सन्ध्यावन्दनम् या संध्यावंदन या सन्ध्योपासनम् (सन्ध्योपासन) उपनयन संस्कार द्वारा धार्मिक अनुष्ठान के लिए संस्कारित हिन्दू धर्म में गुरू द्वारा उसके निष्पादन हेतु दिए गए निदेशानुसार की जाने वाली महत्वपूर्ण नित्य क्रिया है। सन्ध्यावन्दन में वेदों से उद्धरण शामिल हैं जिनका दिन में तीन बार पाठ किया जाता है। एक सूर्योदय के दौरान जब रात्रि से दिन निकलता है, अगला दोपहर के दौरान जब आरोही सूर्य से अवरोही सूर्य में सङ्क्रमण होता है और सूर्यास्त के दौरान जब दिन के बाद रात आती है।

वैदिक पाठशाला में सन्ध्यावन्दन करते बालक। कुम्भकोणम, जिला तञ्जावुर, तमिऴनाडु

प्रत्येक समय इसे एक अलग नाम से जाना जाता है - प्रातःकाल में 'प्रातःसन्ध्या', दोपहर में मध्याह्निक और सायङ्काल में सायंसन्ध्या। शिवप्रसाद भट्टाचार्य इसे “हिन्दुओं की पूजन पद्धति सम्बन्धी संहिता” के रूप में परिभाषित करते हैं।[1]

यह शब्द संस्कृत का एक संयुक्त शब्द है जिसमें सन्ध्या, का अर्थ है “मिलन”। जिसका दिन और रात की सन्धि या मिलन किंवा सङ्गम से आशय है[2] और वन्दन का अर्थ पूजन से होता है।[3][4] प्रातःकाल और सायङ्काल के अलावा, दोपहर को दिन का तीसरा सङ्गम माना जाता है। इसलिए उन सभी समयों में दैनिक ध्यान और प्रार्थना की जाती है।

स्वयं शब्द सन्ध्या का उपयोग दैनिक अनुष्ठान के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है जिसका आशय दिन के आरंभ और अस्त के समय इन अर्चनाओं का किया जाना है।[5][6]

वेदों की ऋचाओं तथा श्लोकों के आधार पर आवाहन आदि करके गायत्री मन्त्र का २८, ३२, ५४ या १०८ बार जाप करना सन्ध्योपासन का अभिन्न अङ्ग है। यह सन्ध्यावन्दन कर रहे व्यक्ति पर निर्भर करता है। वह किसी भी सङ्ख्या में मन्त्र का जाप कर सकता है। "यथाशक्ति गायत्रीमन्त्रजपमहं करिष्ये।" ऐसा सन्ध्यावन्दन के सङ्कल्प में जोड़कर वह यथाशक्ति मंत्र का जाप कर सकता है।[7] मन्त्र के अलावा सन्ध्या अनुष्ठान में विचारों को भटकने से रोकने तथा ध्यान को केन्द्रित करने के लिए कुछ अन्य शुद्धिकारक तथा प्रारम्भिक अनुष्ठान हैं। इनमें से कुछ में ग्रहों और हिन्दू पञ्चाङ्ग के महीनों के देवताओं को सन्ध्यावन्दन न कर पाने तथा पिछली सन्ध्या के बाद से किए गए पापों के प्रायश्चित स्वरूप में जल अर्पित किया जाता है। इसके अतिरिक्त एक संध्यावंदन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अनुष्ठानों में प्रातः सूर्य की तथा सायं वरुण की मित्रदेव के रूप में पूजा की जाती है।

इसके अलावा, ब्रह्मचारियों के लिए सन्ध्यवन्दन की समाप्ति पर हवन करना और समिधादान करना आवश्यक होता है।

पूजा के अन्य पहलुओं में जो कि मुख्यतः सन्ध्यावन्दना में शामिल नहीं है, जिनमें ध्यान मन्त्रों का उच्चारण (संस्कृतः जप) तथा आराधक द्वारा देवी-देवताओं की पूजा शामिल है।[8] ध्यान-योग से सम्बन्ध के बारे में मोनियर-विलियम्स लिखते हैं कि यदि इसे ध्यान की क्रिया माना जाए तो सन्ध्या शब्द की उत्पत्ति का संबंध सन-ध्याई के साथ हो सकता है।[9]

सन्ध्याकर्म का हिन्दू धर्म में विशेष स्थान है क्योंकि इससे मानसिक शुद्धि होती है। वैज्ञानिक दृष्टि से प्राणायाम जो सन्ध्या का अभिन्न अङ्ग है, इससे कई रोग समाप्त हो जाते हैं। इस समस्त संसार में जो द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) अपने कर्म (स्वकर्म[10]) से भटक गए हैं, उनके हेतु सन्ध्या की आवश्यकता है। सन्ध्या करने वाले पापरहित हो जाते हैं।[11] सन्ध्योपासन से अज्ञानवश किये गए पाप समाप्त हो जाते हैं।[12] सन्ध्या को ब्राह्मण का मूल कहा गया है। अगर मूल नहीं तो शाखा आदि सब समाप्त हो जाता है। अतः सन्ध्या महत्वपूर्ण है।

विप्रोवृक्षोमूलकान्यत्रसन्ध्यावेदाः शाखा धर्मकर्माणिपत्रम्।

तस्मान्मूलं यत्नतोरक्षणीयं छिन्नेमूलेनैववृक्षो न शाखा।।[13]

जो ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्यादि सन्ध्या नहीं करते हैं वह अपवित्र कहे गए हैं। उनके समस्त पूण्यकर्म समाप्त हो जाते हैं।[14]

सर्वप्रथम तो शास्त्रोक्त विधि से स्नानशौचाचार कर, तिलक, भष्म, पवित्रीधारण, कुशोत्पाटन आदि करके प्रातः की पहली संध्या करना चाहिये।[15]

संध्याकाल

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शास्त्रों में संध्याकाल का निर्धारण भी हुआ है जिसके अनुसार ही संध्योपासन फलित होता है। अकाल की संध्या वन्ध्या स्त्री जैसी होती है।[16] मुनियों के अनुसार जो सूर्य और तारों से रहित दैनिक संधि है वही संध्याकाल है।

अहोरात्रस्य या संधिः सूर्यनक्षत्रवर्जिता। सा तु संन्ध्यासमाख्याता मुनिभिस्तत्वदर्शिभिः।।[17]

तथा प्रातःकाल में तारों के रहते हुए, मध्याह्न काल में जब सूर्य आकाश के केन्द्र में हो तथा सायं सूर्यास्त से पूर्व संध्या करणीय है।[18] प्रातः का जप सूर्योदय तक (पूर्वाभिमुख) तथा सायं का जप नक्षत्रों (तारों) के उदय तक (पश्चिमाभिमुख) करनी चाहिये।[19]

संध्या करने का उचित स्थान

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संध्या घर, गोशाला, नदीतट तथा ईश्वर की मूर्ति के समक्ष (पूजाकक्ष या मंदिर) में किया जा सकता है परंतु इसके फल शास्त्रों में भिन्न भिन्न बताए गए हैं। अपने घर में संध्या करने से एक, गोशाला में करने से सौ, नदी के तट पर लाख तथा ईश्वर के मूर्ति के समीप करने से अनन्त गुणा फल मिलता है।[20]

संध्या में आवश्यक वस्तुएं

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एक प्रधान जलपात्र, एक संध्या का विशेष जलपात्र, चंदन, फूल, चंदनपुष्पादि के रखने हेतु स्थालिका (थाली), घंटी, पंचपात्र, पवित्री, आचमनी, अर्घ्य हेतु अर्घा, जल गिराने के लिये लघुस्थालिका, बैठने के लिये आसन।

मुख्यविधि

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आसन को भूमि पर बिछाकर (गांठ उत्तरदक्षिण की ओर हो) तुलसी या रुद्राक्ष की माला धारण कर दोनो हाथों की अनामिकाओं में कुश से बनी पवित्री धारण कर लें और प्रारंभ करें।

  • आचमन - भगवान के नाम से तीन बार आचमनी से जल को मुख में डालने की विधि आचमन कहलाती है।
  • मार्जन - शरीर, आसन तथा सभी आवश्यक वस्तुओं पर जल छिड़कना मार्जन कहलाता है।
  • संकल्प - संध्या कर रहा हूँ ऐसा विचार करना इसका संकल्प है जिसे संस्कृत में उच्चारण करते हैं और जल छोड़ते हैं।
  • अघमर्षण - दाये हाथ में जल ले बाये हाथ से ढककर गायत्री से अभिमंत्रित कर चारो दिशाओं में छोड़ना ही अघमर्षण कहलाता है।
  • प्राणायाम - संध्या में प्राणायाम का महत्वपूर्ण स्थान है। पूरक अर्थात् अंगूठे से दाहिने नासिकाछिद्र को बंद कर बाये से श्वास धीरेधीरे खीचना, कुम्भक अनामिका कनिष्ठिका अंगुलियों से नाक को दबाकर सामर्थ्य के अनुसार श्वास का रोधन, रेचक दाहिने छिद्र से श्वास धीरेधीरे छोड़ना, ये तीन प्राणायाम की मुख्य विधि है। ये अष्टांगयोग का अंग है।[21]
  • षडंगन्यास - हृदय, मस्तक, शिखा, दोनो कंधों, दोनो नेत्रों तथा दाये हाथ को सिर पर घुमाकर बायी हथेली पर मध्यमा तर्जनी की ताली को षडंगन्यास कहत हैं।
  • गायत्री आवाहन, उपस्थान - गायत्री मंत्र को बुलाना उसका आवाहन कहलाता है और प्रणाम करना ही उपस्थान है।
  • गायत्रीशापविमोचन - गायत्री मंत्र को शाप से छुड़ाना ही शापविमोचन कहलाता है।
  • मुद्रा - हाथों से जपपूर्व २४ मुद्राओं का निर्माण ही मुद्रा कहलाती है। जप के पूर्व की चौबीस मुद्रा है।

सुमुखं सम्पुटं चैव विततं विस्तृतं तथा। द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुष्पंचमुखं तथा।। षण्मुखाऽधोमुखं चैव व्यापकांजलिकं तथा। शकटं यमपाशं च ग्रथितं चोन्मुखोन्मुखम्।। प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्यः कूर्मोवराहकम्। सिंहाक्रान्तं महाक्रान्तं मुद्गरं पल्लवं तथा। एता मुद्राश्चतुर्विंशज्जपादौ परिकीर्तिताः।।[22]

  • गायत्रीजप - गायत्री मंत्र की १०८ बार माला या करमाला से आवृत्ति ही गायत्रीजप है। (पश्चात् आठ मुद्राएं[23] गायत्री कवच[24], तर्पण[25] का विधान है परंतु आवश्यक नहीं।)
  • सूर्यप्रदक्षिणा - सूर्य की मानसिक परिक्रमा तथा जप का अर्पण ही सूर्यप्रदक्षिणा कहलाती है।
  • गायत्रीविसर्जन - गायत्री मंत्र को सादर उनके स्थान में भेजने को गायत्रीविसर्जन कहते हैं।
  • समर्पण - श्रीब्रह्मार्पणमस्तु कहकर संध्याकर्म को ब्रह्म को समर्पित करना ही समर्पण है।

इसप्रकार संध्योंपासन की विधि है जिसका विस्तार नित्यक्रियाप्रकरण की पुस्तकों में प्राप्य है।[26]

संध्योपासन पुलस्त्य मुनि के अनुसार जनन अशुद्धि तथा मरण अशुद्धि में भी वर्जनीय नहीं है।[27] लेकिन विधि भिन्न हो जाती है। ऐसी अवस्था में भी मानसिक संध्या करणीय है।[28] बिना उपस्थान के यह सूर्यार्घ्य तक पूर्ण हो जाती है। दस बार मंत्रजाप का मत है तथा कहीं कहीं कुशा और जल की वर्जना है। विना मंत्रोच्चार के प्राणायाम तथा मार्जनादि हेतु मानसिक मत्रोच्चार बताया गया है। आपत्ति काल, असमर्थता तथा रास्ते आदि में भी मानसिक संध्या करने की विधि है।[29][30]

टिप्पणियां

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  1. मान्यताओं (श्री वैष्णव, स्मार्त, शैवादि) के आधार पर ये मंत्र तथा प्रक्रियाएं परिवर्तित हो सकती हैं। जबकि मुख्य मंत्र जैसे मार्जन (जल के छिड़कना), प्राशन (जल का आचमन), पुनर्मार्जन तथा अर्घ्य देना ९५ प्रतिशत मामलों में समान रहते हैं। स्मार्त (अद्वैतवादी) ऐक्यानु संदानम का जबकि वे (यजुर्वेदी) बृहदारण्यक उपनिषद (वराहमिहिर व अहम् अस्मि) का पाठ करते हैं।
  1. परिभाषा के लिए देखें: भट्टाचार्य, सिवाप्रसाद. "भारतीय हिम्नोलॉजी", में: राधाकृष्णन (ची, १९५६), खंड ४, पृष्ठ ४७४
  2. "ट्वाईलाइट डिवोशन, मॉर्निंग और इवनिंग प्रेयर्स" के रूप में लुआ त्रुटि मॉड्यूल:Lang में पंक्ति 1670 पर: attempt to index field 'engvar_sel_t' (a nil value)। की परिभाषा के लिए देखें: मैकडोनेल, पृष्ठ ३३४
  3. समास लुआ त्रुटि मॉड्यूल:Lang में पंक्ति 1670 पर: attempt to index field 'engvar_sel_t' (a nil value)। के व्युत्पत्ति के लिए और सुबह और शाम के प्रार्थना के रूप में परिभाषा, देखें: आप्टे, पृष्ठ ९५७
  4. पूजा के रूप में लुआ त्रुटि मॉड्यूल:Lang में पंक्ति 1670 पर: attempt to index field 'engvar_sel_t' (a nil value)। की परिभाषा के लिए देखें: आप्टे, पृष्ठ ८२९
  5. "डेली प्रैक्टिस" के अर्थ के रूप में लुआ त्रुटि मॉड्यूल:Lang में पंक्ति 1670 पर: attempt to index field 'engvar_sel_t' (a nil value)। अवधि के उपयोग के लिए देखें: तैम्नी, पृष्ठ ७
  6. दिन (सुबह और संध्या) के दो विभागों के जोड़ के रूप में लुआ त्रुटि मॉड्यूल:Lang में पंक्ति 1670 पर: attempt to index field 'engvar_sel_t' (a nil value)। के लिए और "द रिलीजियस एक्ट्स परफॉर्म्ड बाई ब्रह्मण एंड ट्वाईस-बॉर्न मेन एट द अबव थ्री डिविज़न ऑफ़ द डे" के रूप में परिभाषा देखें: मोनिएर-विलियम्स, पृष्ठ ११४५, मध्य स्तम्भ.
  7. लुआ त्रुटि मॉड्यूल:Lang में पंक्ति 1670 पर: attempt to index field 'engvar_sel_t' (a nil value)। के भाग के रूप में गायत्री मंत्र के जप के अभ्यास के लिए देखें: तैम्नी, पृष्ठ १
  8. हालांकि, यह पूरी तरह कलाकार के विवेक पर है और कर्मकांडों मंजूरी नहीं संचारित करता है। ध्यान, जप और चुने हुए देवता प्रथाओं के लिए देखें: तैम्नी, पीपी १७२-२०४
  9. लुआ त्रुटि मॉड्यूल:Lang में पंक्ति 1670 पर: attempt to index field 'engvar_sel_t' (a nil value)। के लिए देखें: मोनिएर-विलियम्स, पृष्ठ ११४५, मध्य स्तम्भ.
  10. यतः प्रवृत्तिभूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।।-- गीता।
  11. सन्ध्यामुपासते ये तु सततं संशितव्रताः। विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकं सनातनम्।। --अत्रिसंहिता
  12. याज्ञवल्क्यस्मृति, प्रायश्चित्ताध्याय ३०७
  13. देवीभागवत ११|१६|०६
  14. संध्याहीनो अशुचिः...-- दक्षस्मृति २|२७
  15. नित्यकर्मपूजाप्रकाश क्र० ५९२ पृ० १-४८, लेखक - पं० रामभवन मिश्र, पं० लालबिहारी मिश्र, गीताप्रेस गोरखपुर।
  16. स्वकाले सेविता संन्ध्या...-- मित्रकल्प।
  17. आचारभूषण ८९
  18. प्रातः संन्ध्या सनक्षत्रा...-- देवीभागवत ११|१६|२-३
  19. जपन्नासीत सावित्री...-- याज्ञवल्क्यस्मृति २|२४-२५
  20. गृहेषु तत्समा संध्या...-- लघुशातातपस्मृति ११४
  21. पातंजल योगसूत्र
  22. देवीभागवत ११|१७|९९-१०१, याज्ञवल्क्यस्मृति, आचाराध्याय, भालम्भट्टी टीका।
  23. सुरभिर्ज्ञानवैराग्ये योनिर्शखोऽथपंकजम्। लिंगनिर्वाणमुद्राश्च जपान्तेऽष्टौप्रदर्शयेत्।।
  24. विश्वामित्रसंहिता
  25. देवीभागवत
  26. नित्यकर्मपूजाप्रकाश पृ० ५३-८३ संध्योपासनविधि, गीताप्रेस गोरखपुर।
  27. न त्यजन्सूतकेवापि त्यजन्गच्छत्यधोगतिम्।-- पुलस्त्यस्मृति।
  28. सूतकेमनसीं संध्यां कुर्याद्वैसुप्रयत्नतः।-- स्मृतिसमुच्चय।
  29. आचारभूषण पृ० १०४
  30. नित्यकर्मपूजाप्रकाश पृ० ८३

बाहरी कड़ियाँ

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  • बालू, मीनाक्षी (2006). ऋग्वेद त्रिकाल संध्या वंदनम (अंग्रेज़ी में). चेन्नई: एम बी पब्लिशर्स. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-8124071-5. (चौथा संशोधित और विस्तृत संस्करण).
  • आप्टे, वामन शिवराम (1965). द प्रैक्टिकल संस्कृत डिक्श्नरी (अंग्रेज़ी में). दिल्ली: मोतीलाल बनारसी दास प्रकाशन. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-208-0567-4. (चौथा संशोधित और विस्तृत संस्करण).
  • राधाकृष्णन, सर्वपल्ली(सम्पादकीय अध्यक्ष) (1956). द कल्चरल हैरिटेज ऑफ़ इण्डिया (अंग्रेज़ी में). कोलकाता: द रामकृष्ण मिशन इन्स्टिट्यूट ऑफ़ कल्चर. दूसरा संस्करण, चार खंड, संशोधित और विस्तृत, 1956 (चतुर्थ खंड).
  • ताइमनी, आइ के (1978). गायत्री (अंग्रेज़ी में). अड्यार, चेन्नई, भारत: द थियोसॉफ़िकल पब्लिशिंग हाउस. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7059-084-1. (द्वितीय संशोधित संस्करण).