मध्ययुगीन प्राकृतों का गद्य-पद्यात्मक साहित्य विशाल मात्रा में उपलब्ध है। प्राकृत, भारतीय उपमहाद्वीप में जनभाषा रही है। यह जैन आगमों की भाषा मानी जाती है। भगवान महावीर ने इसी प्राकृतभाषा के अर्धमागधी रूप में अपना उपदेश दिया था। यह शिलालेखों की भी भाषा रही है। हाथीगुफा शिलालेख, नासिक शिलालेख, अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा में ही हैं। प्राकृत में व्याकरण ग्रन्थ, नाटक, गीत, धार्मिक उपदेश आदि विपुल साहित्य है।

प्राकृत साहित्य में सबसे प्राचीन वह अर्धमागधी साहित्य है जिसमें जैन धार्मिक ग्रंथ रचे गए हैं तथा जिन्हें समष्टि रूप से जैनागम या जैनश्रुतांग कहा जाता है।

कथा साहित्य की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन रचना बड्डकहा (बृहत्कथा) भी प्राकृत भाषा (पैशाची) में ही लिखी गयी थी। पादलिप्तसूरी की तरंगवई, संघदासगणि की वसुदेवहिण्डी, हरिभद्रसूरि विरचित समराइच्चकहा, उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला आदि कृतियाँ उत्कृष्ट कथा-साहित्य की निदर्शन हैं।

विमलसूरि विरचित ‘पउमचरियं’ (पद्मचरितम्) जैन रामायण का ग्रन्थ है जो प्राकृत में ही लिखा गया है। जंबूचरियं, सुरसुन्दरीचरियं, महावीरचरियं आदि अनेक प्राकृत चरितकाव्य हैं जिनके अध्ययन से तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का बोध होता है।

हालकवि की गाहासतसई (गाथा सप्तशती) बिहारी कीसतसई का प्रेरणास्रोत आधारग्रन्थ रही है। गाहा सतसई शृंगाररस प्रधान काव्य है, जिस पर १८ टीकाएँ लिखी जा चुकी हैं। रुद्रट , मम्मट, विश्वनाथ आदि काव्य शास्त्रियों ने गाहासतसई की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की है तथा संस्कृत के काव्यशास्त्रों में गाहासतसई कवि भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने इस पर ‘सर्वङ्कषा’ संस्कृत टीका लिखी है।

जयवल्लभ द्वारा रचित ‘वज्जालग्ग’ भी प्राकृत की एक महत्वपूर्ण रचना है, जिसमें प्राकृत भाषा के सम्बन्ध में कहा है कि-

ललिए महुरक्खरए जुवईयणवल्लहे ससिगारे।
सन्ते पाइयकव्वे को सक्कइ सक्कयं पढिउं॥

अर्थात् ललित एवं मधुर अक्षरों से युक्त, युवतियों को प्रिय तथा शृंगाररसयुक्त प्राकृत काव्य के होते हुए संस्कृत को कौन पढ़ना चाहेगा? यह कथन प्राकृत की महत्ता को सुबोधता, सुग्राह्यता, सरसता आदि विशेषताओं से स्थापित करता है।

इस साहित्य की प्राचीन परम्परा यह है कि अंतिम जैन तीर्थंकर महावीर का विदेह प्रदेश में जन्म लगभग 600 ई. पूर्व हुआ। उन्होंने 30 वर्ष की अवस्था में मुनि दीक्षा ले ली और 12 वर्ष तप और ध्यान करके कैवल्यज्ञान प्राप्त किया। तत्पश्चात् उन्होने अपना धर्मोपदेश सर्वप्रथम राजगृह में और फिर अन्य नाना स्थानों में देकर जैन धर्म का प्रचार किया। उनके उपदेशों को उनके जीवनकाल में ही उनके शिष्यों ने 12 अंगों में संकलित किया। उनके नाम हैं-

(1) आचारांग, (2) सूत्रकृतांग, (3) स्थानांग, (4) समयांग, (5) भगवती व्याख्या प्रज्ञप्ति, (6) न्यायधर्म कथा (णायाधम्महाओ),
(7) उपासकादशा, (8) अंतकृदशा, (9) अनुत्तेरोपपातिक (10) प्रश्न व्याकरण, (11) विपाक सूत्र और (12) दृष्टिवाद

इन अंगों की भाषा वही अर्धमागधी प्राकृत है जिसमें महावीर ने अपने उपदेश दिए। संभवतः यह आगम उस समय लिपिबद्ध नहीं किया गया एवं गुरु-शिष्य परंपरा से मौखिक रूप में प्रचलित रहा और यही उसके श्रुतांग कहलाने की सार्थकता है।

महावीर का निर्वाण 72 वर्ष की अवस्था में ई. पू. 527 में हुआ और उसके पश्चात् शीघ्र ही उक्त अंगों की परम्परा में विप्रतिपत्तियाँ उत्पन्न होने लगीं। जैनधर्म के दिगम्बर संप्रदाय की मान्यता है कि श्रुतांगों का क्रमश: ह्रास होते-होते उनका खंडशः ज्ञान कुछ आचार्यो को रहा और उसके आधार से उन्होंने नए रूप में सैद्धांतिक ग्रंथ लिखे, जिनके प्राचीनतम उदाहरण कर्मप्राकृत (षट्खंडागम) व कषायप्राकृत (कसायपाहुड) नामक सूत्र हैं। किंतु श्वेतांबर संप्रदाय की मान्यता है कि उक्त आगम ग्रंथों को उत्पन्न होती हुई विकृतियों से बचाने के लिये समय-समय पर मुनियों ने उनकी वाचनाएँ कीं और उन्हें सुरक्षित रखने का प्रयत्न किया। प्रथम वाचना महावीर निर्वाण से 160 वर्षो पश्चात् पाटलिपुत्र में स्थूलभद्राचार्य की अध्यक्षता में हुई जिसमें 11 अंगों का संकलन किया गया। 12वें अंग का उपस्थित मुनियों में से किसी को भी व्यवस्थित ज्ञान न होने से उसका उद्धार नहीं किया जा सका। जैन मुनियों की अपरिग्रह वृत्ति तथा वर्षाकाल को छोड़ निरंतर परिभ्रमण एवं उस काल की कठिनाइयों के कारण यह अंगज्ञान पुन: छिन्न-भिन्न होने लगा। आर्य स्कंदित ने मथुरा में मुनिसंघ का सम्मेलन किया और उन्हीं 11 अंगों को एक बार पुन: व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने वलभी नगर में मुनिसम्मेलन कराया और जैन आगम को वह रूप दिया जिसमें वह आज उपलब्ध है। इस वाचना में उपर्युक्त 11 अंगों के अतिरिक्त अन्य अनेक ग्रंथों को सुव्यवस्थित करने का प्रयत्न किया गया जो इस कालावधि तक रचे जा चुके थे। ये थे - 12 उपांग, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, 10 प्रकीर्णक और दो चूलिकाएँ। इस प्रकार वलभी वाचना के फलस्वरूप अर्धमागधी जैनागम के 45 ग्रंथ व्यवस्थित हो गए जो आज भी उपलब्ध हैं, तथा जिनका संक्षेप में परिचय निम्न प्रकार है :

ग्यारह अंग

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१. आचारंग - इस श्रुतग्रंथ में मुनियों के पालने योग्य सदाचार का विवरण दिया गया है। यह दो श्रुतस्कंधों में विभाजित है। प्रथम श्रुतस्कंध में 9 अध्ययन और उनके अंतर्गत 44 उद्देश्यक हैं। ग्रंथ का यह भाग मूल एवं भाषा, शैली और विषय की दृष्टि से प्राचीनतम है। द्वि. श्रुतस्कंध इसकी चूलिका के रूप में है और वह तीन चूलिकाओं एवं 16 अध्ययनों में विभाजित है। प्रथम श्रुतस्कंध के नवमें उपधान नामक अध्ययन में महावीर की उग्र तपस्या एवं लाढ़ वज्रभूमि, शुभ्रभूमि आदि स्थानो में विहार करते हुए घोर उपसर्गो के सहने का मार्मिक वर्णन है।

२. सूत्रकृतांग - इसके भी दो श्रुतस्कंध हैं जिनमें क्रमश: 16 तथा 7 अध्ययन हैं1 प्रथम श्रुतांग प्राय: मद्यमय है और दूसरे में गद्य पद्य दोनों का प्रयोग हुआ है। इसमें प्राचीन काल के दार्शनिक वादों जैसे क्रियावाद, अक्रियावाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद आदि का प्ररूपण तथा निराकरण किया गया है तथा श्रमण, ब्राह्मण, भिक्षु, निग्र्रंथ आदि के स्वरूप की व्याख्या की गई है। अंतिम अध्ययन नालदीय में महावीर के शिष्य गौतम तथा पाश्र्वनाथ की परंपरा के उदक पेढ़ालपुत्र के बीच वार्तालाप और चातुर्याम धर्म के संबंध में विचार जैनधर्म की महावीर से पूर्वपरंपरा पर प्रकाश डालता है।

३. स्थानांग - इसमें 10 अध्ययन हैं जिनमें क्रमश: एक से लेकर 10 तक की संख्यावाले पदार्थो का निरूपण किया गया है, जैसे एक दर्शन, एकचारित्र, एक समय, इत्यादि; दो क्रियाएँ जीव और अजीव; वृक्ष तीन प्रकार केहृ पत्रोपेत, फलोपेत और पुष्पोपेत, तीन वेद ऋक्, यजु और साम इत्यादि। इस पद्धति से इस ग्रंथ में अनेक विषयों का बहुमुखी वर्णन आया है जो अपने ढंग का एक विश्वकोश ही है। उसकी यह शैली पालि त्रिपिटक के अंगुततर निकाय से समता रखती है।

४. समवायांग - यह भी स्थानांग के सदृश एकोत्तर क्रम से वस्तुओं का निरूपण करनेवाला विश्वकोश है। विशेषता इसकी यह है कि इसमें संख्याक्रम क्रमश: बढ़ता हुआ शतों, सहस्रों, शतसहस्त्रों तथा कोटियों तक पहुँचाया गया है। यथास्थान इसमें जैन आगम तथा तीर्थकर, चक्रवर्ती आदि त्रिरसठ शलाकापुरुषों का परिचय नामवली पद्धति से वर्णित है।

५. भगवती व्याख्या प्रज्ञाप्ति - यह रचना आकार और विषय की दृष्टि जैनागम में सबसे अधिक विशाल और महत्वपूर्ण है। इसमें 41 शतक हैं और प्रत्येक शतक अनेक उद्देशक में विभाजित है। शैली प्रश्नोत्तरात्मक है। प्रश्नकर्ता हैं गौतम गणधर और उत्तरदाता स्वयं महावीर। टीकाकारों के अनुसार इसमें 36 सहस्र प्रश्नोत्तरों का समावेश है। दर्शन, आचार, इतिहास, भूगोल आदि समस्त विषयों पर किसी न किसी प्रसंग से प्रकाश डाला गया है। महावीरकाल की राजनीतिक परिस्थिति और उस समय के घोर युद्ध आदि का वर्णन जैसा इस ग्रंथ में आया है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं पाया जाता।

६. न्यायधर्मकथा - इस अंग का प्राकृत नाम न्यायधम्मकहाओ है और उसका संस्कृत रूपांतर ज्ञातृ या ज्ञाताधर्मकथा भी किया जाता है जिसका अर्थ होता है ज्ञातृ अर्थात् ज्ञातृपुत्र महावीर का धर्मोपदेश। विषय को देखते हुए इसका प्रथम नाम ही अधिक सार्थक प्रतीत होता है क्योंकि इसमें कथाओं द्वारा किन्हीं न्यायों अर्थात् नीतिवाक्यों का स्पष्टीकरण किया गया है।

७. उपासकदशा - नामानुसार इसमें भी उपासक, कामदेव, चुलणीप्रिय आदि दस ऐसे उपासकों के चरित्र वर्णित हैं जिन्होंने कठिनाइयों के बीच धर्मपालन किया।

८. अंतकृदद्शा - नामानुसार इसमें भी उपासक दशा के समान दस अध्ययन ही रहे होंगे। किंतु वर्तमान में यहाँ आठ वर्ग हैं और प्रत्येक वर्ग अनेक अध्ययनों में विभाजित हैं। इसमें ऐसे साधुओं के चरित्र वर्णित किए गए हैं, जिन्होंने तपस्या द्वारा संसार का अंत कर निर्वाण प्राप्त किया।

९. अनुत्तरोपपातिक दशा - इसमें ऐसे मुनियों के चरित्र वर्णित हैं जिन्हें अपनी तपस्या के बीच घोर उपसर्ग सहन करने पड़े और उन्होंने मरकर उन अनुत्तर नामक स्वर्गो में जन्म लिया जहाँ से केवल एक बार पुन: मनुष्य जन्म धारण कर निर्वाण प्राप्त किया जाता है।

१०. प्रश्नव्याकरण - ग्रंथ के नाम से तथा स्थानांग एवं समवायांग से प्राप्त इस श्रुतांग के विषयपरिचय से ज्ञात होता है कि इसमें मूलत: प्रश्नोत्तर के रूप में नाना सिद्धांतों की व्याख्या की गई थी। किंतु वर्तमान में ऐसा न होकर इसके प्रथम खंड में हिंसादि पाँच पापों का और दूसरे खंड में अहिंसादि व्रतों का प्ररूपण पाया जाता है।

११. विपाकसूत्र - इसमें दो श्रुतस्कंध हैं और प्रत्येक में दस दस-अध्ययन हैं। इसमें जीव के अच्छे और बुरे कर्मो से फलित होनेवाले सुख दु:खों का बड़ा वैचित्र्य है जिसमें जीवन की सभी दशाओं का वर्णन आ गया है। जैनधर्म के कर्मसिद्धांतनुसार जीवन के समस्त अनुभव सुकर्म एवं दुष्कर्मो के परिणाम ही हैं। इसका इस श्रुतांग में विस्तार से प्ररूपण पाया जाता है।

बारह उपांग

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(१) औपपातिक में नाना साधनाओं द्वारा पुनर्जन्म के स्वरूप का नाना उदाहरणों सहित व्याख्यान किया गया है। इसकी यह भी एक विशेषता है कि जिन नगर, राजा, चैत्य आदिक का अन्यत्र संकेत मात्र पाया जाता है, उसका यहाँ पूरा वर्णन मिलता है।

(२) रायपसेणिज्जं - इसका संस्कृत रूपांतर राजप्रश्नीय किया जाता है, किंतु संभवत: उसका संबंध कोशलनरेश प्रसेनजित से रहा है जो पहले भौतिकवादी था, किंतु पश्चात् केशी मुनि के उपदेश से सम्यगदृष्टि बन गया। यह ग्रंथ पालि "मिलिंद पंहो" से तुलनीय है।

(३) जीवाजीवाभिगम - में नामानुसार प्रश्नोत्तर के रूप में जीव और अजीव के भेदप्रभेदों का वर्णन किया गया है।

(४) प्रज्ञापना में जैन दर्शन की नाना व्यवस्थाओं का विवरण हुआ है, जिससे यह ग्रंथ भगवती के समान जैन सिद्धांत का ज्ञानकोश ही कहा जा सकता है।

(५) वें, (६) ठे और (७) वें उपांगों के नाम क्रमश: सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति और चंद्रप्रज्ञाप्ति हैं जिनमें उन लोकों का जैन मान्यतानुसार वर्णन किया गया है।

(8) कल्पिका व (9) कल्पावतंसिका में मगधराज श्रेणिक, उसके पुत्र अजातशत्रु एवं उसके पोत्रों के चरित्र वर्णित हैं जिन्होंने अपने अपने कर्मानुसार नरक तथा स्वर्गगतियाँ प्राप्त कीं।

(१०) पुष्पिका एवं (११) पुष्पचूला में अनेक स्त्री पुरुषों की धार्मिक साधना, स्वर्गसुखों और महावीर की वंदना के लिये आगमन का वर्णन है।

(१२) वृष्णिदशा में द्वारावती के राजा कृष्णवासुदेव एवं तीर्थकर नेमिनाथ के चरित्र का वर्णन है।

छह छेदसूत्र

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(१) निशीथ, (२) महानिशीथ, (३) व्यवहार, (४) आचारदशा, (५) कल्पसूत्र और (६) पंचकल्प।

इनमें मुनियों की साधनाओं एवं व्रतों का भंग होने पर प्रायश्चित्त का विचार किया गया है। इन सबमें कल्पसूत्र का सबसे अधिक प्रचार है। मुनि आचार के अतिरिक्त इसमें महावीर तथा ऋषभदेव, नेमिनाथ और पश्र्वनाथ के चरित्र भी वर्णित हैं।

चार मूलसूत्र

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(1) उत्तराध्ययन, (2) दश्वैकालिक, (3) आवश्यक और (4) पिण्डनिर्युक्ति

इन सभी में मुख्यतया मुनि आचार का वर्णन है। इनमें उत्तराध्ययन की बड़ी प्रतिष्ठा है।

दस प्रकीर्णक

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(1) चतु:शरण (2) आतुर प्रत्याख्यान, (3) महाप्रत्याख्यान (4) भक्त परिज्ञा, (5) तंदुलवैचारिक,
(6) संस्तारक (7) गच्छाचर, (8) गणिविद्य, (9) देवंद्रस्तव और (10) मरणसमाधि।

ये सभी प्रायः पद्यात्मक हैं और इनमें मुनियों के पालने योग्य नीति का उपदेश दिया गया है।

दो चूलिका सूत्र

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(1) नंदी और (2) अनुयोगद्वार।

नंदी में ज्ञान के भेदों व श्रुतांगों का विस्तार से वर्णन है तथा अनुयोगद्वार में प्रश्नोत्तरों के रूप में नाना विषयों का परिचय कराया गया है जिसमें रसों व संगीत आदि का भी समावेश है।

उपरोक्त ही 45 जैनधार्मिक ग्रंथ है जो उपलब्ध अर्धमागधी साहित्य कहा जा सकता है। इन ग्रंथों पर निर्युक्ति, चूर्ण, टीका, भाष्य, वृत्ति आदि व्याख्यात्मक विशाल साहित्य प्राकृत और संस्कृत भाषाओं में पद्य और पद्यात्मक है। समस्त निर्युक्तियाँ भद्रबाहुकृत व चूर्णियाँ जिनदासगणि महत्तर कृत मानी जाती हैं। इनके भीतर जैन सिद्धांत के विवेचन के अतिरिक्त आख्यानात्मक रचनाओं का बड़ा वैपुल्य है जो साहित्य और इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

दिगंबर संप्रदाय में इन 45 आगम ग्रंथों की मान्यता और प्रचार नहीं है। उस परम्परा में लुप्त हुए द्वादशांग श्रुत के आधार से शौरसेनी प्राकृत में स्वतंत्र साहित्य का निर्माण हुआ जिसकी सर्वप्राचीन रचनाएँ पुष्पदंत और भूतबलिकृत कर्मप्राभृत नामक ग्रंथ हैं। इनमें जैन कर्मसिद्धांत का बड़ी व्यवस्था तथा सूक्ष्मता से प्ररूपण किया गया है। इनका रचनाकाल महावीर निर्वाण के के शीघ्र ही पश्चात् हुआ सिद्ध होता है। इनपर समय-समय पर अनेक टीकाएँ प्राकृत तथा संस्कृत में लिखी गईं, जिनमें से वर्तमान में सुप्रसिद्ध धवल और जयधवल नामक टीकाएँ हैं जिनके कर्ता वीरसेन और जिनसेन राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष (9वीं शती) के प्रायः समकालीन थे। प्राचीनता में कर्मप्राभृत और कषायप्राभृत के पश्चात् कुंदकुंदाचार्यकृत 12-13 शौरसेनी पद्यात्मक रचनाएँ हैं जिनमें प्रधान हैं - प्रवचनसार, समयसार, पंचास्तिकाय और नियमसार। इन सभी में जैन सिद्धांत, आचारशास्त्र, तथा स्थाद्वादात्मक न्याय का निरूपण किया गया है। समयसार, पंचास्तिका और नियमासार। इन सभी में जैन सिद्धांत, आचारशास्त्र, तथा स्थाद्वादात्मक न्याय का निरूपण किया गया है। समयसार में जैसा आध्यामिक विवेचन किया गया है वैसा अन्यत्र नहीं पाया जाता।

जैन परम्परा का कथात्मक साहित्य

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धार्मिक साहित्य के अतिरिक्त जैन परम्परा का बहुत सा कथात्मक साहित्य भी प्राकृत में पाया जाता है। इस प्रकार की सबसे प्राचीन रचना विमलसूरिकृत पउमचरियं (पद्मचरितम्) है जिसमें कर्ता ने अपने ग्रंथ की समाप्ति का समय दुषमा काल के 530 (वीर निर्वाण 534) वर्ष पश्चात् अर्थात् ईसवी सन् 7 सूचित किया है। किंतु विद्वानों को इसकी वास्तविकता में संदेह होता है और वह मुख्यत: इस आधार पर कि ग्रंथ में प्राकृत भाषा का जो स्वरूप मिलता है वह मध्ययुग के दूसरे स्तर का है, जिसका विकासकाल ई. सन् की दूसरी तीसरी शती से पूर्व नहीं माना जा सकता। यहाँ हमें भाषा की वे सब प्रवृत्तियाँ पुष्ट रूप से दिखाई देती हैं और जिन्हें प्राय: महाराष्ट्री प्राकृत के लक्षण माना जाता है। पउमचरियं में सात अधिकार हैं जो 118 उद्देश्यों में विभाजित हैं। समस्त रचना पद्यात्मक है। छंद गाथा है किंतु स्थान-स्थान पर छंदवैचित्र्य भी पाया जाता है। शैली सरस और सरल है तथा उसमें कथात्मकता ही प्रधान है। मूल कथा वाल्मीकि कृत रामायण के सदृश है, किंतु अवांतर बातों में उससे बहुत भिन्नता भी है, जैसे सीता का एक भाई भामंडल भी था; राम ने बर्बर जातियों के मिथिला पर आक्रमण होने पर जनक की सहायता की थी और इसी के उपलक्ष्य में जनक ने सीता को उन्हें अर्पित करने का संकल्प किया था। सुग्रीव, हनुमान आदि वानर नहीं थे, उनका ध्वजचिह्न वानर होने से वे वानरवंशी कहलाते थे। रावण के दशमुख नहीं थे, किंतु उसके प्राकृतिक एक मुख के अतिरिक्त नवरत्नमय हार में मुख के नव प्रतिबिंब दिखाई देने से वह दशानन कहलाने लगा था। उसकी मृत्यु राम के हाथ से नहीं, किंतु लक्ष्मण के हाथ से हुई।

प्राकृत में दूसरा जैन पुराण है- चउपन्नमहापुरिसरियं (चौपन महापुरुष चरित), जो शीलांकाचार्य द्वारा वि. सं. 925 में रचा गया था। यह प्रायः गद्यात्मक है और इसमें 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव और 9 वासुदेव - इन 54 महापुरुषों का चरित्र वर्णित है। वहाँ रामकथानक में वाल्मीकिकृत रामायण से कुछ और बातें भी ली गई हैं, जो पउमचरियं में नहीं हैं। प्राकृत गद्य में रचित एक और महापुराण भद्रेश्वरकृत कथावलि (12वीं शती) है, जिसमें उपर्युक्त 54 महापुरुषों के अतिरिक्त 9 प्रतिवासुदेवों के चरित्र सम्मिलित होने से समस्त 63 शलाकापुरुषों के चरित्र भी काव्य की रीति से वर्णित पाए जाते हैं। इनमें वर्धमानसूरिकृत आविनाथचरित, सोमप्रभकृत सुमतिनाथचरित, देवसूरिकृत पद्मप्रभचरित, नेमिचंद्रकृत अनंतनाथचरित, देवंद्रगणिकृत वर्धमान चरित आदि अनेक विशाल रचनाएँ प्रकाश में आ चुकी हैं। ये रचनाएँ प्राय: 12वीं, 13वीं शती ई. की हैं, इनकी भाषा वही प्राकृत है जिसका प्राकृत व्याकरणों में परिचय पाया जाता है और जिसे पाश्चात्य विद्वानों के "जैन महाराष्ट्रों" की संज्ञा प्रदान की है।

पादलिप्तसूरिकृत तरंगवतीकथा का उल्लेख अनेक प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। यह मूल ग्रंथ पद्य अप्राप्य है, किंतु इसके आधार से निर्मित नेमिचंद्रकृत तरंगलीला (15वीं शती ई.) नामकरचना उपलब्ध है। इसका कथानक एक उपन्यास है, जिसमें पात्रों के अनेक जन्मों का वृत्तांत गुथा हुआ है और वह बाणकृत कादंबरी का स्मरण कराता है।

प्राकृत गद्य साहित्य में हरिभद्रसूरिकृत समरादित्यकथा (8वीं शती ई.) का विशेष स्थान है। यह धर्मकथा है जिसमें परस्पर विरोधी दो पुरुषों के नौ जन्मांतरों का क्रमश: वर्णन किया गया है। विद्वेषी पुरुष प्रत्येक जन्म में अपने वैरी से ईर्ष्याभाव के कारण उत्तरोत्तर अधोगति को प्राप्त होता है और चत्रिनायक अपने मन तथा चारित्र्य को उत्तरोत्तर शुद्ध बनाता हुआ अंतिम भाव में समरादित्य नाम का राजा होकर तपस्या द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है। नौ ही भवों के कथानक अपने अपने रूप में स्वतंत्र और परिपूर्ण हैं तथा उनमें मानवीय भावनाओं तथा समाज के नाना स्तरों का सुदर चित्रण पाया जाता है। हरिभद्र की दूसरी उल्लेखनीय प्राकृत रचना है - धूर्ताख्यान। इसके पाँच आख्यानों में पाँच धूर्तों ने अपने अपने ऐसे कथानक सुनाए हैं जिनसे अनेक पौराणिक अतिशयोक्तिपूर्ण वृत्तांतों की व्यंग्यात्मक आलोचना होती है। इस प्रकार यह पद्यात्मक रचना प्राकृत में ही नहीं, किंतु प्राचीन भारतीय साहित्य में व्यंग्यकथा का एक अपूर्व उदाहरण है।

इसी प्रकार की एक कथा उद्योतनसूरिकृत कुवलयमाला (ई. सन् 778) है। इसमें नायिका तथा उसके अन्य साथियों के तीन-चार जन्मांतरों का वर्णन अति रोचकता के साथ ग्रथित किया गया है।

धनेश्वरसूरिकृत सुरसुंदरीचरित्र (11वीं शती ई.)। गाथात्मक कथानक है जिसमें अनेक संयोग और वियोगात्मक प्रेमाख्यान ग्रथित हैं। महेश्वरसूरिकृत ज्ञानपंचमीकथा (11वीं शती ई.) में दश धार्मिक कथाओं का समावेश हुआ है। हेमचंद्रकृत कुमारपालचरित (12वीं शती ई.) आठ सर्गो का एक काव्य है जिसमें कर्ता के समकालीन गुजरात के राजा कुमारपाल के चरित्रवर्णन के साथ साथ कवि ने अपने प्राकृत व्याकरण के नियमों को उसी क्रम से उदाहृत किया है। इस प्रकार यह संस्कृत के भट्टिकाव्य का स्मरण दिलाता है जिसमें पाणिनीय व्याकरण के उदाहरण उपस्थित किए गए हैं, यद्यपि यहाँ वे उदाहरण उस प्रकार क्रमबद्ध नहीं हैं जैसे कुमारपालचरित्र में। देवेंद्रसूरिकृत श्रीपालचरित (14वीं शती), देवंद्रगणिकृत रत्नचूडारायचरित, सुमतिसूरिकृत जिनदत्ताख्यान तथा जिनहर्षगणिकृत रत्नशेखरीकथा आदि अनेक प्राकृत कथानक जैन साहित्य में उलब्ध हैं तथा इनके अतिरिक्त व्रतकथाओं के रूप में बहुत सी लघु कथाएँ भी प्राप्त हैं।

महाराष्ट्री प्राकृत

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दंडी ने अपने काव्यादर्श नामक अलंकार शास्त्र में महाराष्ट्री को सेतुबंध आदि काव्यों की भाषा कहा है :

सहाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृतष्टं प्राकृतं विदुः।
सागरः सूक्तिरत्नानां सेतुबन्धादि यन्मयम्॥

इससे प्राकृत भाषा और साहित्य के संबंध की दो महत्वपूर्ण बातें सिद्ध होती हैं- एक तो यह कि दंडी के समय (छठी सातवीं शती) में प्राकृत भाषा का जो स्वरूप विकसित होकर काव्यरचना में उतरने लगा था, उसी का नाम महाराष्ट्री प्राकृत प्रसिद्ध हुआ और दूसरी यह कि इसी प्राकृत में सेतुबंध और उसी के सदृश अन्य भी कुछ रचनाएँ उस समय प्रसिद्ध हो चुकी थीं। सौभाग्यतः दंडी द्वारा उल्लिखित सेतुबंध काव्य अब भी उपलब्ध है और प्राकृत की एक उत्कृष्ट रचना माना जाता है। इसका उल्लेख वाणभट्ट ने भी हर्षचरित को उत्थानिका में इस प्रकार किया है :

कीर्तिः प्रवरसेनस्य प्रयाता कुमुदोज्जवला।
सागरस्य परं पारं कपिसैनैव सेतुना॥

इससे सिद्ध होता है कि इस सेतुबंध के कर्ता का नाम प्रवरसेन था और बाण के समय (सातवीं शती का मध्य) तक इसकी कीर्ति समुद्रपार संभवतः लंका तक पहुँच चुकी थी। इसका नाम रावणवध या दशमुखवध भी पाया जाता है। कहीं-कहीं इसके कर्ता कालिदास भी कहे गए हैं। इस संबंध के समस्त उल्लेखों के विवेचन से यह बात प्रमाणित होती है कि इस काव्य के कर्ता वाकाटकवंशी राजा रुद्रसेन के पुत्र प्रवरसेन ही हैं। उनके पिता की मृत्यु उनके बाल्यकाल में ही हो गई थी और उनकी माता प्रभावती गुप्ता राज्य का कार्य सँभालती थीं। प्रभावती गुप्ता सम्राट् चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की पुत्री थीं। इसीलिये गुप्तसम्राट् ने अपनी सभा के महाकवि कालिदास का कुछ काल के लिये उनके सहायतार्थ भेजा था। अनुमानतः उसी बीच यह काव्यरचना हुई और कालिदास ने उसका कुछ संशोधन भी किया होगा। इस बात का कुछ आभास हमें काव्य के आदि में ही सातवीं गाथा में मिलता है। इन बातों से यह रचना गुप्तसम्राट् चंद्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल (ई. सन् 380 से 413) की सिद्ध होती है। इस काव्य में 15 आश्वास हैं और प्रत्येक आश्वास के अंतिम पद्य में कवि ने अपने को अनुरागअंक या अनुरागचिह्न द्वारा सूचित किया है। काव्य का कथानक सीता अपहरण के पश्चात् प्रारंभ होता है, जब राम वियोग की व्यथा में हैं। सुग्रीव की सहायता से हुनमान द्वारा लंका में सीता का पता लगाया गया और फिर राम लक्ष्मण वानरसेना सहित लंका पर आक्रमण करने के लिये निकले, किंतु समुद्रतट पर आकर एक बड़ी समस्या समुद्र पार करने की उपस्थित हुई। बड़े प्रयत्न से उस पर सेतु बनाया गया, सेना पार हुई; युद्ध में रावण मारा गया, तथा सीता की अग्निपरीक्षा के पश्चात् उन्हें साथ ले राम पुष्पक विमान द्वारा अयोध्या को लौट आए। कथानक वाल्मीकि रामायण का ही अनुसरण करता है, किंतु प्रकृति तथा घटनाओं का वर्णन कवि का अपना है। शैली समास और अलंकारप्रचुर है।

दंडी ने महाराष्ट्री को जो सेतुबंधादि काव्यों की भाषा कहा है, उससे उनका तात्पर्य संभवतः सेतुबंध के अतिरिक्त गाथासप्तशती से है जिसका उल्लेख बाण ने हर्षचरित में इस प्रकार किया है:

अविनाशिनमग्राह्यमकरोत्सातवाहन:।
विशुद्ध जातिभि: कोषं रत्नेखिसुभाषितै:॥ (हर्षचरित 13)

इसके अनुसार सातवाहन ने सुंदर सुभाषितों का एक कोश निर्माण किया था। आदि में यह कोश सुभाषितकोश या गाथाकोश के नाम से ही प्रसिद्ध था। पीछे क्रमश: सात सौ गाथाओं का समावेश हो जाने पर उसकी सप्तशती नाम से प्रसिद्ध हुई। सातवाहन, शालिवाहन या हाल नरेश भारतीय कथासाहित्य में उसी प्रकार ख्यातिप्राप्त हैं जैसे विक्रमादित्य। वात्स्यायन तथा राजशेखर ने उन्हें कुंतल का राजा कहा है और सोमदेवकृत कथासरित्सागर के अनुसार वे नरवाहनदत के पुत्र थे तथा उनकी राजधानी प्रतिष्ठान (आधुनिक पैठण) थी। पुराणों में आंध्र भृत्यों की राजवंशावली में सर्वप्रथम राजा का नाम सातवाहन तथा सत्रहवें नरेश का नाम हाल निर्दिष्ट किया गया है। इन सब प्रमाणों से हाल का समय ई. की प्रथम दो, तीन शतियों के बीच सिद्ध होता है और उस समय गाथा सप्तशती का कोश नामक मूल संकलन किया गया होगा। राजशेखर के अनुसार सातवाहन ने अपने अंत:पुर में प्राकृत भाषा के ही प्रयोग का नियम बना दिया था। एक जनश्रुति के अनुसार उन्हीं के समय में गुणाढ्य द्वारा पैशाची प्राकृत में बृहत्कथा रची गई, जिसके अब केवल संस्कृत रूपांतर बृहत्कथामंजरी तथा कथासरित्सागर मिलते हैं। गाथासप्तशती की प्रत्येक गाथा अपने रूप में परिपूर्ण है और किसी मानवीय भावना, व्यवहार या प्राकृतिक दृश्य का अत्यंत सरसता और सौंदर्य से चित्रण करती है। श्रृंगार रस की प्रधानता है, किंतु हास्य, कारुण्य आदि रसों का भी अभाव नहीं है। प्रकृतिचित्रण में विंध्यपर्वत ओर गोला (गोदावरी) नदी का नाम पुन:-पुन: आता है। ग्राम, खेत, उपवन, झाड़ी, नदी, कुएँ, तालाब आदि पर पुरुष स्त्रियों के विलासपूर्ण व्यवहार एव भावभंगियों का जैसा चित्रण यहाँ मिलता है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। इस संग्रह का पश्चात्कालीन साहित्य पर बड़ा प्रभाव पड़ा है। इसी के आदर्श पर जैन कवि जयवल्लभ ने "वज्जालग्गं" नामक प्राकृत सुभाषितों का संग्रह तैयार किया, जिसकी लगभग 800 गाथाओं में से कोई 80 गाथाएँ इसी कोश से उद्धृत की गई हैं। संस्कृत में गोवर्धनाचार्य (11वीं-12वीं शती) ने इसी के अनुकरण पर आर्यासप्तशती की रचना की। हिंदी में तुलसीसतसई और बिहारी सतसई संभवत: इसी रचना से प्रभावित हुई हैं।

प्राकृत में जिस प्रकार सेतुबंध की ख्याति काव्य की दृष्टि से रही है, उसी प्रकार लीलावती की प्रसिद्धि कथा की दृष्टि से पाई जाती है। भोजदेव, हेमचंद्र, वाग्भट्ट आदि संस्कृत के अलंकार शास्त्रकारों ने गद्यमयी कथा का उदाहरण कादम्बरी और पद्यमयी कथा का लीलावती को दिया है। उद्योतनसूरि ने अपनी कुवलयमाला नामक कथा में कौतूहलकृत प्राकृत भाषा रचित एवं मरहट्ठ देशीवचन निबद्ध शुद्ध सकलकथा का उल्लेख किया है, जिससे इसी रचना का अभिप्राय सिद्ध होता है। उससे इसके कर्ता का नाम कौतूहल और रचनाकाल 778 ई. से पूर्व का निश्चय हो जाता है। यह रचना कुछ वर्ष पूर्व ही प्रकाश में आई है (भारतीय विद्याभवन, बंबई 1949) इसमें कोई परिच्छेदादि विभाग नहीं हैं। लगातार 13000 से कुछ अधिक गाथाओं में कथा समाप्त हुई है। 1330वीं गाथा में कवि ने स्वयं कहा है कि उन्होंने इसकी रचना महाराष्ट्री प्राकृत में की है (रइयं मरहट्ठ देसि भासाए)। इस कथा के नायक अस्मक देश के प्रतिष्ठाननगर के राजा सातवाहन हैं। एक महा घटनाचक्र के पश्चात् उनका विवाह सिंहल के राजा शिलामेघ की राजकुमारी लीलावती से हुआ। उनके मंत्रियों के नाम यहाँ पोट्सि और कुमारिल बतलाए गए हैं। ये दोनों नाम गाथासप्तशती व गाथाओं के कर्ताओं में भी पाए जाते हैं। इससे इस बात की भी पुष्टि होती है कि इस कथा के कर्ता सातवाहन, शालिवाहन या हाल ही हैं ये तीनों ही नाम इस कथा में यत्र-तत्र आए हैं। कथा बड़ी सरल और सरस शैली में वर्णित है।

महाराष्ट्री प्राकृत का एक उत्कृष्ट काव्य है गउडवहो (गौडवध) जिसके कर्ता वाक्पतिराज ने अपने को कान्यबुज नरेश यशोवर्मा का समकालीन कहा है। उन्होंने भास, संबंधु, हरिच एवं भवभूति आदि कवियों का उल्लेख भी किया है। इन सब लेखों पर से इनका समय 8 वीं शती ई. अनुमान किया जा सकता। इस काव्य में भी कोई परिच्छेद नहीं है। लगातार 1200 से कुछ ऊपर गाथाएँ हैं, जिनमें राजा यशोवर्मा के प्रताप और उनकी जययात्रा तथा गौड़देश के राजा के वध का वर्णन किया गया है।

प्राकृत काव्यरचना की परंपरा 18वीं शती तक बताई जाती है। इस शताब्दी के प्रसिद्ध प्राकृत कवि हैं रामपाणिवाद (ई. 1707 से 1775) जिनकी दो प्राकृत रचनाएँ सुप्रसिद्ध हैं। एक है कंसवहो (कंसवध) जिसके चार सर्गो में उद्धव के द्वारा कृष्ण और बलराम को धनुषयज्ञ के बहाने गोकुल से मथुरा ले जाने और उनके द्वारा कंस की मृत्यु का वर्णन भागवत की कथा के आधार किया गया है। शैली में कालिदास, भारवि तथा माघ की रचनाओं का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। रामपाणिवाद का दूसरा प्राकाव्य है उषानिरुद्धं, जिसमें प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध का बाणाकी पुत्री उषा से विवाह का वर्णन चार सर्गो में किया गया है। यह कथानक भी भागवतादि पुराणों पर आश्रित है, किंतु कवि ने अपनी काव्यप्रतिभा से अच्छा सजाया है। सुदूरवर्ती केरल में 18वीं शती में शुद्ध प्राकृत की ये काव्यरचनाएँ इस बात का प्रमाण हैं कि प्राकृत के पठन-पाठन तथा काव्यसृजन का प्रवाह परिस्थिति के अनुसार तीव्र और मंद भले ही पड़ा हो, किंतु वह सर्वथा सूखा नहीं है।

प्राकृत साहित्य का महत्त्व

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इस प्रकार प्राकृत साहित्य अपने रूप एवं विषय की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है तथा भारतीय संस्कृति के सर्वांग परिशीलन के लिये उसका स्थान अद्वितीय है। उसमें उन लोकभाषाओं का प्रतिनिधित्व किया जाता है जिन्होंने वैदिक काल एवं संभवत: उससे भी पूर्वकाल से लेकर देश के नाना भागों को गंगा यमुना आदि महानदियों के अनुमान प्लावित किया है और उसकी साहित्यभूमि को उर्वरा बनाया हैं। ई. पूर्व छठी शती से लेकर प्राय: वर्तमान तक प्राकृत भाषाओं में ग्रंथरचना होती चली आई है, यद्यपि शास्त्रीय दृष्टि से उन भाषाओं का विकास ई. सन् 1000 तक ही माना जाता है, क्योंकि उसके पश्चात् हिंदी, गुजराती, मराठी, बँगला, आदि आधुनिक भाषाओं का युग प्रारंभ होता है। मगध से लेकर दरद प्रदेश (पश्चिमोत्तर भारत) तथा हिमालय से लेकर सिंहल द्वीप तक की नानाविध लोकभाषाओं का स्वरूप प्राकृत में सुरक्षित है। इस साहित्य का बहु भाग यद्यपि जैनधर्म विषयक है, तथापि उसमें तत्कालीन लोकजीवन ऐसा प्रतिबिंबित है जैसा अन्यत्र दुर्लभ है। इसमें नानाकालीन एवं नानादेशीय ऐतिहासिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक आदि महत्वपूर्ण झाँकियाँ दिखाई देती है जिनका भारतीय इतिहास में यथोचित मूल्यांकन करना अभी शेष है। भाषाओं के अतिरिक्त देश के धार्मिक, दार्शनिक व नैतिक विकास की परम्परा और उसकी गुत्थियों को स्पष्टता से समझने में इस साहित्य से बहुमूल्य सहायता मिल सकती है। यह महत्वपूर्ण साहित्य अभी तक पूर्णत: प्रकाशित नहीं हो सका है। जितना भाग प्रकाशित हुआ है उसका भी समालोचनात्मक रीति से संपादन बहुत कम हुआ है वैज्ञानिक तथा तुलनात्मक अध्ययन भी बहुत शेष है।

यह भी देखिये

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