सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र

महायान बौद्ध शास्त्र

सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र (= सत् + धर्म + पुण्डरीक = सच्चा धर्म रूपी श्वेत कमल ) बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय के सबसे प्रसिद्ध एवं महत्वपूर्ण सूत्र ग्रन्थों में से एक है। तिअन्तै, तेन्दै, चेओन्तै और निचिरेन बौद्ध सम्प्रदाय इसी ग्रन्थ पर आधारित हैं। इसे 'वैपुल्यराज' भी कहते हैं।

पूर्वी एशियाई देशों के अनेकों बौद्ध प्राचीन काल से सद्धर्मपुण्डरीकसूत्र को 'बुद्ध के अन्तिम उपदेश' और 'निर्वाण के लिए पूर्ण एवं पर्याप्त' मानते हैं।

सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र में बुद्ध कहते हैं जीवन का चरम लक्ष्य निर्वाण नहीं बुद्धत्व की प्राप्ति है । बुद्धत्व की उपलब्धि के लिए षट्पारमिताओं ( दानपारमिता, शीलपारमिता, क्षान्तिपारमिता, वीर्यपारमिता, ध्यानपारमिता तथा प्रज्ञापारमिता ) की प्राप्ति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त मैत्री और क्षान्ति का आचरण करते हुये जीवन को संयत एवं सदाचार पूर्ण रखना आवश्यक है। इसी सूत्र में भगवान् महासत्त्व बोधिसत्त्व मैत्रेय से कहते हैं, हे अजित! जो इस धर्मपर्याय को धारण करते हुये इसे दान से, शील से, क्षान्ति से, वीर्य से, ध्यान से या प्रज्ञा से सम्पादित करेगा उसको अप्रमेय अनन्त बुद्ध ज्ञान की प्राप्ति होगी।[1]

साहित्यिक दृष्टि से सद्धर्मपुण्डरीक एक महत्वपूर्ण रचना है। भगवान बुद्ध इसके नायक हैं, जिनमें एक उदात्त नायक के समग्र गुण विद्यमान हैं। लोक कल्याणार्थ वे अपने शरीर का परित्याग करने के लिए उद्यत हो जाते हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन त्याग, तपस्या, वैराग्य, सत्य और अहिंसा का साक्षात् स्वरूप है। उन्हों के उदात्त गुणों का वर्णन एवं विविध रूपों तथा क्रिया कलापों का चित्रण ही सद्धर्मपुण्डरीक की कथावस्तु है। नाटकीय रीति से कथोपकथन द्वारा इसमें उपदेश दिये गये हैं। यत्र-तत्र विषय को समझाने के लिए उपदेशपूर्ण लघुकथाएँ जोड़ दो गई हैं। इस ग्रन्थ में भक्ति एवं शान्त रस का पूर्ण परिपाक हुआ है। गाथाओं के स्वाध्याय के अनन्तर पाठक के मन में शान्ति को लहर उठने लगती है। सत्वों के प्रति प्रदर्शित तथागत के करुणाभाव को देखकर पाठक के हृदय में श्रद्धा एवं भक्ति का संचार हो उठता है। इसके अतिरिक्त बुद्ध की अलौकिकता का प्रदर्शन अद्भुत रस को सम्पुष्टि करता है। इसके साथ अन्य रसों का भी उल्लेख है । तदनन्तर अनुप्राश, रूपक आदि अलंकारों का भी वर्णन किया गया है ।

इस ग्रन्थ में 27 परिवर्त है। प्रथम परिवर्त में शाक्यमुनि द्वारा उपदेशित सद्धर्मपुण्डरीक सूत्र को सुनने क लिए एकत्रित सभा का वर्णन है। द्वितीय परिवर्त में भगवान द्वारा सभी प्राणियों के लिए तत्व प्राप्ति के लिए अनेक दृष्टांतों तथा उपमाओं द्वारा उपायकौशल्य का प्रयोग किया गया है। तीसरे से नवें परिवर्त तक शाक्यमुनि ने अपने शिष्यों को अनेक प्रयत्नों द्वारा बोधिप्राप्ति के लिए जागृत किया है। दशवें परिवर्त में धर्ममानक के पुण्यों का वर्णन है । ग्यारहवें में आश्चर्यजनक स्तूप का वर्णन है। ग्यारह से उन्नीसवें तक भगवान ने [गृधकूट|[गृधकूट पर्वत]] पर सम्पूर्ण सभा में इस सूत्र का प्रकाशन किया है। बाईसवें परिवर्त में नियमों का वर्णन है। तेईसवें से सत्ताईसवे परिवर्त तक इस सूत्र के प्रकाशन एवं लेखन से प्राप्त पुण्यराशि का वर्णन किया गया है।

सद्धर्मपुण्डरीक में प्रतिविम्बित सामाजिक जीवन की बात करें तो वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्ण का वर्णन किया गया है। आश्रम चार है- ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास। इसके अतिरिक्त परिवार व्यवस्था का भी यत्र-तत्र उल्लेख मिलता है। माता-पिता हो परिवार के मूलाधार थे। इस ग्रन्थ में माता-पिता को हत्या को महापाप कहा गया है। पुत्री को अपेक्षा पुत्र को वंश परम्परा को दृष्टि से महत्व दिया जाता था। इस ग्रन्थ में संस्कारों का भी उल्लेख मिलता है। उस काल में स्त्रियों को दशा सम्मानजनक थी। वे भी विद्या प्राप्त कर सकतीं थीं। गणिका का भी उल्लेख मिलता है।

त्रिकायवाद के अन्तर्गत तथागत के तीन काय 'धर्मकाय', 'सम्भोगकाय' तथा 'रूपकाय' का विस्तृत वर्णन किया गया है। बोधिसत्व को कल्पना महायान को अपनी विशिष्टता है। बोधिसत्व सम्यक् ज्ञानप्राप्त करने के लिए प्रयासरत तो रहता है परंतु शीघ्र निर्वाण में प्रवेश नहीं करता। बोधिसत्व तब तक निर्वाण में प्रवेश नहीं करता, जब तक अन्य प्राणियों को दुःखों से मुक्त नहीं करा लेता। बोधिसत्व का मार्ग अर्हत के मार्ग से अधिक उदार है। बोधिचित्त का उत्पाद बोधिसत्व के लिए आवश्यक है। इसके लिए दशभूतियाँ तथा पारमिताओं का अभ्यास आवश्यक है। मुख्यरूप में पारमिताएँ छह है। इन छह पारमिताओं के अतिरिक्त उपायकौशल्य पारमिता का भी इस सूत्र में उल्लेख है। भगवान ने विभिन्न उपायकौशल्यों का आश्रय लेकर प्राणियों को बोधि-ज्ञान में तत्पर किया है। इसके साथ हो बोधिसत्व को महाकरुणा का भी इस अध्याय में वर्णन किया गया है। बोधिसत्व समन्तभद्र तथा गदगदस्वर ने अपने उपदेशों में महान करुणा का प्रदर्शन किया है। बोधिसत्व समन्तभद्र लोगों को उपदेश देते समय विभिन्न प्रकार के रूप धारण कर लेते हैं। ये ईश्वर द्वारा देशित होने वाले प्राणियों को ईश्वर रूप में धर्म को देशना करते हैं। इसी प्रकार वे शक्र, गन्धर्व, वरुण आदि का रूप भी धारण कर लेते हैं। इस अध्याय में भक्ति प्राबल्य का भी मनोहारी वर्णन किया गया है । द्वितीय परिवर्त में भगवान की घोषणा है कि जिन्होंने भगवान को अस्थियों पर निर्मित स्तूपों पर पुष्प आदि अर्पित किये है, वे सभी बोधि को प्राप्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त भगवान का अभिकथन है कि जिन बच्चों ने खेल खेल में वालुका राशि सुगत के स्तूप बनाकर पूजा को उन्हें भी बोधिप्राप्त हुई है। अन्त में धारणी मन्त्रों के वर्णन के साथ उनका प्रयोजन बताया गया है।

सद्धर्मपुण्डरीक में दार्शनिक विचारधारा के अन्तर्गत चार आर्य सत्यों का वर्णन है। भगवान बुद्ध ने बोधि प्राप्ति के अनन्तर सारनाथ में अपना प्रथमोपदेश दिया था। इस उपदेश में द्वःख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोध तथा दुःखनिरोध गामिनो प्रतिपद का वर्णन किया था । भगवान बुद्ध का अभिकथन है कि द्वःख निरोध होने पर निर्वाण को प्राप्ति हो जाती है। आर्य अष्टांगिक मार्ग द्वारा इनका निरोध किया जा सकता है। इसमें प्रतीत्यसमुत्पाद का भी विवेचन किया गया है। इसके साथ हो त्रियान का विस्तारपूर्वक वर्णन है । ग्रन्थ में भगवान ने कहा है कि है भिक्षुओ यान केवल एक है- बुदयान, दूसरा या तीसरा कोई यान नहीं है। यहाँ पर महाकाश्यप अपनी शंका उठाते हुए पूछते हैं कि यान एक है तो त्रिविध यानों को संज्ञा क्यों प्रचलित है? इस शंका का समाधान करते हुए भगवान कहते है- जिस प्रकार कुम्भकार एक हो मिट्टी से अनेक पात्र बनाता है, जिसमें कुछ गुइ के पात्र, कुछ दही के पात्र, कुछ दूध के पात्र तथा कुछ निकृष्ट वस्तुओं के पात्र होते हैं। उस मिट्टी में भिन्नता न होते हुए भी रखी हुई वस्तुओं को भिन्नता के कारण पात्रों में भिन्नता दिखाई देती है। उसी प्रकार प्राणियों के विभिन्न झुकाओं के कारण यानों को त्रिविधता प्रतोत होती है। इसलिए केवल एक हो यान है - "एकं यानं द्वितोयं न विद्यते, तृतियं हि नैवास्ति कदाचिद्लोके" । भगवान बुद्ध का कथन है कि जिस प्रकार मेघ तथा सूर्य अपना जल तथा प्रकाश सभी तृण, गुल्म, औषधि तथा वृक्षों पर समानस्य से प्रदान करते हैं, किन्तु वे अपनी शक्ति तथा सामर्थ्य के अनुसार जल तथा प्रकाश ग्रहण करते हैं और वृद्धि को प्राप्त करते हैं तथा अपनी जाति के अनुसार कुछ लघु आकार, कुछ दीर्घाकार तथा कुछ अति विशाल हो जाते हैं, उसी प्रकार तथागत अपना उपदेश सभी को समान रूप से प्रदान करते हैं, किन्तु प्राणी अपनी शक्ति के अनुरूप उस समझकर ज्ञान प्राप्त करते हैं । अन्त में भगवान महाकाश्यप से कहते हैं कि है काश्यप मैं प्राणियों के आशय एवं चर्या के अनुसार हो उपदेश देता हूँ तथा लोगों को त्रियान का दर्शन कराता हूँ। इस प्रकार भगवान बुद्ध प्राणियों को त्रियान का उपदेश देकर अन्त में बुद्धयान को हो मुख्य यान बताते हैं ।

सद्धर्मपुण्डरीक में द्वीप, पर्वत, वन-कन्दरा, नदी, नगर आदि का वर्णन किया गया है। जम्बूद्वीप में बुद्धों, बोधिसत्वों तथा धर्मोपदेशकों द्वारा सद्धर्मपुण्डरीक का प्रचार किया गया था। जम्बूद्वीप भारत का हो प्राचीन नाम है। इसका क्षेत्र अति विस्तृत है। रत्नद्वीप, राक्षसद्वीप तथा महारत्नद्वीप का भी उल्लेख है। रत्नों की अधिकता के कारण इसे रत्नद्वीप कहा गया है। यह दक्षिण में समुद्र के मध्य स्थित था। भारत के व्यापारी यहाँ व्यापार के लिए आते थे । पर्वतों में सुमेरु, गृधकूट तथा हिमवन्त प्रसिद्ध पर्वत थे। सुमेरु को महामेल भी कहा गया है। हिमवन्त नामक पर्वत का भी उल्लेख है, जो अति विशाल एवं विस्तृत था। इसे पर्वतराज भी कहा गया है। इस पर अनेक औषधियों को प्राप्ति का उल्लेख है । गृधकूट मगध को राजधानी राजगृह में था । इसका तथागत के जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध है। सद्धर्मपुण्दरीक के अनुसार भगवान बुद्ध ने अपने जीवनकाल में भिक्षुओं को इसो पर्वत पर उपदेश दिये थे। वे गृधकूट पर हो विराजमान रहते थे, यहीं उनका अधिष्ठान था। गंगा नदी इस ग्रन्थ में पवित्र नदी मानो गयी है क्योंकि गंगा को बालुका राशि को उपमान के रूप में प्रयोग करने के लिये इसका प्रयोग हुआ है। गयी है। मगध, विदेह, शाक्य आदि प्रदेशों का वर्णन भो किया गया है। इसके अतिरिक्त भगवान बुद्ध को चारिका से सम्बद्ध नगरों एवं स्थानों का भी विस्तृत वर्णन किया गया है।

बुद्धपूर्वयुग में शिक्षण का अधिकार मात्र ब्राह्मणों को ही था। शिक्षा गुरुकुलों तथा आश्रमों में हो दो जाती थी । सिद्धार्थ इन्हों आश्रमों में विद्याध्ययन किया था। बौद्ध धर्म को स्थापना के साथ हो बौद्ध विहारों को स्थापना हुई। इन विहारों और चैत्यों में रहते हुए बौद्ध संघ हो शिक्षा धर्म और कला के केन्द्र बन गये। इन्हीं से बौद्ध विद्या केन्द्रों को स्थापना हुई। नालन्दा, विक्रमशिला, तक्षशिला, वल्लभी आदि विद्या के महान केन्द्र थे। इसके अतिरिक्त कौशाम्बी, राजगृह, वैशाली, कपिलवस्तु तथा श्रावस्ती के बौद्ध विहार भो शिक्षा के प्रसिद्ध केन्द्र बने। भारत में शिक्षण संस्थाओं की स्थापना बौद्ध विहारों को स्थापना से प्रारम्भ हुई ।

सद्धर्मपुण्डरीक में कला के विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। स्थापत्य कला के अन्तर्गत, स्तूप, विहार, चैत्य एंव गुफाओं का वर्णन किया गया है। सुमत के धात्वावशेषों पर स्तूप बनवाने तथा उनको पूजा करने के बुद्धत्व को प्राप्ति होती है, ऐसा लोगों में विश्वास था। अतः इस काल में स्वर्ण, रजत, कांस्य, स्फटिक, मुक्ता, वैडूर्य एवं इन्द्रनील के रत्नजटित स्तूप निर्माण कराने का उल्लेख प्राप्त होता है। विशालकाय विहारों एवं चैत्यों का उल्लेख भी किया गया है। उस काल में चित्रकला, मूर्तिकला, तथा ललितकला का विकसित रूप भी विद्यमान था। सद्धर्मपुण्डरीक की गाथाओं में भित्ति चित्रों का उल्लेख है। सुगत की बत्तीस लक्षणों से युक्त मूर्तियों के निर्मित कराने तथा धूप, दीप, आदि से पूजा का विधान सद्धर्म पुण्डरीक में मिलता है। भेरी, शंख, पटह, दुन्दुभि, वीणा आदि का उल्लेख उस काल की ललित कला की समुन्नति को दर्शाता है।

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