,फिर धीमी गति से रेचक कर पुनः पूरक कर बीजमंत्र क्रिया कुम्भक में दोहराएँ | मूलाधार चक्र पर यह क्रिया कम से कम 3 मिनट तक करें, तत्पश्चात सुसुम्णा नाडी के मार्ग से ऊपर उठकर स्वाधिष्ठान चक्र पर आयें, चक्र का अनुभव होने के बाद प्राणवायु को चक्र से जोड़े | स्वाधिष्ठान पर पूरक को चक्र तक अनुभव करते हुए कुम्भक लगायें | कुम्भक के साथ “उगते हुए सूर्य” के दृश्य की कल्पना करें | कुम्भक की अवधि तक बीजमंत्र “वं” शब्द से स्वाधिष्ठान पर मानसिक जप करें | फिर रेचक कर पुनः कुम्भक कर क्रिया अनवरत करतें रहे | इस प्रकार स्वाधिष्ठान पर 3 मिनट जप करें | स्वादिस्ठान पर जप पूर्ण हो जाने के पश्चात् सुसुम्णा नाड़ी के मार्ग से मणिपुर चक्र तक पहुचें | मणिपुर को अनुभव कर प्राणवायु से जोड़े | इस चक्र में “रेगिस्तान” की कल्पना करें और “रं” मन्त्र का जप 3 मिनट करें | तत्पश्चात अनहत चक्र पर पहुँचकर “हरे भरे वन” की कल्पना करें बीजमंत्र “यं” का जप 3 मिनट करें | तत्पश्चात विशुद्धि पर पहुँचकर चक्र पर “नीले आसमान” की कल्पना करते हुए बीजमंत्र “हं” का जप 3 मिनट करें | फिर उसी तरह सुसुम्णा के मार्ग से दोनो भौहो के कुछ ऊपर आज्ञाचक्र तक पहुचें | प्राणवायु को आज्ञाचक्र पर जोड़ें | पूरक के बाद कुम्भक करें | कुम्भक के समय कल्पना रहित हो कर आज्ञा चक्र पर स्वतः दिखने वाले दृश्य को देखें | कुम्भक के दौरान चक्र पर बीजमंत्र “ओम” का मानसिक जप 3 मिनट करें | आज्ञा चक्र के बाद सहस्रार चक्र पर जायें | सहस्रार को अनुभव करना थोडा कठिन है किन्तु यदि इसका अनुभव हो जाये तो काफी देर तक इसकी अनुभूति होती रहती है | इसका बीजमंत्र “सोऽहं’’ है | सहस्रार चक्र पर प्राणवायु बिना कुम्भक किये हुए जोडें | पूरक के समय अनुभव करें कि सहस्रार के रास्ते ईश्वरीय ऊर्जा भीतर जा रही है | स्वांस के भीतर जाते समय आधे बीजमंत्र “सो” का मानसिक जप करें | रेचक के समय अनुभव करें की भीतर का अहंकार श्वास के साथ बाहर निकल रहा है एवं रेचक के साथ बाकी आधे बीजमंत्र “हं” का मानसिक जप करें | इस प्रकार सहस्रार तक बीजमंत्र क्रिया पूर्ण होने पर धीरे–धीरे “कवच” से बाहर आ जायें | पिंडस्थ ध्यान – विधि- उपरोक्त ध्यान की विधि से सहस्रार तक पंहुचकर जब साधक स्वतः ब्रह्मरंध्र में लीन हो जाये | वापस आने की स्थिति के बाद सहस्रार से नीचे वापिस एक-एक चक्र से होते हुए मूलाधार वापस आतें हैं | यह मूलाधार चक्र से सहस्रार तक और फिर वापस सहस्रार से मूलाधार तक आने की क्रिया पिंडस्थ ध्यान है |


भावातीत ध्यान – स्वयं के भीतर दो प्रकार के विचार होतें हैं, एक भोग विषयक विचार, दूसरा भाव विषयक विचार | सामान्य व्यक्तियों में भोग विषयक विचार ऐच्छिक (स्वयं से निर्मित और नियंत्रित) होता है और असामान्य अवस्था में विचार अनैच्छिक (स्वचालित) होता है | जब कोई ऐसी प्रतिकूल घटना घट जाये जिसमें भोग विषयक विचार बंद होकर घटना के प्रति दुःख, चिंता, क्रोध, अपमान जैसे नकारात्मक विचार आये तब भाव विषयक अनैच्छिक विचार समझना चाहिए | सामान्य व्यक्ति का भाव विषयक विचार अक्सर नकारात्मक स्थितियों के प्रति चलता है | सकारात्मक स्थिति में पुनः भोगविषयक ऐच्छिक विचार गतिशील हो जाते हैं | इस ध्यान के माध्यम से सकारात्मक स्थिति में भाव विषयक विचार को अनैच्छिक से ऐच्छिक विचार में परिवर्तित किया जाता है | यह ध्यान भी प्राणाकर्षण ध्यान की तरह शुद्धि क्रिया और ऊर्जा जागरण की तरह लगता है किन्तु यह अलग-अलग भाव के साथ विस्तृत किया गया है | ऐसा भी कह सकतें हैं कि यह ध्यान प्राणाकर्षण ध्यान का ही विशिष्ट स्वरूप है | विधि – किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठकर अथवा शवासन में लेटकर | नेत्रों को बंद करें प्राणवायु पर चित्त को केन्द्रित करें | पहले लगभग 15 मिनट रेचक पर ध्यान केन्द्रित कर निम्नलिखित भावों के द्वारा भाव शुद्धि करें | रेचक के द्वारा भावों की अशुद्धि को निकालें | सर्वप्रथम अहंकार को बाहर निकालें फिर काम, क्रोध, लोभ ,नकारात्मकता ,दुःख, अज्ञानता, शत्रुता, द्वेष, असावधानी, दुर्भाग्य, हानि, आलस्य इस प्रकार एक-एक करके सभी भावों की अशुद्धियाँ जब निकल जाएँ तब आगे पूरक पर ध्यान केद्रित कर भाव ऊर्जा जागरण करें | पूरक करते रहने के साथ ध्यान केन्द्रित करें की ब्रम्हांड से ईश्वरीय ऊर्जाएं श्वास के साथ भीतर जा रही, जो निम्नलिखित भावों की शक्ति दे रही है -सर्वप्रथम पूरक के साथ 15 मिनट स्वास्थ्यकारक ऊर्जाओं को भीतर जाता अनुभव करें, फिर सकारात्मक ऊर्जा को भीतर जाता अनुभव करें, इस तरह एक के बाद एक संबंधकारक ऊर्जा, सुख कारक ऊर्जा, ज्ञानकारक ऊर्जा, मित्रभाव ऊर्जा, प्रेमऊर्जा , रक्षाकारक ऊर्जा , सौभाग्यकारी ऊर्जा, कर्म ऊर्जा और अंत में लाभ कारक उर्जाओं को भीतर लें | इस क्रिया के बाद सहज भाव में भीतर सकारात्मकता, सुख, आनंद, प्रेम, आदि को अनुभव कर वापस श्वास पर ध्यान देते हुए सामान्य अवस्था में ध्यान से बाहर आ जायें | लाभ – इस ध्यान से भाव शक्ति जागरण होता है | भाव शक्ति जागरण प्राणशक्ति को समृद्ध करता है | अस्वस्थ लोग, नकारात्मक लोग, अवसाद के रोगी, विद्यार्थी, दाम्पत्य समस्यायों से ग्रसित, दुर्भाग्यशाली व्यक्तियों के लिए यह ध्यान विशेष लाभकारी है | सुसुम्णा नाद ध्यान – इस ब्रम्हांड में एक नाद सदैव गुंजायमान है | इस नाद का श्रवण सुसुम्णा के द्वारा किया जा सकता है | सुसुम्णा नाड़ी की ध्वनि को कुछ योगी नादयोग की ध्वनि या ओंकार की ध्वनि भी मानते हैं | विधि- इस ध्यान से पहले साधक को ऐसा एकांत खोजना होगा जहाँ बाहर या भीतर किसी प्रकार की अन्य ध्वनि न सुनाई पड़े और अन्धकार भी हो | आप प्रकाश की सुविधा हेतु एक दीपक साथ में जला सकते हैं | एकदम सन्नाटा हो | उचित स्थान का चुनाव कर ध्यान के पूर्व अनुकूल होकर किसी भी ध्यानात्मक आसन या शवासन में जाकर मस्तिष्क के भीतर चित्त को केन्द्रित करें | पूर्णता से चित्त केन्द्रित हो जाने पर कुछ क्षण उपरांत ज्ञान क्षेत्र से एक नाद सुनाई पड़ता है | यह नाद लगभग “झींगुरों की आवाज” से मिलती जुलती ध्वनि का हो सकता है अथवा कोई अन्य ध्वनि भी आपको सुनाई पड़ सकती है | इस ध्वनि को लगभग 20 मिनट तक तन्मयता के साथ श्रवण करें | तदुपरांत सामान्य अवस्था में आ जायें | लाभ - इस ध्यान से छठी इन्द्रिय जागृत होती है , आत्मबल का विकास होता है | कुण्डलिनी साधनाओं में सहायक है |

सुवास ध्यान – सुवास का अर्थ है सुगंध | इस ध्यान के द्वारा प्राकृतिक सुगंध श्वास के माध्यम से भीतर पंहुचाते हैं | विधि – कमल ,चंपा, मोगरा, केवड़ा जैसे किसी एक प्रकार के सुगन्धित पुष्प को ही रखें | यदि कमल ,केवड़ा जैसे विशाल पुष्पों का चुनाव किया है तो 7 नंग की मात्र अन्यथा छोटे आकर के लगभग 35 पुष्पों को रख लें | उचित स्थान पर पुष्पों को साथ में रखकर किसी भी ध्यानात्मक आसन में बैठ जायें | कुछ देर श्वास पर चित्त को स्थिर करें | अब यदि बड़े पुष्प आपके पास हैं तो एक पुष्प उठाएं अन्यथा छोटे 5 पुष्पों को बायें हाथ से निकालकर दाहिने हाथ में रखें | अब दाहिने हाथ में पुष्प लिए नासिका तक लायें | पुनः धीरे–धीरे पुष्पों की सुगंध को धीमी गति के पूरक के साथ भीतर जाने दें | कुछ क्षण कुम्भक करें | भाव करें कि सुगंध भीतर फ़ैल रही है | फिर धीरे से रेचक करें | इस प्रकार लगभग 30 मिनट इस क्रिया को कर सामान्य अवस्था में आ जायें | लाभ – प्रसन्नता बढ़ती है, गंभीर रोगों पर अत्यधिक असरकारक है आनंदमार्ग ध्यान – आनंद की प्राप्ति के बिना कोई भी योगी परमतत्व को नहीं प्राप्त कर सकता | इस ध्यान से आनंद ऊर्जा ब्रम्हाण्ड से प्रवाहित होकर सूक्ष्म मार्ग से शरीर में प्रवेश कर प्रवाहित हो जाती है |

विधि- सर्वप्रथम शवासन में लेट जायें , अस्थिसंस्थान तक चित्त केन्द्रित करें | फिर कल्पना करें कि ब्रह्माण्ड की तरफ से श्वेत प्रकाश से युक्त कोई ऊर्जा बादलों की तरह आपकी तरफ आ रही है | उस ऊर्जा के श्रोत से ऊर्जा किरणें आपके पैरों की तरफ जाकर नाखूनों के द्वार से भीतर प्रवेश कर रहीं हैं | इस ऊर्जा की चाल को आप चींटी की तरह धीरे धीरे चलता हुआ भीतर अनुभव करिये | अनुभव करें धीरे-धीरे यह ऊर्जा पैर के नाखूनों से होकर भीतर टखनों से होते हुए घुटनों के रास्ते जांघों से होते हुए मेरुदंड को पार करते हुए हांथों में और सर तक धीरे-धीरे फ़ैल कर सम्पूर्ण शरीर में पहुँच जाती हैं | अंत में भीतर ऊर्जाओं की सकारात्मकता को अनुभव करते हुए पैरों पर ब्रम्हांड के ऊर्जा प्रवाह से कटकर सामान्य अवस्था में आ जायें | लाभ- आनंदमार्ग ध्यान भीतर की सूक्ष्म ऊर्जाओं को जगाता है | सकारात्मक बनाता है |

शवासन – शवासन को ध्यान की श्रेणी में न रखना शवासन का अपमान होगा | यह सामान्यतः योगक्रियाओं के पहले या बाद किया जाता है | विधि – शवासन में लेटकर नेत्रों को बंद करें | श्वास को फेफड़ों तक अनुभव करें | फिर फेफड़ों से आगे बढ़ पूरे शरीर को महसूस करें | शरीर के भीतर रुके हुए नकारात्मक पक्षों को अनुभव करें | पूरे शरीर में चेतना का विस्तार करें | कुछ समय बाद पैर की अँगुलियों से चेतना को धीरे-धीरे समेटें अर्थात आपके पैरों की अंगुलियाँ शून्य हो रही महसूस करें | आगे धीरे –धीरे शुन्यता शरीर के मध्य भाग तक आगे बढ़ रही है | धीरे-धीरे टखने शून्य होंगे फिर आगे बढ़ते हुए घुटने तक, आगे जंघाएँ शून्य होती हुए जननांगों के रास्ते आँतों और नाभि चक्र को पार करके छाती को शून्य करती है | शुन्यता आगे कन्धों से होकर कोहनी से होते हुए हाथ की अँगुलियों तक पहुँच जाती है | फिर शुन्यता गर्दन से होते हुए चेहरे को शून्य करती हुए फिर शुन्यता आगे बढ़कर पूरे सिर को शून्य कर देती है | सारा शरीर शून्य हो जाता है | बचा रहता है सिर्फ चित्त | शरीर और इन्द्रिय से रहित चित्त | चित्त का बाहर निकल मृत पड़े शरीर को देखना | चित्त को बाहर ईश्वरीय ऊर्जाएं प्राप्त होती है | वापस चित्त का शक्तिशाली होकर शरीर में प्रवेश | चित्त अन्दर प्रवेश कर सर से पैर तक शरीर को चेतनावान बनाएगा | चेतना ज्ञानकोष से प्रारंभ हुई | चेतना धीरे –धीरे आगे बढ़ते हुए नेत्रों और कान को चेतनावान करते हुए मुंह को सक्रिय कर गले के रास्ते छातीपर पहुँचकर कुछ क्षण चेतना वहाँ विस्तृत होकर पहले कन्धों और कोहनियों से होते हुए अँगुलियों को चेतनावान करती है | फिर आगे चेतना छाती से आगे बढ़कर आँतों और नाभि के रास्ते जननांगों से होते हुए जाँघों को पार कर घुटनों को चेतनावान और सक्रिय बनाती है | घुटनों से आगे चेतना बढती हुई टखनों को सक्रिय करते हुए पैर के पंजे और अँगुलियों को पूर्ण चेतनावान बनाती है | अंत में पूरे शरीर को पूर्ण सक्रिय,चेतनावान और उत्साहित महसूस करते हुए सामान्य अवस्था में आ जायें | लाभ- यह ध्यान भीतर की थकावट जो समाप्त करने में सहयोगी है | उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, अवसाद, अनिद्रा जैसे रोगों का शामक है | शवासन की अवधि निद्रा की चार गुनी अवधि के बराबर है | अर्थात पूर्ण ध्यान से किया गया 30 मिनट का शवासन 2 घंटे की नींद के बराबर लाभकारक है | यदि आप नींद की अवधि कम करना चाहतें हैं तो नित्य शवासन करें | पदस्थ ध्यान – अपने हृदय में अपने इष्टदेव का पैर के नाख़ून से शिखा तक की छवि का ध्यान करके उनके चरणों में ध्यान लगाना पदस्थ ध्यान है | विपश्यना ध्यान - विपश्यना आत्मनिरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की अत्यंत पुरातन साधना-विधि है। जो जैसा है, उसे ठीक वैसा ही देखना-समझना विपश्यना है। लगभग 2500 वर्ष पूर्व भगवान गौतम बुद्ध ने विलुप्त हुई इस पद्धति का पुन: अनुसंधान कर इसे सार्वजनिक रोग के सार्वजनिक इलाज, जीवन जीने की कला, के रूप में सर्वसुलभ बनाया। इस सार्वजनिक साधना-विधि का उद्देश्य विकारों का संपूर्ण निर्मूलन एवं परमविमुक्ति की अवस्था को प्राप्त करना है। इस साधना का उद्देश्य केवल शारीरिक रोगों को नहीं बल्कि मानव मात्र के सभी दुखों को दूर करना है। विपश्यना आत्म-निरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना है। अपने ही शरीर और चित्तधारा पर पल-पल होनेवाली परिवर्तनशील घटनाओं को तटस्थभाव से निरीक्षण करते हुए चित्तविशोधन का अभ्यास हमें सुख-शांति का जीवन जीने में मदद करता है। हम अपने भीतर शांति और सामंजस्य का अनुभव कर सकते हैं। हमारे विचार, विकार, भावनाएं, संवेदनाएं जिन वैज्ञानिक नियमों के अनुसार चलते हैं, वे स्पष्ट होते हैं। अपने प्रत्यक्ष अनुभव से हम जानते हैं कि कैसे विकार बनते हैं, कैसे बंधन बंधते हैं और कैसे इनसे छुटकारा पाया जा सकता है। हम सजग, सचेत, संयमित एवं शांतिपूर्ण बनते हैं। इस ध्यान के तीन सोपान होते हैं। पहला सोपान—साधक पांच शील पालन करने का व्रत लेते हैं, अर्थात् जीव-हिंसा, चोरी, झूठ बोलना, अब्रह्मचर्य तथा नशे-पत्ती के सेवन से विरत रहना। इन शीलों का पालन करने से मन इतना शांत हो जाता है कि आगे का काम करना सरल हो जाता है। अगला सोपान— नासिका से आते-जाते हुए अपने नैसर्गिक श्वास पर ध्यान केंद्रित कर “आनापान” नाम की साधना का अभ्यास करना। चौथे दिन तक मन कुछ शांत होता है, एकाग्र होता है एवं विपश्यना के अभ्यास के लायक होता है—अपनी काया के भीतर संवेदनाओं के प्रति सजग रहना, उनके सही स्वभाव को समझना एवं उनके प्रति समता रखना। शिविरार्थी दसवे दिन मंगल-मैत्री का अभ्यास सीखते हैं एवं शिविर-काल में अर्जित पुण्य का भागीदार सभी प्राणियों को बनाया जाता है | यह साधना मन का व्यायाम है । जैसे शारीरिक व्यायाम से शरीर को स्वस्थ बनाया जाता है वैसे ही विपश्यना से मन को स्वस्थ बनाया जा सकता है। निरंतर अभ्यास से ही अच्छे परिणाम आते हैं। सारी समस्याओं का समाधान दस दिन में ही हो जायेगा ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। दस दिन में साधना की रूपरेखा समझ में आती है जिससे की विपश्यना जीवन में उतारने का काम शुरू हो सके। जितना जितना अभ्यास बढ़ेगा, उतना उतना दुखों से छुटकारा मिलता चला जाएगा और उतना उतना साधक परममुक्ति के अंतिम लक्ष्य के करीब चलता जायेगा। दस दिन में ही ऐसे अच्छे परिणाम जरूर आयेंगे जिससे जीवन में प्रत्यक्ष लाभ मिलना शुरू हो जायेगा। यदि योगी द्वारा गंभीरता से विपश्यना को अजमाया जाता है तों उसे जीवन में सुख-शांति पाने के लिए एक प्रभावशाली तकनिक प्राप्त हो जाती है | अध्याय - 3 बहिर्ध्यान जब साधक स्वयं के शरीर से बाहर चित्त को एकाग्र करता है उसे बहिर्ध्यान की श्रेणी में रखा गया है | बहिर्ध्यान की तमाम विधियां हैं जिसमें कुछ निम्नलिखित हैं |

प्रकृति श्रवण- यदि समाज में रहकर समाज के बीच कुछ करना चाहते हैं तो यह ध्यान अवश्य करें साथ ही अवसाद में अथवा अन्तःमुखी व्यक्तियों को इस ध्यान से पूरा लाभ प्राप्त होता है | विधि – प्रकृति के बीच अनुकूल आसन में बैठकर नेत्रों को बंदकर प्रकृति द्वारा उत्पन्न आवाज जैसे चिड़ियों, हवाओं, पेड़ों की आवाज व् अन्य जीवों की आवाजों को सुनना | इस ध्यान में समय न बाँधें, जब-तक आनंद मिले करते रहे | प्रकृति दर्शन – अक्सर मनुष्य भौतिक माया के जाल में फंसकर प्रकृति से बहुत दूर हो जाता है | यह ध्यान प्रकृति से एक रिश्ता प्रदान करता है साथ ही चिंताओं से मुक्त कर देता है | विधि- एकदम प्राकृतिक स्थान दूर-दूर तक भौतिकता का नामोनिशान न हो ऐसी जगह अकेले जायें | प्रकृति के बीच स्वयं को अकेला न महसूस करें | खुली आँखों से प्रकृति में दिखने वाले हर एक पदार्थ से व्यवहार बनाएं | पेड़-पौधों, फूलों , जीव-जंतुओं ,जल ,जमीन, पत्थर सब के साथ घुल मिल जायें | इस ध्यान में भी समय –अवधि का कोई अनुबंध नहीं है | जब-तक स्वतः आनंद से कर सकें, करतें रहे | आध्यात्मिक भ्रमण – यह ध्यान आनंद और ऊर्जा से करने वाले को तरोताजा कर देता है इसकी कुछ विशेष विधियाँ हैं – विधि 1- अनुकूलित आसन में बैठकर या शवासन में लेटकर नेत्रों को बंदकर अपने घर के आस-पास कल्पनाशील यात्रा करें | घर के आस-पास के सामाजिक या प्राकृतिक क्षेत्रों में जायें | ध्यान में सामाजिक व्यवहार करें | ध्यान में अपने आप को महापुरुष महसूस करें | लोगो में आप इमानदारी से व्यहार कर रहे हैं | आप काम, क्रोध, मद, लोभ दंभ से रहित हैं | अपने चेहरे को प्रसन्नचित्त महसूस करें | स्वयं को बुद्ध ,यीशु. कृष्ण समझकर भी समाज में घुलमिल सकतें हैं | बाद में ध्यान वाले स्थान पर पंहुचकर सामान्य अवस्था में आये | विधि 2- अनुकूलित आसन में बैठकर नेत्रों को बंदकर स्वयं की प्राणमय चेतना को महसूस करें, महसूस करें की आप सूक्ष्म रूप से हवा में उठ गयें हैं | धीरे-धीरे ऊपर उठते हुए आप अन्तरिक्ष में भ्रमण कर रहे हैं | स्वयं को ब्रह्माण्ड का केंद्र मानें | महसूस करें कि पहले आप ब्रह्माण्ड के चारों तरफ से दिव्य उर्जाओं को आकर्षित कर रहे हैं | उर्जाओं को कुछ समय आकर्षित करने के बाद आप जीवमंडल को ऊर्जा प्रदान कर रहे हैं | कुछ समय बाद धीरे धीरे सहज भाव में आ जायें | चित्ति वृत्ति निरोध ध्यान – यह ध्यान मन को कुछ ही क्षण में स्थिर और शांत करने के लिए कारगर है | विधि – शवासन में लेटकर स्वयं को समुद्र के किनारे जल के ऊपर लेटा महसूस करें | नीचे के आधे शरीर पर गीले पानी का आभास हो और ऊपर का आधा शरीर आकाश की तरफ खुला हो | आपका को भाग जल में है आप उस भाग पर जल की लहरों को महसूस कीजिये | लहरों को तेज़ उथल-पुथल करता महसूस कीजिये | धीरे–धीरे लहरों को शांत होता महसूस कीजिये | धीरे –धीरे लहरों को शांत होने के साथ-साथ मन को शांत होता महसूस कीजिये | कुछ देर में लहरें एकदम स्थिर हो जाएँगी, जिसके साथ मन को भी एकदम शांत और स्थिर महसूस किया जा सकेगा | कुछ देर शांत चित्त का अनुभव करने के साथ सहज स्थिति में आ जायें | मरणानुभूति ध्यान- मृत्यु के प्रति ज्यादा भय रखने वाले के लिए यह ध्यान अनुकूल है | पूज्य गुरुदेव का कहना था कि इस ध्यान के अभ्यास से साधक वास्तविक म्रत्यु के समय अभ्यास से मोक्ष को प्राप्त हो सकता है | विधि- अनुकूल आसन या शवासन में जाकर नेत्रों को बंदकर स्वयं को मृत्यु की अंतिम स्थिति में अनुभव करिये | प्राण के शरीर से निकलते समय की पीड़ा का अनुभव करिये और प्राण को शरीर से अलग होने को महसूस करिये | तत्पश्चात कुछ क्षण शांत रहे फिर सहज भाव में आ जायें | नरकानुभूति ध्यान – यह ध्यान कोई साधारण ध्यान नहीं बल्कि एक रहस्य है | इस ध्यान के बारे में सुना था कि इसके माध्यम से पूर्वजन्मों के कुकृत्यों के भोग को भोग कर समाप्त किया जा सकता है | पूर्वजन्म में यदि किसीसे कोई भीषण पापकर्म हुआ है तो उसका फ़ल भी उसी तरह भोगना पड़ेगा जैसे राम ने छुप कर बाली को मारा था तो बाली ने अगले जन्म में बहलिया बनकर राम को कृष्ण रूप में तीर मारा | विधि- शवासन में लेटकर अथवा ध्यानात्मक आसन में बैठकर नेत्रों को बंदकर पहले ऊपर दिए गए ध्यान मरणानुभूति को करें फिर स्वयं की आत्मा को यमदूतों द्वारा लेकर जाता अनुभव करें | नरक के भयानक द्वार की परिकल्पना करें | द्वार में प्रवेश करें | भीतर यातनाओं के तमाम दृश्य को देखें | कहीं तेल के गर्म कड़ाहों में लोगों को डाला जा रहा तो कहीं कोड़ो से मारा जा रहा, कहीं सर्पों के कुवे में डाला रहा तो कहीं तेल डालकर जलाया जा रहा, कहीं पक्षियों और जानवरों द्वारा नोचा जा रहा तो कहीं जिन्दा चमड़ी निकाली जा रही | आपको तैयार होना होगा इन यातनाओं को झेलने के लिए | पहले आपको सशरीर किया गया फिर आपको यमदूत पकड़ कर तेल के उबलते कडाहे में डालतें हैं | उबलते कडाहे में उबलने की पीड़ा को महसूस करिये फिर स्वयं को उसी कडाहे में जलकर मृत्यु प्राप्त करता हुआ महसूस करिये | पुनः आपको नया शरीर दिया गया अगली यातना झेलने के लिए तैयार रहिये | आपको कटीले कोड़ों से पीटा जा रहा है | कोड़ों की चोट और पीड़ा को महसूस करिये | यमदूत ने कोड़ों से मार-मार कर आपको मार डाला, पुनः मृत्यु को महसूस करिये | इसी प्रकार एक के बाद एक अलग-अलग तरह की यातनाओं को पुनः फिर से मृत्यु को महसूस करिये | फिर कुछ देर सहज शान्ति और आनंद का अनुभव करते हुए शरीर भाव में वापस आ जाइये | परमात्मानुभूति ध्यान- इस ध्यान से परमात्मा की साक्षात् वास्तविक अनुभूति होती है ,योगमार्ग किसी विशेष वस्तु में ही परमात्मा का स्वरूप नहीं मानता बल्कि सम्पूर्ण जगत को परमात्मस्वरूप मानता है | विधि - प्रकृति की गोद में एकांत में खड़े होकर प्रकृति से अनंत तक कण-कण में परमात्मा को महसूस करें | आपको परमात्मा सदैव देख रहा है यह विश्वास करते हुए अनुभव भी करें, साथ ही परमात्मा का दर्शन आप भी महसूस करें |


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 लेखक - मानस राजऋषि

जन्म – १ अगस्त १९८३ प्रतापगढ़ ,उत्तर-प्रदेश अध्यन – प्राकृतिक चिकित्सा, योग, ज्योतिष विज्ञान, आयुर्वेद, एस्ट्रोयोग टेक्निक, राज नीति शाश्त्र,पंचगव्य चिकित्सा,राजनीति शास्त्र, सचिव कृषि रुचि - प्राकृतिक भ्रमण, लेखन, चित्रकारी, शतरंज, अध्ययन एवं अध्यापन, योग साधना दीक्षित – सत्य साईं संप्रदाय, गायत्री परिवार,आनंद मार्ग, औघड़नाथ मार्ग एवं पारंपरिक महर्षि पतंजलि योग मार्ग वर्तमान विवरण - गांधी आश्रम के सामने गांधी जी द्वारा बताई गई पंडित की चाली नामक बस्ती में गांधी जी द्वारा निर्मित एक भवन प्रा-योग मंदिर नामक केंद्र में संचालक एवं प्राकृतिक चिकित्सा, योग साधना एवं अध्यापन में संलग्न । जीवन का मुख्य उदेश्य - भविष्य में तेजी से नजदीक आती हुई महाआपदा एवं आपातकालीन परिस्थितियों के लिए नवयुग निर्माण हेतु नई पीढ़ी को तैयार करना । सम्पर्क - प्रा-योग ट्रस्ट (कुदरती उपचार केंद्र), गांधी आश्रम के सामने, होटल तोरण के पीछे, आश्रम रोड, अहमदाबाद - ३८००२७ फोन – 079 8426 1748, 97 1473 3653

पुस्तक सम्पादन हेतु मुख्य सहयोग - योगगुरु श्री अंकित कारीआ , अहमदाबाद