शोले (1975 फ़िल्म)

1975 की रमेश सिप्पी की फ़िल्म

शोले (अनुवाद. Sholay) १९७५ की एक भारतीय हिन्दी एक्शन फिल्म है। सलीम-जावेद द्वारा लिखी इस फिल्म का निर्माण गोपाल दास सिप्पी ने और निर्देशन का कार्य, उनके पुत्र रमेश सिप्पी ने किया है। इसकी कहानी जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेन्द्र) नामक दो अपराधियों पर केन्द्रित है, जिन्हें डाकू गब्बर सिंह (अमजद ख़ान) से बदला लेने के लिए पूर्व पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) अपने गाँव लाता है। जया भादुरी और हेमा मालिनी ने भी फ़िल्म में मुख्य भूमिकाऐं निभाई हैं। शोले को भारतीय सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक माना जाता है। ब्रिटिश फिल्म इंस्टिट्यूट के २००२ के "सर्वश्रेष्ठ १० भारतीय फिल्मों" के एक सर्वेक्षण में इसे प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। २००५ में पचासवें फिल्मफेयर पुरस्कार समारोह में इसे पचास सालों की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार भी मिला।

शोले

शोले का पोस्टर
निर्देशक रमेश सिप्पी
लेखक सलीम-जावेद
पटकथा सलीम-जावेद
निर्माता गोपाल दास सिप्पी
निलकमल दुबे
अभिनेता धर्मेन्द्र
संजीव कुमार
हेमामालिनी
अमिताभ बच्चन
जया बच्चन
अमज़द ख़ान
छायाकार द्वारका दिवेचा
संपादक एम् एस शिंदे
संगीतकार राहुल देव बर्मन
प्रदर्शन तिथि
15 अगस्त 1975 (1975-08-15)
लम्बाई
204 मिनट[1][a]
देश  भारत
भाषा हिन्दी[2][3]
लागत 3 करोड़[4]
कुल कारोबार 15 करोड़[5]

शोले का फिल्मांकन कर्नाटक राज्य के रामनगर क्षेत्र के चट्टानी इलाकों में ढाई साल की अवधि तक चला था। बहत फिल्मांकन महाराष्ट्र के उरण पनवेल मे हुवा।[केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड]] के निर्देशानुसार कई हिंसक दृश्यों को हटाने के बाद फ़िल्म को १९८ मिनट की लंबाई के साथ १५ अगस्त १९७५ को रिलीज़ किया गया था। हालांकि १९९० में मूल २०४ मिनट का मूल संस्करण भी होम मीडिया पर उपलब्ध हो गया था। रिलीज़ होने पर पहले तो शोले को समीक्षकों से नकारात्मक प्रतिक्रियाएं और कमजोर व्यावसायिक परिणाम मिले, लेकिन अनुकूल मौखिक प्रचार की सहायता से थोड़े दिन बाद यह बॉक्स ऑफिस पर बड़ी सफलता बनकर उभरी। फ़िल्म ने पूरे भारत में कई सिनेमाघरों में निरंतर प्रदर्शन के लिए रिकॉर्ड तोड़ दिए, और मुंबई के मिनर्वा थिएटर में तो यह पांच साल से अधिक समय तक प्रदर्शित हुई। कुछ स्त्रोतों के अनुसार मुद्रास्फीति के लिए समायोजित करने पर यह सर्वाधिक कमाई करने वाली भारतीय फिल्म है।

शोले एक डकैती-वॅस्टर्न फिल्म है, जो वॅस्टर्न शैली के साथ भारतीय डकैती फिल्मों परम्पराओं का संयोजन करती है, और साथ ही मसाला फिल्मों का एक परिभाषित उदाहरण है, जिसमें कई फिल्म शैलियों का मिश्रण पाया जाता है। विद्वानों ने फिल्म के कई विषयों का उल्लेख किया है, जैसे कि हिंसा की महिमा, सामंती विचारों का परिवर्तन, सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने वालों और संगठित होकर लूट करने वालों के बीच बहस, समलैंगिक गैर रोमानी सामाजिक बंधन और राष्ट्रीय रूपरेखा के रूप में फिल्म की भूमिका। राहुल देव बर्मन द्वारा रचित फिल्म की संगीत एल्बम और अलग से जारी हुए संवादों की संयुक्त बिक्री ने कई नए बिक्री रिकॉर्ड सेट किए। फिल्म के संवाद और कुछ पात्र बेहद लोकप्रिय हो गए और भारतीयों के दैनिक रहन-सहन हिस्सा बन गए। जनवरी २०१४ में, शोले को ३डी प्रारूप में सिनेमाघरों में फिर से रिलीज़ किया गया था।

रामगढ़ नामक एक छोटे से गाँव में सेवानिवृत पुलिस अधिकारी ठाकुर बलदेव सिंह (संजीव कुमार) दो चोरों को बुलाता है, जिन्हें उसने एक बार गिरफ्तार किया था। ठाकुर को यकीन है कि वे दोनों – जय (अमिताभ बच्चन) तथा वीरू (धर्मेन्द्र) – कुख्यात डकैत गब्बर सिंह (अमजद ख़ान) को पकड़ने में उसकी सहायता कर सकते हैं। गब्बर सिंह को जीवित या मृत पुलिस के हवाले करने पर पचास हज़ार रुपये का नगद इनाम तो था ही, साथ ही ठाकुर ने उन दोनों को गब्बर को जीवित पकड़कर उसके पास लाने पर बीस हज़ार रुपये के अतिरिक्त इनाम की पेशकश भी की।

गब्बर के तीन साथी रामगढ़ के ग्रामीणों से अनाज लेने आते हैं, पर जय और वीरु की वजह से उन्हें खाली हाथ जाना पड़ता है। गब्बर उनके मात्र दो लोगों से हारने पर बहुत क्रोधित होता है और उन तीनो को मार डालता है। इसके बाद वह होली के दिन गाँव पर हमला करता है और एक लम्बी लड़ाई के बाद जय और वीरु को बंधक बना लेता है। ठाकुर उन दोनों की मदद करने की स्थिति में होते हुए भी उनकी मदद नहीं करता। जय और वीरु किसी तरह बच निकलते हैं, और ठाकुर की इस अकर्मण्यता से क्षुब्ध होकर गाँव छोड़कर जाने का मन बना लेते हैं। तब ठाकुर उन्हें बताता है कि किस तरह कुछ वर्ष पहले उसने गब्बर को गिरफ्तार किया था पर वो जेल से भाग गया और फिर प्रतिशोध लेने के लिए उसने पहले तो ठाकुर के पूरे परिवार को मार डाला, और फिर ठाकुर के दोनो हाथ काट दिये। इसे छुपाने ठाकुर शाल ओढ़कर रहता था।

रामगढ़ में रहते हुये जय और वीरू धीरे धीरे गाँव वालों को पसंद करने लगे थे। जय को ठाकुर की विधवा बहू राधा (जया भादुरी) और वीरु को गाँव में तांगा चलाने वाली बसन्ती (हेमा मालिनी) से प्यार हो जाता है। इसी बीच जय-वीरू और गब्बर के बीच छोटी-मोटी तकरारें होती रहती हैं, और एक दिन उसके आदमी बसन्ती और वीरु को पकड़ कर ले जाते हैं। जय उनको बचाने जाता है, और वे तीनों वहां से बच निकलते हैं। इस लड़ाई में जय को गोली लग जाती है, जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है।

जय की मृत्यु से आक्रोशित वीरु अकेले गब्बर का पीछा करता है और उसे पकड़ लेता है। दोनों के बीच हाथापाई होती है, जिसमें वीरू गब्बर को मारने ही वाला होता है कि ठाकुर वहां आ जाता है और गब्बर को जीवित उसके हवाले करने का जय का वायदा याद दिलाता है। वीरु गब्बर को ठाकुर को सौंप देता है, जो अपने नुकीले जूतों से गब्बर के हाथ कुचल देता है और फिर उसे पुलिस के हवाले कर देता है। वीरू अकेला गाँव छोड़कर रेलवे स्टेशन के लिए निकल जाता है, जहाँ बसंती उसका इंतज़ार कर रही होती है। राधा एक बार फिर अकेली ही रह जाती है।

इस योजना की शुरुआत तब हुई, जब जंजीर फ़िल्म की रिलीज़ के लगभग ६ महीने बाद सलीम-जावेद जी॰ पी॰ सिप्पी और रमेश सिप्पी से मिले,[6] और उन्हें इसकी चार पंक्ति की कहानी सुनाई।[7] १९७३ से वे यह कहानी कई निर्माताओं को सुना चुके थे।[6][7] दो निर्माता/निर्देशकों (मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा) ने भी उनकी इस कहानी को सिरे से नकार दिया था।[7] रमेश सिप्पी को उनकी अवधारणा अच्छी लगी और उन्होंने उन्हें आगे कार्य करने हेतु चुन लिया। इसकी वास्तविक योजना के अनुसार फिल्म में एक सैन्य अधिकारी द्वारा दो पूर्व सैनिकों को अपने परिवार की हत्या का बदला लेने के लिए चुना जाना था। बाद में उस सैन्य अधिकारी की जगह एक पुलिसवाले ने ले ली, क्योंकि सिप्पी को लगा कि इस तरह के दृश्य दिखाने के लिए अनुमति मिलना काफी कठिन रहेगा। सलीम-जावेद ने मिल कर इसकी कहानी को एक महीने में पूरा कर लिया। इसमें उनके नाम से लेकर उन लोगों के तौर तरीके तक शामिल थे।[7] फ़िल्म की पटकथा और संवाद हिन्दी-उर्दू में,[2] विशेषकर सिर्फ उर्दू में लिखे गए हैं।[3] सलीम-जावेद ने इन्हें मूलतः उर्दू लिपि में लिखा था, और फिर एक असिस्टेंट ने इन्हें देवनागरी में अनूदित किया, ताकि हिन्दी पढ़ने वालों को भी ये समझ आएं।[8]

यह फ़िल्म अकीरा कुरोसावा की १९५४ की फिल्म सेवन समुराई पर आधारित है,[9][10] और डकैती वेस्टर्न फिल्म का एक परिभाषित उदाहरण है, जिसमें भारतीय डकैती फिल्मों, विशेष रूप से मेहबूब खान की मदर इंडिया (१९५७) और दिलीप कुमार की गंगा जमना (१९६१),[11] और वेस्टर्न फिल्मों,[9][10] विशेष रूप से सर्जीओ लियोन के स्पेगेटी वेस्टर्न जैसे कि वन्स अपॉन ए टाइम इन द वेस्ट (१९६८) के साथ-साथ द मैग्निफिशेंट सेवन (१९६०) के सम्मेलन शामिल हैं।[10] फ़िल्म के कथानक में कुछ तत्व अन्य भारतीय फिल्मों, जैसे मेरा गांव मेरा देश (१९७१) और खोटे सिक्के (१९७३) से लिए गए हैं।[7] ट्रेन लूट के एक प्रयास का चित्रण करने वाला एक दृश्य गंगा जमना में एक समान दृश्य से प्रेरित था,[12] और इसकी तुलना नार्थ वेस्ट फ्रंटियर (१९५९) में इसी तरह के एक अन्य दृश्य से भी की गई है।[13] ठाकुर के परिवार के नरसंहार को दिखाते एक दृश्य की तुलना वन्स अपॉन ए टाइम इन द वेस्ट में मैकबेन परिवार के नरसंहार के साथ भी की गई है।[14] सैम पेकिनपा के वेस्टर्न, जैसे द वाइल्ड बंच (१९६९) और पैट गेटेट एंड बिली द किड (१९७३), और जॉर्ज रॉय हिल के बुच कैसिडी और सनडेंस किड (१९६९) ने भी शोले को प्रभावित किया था।[15]

चरित्र गब्बर सिंह को उसी नाम के एक वास्तविक डाकू पर बनाया गया था, जिसका १९५० के दशक में ग्वालियर के आसपास के गांवों में आतंक था। असली गब्बर सिंह जब किसी भी पुलिसकर्मी को पकड़ता था, तो उसके कान और नाक काटकर उसे छोड़ देता था, ताकि उसे अन्य पुलिसकर्मियों के लिए चेतावनी के रूप में दर्शाया जा सके।[16] यह चरित्र गंगा जमना से भी प्रेरित था, जहां दिलीप कुमार का चरित्र गंगा एक डाकू था, जो गब्बर के समान ही खड़ीबोली और अवधी के मिश्रण से बनी एक बोली बोलता था।[17] यह चरित्र सेर्गियो लियोन के फॉर ए फ्यू डॉलर्स मोर (१९६५) के खलनायक "एल इंडियो" (गिया मारिया वॉलोंटे द्वारा अभिनीत) से भी प्रभावित था।[18] सूरमा भोपाली, फ़िल्म का एक मामूली चरित्र, भोपाल के सूरमा नामक एक जंगल अधिकारी पर आधारित था, जो अभिनेता जगदीप का परिचित था। सूरमा को आखिरकार मुकदमा दायर करने की धमकी देनी पड़ी थी, जब फिल्म देखने वाले लोगों ने उन्हें भी एक लकड़हारे के रूप में संदर्भित करना शुरू कर दिया था।[19]

पात्र चुनाव

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शोले के निर्माताओं ने शुरुआत में गब्बर सिंह की भूमिका हेतु डैनी डेन्जोंगपा को चुना था, लेकिन वे इस किरदार हेतु तैयार नहीं हुए, क्योंकि वह पहले ही फिरोज खान की धर्मात्मा (1975) में काम करने के लिए हामी भर चुके थे, जिसका फिल्मांकन समय भी शोले के समान ही था।[20] निर्माताओं की दूसरी पसंद अमजद ख़ान थे। वे इस किरदार को निभाने के लिए तैयार हो गए और अभिशप्त चम्बल नामक एक पुस्तक पढ़कर इस चरित्र की तैयारी करने लगे। चम्बल के डकैतों के शोषण के बारे में बताती यह पुस्तक उनकी साथी कलाकार जया भादुरी के पिता तरुण कुमार भादुरी ने लिखी थी।[21] संजीव कुमार भी गब्बर सिंह की भूमिका निभाना चाहते थे, लेकिन सलीम-जावेद को लगा कि "उनकी पहले की भूमिकाओं के के कारण दर्शकों में उनके प्रति सहानुभूति थी; गब्बर को पूरी तरह घृणित होना था।"[6]

सिप्पी चाहते थे कि जय का किरदार शत्रुघन सिन्हा निभाएँ, लेकिन कई अन्य बड़े सितारे इस फिल्म में काम कर रहे थे, और इसलिए सिन्हा ने मना कर दिया। अमिताभ बच्चन उस समय इतने प्रसिद्ध नहीं हुए थे; उन्हें इस किरदार को पाने के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ा था।[7] सलीम-जावेद ने हालांकि १९७३ में ही शोले के लिए बच्चन के नाम की सिफारिश कर दी थी; क्योंकि जंजीर फिल्म में उनके अभिनय को देखकर ही सलीम-जावेद आश्वस्त हो गए थे कि बच्चन इस फिल्म के लिए सही अभिनेता हैं।[22]

क्योंकि फ़िल्म के कई सदस्यों ने कथानक पहले ही पढ़ लिया था, कई अभिनेता अलग अलग किरदार निभाने हेतु इच्छुक थे। प्राण को पहले ठाकुर बलदेव सिंह के किरदार के लिए चुना गया, लेकिन सिप्पी को संजीव कुमार इस किरदार हेतु बेहतर लगे।[23] सलीम-जावेद ने भी ठाकुर के चरित्र के लिए दिलीप कुमार से बात की थी, लेकिन उन्होंने उस समय मन कर दिया; दिलीप कुमार ने बाद में माना कि यह उन कुछ फिल्मों में से एक थी जिसे छोड़ने पर उन्हें खेद था।[6] धर्मेन्द्र को भी ठाकुर के किरदार में रुचि थी, लेकिन जब उन्हें सिप्पी ने बताया कि यदि वे ठाकुर बने तो संजीव कुमार को वीरू का किरदार दे दिया जायेगा और फिर हेमा मालिनी के साथ उनकी जोड़ी बनेगी।[24]

फिल्म के निर्माण के दौरान चार मुख्य किरदारों के कारण इसके निर्माण में काफी समय लग गया।[10] इसका फिल्मांकन शुरू होने से चार महीने पूर्व ही अमिताभ ने जया से शादी कर ली। जया के माँ बनने के कारण इस फिल्म के निर्माण में और देरी हुई और इस फिल्म के प्रदर्शन के दौरान ही अभिषेक बच्चन का जन्म हुआ था। धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी के प्रेमालाप वाले दृश्यों के दौरान भी धर्मेन्द्र पूरी मेहनत पर पानी फेर देते थे, और इस कारण एक ही दृश्य के लिए कई बार मेहनत करनी पड़ रही थी। इस फिल्म के प्रदर्शित होने के पाँच वर्ष बाद इन दोनों ने भी शादी कर ली।[25]

फिल्मांकन

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रामनगर के पास स्थित रामदेवराबेट्टा; शोले के अधकतर हिस्सों को ऐसे ही चट्टानी इलाकों में फिल्माया गया था।

शोले के अधकतर हिस्सों को कर्नाटक के बंगलौर नगर के पास स्थित एक छोटे से कस्बे रामनगर के चट्टानी इलाकों में फिल्माया गया था।[26] फिल्म के सेटों तक सुविधाजनक पहुंच सुनिश्चित के लिए निर्माताओं को बैंगलोर राजमार्ग से रामनगर तक एक सड़क बनानी पड़ी थी।[27] कला निर्देशक राम येदेकर द्वारा इस स्थल के पास ही एक पूरा कृत्रिम नगर बनाया गया था। ऑन-लोकेशन सेट की प्राकृतिक प्रकाश व्यवस्था से मेल खाने के लिए, मुंबई के राजकमल स्टूडियो के पास भी एक जेल का सेट बनाया गया था।[28] बाद में थोड़े समय के लिए रामनगर के एक हिस्से को फिल्म के निर्देशक के सम्मान में "सिप्पी नगर" का नाम भी दिया गया था।[29] २०१० तक, "शोले चट्टानों" (जहां फिल्म की शूटिंग की गई थी) की एक यात्रा भी रामनगर आने वाले पर्यटकों के लिए उपलब्ध थी।[30]

फिल्मांकन ३ अक्टूबर १९७३ को शुरू हुआ, जिसमें बच्चन और भादुरी का एक दृश्य फिल्माया गया।[31] फिल्म का निर्माण अपने समय के लिए भव्य था; अक्सर कलाकारों के लिए पार्टियों और भोजों का आयोजन होता रहता था,[32] और इस कारण इसका बजट तो बढ़ा ही, साथी ही इसे पूरा करने में ढाई साल लग गए। इसकी उच्च लागत का एक कारण यह भी था कि सिप्पी ने अपना वांछित प्रभाव प्राप्त करने के लिए एक बार फिल्माए जा चुके दृश्यों को कई बार दोबारा फिल्माया। गीत "ये दोस्ती" के ५ मिनट के गीत अनुक्रम को शूट करने में २१ दिन लग गए, दो छोटे दृश्य जिसमें राधा दीपक जलाती है, प्रकाश की समस्याओं के कारण २० दिनों में फिल्माए जा सके, और एक दृश्य, जिसमें गब्बर इमाम के बेटे की हत्या करता है, १९ दिनों में जाकर शूट हो पाया।[33] ट्रेन में चोरी का दृश्य, जिसे मुंबई-पुणे रेलमार्ग पर पनवेल के पास फिल्माया गया था, ७ सप्ताह से भी अधिक समय में पूरा हो पाया।[34]

शोले स्टीरियोफोनिक साउंडट्रैक रखने और ७० मिमी वाइडस्क्रीन प्रारूप का उपयोग करने वाली पहली भारतीय फिल्म थीं।[35] हालांकि, उस समय वास्तविक ७० मिमी कैमरे महंगे थे, इसलिए फिल्म को पहले पारंपरिक ३५ मिमी फिल्म पर ही शूट किया गया, और उससे बनी ४:३ की तस्वीरों को बाद में २.२:१ फ्रेम में परिवर्तित कर दिया गया। इस प्रक्रिया के बारे में सिप्पी ने कहा, "एक ७० मिमी [एसआईसी] प्रारूप बड़ी स्क्रीन का वास्तविक आनंद देता है और तस्वीर को और भी बड़ा बनाने के लिए इसका और अधिक आवर्धन करता है, लेकिन चूंकि मैं ध्वनि का भी बराबर प्रसार चाहता था, तो हमने 'छः ट्रैक-स्टीरियोफोनिक' ध्वनि का प्रयोग किया और फिर इसे बड़ी स्क्रीन के साथ संयुक्त किया। यह निश्चित रूप से एक विभेदक था।"[36] फिल्म के पोस्टरों द्वारा भी इसके ७० मिमी की फिल्म के उपयोग पर जोर दिया गया, जिन पर फिल्म का नाम सिनेमास्कोप के लोगो से मेल खाता हुआ सा शैलीबद्ध किया गया था। फिल्म के पोस्टरों ने शोले को इससे पुरानी (तथा समकालीन) अन्य फिल्मों से अलग करने का भी काम किया; उनमें से एक में तो यह अंग्रेजी टैगलाइन भी जोड़ी गयी थी: "द ग्रेटेस्ट स्टारकास्ट एवर असेम्ब्लड - द ग्रेटेस्ट स्टोरी एवर टोल्ड" ("अब तक के सबसे बड़े कलाकार - अब तक की सबसे महानतम कहानी।")[37]

वैकल्पिक संस्करण

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वास्तव में जो फ़िल्म उस समय फिल्मायी गयी थी, उसका अंत बहुत अलग था। मूल कहानी में ठाकुर गब्बर को मार देता है, और इसके अलावा भी कई ऐसे ही दृश्य थे, जो मूल कहानी में अलग थे। गब्बर की मृत्यु का दृश्य, और इसके साथ साथ गब्बर द्वारा इमाम के बेटे की हत्या और ठाकुर के परिवार के नरसंहार वाले सभी दृश्यों को भारतीय सेंसर बोर्ड ने हटा दिया था।[33] सेंसर बोर्ड को इस बात की चिंता थी कि कहीं इस तरह के हिंसात्मक दृश्यों को देखने से लोगों पर बुरा प्रभाव न पड़ जाये और लोग कानून की परवाह न कर अन्य लोगों से बदला लेने के लिए उन्हें इसी तरह मारने न लगें।[38] हालांकि सिप्पी ने इस दृश्य को फिल्म का हिस्सा बनाए रखने के लिए काफी लड़ाई लड़ी, पर बाद में इस दृश्य को सेंसर बोर्ड के निर्देशानुसार फिर से शूट किया गया, जिसमें ठाकुर के गब्बर को मारने से कुछ ही समय पहले पुलिस आ जाती है।[39]

इसके सिनेमाघरों में प्रदर्शित होने से लेकर १५ सालों तक लोगों को सेंसर बोर्ड द्वारा निर्देशित दृश्य वाला फिल्म ही देखने को मिला था। १९९० में इसका बिना सेंसर किया हुआ ब्रिटिश संस्करण वीएचएस में प्रदर्शित हुआ।[40] इसके बाद एरोस एंटरटेनमेंट ने इसके दो अलग डीवीडी संस्करण जारी किए; पहला, जिसमें बिना सेंसर की हुई २०४ मिनट की मूल फ़िल्म थी, और दूसरा, जिसमें सेंसर बोर्ड द्वारा स्वीकृत १९८ मिनट वाली फिल्म थी।[1][40][41][a]

विषय-वस्तु

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विद्वानों ने फिल्म के कई विषयों का उल्लेख किया है, जैसे कि हिंसा की महिमा, सामंती विचारों का परिवर्तन, सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने वालों और संगठित होकर लूट करने वालों के बीच बहस, समलैंगिक गैर रोमानी सामाजिक बंधन और राष्ट्रीय रूपरेखा के रूप में फिल्म की भूमिका।

लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के एक समाजशास्त्री कौशिक बनर्जी ने नोट किया कि शोले ने जय और वीरू के उदाहरणों के माध्यम से "नकली पौरूष के सहानुभूतिपूर्ण निर्माण" का प्रदर्शन किया।[43] बनर्जी ने यह भी तर्क दिया कि फिल्म के दौरान वैधता और आपराधिकता के बीच की नैतिक सीमा धीरे-धीरे खत्म हो जाती है।[44] फिल्म विद्वान विमल डिसानायके इस बात से सहमत हैं कि फिल्म ने भारतीय सिनेमा में "हिंसा और सामाजिक व्यवस्था के बीच विकसित बोलीभाषा में एक नया मंच" लाने का काम किया।[45] फिल्म विद्वान एम. माधव प्रसाद के अनुसार जय और वीरू एक हाशिए वाली आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो परंपरागत समाज में पेश की जाती है।[46] प्रसाद ने यह भी कहा कि, जय और वीरू की आपराधिकता को किनारे करते हुए बदला लेने के तत्वों के माध्यम से जिस तरह कहानी में उन्हें शामिल किया गया, यह प्रतिक्रियात्मक राजनीति को दर्शाती है, और दर्शकों को सामंती आदेश स्वीकार करने के लिए मजबूर करती है। बनर्जी ने समझाया कि यद्यपि जय और वीरू दुष्ट हैं, लेकिन फिर भी वे अपनी भावनात्मक जरूरतों के कारण से मानवीय हैं, और इस तरह का द्वैतवाद उन्हें गब्बर सिंह की शुद्ध बुराई के सामने कमजोर बनाता है।[44]

फिल्म के खलनायक गब्बर सिंह को उसकी व्यापक दुःखद क्रूरता के बावजूद दर्शकों से अच्छी प्रतिक्रियाऐं प्राप्त हुई।[45] डिसानायके बताते हैं कि दर्शकों को चरित्र के संवाद और व्यवहार से मोहित किया गया था, और इन्हीं तत्वों ने गब्बर के कारनामों पर पर्दा डालने का भी काम किया, जो कि किसी भारतीय ड्रामा फ़िल्म में पहली बार हुआ था।[45] उन्होंने नोट किया कि फिल्म में हिंसा का चित्रण मोहक लेकिन असहनीय था।[47] उन्होंने आगे कहा कि, "पुरानी ड्रामा फ़िल्मों के विपरीत, जिनमें मादा शरीर दर्शकों के ध्यान को अपनी ओर आकर्षित रखता था, शोले में एक नर केंद्रबिंदु पर है; यह एक युद्ध के मैदान सा है जहां अच्छाई और बुराई के बीच सर्वोच्चता के लिए प्रतिस्पर्धा चलती है।[47] डिसानायके का तर्क है कि शोले को राष्ट्रीय रूपरेखा के एक प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है: इसमें एक आरामदायक तार्किक कथा की कमी है, यह सामाजिक स्थिरता को बार-बार चुनौतीपूर्ण दिखाता है, और साथ ही इसमें भावनाओं की कमी के कारण मानव जीवन का अवमूल्यन भी दर्शाया गया है। एक साथ रखने पर, ये सभी तत्व भारत का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व करते हैं।[48] शोले की कथा शैली, इसकी हिंसा, और बदले और सतर्कता की कार्रवाई की तुलना कभी-कभी विद्वानों द्वारा इसकी रिलीज के समय भारत में राजनीतिक अशांति से की जाती है। यह तनाव १९७५ में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल में समाप्त हुआ।[49]

डिसानायके और सहाय ने इस तथ्य पर भी ध्यान दिया कि, हालांकि फिल्म में कई तत्व हॉलीवुड की वॅस्टर्न शैली की फिल्मों से लिये गए थे, विशेष रूप से इसके दृश्य, परन्तु फिर भी यह फिल्म सफलतापूर्वक "भारतीयकृत" थी।[50] उदाहरण के तौर पर, विलियम वैन डेर हाइड ने शोले में एक नरसंहार दृश्य की तुलना वन्स अपॉन ए टाइम इन द वेस्ट के एक दृश्य से की थी। हालांकि दोनों फिल्में तकनीकी शैली में समान थी, पर शोले ने भारतीय परिवारों के मूल्यों और मेलोड्रामैटिक परंपरा पर जोर दिया, जबकि वेस्टर्न फिल्में दृष्टिकोण में अधिक भौतिकवादी और स्र्द्ध थी।[14] इनसाइक्लोपीडिया ऑफ़ हिंदी सिनेमा में मैथिली राव ने नोट किया कि शोले वेस्टर्न शैली को "सामंतीवादी विचार" में ढाल देती है। शिकागो रीडर के टेड शेन ने शोले की "हिस्टोरिकल विज़ुअल स्टाइल" और अंतःक्रियात्मक "पॉपुलिस्ट संदेश" को नोट किया।[51] सांस्कृतिक आलोचक और इस्लामवादी विद्वान ज़ियाउद्दीन सरदार ने अपनी पुस्तक द सीक्रेट पॉलिटिक्स ऑफ अ डेजर्स: इनोसेंस, कल्पपेबिलिटी एंड इंडियन पॉपुलर सिनेमा में शोले में मुस्लिम और महिला पात्रों की रूढ़िवादीता पर प्रहार किया, जिसे उन्होंने "निर्दोष ग्रामीणों के मजाक" कहा।[52] सरदार ने नोट किया कि फिल्म में दो प्रमुख मुस्लिम पात्र थे; सूरमा भोपाली (एक भद्दा आपराधी), और दूसरा डकैतों का एक असहाय शिकार (इमाम); इसके अतिरिक्त एक मादा चरित्र (राधा) का एकमात्र कार्य मौन रहकर भाग्य का सामना करना है, जबकि दूसरी महिला पात्र (बसंती) एक खूबसूरत ग्रामीण महिला के अलावा कुछ भी नहीं है।

कुछ विद्वानों ने संकेत दिया है कि शोले में समलैंगिक गैर प्रेम प्रसंगयुक्त विषय भी हैं।[53][54] टेड शेन फिल्म में जय और वीरू के बीच दिखाए गए संबंधों का वर्णन कैंप शैली की तुलना में करते हैं।[51] अपनी पुस्तक बॉलीवुड एंड ग्लोबललाइजेशन: इंडियन पॉपुलर सिनेमा, नेशन एंड डायस्पोरा में दीना होल्ट्ज़मैन का कहना है कि जय की मृत्यु ने दोनों पुरुष पात्रों के बीच के संबंधों को तोड़ने का काम किया ताकि एक मानक संबंध स्थापित किया जा सके (वीरू और बसंती के मध्य)।[55]

  • गीत "महबूबा मेहबूबा" राहुल देव बर्मन ने गाया, जिसे हेलन और जलाल आगा पर फ़िल्माया गया था। यह गीत बिनाका गीत माला १९७५ वार्षिक सूची पर २४वीं पायदान पर तथा १९७६ वार्षिक सूची पर ५वीं पायदान पर रही। [56][57]
  • गीत "कोई हसीना जब रूठ जाती है" बिनाका गीत माला की १९७५ वार्षिक सूची पर ३०वीं पायदान पर और १९७६ वार्षिक सूची पर २०वीं पायदान पर रही। [58]
  • गीत "ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे" बिनाका गीत माला की १९७६ वार्षिक सूची पर ९वीं पायदान पर रही।

सभी गीत आनन्द बक्शी द्वारा लिखित; सारा संगीत राहुल देव बर्मन द्वारा रचित।

गाने
क्र॰शीर्षकगायनअवधि
1."कोई हसीना जब रूठ जाती है"किशोर कुमार, हेमा मालिनी४:००
2."महबूबा महबूबा"राहुल देव बर्मन३:५४
3."ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे"किशोर कुमार, मन्ना डे५:२१
4."ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे" (दुखद)किशोर कुमार१:४९
5."हाँ जब तक है जाँ"लता मंगेशकर५:२६
6."होली के दिन दिल खिल जाते है"किशोर कुमार, लता मंगेशकर, समूह५:४२

रोचक तथ्य

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  • इसी वर्ष (१९७५) धर्मेन्द्र तथा अमिताभ बच्चन द्वारा अभिनीत फिल्म चुपके चुपके भी रिलीज़ हुई थी जो आगे चलकर कई भावी फिल्मों के लिए मील का पत्थर साबित हुई।
  • इस फिल्म का एक और अन्त रखा गया था जिसमें गब्बर सिंह मर जाता है। इस सीन को फिल्म में नहीं दिखाया गया था। काफी सालों बाद इस सीन को कुछ एक टीवी चनलों पर दिखाया गया था।
  • फिल्म के लिए एक कव्वाली भी रिकॉर्ड की गयी थी जो फिल्म की अवधि बढ़ने के कारण शामिल

नहीं की गयी। फिल्म के एल पी रिकॉर्ड पर ये उपलब्ध है।

शोले फ़िल्म १५ अगस्त १९७५ को भारत के स्वतन्त्रता दिवस के मौके पर मुंबई में रिलीज़ हुई। नकारात्मक समीक्षा और प्रभावी प्रचार की कमी के कारण, शुरु के दो सप्ताह तक यह फिल्म कुछ खास नहीं चली, हालांकि सकारात्मक मौखिक प्रचार के चलते तीसरे सप्ताह से इसके दर्शक बढ़ने लगे।[59] शुरुआती हफ़्तों में फिल्म की धीमी कमाई अवधि के दौरान, निर्देशक और लेखक ने फिल्म के कुछ दृश्यों को फिर से फिल्माने पर विचार किया ताकि अमिताभ बच्चन का चरित्र मर न सके। हालांकि जैसे ही फिल्म ने रफ्तार पकड़ी, तो उन्होंने इस विचार को त्याग दिया।[60] धीरे धीरे फिल्म के संवाद प्रसिद्ध होने लगे,[44] और इससे यह रातो रात सनसनी बन गयी।[35] इसके बाद ११ अक्टूबर १९७५ को इसे मुंबई के बाहर अन्य क्षेत्रों में, विशेषकर दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बंगाल तथा हैदराबाद में रिलीज़ किया गया।[61]

शोले १९७५ की सर्वाधिक कमाई करने वाली फ़िल्म बनी, और एक फिल्म रैंकिंग वेबसाइट, बॉक्स ऑफिस इंडिया ने इसे कमाई के आधार पर "आल टाइम ब्लॉकबस्टर" का दर्जा दिया है। इस फ़िल्म ने भारत में ६० स्वर्ण जयंतियों तक प्रदर्शन का कीर्तिमान भी बनाया।[b][35] साथ ही यह फ़िल्म भारतीय फ़िल्मों के इतिहास में ऐसी पहली फ़िल्म बनी, जिसने सौ से भी ज्यादा सिनेमा घरों में रजत जयंती मनाई।[c][35] मुम्बई के मिनर्वा सिनेमाघर में तो इसे लगातार ५ वर्षों तक प्रदर्शित किया गया।[9] शोले तब तक किसी सिनेमाघर पर सबसे ज्यादा समय तक प्रदर्शित होने वाली भारतीय फिल्म रही, जब तक दिलवाले दुल्हनिया ले जयंगे (१९९५) ने २००१ में २८६ सप्ताह का इसका रिकॉर्ड तोड़ नहीं दिया।[62]

शोले के कुल बजट और बॉक्स ऑफिस आय पर सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन कई फिल्म वेबसाइटें इसकी सफलता के अनुमान प्रदान करती हैं। बॉक्स ऑफिस इंडिया के अनुसार, अपने प्रथम प्रदर्शन के दौरान इसने १५ करोड़ रुपयों (लगभग १६,७७८,००० अमेरिकी डॉलर)[d] की शुद्ध सकल (नेट ग्रॉस[e]) कमाई की,[5] जो कि इसकी ३ करोड़ की लागत (१९७५ में लगभग ३,३५५,००० अमेरिकी डॉलर[d]) से कई गुना था।[4][5] इससे यह उस समय तक की सर्वाधिक कमाई करने वाली फिल्म बनी, और इसकी कमाई के उस समय के ये रिकॉर्ड उन्नीस वर्ष के लिए अखंड रहे, जो कि किसी फिल्म के लिए इस सूची के शीर्ष पर रहने का सबसे लंबा समय भी है। १९७० के दशक की मूल रिलीज़ के अतिरिक्त, फिल्म को १९८० के दशक के उत्तरार्ध में, और फिर १९९० के दशक के उत्तरार्ध में भी पुन: रिलीज़ किया गया, जिससे इसकी कुल कमाई में वृद्धि होती रही।[65] अक्सर यह उद्धृत किया जाता है कि मुद्रास्फीति के आंकड़ों को समायोजित करने के बाद, शोले भारतीय सिनेमा जगत के इतिहास में सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्मों में से एक है, हालांकि इस तरह के आंकड़े निश्चितता से ज्ञात नहीं हैं।[66] २०१२ में, बॉक्स ऑफिस इंडिया ने शोले की समायोजित शुद्ध सकल कमाई १.६३ अरब रुपये (२५ मिलियन अमेरिकी डॉलर) दर्शायी,[e][5] जबकि भारतीय फिल्मों के कारोबार पर २००९ की एक रिपोर्ट में अंग्रेजी समाचारपत्र टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसकी समायोजित सकल कमाई ३ अरब रुपये (४६ मिलियन अमेरिकी डॉलर) बतायी थी।[67]

शोले को शुरुआत में समीक्षकों से अति नकारात्मक प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुई थी। समकालीन आलोचकों में, इंडिया टुडे के केएल अमलादी ने फिल्म को "बुझे हुए शोले" और "एक गंभीर दोषपूर्ण प्रयास" कहा।[68] फिल्मफेयर ने कहा कि यह फिल्म भारतीय समाज के साथ वेस्टर्न शैली की एक असफल मिश्रण थी, जिसने इसे "नकली वेस्टर्न फिल्म - न तो यहां की और न वहां की ही" बना दिया।[68] अन्य समीक्षकों ने इसे "ध्वनि और क्रोध मात्र, अर्थहीन" और १९७१ की फिल्म मेरा गाँव मेरा देश का "निम्न दरजे का पुनर्निर्माण" करार दिया।[69] व्यापार पत्रिकाओं और स्तंभकारों ने शुरुआत में फिल्म को फ्लॉप तक कह दिया था।[70] जर्नल स्टडीज: ए आयरिश क्वार्टरली रिव्यू में १९७६ में छपे एक लेख में लेखक माइकल गैलाघर ने फिल्म की तकनीकी उपलब्धियों की तो सराहना की, लेकिन अन्य सभी तत्वों की आलोचना करते हुए लिखा: "इसके दृश्य वास्तव में अभूतपूर्व हैं, लेकिन हर दूसरे स्तर पर यह असहनीय है; यह निराकार और बेतुकी है, मानव छवि में अनौपचारिक तथा सतही है, और इसे कुछ हद तक हिंसा का बुरा टुकड़ा भी कहा जा सकता है।"[71]

समय बीतने के साथ, शोले को मिली प्रतिक्रियाओं में काफी अंतर आया; इसे अब एक "कल्ट" या "क्लासिक" फ़िल्म, और साथ ही हिंदी-भाषा में बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में से एक माना जाता है।[10][72] २००५ की बीबीसी की एक समीक्षा में, फिल्म के अच्छी तरह से लिखे गए पात्रों और सरल पटकथा की सराहना की गई, हालांकि असरानी और जगदीप की हास्यपूर्ण चरित्रों को अनावश्यक कहा गया।[73] फिल्म की ३५वीं वर्षगांठ पर हिंदुस्तान टाइम्स ने लिखा था कि यह "कैमरे के काम के साथ-साथ संगीत के मामले में एक ट्रेलब्लैज़र थी" और "व्यावहारिक रूप से इसका हर दृश्य, संवाद या यहां तक ​​कि हर छोटे से छोटा चरित्र भी हाइलाइट में रहा था।"[74] २००६ में लिंकन सेंटर की फिल्म सोसाइटी ने शोले को एक असाधारण फ़िल्म कहा, और साहसिक तथा कॉमेडी दृश्यों, संगीत और नृत्य के इसके निर्बाध मिश्रण के रूप में वर्णित करते हुए इसे "निर्विवाद क्लासिक" कहा।[75] शिकागो रिव्यू के समीक्षक टेड शेन ने २००२ में इसके विधिवत लिखे गए कथानक और "स्लैपडैश" छायांकन के लिए फिल्म की आलोचना की और कहा कि फिल्म "स्लैपस्टिक और मेलोड्रामा के बीच घूमती रहती" है।[51] निर्माता जी.पी. सिप्पी के मृत्युलेख में, न्यूयॉर्क टाइम्स समाचारपत्र में लिखा गया था कि शोले ने "हिंदी फिल्म निर्माण में क्रांतिकारी बदलाव किया और यह भारतीय लिपि लेखन में सच्ची पेशेवरता लाई।"[9]

पुरस्कार

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शोले को नौ फिल्मफेयर पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया था, लेकिन एकमात्र विजेता एम एस शिंदे थे, जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ संपादन के लिए यह पुरस्कार जीता।[76] फिल्म ने १९७६ के बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट असोसिएशन पुरस्कार (हिंदी विभाग) में भी तीन पुरस्कार जीते: अमजद खान ने "सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता", द्वारका दिवेचा ने "सर्वश्रेष्ठ छायांकन (रंगीन)" और राम येडेकर ने "सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशक" का पुरस्कार प्राप्त किया।[77] शोले को २००५ में पचासवें फिल्मफेयर पुरस्कारों में "पचास वर्षों की सर्वश्रेष्ठ फिल्म" के विशेष पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।[78]

कुल प्राप्त पुरस्कार
वर्ष नामांकित व्यक्ति पुरस्कार परिणाम
१९७६ एम एस शिंदे फिल्मफेयर सर्वश्रेष्ठ संपादक पुरस्कार जीत
जी पी सिप्पी[79] फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार नामित
रमेश सिप्पी फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ निर्देशक पुरस्कार नामित
संजीव कुमार फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता पुरस्कार नामित
अमज़द खान फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता पुरस्कार नामित
असरानी फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ हास्य अभिनेता पुरस्कार नामित
जावेद अख्तर, सलीम ख़ान फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ कथा पुरस्कार नामित
राहुल देव बर्मन फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ संगीतकार पुरस्कार नामित
आनंद बख्शी (गीत "महबूबा महबूबा" के लिए) फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ गीतकार पुरस्कार नामित
राहुल देव बर्मन ("महबूबा महबूबा" गाने के लिए) फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक पुरस्कार नामित
अमज़द खान सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता - बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट असोसिएशन पुरस्कार (हिंदी विभाग) जीत
द्वारका दिवेचा सर्वश्रेष्ठ छायांकन (रंगीन) - बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट असोसिएशन पुरस्कार (हिंदी विभाग) जीत
राम येडेकर सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशक - बंगाल फिल्म जर्नलिस्ट असोसिएशन पुरस्कार (हिंदी विभाग) जीत

शोले को कई "सर्वश्रेष्ठ फिल्म" सम्मान प्राप्त हुए हैं। इसे १९९९ में बीबीसी इंडिया द्वारा "सहस्त्राब्द की फिल्म" घोषित किया गया था।[9] २००२ में ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट की १० सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्मों की सूची के शीर्ष पर स्थान प्राप्त हुआ,[80] और २००४ में स्काई डिजिटल के एक सर्वेक्षण में दस लाख ब्रिटिश भारतीयों के मत से इसे सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म का दर्जा दिया गया।[81] २०१० की टाइम मैगज़ीन की "बेस्ट ऑफ बॉलीवुड" सूची में यह फ़िल्म शामिल थी,[82] और २०१३ की सीएनएन-आईबीएन की "१०० महानतम भारतीय फिल्मों" की सूची में भी इसे शामिल किया गया था।[83]

शोले ने कई फिल्मों और कथाओं को प्रेरित किया, और फिल्मों की एक शैली, "करी वेस्टर्न", शैली को मुख्य धारा में स्थापित कर दिया, जो स्पैगेटी वेस्टर्न फ़िल्म शैली का भारतीय रूपांतरण है। मदर इंडिया (१९५७) और गंगा जमना (१९६१) जैसी पूर्व भारतीय डकैती फिल्मों में इसकी जड़ें होने की वजह से इस शैली को डकैती वेस्टर्न भी कहा जाता है। यह एक प्रारंभिक और सबसे निश्चित मसाला फिल्म भी थी, और इसने ही "मल्टी-स्टार" फिल्मों के लिए प्रारंभिक मंच त्यार किया। यह फिल्म बॉलीवुड के पटकथा लेखकों के लिए वाटरशेड थी, जिन्हें शोले से पहले अच्छी तरह से भुगतान नहीं किया जाता था; फिल्म की सफलता के बाद, इसके लेखक जोड़ी सलीम-जावेद सितारे बन गए और पटकथा लेखन एक सम्मानित पेशा माना जाने लगा। बीबीसी ने गब्बर सिंह की तुलना स्टार वार्स के चरित्र डार्थ वेदर से करते हुए शोले को "बॉलीवुड की स्टार वार्स" के रूप में वर्णित किया है, क्योंकि उनके अनुसार इसने बॉलीवुड पर वह प्रभाव डाला, जो स्टार वार्स (१९७७) ने हॉलीवुड पर डाला था।

फिल्म के कुछ दृश्यों और संवादों ने भारत में काफी प्रतिष्ठा अर्जित की, जैसे कि गब्बर के संवाद, जैसे "कितने आदमी थे", "जो डर गया, समझो मर गया", और "बहत याराना लागता है" इत्यादि तो अति प्रसिद्ध हुए। ये और फ़िल्म के अन्य लोकप्रिय संवाद लोगों की दैनिक स्थानीय भाषा का हिस्सा बन गए थे। फिल्म के पात्रों और संवादों को लोकप्रिय संस्कृति में संदर्भित और पैरोडी किया जाना जारी है। गब्बर सिंह, फ़िल्म का दुखद खलनायक, हिंदी फिल्मों में एक ऐसा युग बनकर उभरा, जो कि "उन खलनायकों के युग के रूप में प्रतीत होता है", जो कहानी के संदर्भ को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जैसे शान (१९८०) का शाकाल (कुलभूषण खरबंदा द्वारा अभिनीत), मिस्टर इंडिया (१९८७) का मोगम्बो (अमरीश पुरी) और त्रिदेव (१९८९) का भुजंग (अमरीश पुरी)। फिल्मफेयर द्वारा २०१३ में गब्बर सिंह को भारतीय सिनेमा के इतिहास में सबसे प्रतिष्ठित खलनायक के तौर पर नामित किया गया था, और फ़िल्म के चारों अभिनेता "८० आइकॉनिक प्रदर्शन" की २०१० की सूची में शामिल किये गए थे।

टिप्पणियां

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  1. The ब्रिटिश बोर्ड ऑफ़ फ़िल्म क्लासिफिकेशन (BBFC) notes three running times of Sholay. The version that was submitted in film format to BBFC had a running time of 198 minutes. A video version of this had a running time of 188 minutes. BBFC notes that "When a film is transferred to video the running time will be shorter by approximately 4% due to the differing number of frames per second. This does not mean that the video version has been cut or re-edited." The director's cut was 204 minutes long.[42]
  2. A golden jubilee means that a film has completed 50 consecutive weeks of showing in a single theatre.
  3. A silver jubilee means that a film has completed 25 consecutive weeks of showing in a single theatre.
  4. The exchange rate in 1975 was 8.94 Indian rupees () per 1 US dollar (US$).[64]
  5. According to the website "Box Office India", film tickets are subject to "entertainment tax" in India, and this tax is added to the ticket price at the box office window of theatres. The amount of this tax is variable among states. "Nett gross figures are always after this tax has been deducted while gross figures are before this tax has been deducted." Although since 2003 the entertainment tax rate has significantly decreased, as of 2010, gross earnings of a film can be 30–35% higher than nett gross, depending on the states where the film is released.[63]
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ग्रन्थ सूची

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बाहरी कड़ियाँ

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Sholay The Immortal Bollywood Film[मृत कड़ियाँ] Yaari Dosti फिल्म कहानी Archived 2020-04-26 at the वेबैक मशीन