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लेख 1 – 20 संपादित करें

प्रवेशद्वार:धर्म और आस्था/चयनित लेख/1

 
भरत मिलाप, राजा रवि वर्मा रचित

रामायण संस्कृत का सर्वप्रथम महाकाव्य है जिसकी रचना वाल्मीकि ऋषि ने की। प्रथम महाकाव्य की रचना करने के कारण ही उन्हें ‘आदिकवि’ की उपाधि मिली। उनकी यह रचना न केवल भारत में वरन, उन दिनों विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार का नगण्य साधन होने के बावजूद भी, विश्वप्रसिद्ध रचना बन गई तथा उनकी ये रचना सम्पूर्ण विश्व में लोकप्रिय हो गई। विश्व के अधिकांश देशों में वाल्मीकि रामायण के आधार पर राम के चरित्र पर विभिन्न नामों से रचनायें की गईं।

आज हम यदि किसी विषय पर कुछ रचना करना चाहते हैं तो हम सर्वप्रथम यह देखते हैं कि उस विषय पर पहले किसने क्या लिखा है, और उन पूर्वलिखित रचनाओं से प्रेरणा लेकर हम अपना लेख लिखते हैं। महर्षि वाल्मीकि तो आदिकवि हैं अतएव उनके समक्ष प्रेरणा देने वाली कोई अन्य रचना नहीं थी। वास्तव में वे संस्कृत तथा हिंदी साहित्य के महान प्रेरक हैं। आदिकवि वाल्मीकि की रचना से ही प्रभावित होकर सन्त श्री तुलसीदास जी ने अवधी भाषा में रामचरितमानस की रचना की जो कि आज हिंदू परिवार का अंग बन गई हैं। अतः महाकवि वाल्मीकि के बाद राम के चरित्र का द्वितीय लोकप्रिय वर्णन करने वाले का श्रेय सन्त श्री तुलसीदास जी को जाता है। तुलसीदास जी के पश्चात् भी अन्य हज़ारों रचयिताओं ने राम के चरित्र पर अनेक भाषाओं में रचनायें कीं। अधिक पढ़ें...


प्रवेशद्वार:धर्म और आस्था/चयनित लेख/2

 
राखियाँ जिन्हें रक्षाबंधन के अवसर पर बहनें भाई के हाथ में बांधती हैं

रक्षाबंधन एक भारतीय त्यौहार है जो श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। सावन में मनाए जाने के कारण इसे सावनी या सलूनो भी कहते हैं। रक्षाबंधन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चांदी जैसी मंहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यतः बहनें भाई को बांधती हैं परंतु ब्राहमणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित संबंधियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बांधी जाती है। कभी कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठत व्यक्ति को भी राखी बांधी जाती है।

प्रकृति संरक्षण के लिए वृक्षों को राखी बांधने की परंपरा का भी प्रारंभ हो गया है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पुरुष सदस्य परस्पर भाईचारे के लिए एक दूसरे को भगवा रंग की राखी बांधते हैं। रक्षासूत्र बांधते समय आचार्य एक श्लोक का उच्चारण करते हैं, जिसमें रक्षाबन्धन का सम्बन्ध राजा बलि से स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। यह श्लोक रक्षाबंधन का अभीष्ट मंत्र है। श्लोक में कहा गया है कि जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बांधा गया था, उसी रक्षाबन्धन से मैं तुम्हें बांधता हूं जो तुम्हारी रक्षा करेगा। अधिक पढ़ें…


प्रवेशद्वार:धर्म और आस्था/चयनित लेख/3

 
महाभारत की पांडुलिपि में कुरुक्षेत्र युद्ध का चित्रण

कुरुक्षेत्र युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य कुरु साम्राज्य के सिंहासन की प्राप्ति के लिए लड़ा गया था। महाभारत के अनुसार इस युद्ध में भारत के प्रायः सभी जनपदों ने भाग लिया था। महाभारत व अन्य वैदिक साहित्यों के अनुसार यह प्राचीन भारत में वैदिक काल के इतिहास का सबसे बड़ा युद्ध था। इस युद्ध में लाखों क्षत्रिय योद्धा मारे गये जिसके परिणामस्वरूप वैदिक संस्कृति तथा सभ्यता का पतन हो गया था। इस युद्ध में सम्पूर्ण भारतवर्ष के राजाओं के अतिरिक्त बहुत से अन्य देशों के क्षत्रिय वीरों ने भी भाग लिया और सब के सब वीर गति को प्राप्त हो गये। इस युद्ध के परिणामस्वरुप भारत में ज्ञान और विज्ञान दोनों के साथ-साथ वीर क्षत्रियों का अभाव हो गया। एक तरह से वैदिक संस्कृति और सभ्यता जो विकास के चरम पर थी उसका एकाएक विनाश हो गया। प्राचीन भारत की स्वर्णिम वैदिक सभ्यता इस युद्ध की समाप्ति के साथ ही समाप्त हो गयी। इस महान् युद्ध का उस समय के महान् ऋषि और दार्शनिक भगवान वेदव्यास ने अपने महाकाव्य महाभारत में वर्णन किया, जिसे सहस्राब्दियों तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में गाकर एवं सुनकर याद रखा गया। अधिक पढ़ें…


प्रवेशद्वार:धर्म और आस्था/चयनित लेख/4

 
भोजेश्वर मंदिर

भोजेश्वर मन्दिर मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 30 किलोमीटर दूर स्थित भोजपुर नामक गांव में बना एक मन्दिर है। यह मन्दिर बेतवा नदी के तट पर विन्ध्य पर्वतमालाओं के मध्य एक पहाड़ी पर स्थित है। मन्दिर का निर्माण एवं इसके शिवलिंग की स्थापना, धार के प्रसिद्ध परमार राजा भोज ने करवायी थी। उनके नाम पर ही इसे भोजपुर मन्दिर या भोजेश्वर मन्दिर भी कहा जाता है, हालाँकि कुछ किंवदंतियों के अनुसार इस स्थल के मूल मन्दिर की स्थापना पाँडवों द्वारा की गई मानी जाती है। इसे उत्तर भारत का सोमनाथ भी कहा जाता है। यहाँ के शिलालेखों से 11वीं शताब्दी के हिन्दू मन्दिर निर्माण की स्थापत्य कला का ज्ञान होता है। इस अपूर्ण मन्दिर की वृहत कार्य योजना को निकटवर्ती पाषाण शिलाओं पर उकेरा गया है। इन मानचित्र आरेखों के अनुसार यहाँ एक वृहत मन्दिर परिसर बनाने की योजना थी, जिसमें ढेरों अन्य मन्दिर भी बनाये जाने थे। इसके सफ़लतापूर्वक सम्पन्न हो जाने पर ये मन्दिर परिसर भारत के सबसे बड़े मन्दिर परिसरों में से एक होता। मन्दिर परिसर को भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा राष्ट्रीय महत्त्व का स्मारक चिह्नित किया गया है व इसका पुनरुद्धार कार्य कर इसे फिर से वही रूप देने का सफ़ल प्रयास किया है। विस्तार से पढ़ें...


प्रवेशद्वार:धर्म और आस्था/चयनित लेख/5

 
महात्मा जरथुष्ट्र के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएँ

ज़रथुश्त्र, ज़रथुष्ट्र (फ़ारसी: زرتشت ज़रतुश्त, अवेस्तन: ज़र.थुश्त्र, संस्कृत: हरित् + उष्ट्र, सुनहरी ऊंट वाला) प्राचीन ईरान के पारसी पंथ के संस्थापक माने जाते हैं जो प्राचीन ग्रीस के निवासियों तथा पाश्चात्य लेखकों को इसके ग्रीक रूप जारोस्टर के नाम से ज्ञात है। फारसी में जरदुश्त्र: गुजराती तथा अन्य भारतीय भाषाओं में जरथुश्त। उनके जन्म और मरण के काल के बारे में इतिहासकारों में मतभेद है। उनके जीवन काल का अनुमान विभिन्न विद्वानों द्वारा १४०० से ६०० ई.पू. है। परम्परानुसार ज़रथुश्त्र अहुरा मज़्दा के सन्देशवाहक थे। उन्होंने सर्वप्रथम दाएवों (बुरी और शैतानी शक्तिओं) की निन्दा की और अहुरा मज़्दा को एक, अकेला और सच्चा ईश्वर माना। उन्होंने एक नये धर्म "ज़रथुश्त्री पंथ" (पारसी पंथ) की शुरुआत की और पारसी ग्रंथ अवेस्ता में पहले के कई काण्ड (गाथाएँ) लिखे।

सबसे पहले शुद्ध अद्वैतवाद के प्रचारक जोरोस्ट्रीय पंथ ने यहूदी पंथ को प्रभावित किया और उसके द्वारा ईसाई और इस्लाम पंथ को। इस पंथ ने एक बार हिमालय पार के प्रदेशों तथा ग्रीक और रोमन विचार एवं दर्शन को प्रभावित किया था, किंतु 600 वर्ष के लगभग इस्लाम पंथ ने इसका स्थान ले लिया। यद्यपि अपने उद्भवस्थान आधुनिक ईरान में यह पंथ वस्तुत: समाप्त है, प्राचीन जोरोस्ट्रीयनों के मुट्ठीभर बचे खुचे लोगों के अतिरिक्त, जो विवशताओं के बावजूद ईरान में रहे और उनके वंशजों के अतिरिक्त जो अपने पंथ को बचाने के लिए बारह शताब्दियों से अधिक हुआ पूर्व भारत भाग आए थे, उनमें उस महान प्रभु की वाणी अब भी जीवित है और आज तक उनके घरों और उपासनागृहों में सुनी जाती है। गीतों के रूप में गाथा नाम से उनके उपदेश सुरक्षित हैं जिनका सांराश है अच्छे विचार, अच्छी वाणी, अच्छे कार्य। अधिक पढ़ें…


प्रवेशद्वार:धर्म और आस्था/चयनित लेख/6

 

काबा या ख़ाने काबा (अरबी: الكعبة‎, अरबी उच्चारण: का'आ़बा) मक्का, सउदी अरब में स्थित एक घनाकार (क्यूब के आकार की) इमारत है जिसे इस्लाम का सबसे पवित्र स्थल माना जाता है। इस्लामी परंपरा के अनुसार इस भवन को सबसे पहले, इब्राहीम के समय में खुद, इब्राहिम ने बनाया था। यह ईमारत, मक्का के मस्जिद-अल-हरम के बीचो-बीच स्थित है। क़ुरान और इस्लामी शरिया के अनुसार दुनिया के सारे मुसलामानों पर यह लागु है की वे नमाज़ के समय काबा की और मुँह कर के नमाज़ अदा करें। हज तीर्थयात्रा के दौरान भी मुस्लिमों को तवाफ़ नामक महत्वपूर्ण धार्मिक रीत पूरी करने का निर्देश है, जिसमें काबे की सात परिक्रमाएँ की जाती हैं।

इस्लामिक शब्दावली के अनुसार, कि़बला, प्रार्थना के समय रुख करने वाली दिशा को कहा जाता है। इसका उल्लेख क़ुरान की सुरा अल-बक़रा की आयत १४३ और १४४ में मिलता है। इस्लामिक नियमों के अनुसार नमाज़ अदा करते समय या प्रार्थना करते समय इस दिशा में मुड़ कर ही प्रार्थना की जाती है। इस्लामिक परंपरा के अनुसार काबा ही किबला की दिशा होती है। इस्लाम के अनुसार प्रत्येक सक्षम मुस्लमान से यह उम्मीद की जाती है की वह अपने जीवन में कमसेकम एक बार हज करे। हज एक इस्लामिक तीर्थयात्रा है, जो इस्लामिक सांवत के ज़ु अल-हिज्जा के महीने में किया जाता है, जिसमें प्रत्येक यात्री को मक्का जा कर कुछ नियमानुसार कार्य करने होते हैं। यह प्रथा इस्लाम के पांच स्तंभों का भी हिस्सा है। इसके अलावा एक छोटी तीर्थ यात्रा भी होती ही, जिसे उमरा कहा जाता है। इन दोनों यात्राओं में यात्रियों को ७ बार काबा की परिक्रमा करनी होती है। अधिक पढ़ें…


प्रवेशद्वार:धर्म और आस्था/चयनित लेख/7

 
विभिन्न देशों व क्षेत्रों के संरक्षक संत; संत बेनेडिक्ट:यूरोप के संरक्षक संत, संत जॉर्ज:मध्य पूर्व के संरक्षक संत, मूसा अल-हबाशी:अफ्रीका के संरक्षक संत, संत फ्रांसिस जेवियर: भारतएशिया के संरक्षक संत, संत गुआदोपूप: अमेरिका के संरक्षक संत, पीटर चैनल: ओशिनिया के संरक्षक संत

संरक्षक संत, पितृनामी संत या स्वर्गीय रक्षक, ईसाई समुदाय के रोमन कैथोलिक धर्म, आंग्लवाद या पूर्वी प्राच्यवाद संप्रदायों में, एक संत होते हैं जिन्हें किसी राष्ट्र, स्थान, शिल्प, गतिविधि, वर्ग, कबीले, परिवार या व्यक्ति का स्वर्गीय अधिवक्ता या रक्षक माना जाता है। यूरोपीय सभ्यता में आध्यात्मिक तौरपर, मध्यकाल के दौरान संरक्षक संत परंपरा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्रत्येक संत को समर्पित एक विशेष दिन होता है, जिसमें उन्हें विशेष प्रार्थना प्रेषित की जाती है, तथा उस दिन को उनके नाम से मनाया जाता है। इस्लाम में जहाँ संतों की ओर से संरक्षण का कोई संहिताबद्ध सिद्धांत नहीं है, फिर भी सुन्नी तथा शिया दोनों परंपराओं में संरक्षक संतों और वलीयों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अधिक पढ़ें…


प्रवेशद्वार:धर्म और आस्था/चयनित लेख/8

 
कैंटरबरी कैथेड्रल जोकि कैंटरबरी के आर्चबिशप के आसान की मेज़बानी करता है। यह चर्च ऑफ़ इंग्लैंड का मातृ गिरजा है।

एंग्लिकनवाद एक पश्चिमी ईसाई परंपरा है जो अंग्रेजी सुधार के बाद इंग्लैंड की कलीसिया की प्रथाओं, मुकदमेबाजी और पहचान से विकसित हुई है। कुछ देशों में एंग्लिकनवाद के अनुयायियों को एंग्लिकन या एपिस्कोप्लियन कहा जाता है। अधिकांश एंग्लिकन, अंतर्राष्ट्रीय एंग्लिकन ऐक्य के राष्ट्रीय या क्षेत्रीय कलीसियाई प्रांतों के सदस्य होते हैं, जो रोमन कैथोलिक कलीसिया (रोमन कैथोलिक चर्च) और पूर्वी रूढ़िवादी कलीसिया के बाद दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा ईसाई संप्रदाय बनाता है। वे कैंटरबरी के धर्ममण्डल और इस प्रकार कैंटरबरी के आर्कबिशप के साथ पूर्ण संवाद में हैं, जिसे वे अपने प्राइमस इंटर पारेस (लैटिन: "बराबरों में प्रथम") के रूप में संदर्भित करता है। कैंटरबरी के आर्चबिशप के कार्यों में: डिकेनियल लेम्बेथ सम्मेलन कहना, प्राइमेट की बैठक की अध्यक्षता करना, और एंग्लिकन कंसल्टेंट काउंसिल की अध्यक्षता करना शामिल है। कुछ कलीसिया जो एंग्लिकन ऐक्य का हिस्सा नहीं हैं या इसके द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं हैं, वे भी खुद को एंग्लिकन कहते हैं: ऐसे कलीसियाओं में वे भी शामिल हैं जो कंटीन्यूइंग एंग्लिकन आंदोलन और एंग्लिकन रीएलाइनमेंट के भीतर हैं।

एंग्लिकन लोग अपने ईसाई विश्वास को बाइबल, एपोस्टोलिक कलीसिया की परंपराओं, एपोस्टोलिक उत्तराधिकार, और चर्च पादरियों के लेखन को आधार बना क्र मानते हैं। एंग्लिकनवाद पश्चिमी ईसाई धर्म की शाखाओं में से एक बनाता है, जिसने एलिज़ाबेथन धार्मिक निपटान के समय पवित्र धर्ममंडल से अपनी स्वतंत्रता की निश्चित रूप से घोषणा की थी। 16 वीं शताब्दी के मध्य के कई नए एंग्लिकन समर्थक और नेता समकालीन प्रोटेस्टेंटवाद के निकट थे। इंग्लैंड की कलीसिया (चर्च ऑफ़ इंग्लैंड) में इन सुधारों को थॉमस क्रैंमर, कैंटरबरी के तत्कालीन आर्कबिशप, द्वारा उभरते हुए दो प्रमुख प्रोटेस्टेंट परंपराओं: ल्यूटलैनिज्म और कैल्विनवाद, के बीच एक मध्यम मार्ग के रूप में स्थापित किया गया। अधिक पढ़ें…


प्रवेशद्वार:धर्म और आस्था/चयनित लेख/9

 
गुरु गोबिंद सिंह

गुरु गोबिन्द सिंह (गुरु गोबिंद सिंह) (जन्म:पौष शुक्ल सप्तमी संवत् 1723 विक्रमी तदनुसार 22 दिसंबर (दिसम्बर) 1666- मृत्यु 7 अक्टूबर 1708 ) सिखों के दसवें गुरु थे। उनके पिता गुरू तेग बहादुर की मृत्यु के उपरान्त 11 नवंबर (नवम्बर) सन 1675 को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन 1699 में बैसाखी के दिन उन्होने खालसा पंथ (पन्थ) की स्थापना की जो सिखों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है। गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रंथ (ग्रन्थ) गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा किया तथा उन्हें गुरु रूप में सुशोभित किया। बिचित्र नाटक को उनकी आत्मकथा माना जाता है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह दसम ग्रन्थ का एक भाग है। दसम ग्रंथ (ग्रन्थ), गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है।

उन्होने मुगलों या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाडियों के राजा) के साथ 14 युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें 'सरबंसदानी' (सर्ववंशदानी) भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं। गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा संस्कृत सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में 52 कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें संत सिपाही भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। अधिक पढ़ें…


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