प्रबन्धकोश संस्कृत में रचित प्रबंधों (पौराणिक जीवनी आख्यानों) का संग्रह है। इसका संकलन 1349 ई में जैन विद्वान राजशेखर सूरी ने किया था। [1] [2] इसमें 24 लोगों के जीवन का वर्णन है, जिनमें १० जैन विद्वान, ४ संस्कृत कवि, ७ राजा और ३ जैन गृहस्थ हैं। [3] इसे चतुर्विंशतिप्रबन्ध भी कहते हैं। [4]

प्रबन्धकोश
लेखकराजशेखर सूरि
मूल शीर्षकप्रबन्धकोश
भाषासंस्कृत
विषयजीवनी संग्रह
शैलीप्रबन्ध
प्रकाशन तिथि1349 ई०
प्रकाशन स्थानभारत

इस प्रबन्ध की विषयवस्तु राजशेखरसूरि को अपने गुरु तिलकासूरी से प्राप्त हुई थी। उन्होंने प्रबन्धकोश की रचना दिल्ली में मदनसिंह के संरक्षण में की, जिनके पिता श्री महमद शाही (सम्भवतः मुहम्मद तुगलक ) द्वारा सम्मानित किए गए थे। [5]

इस ग्रन्थ के १२ प्रबन्धों में से सात पूर्णतः श्लोक के रूप में हैं जबकि शेष प्रबन्ध बोलचाल की संस्कृत में रचित गद्य हैं। [4]

विषयवस्तु

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प्रबंधकोश में 4,300 श्लोक हैं। इसमें निम्नलिखित २४ व्यक्तियों के प्रबन्ध हैं : [5]

सूरी (जैन विद्वान)

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आचार्य हेमचंद्र सूरी
  1. भद्रबाहु और वराह (भद्रवाहु-बराह प्रबन्ध)
  2. आर्यनन्दिल
  3. जीवदेवसूरि
  4. आर्यखपटाचार्य
  5. पादलिप्ताचार्य
  6. वृद्धवादि और सिद्धसेन सूरि (वृद्धवादि-सिद्धसेनसूरि प्रबन्ध)
  7. मल्लवादिसूरि
  8. हरिभद्र-सूरि
  9. बप्पभट्टि-सूरि
  10. हेमचन्द्र सूरि
  1. हर्ष (हर्षकवि प्रबन्ध)
  2. हरिहर (हरिहरकवि प्रबन्ध)
  3. अमरचन्द्र (अमरचन्द्रकवि प्रबन्ध)
  4. मदनकीर्ति (मदनकीर्तिकवि प्रबन्ध)
  1. सातवाहन (सातवाहन प्रबन्ध)
  2. वङ्कचूल (वङ्कचूल प्रबन्ध)
  3. विक्रमादित्य
  4. नागार्जुन
  5. उदयन (वत्सराज उदयन प्रबन्ध)
  6. लक्ष्मणसेन कुमारदेव (लक्षणसेन कुमारदेव प्रबन्ध)
  7. मदनवर्मन (मदनवर्म प्रबन्ध)

जैन गृहस्थ / दरबारी

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  1. रत्न-श्रावक
  2. आभड-श्रावक
  3. वस्तुपाल और तेजपाल (वस्तुपाल तेजःपाल प्रबन्ध)

प्रवन्धकोश की रचना-शैली

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सिन्धी-जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत १९३५ में प्रकाशित ग्रन्थ में प्रबन्धकोश की रचना-शैली के बारे में निम्नलिखित बात कही गयी है-[6]

जैसा कि स्वयं ग्रन्थकार लिखते हैं, प्रवन्धकोशकी रचना, खास करके मुग्धजन-साधारण पठित वर्ग-के अवबोध के लिये की गई है और इस लिये इसका ग्रन्थन 'मृदु' अर्थात् सरल और सुबोध ऐसे गद्य में किया गया है । एक मल्लवादिसूरि-प्रवन्ध पद्य में बना हुआ है-जो शायद किसी अन्य ग्रन्थमें से तद्वत् उद्धृत कर लिया गया मालूम देता है-परंतु उसका पद्य भी वैसा ही सरल और सुगम है।

संस्कृत साहित्य में इस प्रकार की गद्य रचना बहुत कम मिलती है। इसके पहले, पुराने समय में, ऐसे ग्रन्थ प्रायः पद्यवन्ध रचे जाते थे। पुराण, कथा, चरित इत्यादि ग्रन्थों की रचना विशेपतया पद्य-ही-में होती थी। पुराने कई जैन ग्रन्थकार, जिन्होंने सूत्रात्मक और उपदेशात्मक ग्रन्थों की जो गद्यमय व्याख्याएं अथवा टीकाएं बनाई हैं, उनमें भी जहां कोई कथा का प्रसंग आ गया तो उसे प्रायः पद्य-ही-में लिखना उन्होंने पसंद किया है। गद्य में जो ऐसी कोई कथा, आख्यायिका आदि रची जाती थी तो वह काव्यात्मक-उपमा आदि अलङ्कारों से परिपूर्ण कवितास्वरूप होती थी। उसमें कथा या चरित की सामग्री गौण होती थी- वर्णन और विवेचन की अधिकता ही उसमें मुख्य रहती थी। कथा, चरित आदि की वस्तु जिनमें अधिकतया गुम्फित की जाती थी ऐसी पद्यरचनाएं भी प्रायः पाण्डित्यपूर्ण पद्धति से बनाई जाती थीं । ग्रन्थकारों का लक्ष्य, हमेशा ही, अपना पाण्डित्य प्रदर्शित करने की ओर अधिक रहता था; और, ग्रन्थरचना में जहां कहीं उनको मौका मिल जाय वहां वे अपनी विदग्धता का परिचय देने के लिये उत्सुक रहते थे। इसी ग्रन्थ का उपर्युक्त कुछ कुछ आदर्शभूत ग्रन्थ, प्रभावकचरित, वैसी ही एक पाण्डित्यपूर्ण रचना है । वह सम्पूर्ण ग्रन्थ पद्य में है । अनुष्टुप् छन्द के सिवा और भी कई छन्दों का उसमें प्रयोग किया गया है । यद्यपि उसमें कहीं काव्य की कोई सामग्री नहीं है, तथापि उसकी रचना-पद्धति काव्य के ढंग की है । उसके कर्ता का उद्देश मुग्ध-जनों को अवबोध कराने का नहीं है। लेकिन विदग्ध-जनों को अपनी विद्वत्ता का आस्वाद कराने का है । मेरुतुङ्ग सूरि ने इस लक्ष्य को कुछ वदला है और बुद्धिमान् वर्ग को भी सुख से ज्ञानप्राप्ति कराने की इच्छा से उन्होंने अपना पूर्वोक्त प्रवन्धचिन्तामणि ग्रन्थ गद्य में बनाया है। मेस्तुङ्ग की रचना-प्रणाली यद्यपि प्रासादिक और सुललित है तथापि वह प्रस्तुत प्रबन्धकोश के कर्ता की शैली की जितनी सुगम और सरल नहीं है । वह समास-बहुल होकर कुछ संक्षिप्त-स्वरूपात्मक है । उसका विषय काव्यमय न होने पर भी उसकी भाषा कुछ पुरातन गद्य-काव्य ग्रन्थों के अनुकरण का आभास कराती है। उसकी वाक्य-रचना कहीं कहीं जटिल-सी मालूम देती है।

प्रवन्धकोश की रचना एकदम सरल, सगम और वोलचाल तरह सीधी-सादी है। इसके वाक्य विल्कुल अलग अलग और छोटे छोटे हैं। इसमें न कोई वैसी समस्त-शब्दों से लदी हुई लम्बी पंक्तियां हैं, न कोई दूरान्वय वाली वैसी कोई दुरववोध उक्तियां हैं। न अल्पाभ्यासी को अपरिचित ऐसे शब्दों की कोई समधिकता है, न क्रियापद के कठिन रूपों की भरमार से कोई क्लिष्टता है । प्रायः सारी कृति कर्म-उक्ति-प्रधान है। संस्कृत भाषा का थोडा-सा भी अध्ययन करने वाला विद्यार्थी इसको सुगमता से पढ-समझ सकता है। संस्कृत के प्रचलित कोशों में नहीं मिलने वाले और देश्य भाषा की सन्तति समझे जाने वाले ऐसे शब्दों का भी कचित् व्यवहार ग्रन्थकार ने निस्संकोच होकर किया है जिसको शायद संस्कृत के पुराणप्रिय पण्डित लोक, अपशब्द भी कह वैठें । परन्तु हमारे मत से इसमें कोई आक्षेपयुक्त बात नहीं दिखाई देती। हम तो इसको एक प्रकार से भाषा के जीवन को पोपण करनेवाली वडे महत्त्वकी बात समझते हैं। सरल और सुगम संस्कृत-रचना करनेवालों के लिये यह एक आदर्शभूत अन्य कहा जा सकता है । सस्कृत भाषा भी ऐसी सरल बनाई और लिखी जा सकती है, जिसको बहुत सुगमता के साथ अधिक जनता समझ सके, इस बात की, यदि सस्कृत-प्रेमियों को कुछ आकांक्षा है, तो उन्हें भापाके क्लेवरको देश्य और विदेश्य ऐसे अनेक नये नये शब्दों द्वारा पुष्ट करना ही चाहिए । उससे हमारी इस मातामही की मृतप्राय आत्मा पुनः सचेतन हो सकती है, और, वह पुनर्जन्म धारण कर आर्य संस्कृति का पुनरुत्थान करने में हमे एक नई शक्ति प्रदान कर सकती है। मालूम देता है, कि इस प्रकार सरल रचना होने-ही-से, इस ग्रन्थ का, प्रवन्धचिन्तामणि वगैरह प्रन्थोंकी अपेक्षा, अधिक प्रसार और वाचन-पठन होता रहा है और इसी कारण इसकी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ जहाँ वहाँ भण्डारों मे यथेष्ट सरयाम उपलब्ध होती हैं।

  1. Phyllis Granoff 1993, पृ॰ 140.
  2. Sen 1999, पृ॰ 79.
  3. Vishnulok Bihari Srivastava 2009, पृ॰ 279.
  4. Jayant P. Thaker 1970, पृ॰ 20.
  5. J. G. Bühler 1873, पृ॰ 31.
  6. प्रबन्धकोश

बाहरी कड़ियाँ

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