ह्वेन त्सांग

चीनी बौद्ध भिक्षु (602-664 ईस्वी)
(युवान् च्वांग से अनुप्रेषित)

ह्वेन त्सांग (चीनी: 玄奘; pinyin: Xuán Zàng; Wade-Giles: Hsüan-tsang) एक प्रसिद्ध चीनी बौद्ध भिक्षु था। वह हर्षवर्द्धन के शासन काल में भारत आया था। वह भारत में 15 वर्षों तक रहा। उसने अपनी पुस्तक "सी-यू-की" में अपनी यात्रा तथा तत्कालीन भारत का विवरण दिया है। उसके वर्णनों से हर्षकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अवस्था का परिचय मिलता है। इन्हे यात्रियों का राजकुमार कहा जाता हैं।

ह्वेन त्सांग का एक चित्र

आरम्भिक जीवन

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ह्वेन त्सांग का जन्म चीन के लुओयंग स्थान पर सन 602 में हुआ था और मृत्यु 5 फरवरी, 664 में हुई थी।[1] ह्वेन त्सांग अपने चारों भाई-बहनों में सबसे छोटा था। इसके प्रपितामह राजधानी के शाही महाविद्यालय में प्रिफेक्ट थे और पितामह प्रोफैसर थे। इसके पिता एक कन्फ्यूशियनिस्ट थे। इसके बावजूद भी यह भिक्षुक बनना चाहता था। इसके पिता की मृत्यु सन 611 में हुई जिसके बाद यह अपने बड़े भाई चेनसू (बाद में चांगजी कहलाय) के साथ जिंगतू मठ में रहा। इस काल में इसने थेरवडा और महायन बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। 618 में सुई वंश के पतन के बाद दोनों भाई चांगान भाग गये, जिसे तांग वंश की राजधानी माना जाता था। वहां से दक्षिण में सिन्चुआन गये। वहां दोनों भाई कोंग हुई मठ में दो-तीन वर्ष पढ़े। वहीं अभिधर्मकोष शास्त्र का अध्ययन भी किया। वहीं इसने भिक्षुक बनने की बात की। तेरह वर्ष मात्र आयु में ही अपनी अद्वितीय प्रतिभा के कारण यह मठाधीश बन गया। सन 622 में इसे पूर्ण भिक्षु बनाया गया। जब यह बीस वर्ष का था। बौद्ध पाठ्यों में तथा वेदिक साहित्य में मतभेद और भ्रम के कारण इसने भारत जाकर मूल पाठ का अध्ययन करने का निश्चय किया। तब इसने अपने भाई को छोड़कर चांगान वापस लौट कर विदेशी भाषाओं की शिक्षा लीं। और वह 626 में संस्कृत में पारंगत हो गया। इसी काल में इसे योग शिक्षा का भी शौक हुआ।

तीर्थ यात्राएं

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सन 629 में उसे एक सपने में भारत जाने की प्रेरणा मिली। उसी समय तंग वंश और तुर्कों का युद्ध चल रहे थे। इस कारण राजा ने विदेश यात्राएं निषेध कर रखीं थीं। इसने कुछ बौद्ध रक्षकों से प्रार्थना करके लियांगज़ाउ और किंघाई प्रांत होते हुए तंग राज्य से पलायन किया। फ़िर इसने गोबी मरुस्थल होते हुए कुमुल, तियान शान पश्चिम दिशा में, हो कर तुर्फान पहुंचा। यह सन 630 की बात है। वहां के राजा ने इसे आगे की यात्रा हेतु सशस्त्र किया। उसने इसे कई परिचय हेतु पत्र भी दिये। फिर यह डाकुओं के साथ यांकी और थेरवाडा मठ होते हुए कुचा पहुंचा। वहां से पूर्वोत्तर होने से पहले आक्रु से गुजरा। फिर किर्घिस्तान के तियान शान दर्रे से होते हुए तोकमक, उज़्बेकिस्तान होकर महान खान से मिला। फिर वह पश्चिम और दक्षिण पश्चिम में ताश्कंत में चे-शिह (वर्तमान राजधानी) पहुंचा। फिर और पश्चिम में मरुस्थल के बाद समरकंद पहुंचा, जो फारस के बादशाह के अधीन था। वहां वे बौद्ध खंडहरों में घूमे। उसने स्थानीय राजा को भी अपनी शिक्षाओं से प्रभावित किया। फिर और दक्षिण में इसने प्रसिद्ध पामीर पर्वतमाला को पार किया और अमु दरिया और तर्मेज़ पहुंचा। वहां इसे हज़ार से अधिक भिक्षुक मिले। वहां से कुण्डूज़ पहुंचा और वहां के राजकुमार की अन्त्येष्टि देखी। वहीं उसकी मुलाकात भिक्षु धर्मसिंह से हुई। उसके बताने पर उसने बलख की यात्रा की और वहां अनेकों धर्म स्थल देखे। इनमें खास था नव विहार, या नवबहार; जिसे पश्चिमतम मठ कहा गय। वहां उसे लगभग 3000 भिक्षु मिले, जिनमें प्रज्ञानाकर भी थे। यहीं इसने महत्वपूर्ण महाविभाष पाठ्य देखा, जिसे बाद में चीनी में अनुवाद भी किया था। फ़िर दक्षिण में बामियान आये, जहां इसकी राजा से भेंट हुई और इसने दर थरवडा मठ और दो बड़े मठ भी देखे। फिर पूर्व में शिबर दर्रे को पार कर कापिसी पहुंचे, जो काबुल से साथ कि, मी, दूर है। यहां महायन के सौ मठ थे और 6000 भिक्षु थे। यह गांधार प्रदेश था। इस यात्रा में इसे हिन्दू और जैन भी मिले। फिर यह जलालाबाद और लघमन आया। यहां आकर इसको सन्तोष हुआ कि वह भारत पहुंच गया है। यह सन 630 की बात है।

ह्नेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि उसने कर्ण-सुवर्ण (प० बंगाल), समतट (पूर्वी बंगाल) और पुंड्रवर्धन (उत्तरी बंगाल) में सम्राट अशोक द्वारा निर्मित स्तूप के दर्शन किये थे।

दक्षिण एशिया

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जलालाबाद में कुछ ही भिक्षु थे, लेकिन कई स्तूप और मठ थे। वह यहां से खायबर दर्रा होते हुए तत्कालीन गांधार राजधानी पेशावर पहुंचा। इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म पतन पर था। इसने कई स्तूपों की यात्रा की, जिनमें कनिष्क स्तूप प्रमुख था। वर्तमान में यह सब तोड़ा जा चुका है, परन्तु सन 1908 में ह्वेन त्सांग के विवरण द्वारा इसे खोजा गया था। पेशावर से वह पूर्वोत्तर में स्वात घाटी होते हुए उद्यान पहुंचा, जहां उसे 1400 मठ मिले, जिनमें पहले 18000 भिक्षु रहते थे। शेष भिक्षु महायन थे। फिर उत्तर चलने पर बुनेर घाटी पहुंचा। फिर इसने सिंधु नदी पार की, हुंद पर और तक्षशिला, एक महायन बौद्ध राज्य, जो कश्मीर के अधीन था। यहां से वह कश्मीर पहुंचा। यहीं एक बुद्धिमान प्रज्ञावान बौद्ध भिक्षु के साथ दो वर्ष व्यतीत किये। सन 633 में त्सांग ने कश्मीर से दक्षिण की ओर चिनाभुक्ति जिसे वर्तमान में फिरोजपुर कहते हैं, प्रस्थान किया। वहां भिक्षु विनीतप्रभा के साथ एक वर्ष तक अध्ययन किया। सन 634 में पूर्व मं जालंधर पहुंचा। इससे पूर्व उसने कुल्लू घाटी में हिनायन के मठ भी भ्रमण किये। फिर वहां से दक्षिण में बैरत, मेरठ और मथुरा की यात्रा की, यमुना के तीरे चलते-चलते। मथुरा में 2000 भिक्षु मिले और हिन्दू बहुल क्षेत्र होने के बाद भी, दोनों ही बौद्ध शाखाएं वहां थीं। उसने श्रुघ्न नदी तक यात्रा की और फिर पूर्ववत मतिपुर के लिये नदी पार की। यह सन 635 की बात है। फिर गंगा नदी पार करके दक्षिण में संकस्य (कपित्थ) पहुंचा, जहां कहते हैं, कि गौतम बुद्ध स्वर्ग से अवतरित हुए थे। वहां से उत्तरी भारत के महा साम्राट हर्षवर्धन की राजधानी कान्यकुब्ज (वर्तमान कन्नौज) पहुंचा। यहां सन 636 में उसने सौ मठ और 10,000 भिक्षु देखे (महायन और हिनायन, दोनों ही)। वह सम्राट की बौद्ध धर्म की संरक्षण और पालन से अतीव प्रभावित हुआ। उसने यहां थेरवड़ा लेखों का अध्ययन किया। फिर पूर्व की ओर अयोध्या और साकेत का रुख किया। यहां यौगिक शिक्षा का गृहस्थान था। फिर वह दक्षिणवत कौशाम्बी पहुंचा। यहां उसे बुद्ध की स्थानीय छवि की प्रति मिली। फिर वह उत्तर में श्रावस्ती पहुंचा। और अंततः प्रसिद्ध कपिलवस्तु पहुंचा। यह लिम्बिनी से पूर्व अंतिम पड़ाव था। लुम्बिनी, बुद्ध के जन्मस्थान पहुंचा, वहीं उसने अशोक का स्तंभ भी देखा। सन 637 में वह लुम्बिनी से कुशीनगर रवाना हुआ, जहां बुद्ध ने निर्वाण प्राप्त किया था। फिर वह दक्षिणवत सारनाथ पहुंचा, जहां बुद्ध ने अपना पहला प्रवचन किया था। यहां उसे 1500 भिक्षु मिले। फिर पूर्ववत वह वाराणसी और फिर वैशाली और फिर पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) पहुंचा। और वहां से बोध गया पहुंचा। यहां से दो भिक्षुओं सहित वह नालंदा गया, जहां उसने अगले दो वर्ष व्यतीत किये। त्सांग ने यहां तर्कशास्त्र, व्याकरण, संस्कृत और बौद्ध योगशास्त्र सीखा। यहां से वह दक्खिन की ओर चला और आंध्रदेश में अमरावती और नागर्जुनकोंडा के प्रसिद्ध विहार भ्रमण किये। फिर वह कांची, जो कि पल्लव वंश की शाही राजधानी थी, पहुंचा। यह बौद्ध धर्म का शक्ति केन्द्र था।

चीनी बौद्ध धर्म पर त्सांग का प्रभाव

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ग्रेट वाइल्ड गूज़ पगोडा मंदिर के बाहर त्सांग की मूर्ति, ज़ियांग में

अपनी यात्रा के दौरान, वह अबेकों बौद्ध प्रवीणों से मिला। खासकर नालंदा विश्वविद्यालय में, जहां वृहत बौद्ध शिक्षा केन्द्र था। चीन लौटने पर, उसके साथ 657 संस्कृत पाठ्य थे। सम्राट के सहयोग से, उसने बड़ा अनुवाद संस्थान चआंग में खोला, जिसे वर्तमान में ज़ियांन कहते हैं। यहां पूरे पूर्वी एशिया से छात्र आते थे। उसने 1330 लेखों के अनुवाद चीनी भाषा में किये। उसका सर्वोत्तम योगदान योगकारा Yogācāra (瑜伽行派) के क्षेत्र में था।


त्सांग को उसके भारतीय बौद्ध पाठ्यों के यथार्थ और सटीक चीनी अनुवादों और बाद में खोये हुए भारतीय बौद्ध पाठ्यों की उसके द्वारा किये चीनी अनुवादों से पुनर्प्राप्ति के लिये सर्वदा स्मरण किया जायेगा। उसके द्वारा लिखे ”’चेंग वैशी लूं”’, इन पाठ्यों पर टीका के लिये भी चिरस्मरणीय रहेगा। उसका हृदय सूत्र क अनुवाद अब तो मानक बन चुका है। उसने लघु काल के लिये ही सही, परन्तु चीनी फ़ाक्ज़ियान विद्यालय की स्थापना की थी। इस सबके साथ ही उसे हर्षवर्धन के कालीन भारत के वर्णन के लिये सन्दर्भित किया जाता है।

उसकी जीवनी और आत्मकथा

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सन 646 में सम्राट के निवेदन पर, त्सांग ने अपनी पुस्तक महान तांग वंश में पश्चिम की यात्रा (大唐西域記), पूर्ण की। यह मध्य एशिया और भारत के मध्यकालीन इतिहास में एक महत्वपूर्ण योगदान मानी जाती है। इसका फ्रेंच में 1857 में अनुवाद स्टैनिस्लैस जूलियन द्वारा किया गया था। भिक्षु हुइलि द्वारा त्सांग की जीवनी भी लिखी गयी। .[2][3]

उसकी पैतृक संपत्ति

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त्संग की रेशम मार्ग पर यात्रा और उसके साथ जुड़ी कथायें, चीनी मिंग वंश को प्रेरित करती रहीं और उसका परिणाम था उपन्यास पश्चिम की यात्रा। यह एक महान चीनी साहित्य कहलाता है। इसमें पात्र ज़ुआंगज़ांग बुद्ध का पुनर्जन्म माना जाता है। इसकी यत्रा के दौरान उसकी रक्शा तीन शक्तिशाली चेलों द्वारा की जाती है। एक था सुन वुकोंग – एक बंदर, जो की सर्वप्रिय चीनी और जापानी पात्र रहा और अब कार्टून अनिमेशन में भी आता है। युआन वंश में, वु चांगलिंग का एक नाटक भी खेला गया, जिसमें ज़ुआंग ने लेख ढूंढे थे।

एक मानव खोपड़ी, जिसे त्सांग की बताया जता है, वह तियान्जिन के टेम्पल ऑफ ग्रेट कम्पैशन में सन 1956 तक थी और फिर दलाई लामा द्वारा लाई गयी और भारत को भेंट कर दी गयी। यह वर्तमान में पटना संग्रहालय में सुरक्षित है।

इन्हें भी देखें

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  1. Sally Hovey Wriggins. Xuanzang: A Buddhist Pilgrim on the Silk Road. Westview Press, 1996. Revised and updated as The Silk Road Journey With Xuanzang. Westview Press, 2003. ISBN 0-8133-6599-6, pp. 7, 193
  2. Beal, Samuel. 1884. Si-Yu-Ki: Buddhist Records of the Western World, by Hiuen Tsiang. 2 vols. Translated by Samuel Beal. London. 1884. Reprint: Delhi. Oriental Books Reprint Corporation. 1969.
  3. Beal, Samuel. 1911. The Life of Hiuen-Tsiang. Translated from the Chinese of Shaman Hwui Li by Samuel Beal. London. 1911. Reprint Munshiram Manoharlal, New Delhi. 1973.

सामान्य स्रोत

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  • Sally Hovey Wriggins. Xuanzang: A Buddhist Pilgrim on the Silk Road. Westview Press, 1996. Revised and updated as The Silk Road Journey With Xuanzang. Westview Press, 2003. ISBN 0-8133-6599-6.
  • On Yuan Chwang’s Travels in India tr. Thomas Watters. Reprint. New Delhi, Munshiram Manoharlal, 1996. ISBN 81-215-0336-1.
  • Stanislas Julien. 1857. Memoires sur les contrées occidentales. Paris.

बाहरी कड़ियाँ

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Xuanzang in India: