काशीपुर का इतिहास

काशीपुर( उत्तराखण्ड)

काशीपुर, भारत के उत्तराखण्ड राज्य के उधम सिंह नगर जनपद का एक महत्वपूर्ण पौराणिक एवं औद्योगिक शहर है।

पूर्व काल में इस नगर का नाम उज्जैनी तथा यहां से बहने वाली ढेला नदी का नाम सुवर्णभद्रा था। हर्ष काल में इसे गोविषाण कहा जाने लगा। बाद में काशीनाथ अधिकारी ने तराई क्षेत्र के अधिकारी का महल रुद्रपुर से यहां स्थानांतरित किया, जिसके बाद उनके नाम पर इसे काशीपुर कहा जाने लगा। गोविषाण शब्द, दो शब्दो गो (गाय) और विषाण (सींग) से बना है। इसका अर्थ गाय का सींग है। प्राचीन समय में गोविषाण को तत्कालीन समय की राजधानी व समृद्ध नगर कहा गया है।[1]

प्राचीन इतिहास

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काशीपुर को हर्ष के समय (६०६-६४१ ईसवी) में 'गोविषाण' नाम से जाना जाता था। लगभग इसी समय में यहाँ चीनी यात्री ह्वेनसांग भी आया था।[2]:174 उस समय के गोविषाण नगर का वर्णन करते हुए उसने लिखा था "राजधानी की परिधि 15 ली थी। इसकी स्थिति उत्कृष्ट और मुश्किल पहुंच की थी, और यह उपवनों, तालाबों तथा मत्स्य-तालों से घिरी हुई थी"।[3] उस समय के कई खंडहर अभी भी शहर के पास विद्यमान हैं।[4] माना जाता है कि काशीपुर कपड़े और धातु के बर्तनों का ऐतिहासिक व्यापार केंद्र था।[5]

 
काशीपुर में खुदाई में मिली विष्णु त्रिविक्रम की मूर्ती

नगर में प्राप्त सिक्कों से पता चलता है कि यह क्षेत्र दूसरी शताब्दी के आसपास कुनिन्दा राजवंश के अधीन था।[6]:७३-७४ कान्ति प्रसाद नौटियाल ने अपनी पुस्तक, "आर्केलॉजी ऑफ़ कुमाऊँ" में गोविषाण का वर्णन करते हुए लिखा है कि "कुमाऊँ क्षेत्र में ढिकुली, जोशीमठ तथा बाराहाट के साथ-साथ गोविषाण भी कुनिन्दा राज्य के प्रमुख नगरों में से एक रहा होगा।"[7]:२३ कुछ वर्षों बाद इस क्षेत्र पर कुषाणों द्वारा आक्रमण का भी उल्लेख है; कुषाण कुनिन्दा राज्य में प्रवेश कर गोविषाण तक घुस आये थे, परन्तु उन्होंने कभी इस क्षेत्र को कब्ज़े में नहीं लिया।[7]:२३ कुनिन्दा काल में गोविषाण एक बार यादव राजवंश (yaudheyas) के अंतर्गत भी रहा।[7]:३७ इसके बाद राजा हर्ष ने गोविषाण को अपना सामन्ती राज्य बना लिया।[7]:४२ प्रतिहार राजवंश से सम्बंधित इसी समय की एक "विष्णु त्रिविक्रम की मूर्ती" भी काशीपुर में खुदाई में प्राप्त हुई है, जो अभी नयी दिल्ली के एक संग्रहालय में स्थित है। आठवीं शताब्दी आते आते यह नगर कत्यूरी राजवंश के अधीन आ गया, जिनकी राजधानी कार्तिकेयपुरा में थी।[7]:४६

ह्वेनसांग के अनुसार मादीपुर से ६६ मील की दूरी पर गोविषाण नामक स्थान था जिसकी ऊँची भूमि पर ढाई मील का एक गोलाकार स्थान था। यहां उद्यान, सरोवर एवं मछली कुंड थे। इनके बीच ही दो मठ थे, जिनमें सौ बौद्ध धर्मानुयायी रहते थे। यहाँ ३० से अधिक हिन्दू धर्म के मंदिर थे। नगर के बाहर एक बड़े मठ में २०० फुट ऊँचा अशोक का स्तूप था।[8] इसके अलावा दो छोटे-छोटे स्तूप थे, जिनमें भगवान बुद्ध के नख एवं बाल रखे गए थे। इन मठों में भगवान बुद्ध ने लोगों को धर्म उपदेश दिए थे।

१८६८ में भारत के तत्कालीन पुरातत्व सर्वेक्षक सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने इन वस्तुओं की खोज हेतु इस स्थान का दौरा किया किन्तु इन मठों में उन्हें ये वस्तुएँ, खासकर भगवान बुद्ध के नख एवं बाल नहीं मिले। कनिंघम ने यहां की सर्वाधिक ऊंचाई वाले टीले पर स्थित भीमगोड़ा स्थल पर एक पुरातात्विक निर्माण की खोज भी की। कनिंघम ने अपनी रिपोर्ट में गोविषाण को किसी प्राचीन राज्य की राजधानी बताया था, जिसकी सीमाओं का विस्तार वर्तमान उधमसिंहनगर, रामपुर तथा पीलीभीत जनपदों तक था।[9]:३३०-३३१ जहां तत्कालीन मुख्य पुरातत्व सर्वेक्षक डॉ. वाई.डी। शर्मा के नेतृत्व में सीमित खुदाई का कार्य इस टीले के अंदर के भवनों की आकृति जानने के उद्देश्य से आरम्भ किया गया। १९६६ में सीमित खुदाई करके यह कहा गया कि पुरातात्विक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के कारण इसका संरक्षण आवश्यक है।

इसमें ५९६ ईसवीं की किलेनुमा दीवारें मिली थीं। इन पर आकर्षक रूप से उकेरी गई ईंटों से बनी दीवारों की शिल्पकला के नमूने मिले। इसके अलावा ताँबे के सिक्के और बर्तन समेत ताँबे पर नक्काशी करने वाली कखानी भी यहाँ मिली। इसके साथ ही चॉकलेटी रंग का दो छिद्रों वाला सुरक्षा ताबीज यहाँ मिला। इसके अलावा भूरे-लाल रंग लिए मिट्टी के बने हुए दीये और अलग-अलग आकृति के अगरबत्ती रखने के खाँचे और तीरों की नोंक, लोहे की छड़ें और चाकू भी इसकी खुदाई से प्राप्त हुआ।[8]

१९६९ में एक बार पुनः यहाँ खुदाई हुई जिसमें १४० फुट लंबे एवं ८२ फुट चौड़े और साढ़े उन्नीस फुट ऊँचे विशाल चैत्य के अवशेष मिले। एक प्रदक्षिणा पथ भी मिला, जिसका काफी भाग मंदिर की मुख्य दीवार के निर्माण से मेल खाता था। मिट्टी से बने पतले पहिए के आकार के बर्तन को एक क्रम से पाया गया। इस बार एक विशेष बात यह थी कि कि जो चीजें यहाँ मिलीं, वह अन्य स्थानों की खुदाई में कहीं नहीं मिली। गोविषाण की खुदाई में शुंग और कुषाण काल (२०० - १३० ई०पू०) तक (राजपुर काल) के मनके, मृदभांड, सिक्के मिले हैं। इसके अलावा अनाज रखने के बर्तन एवं गेहूँ के दाने भी प्राप्त हुए हैं। जो इसी काल के समझे जाते हैं। इस साल की पूरी खुदाई में कत्यूर काल से पहले२९०० ईसा पूर्व तक जानकारी मिली।[8]

द्रोण सागर सरोवर

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यहां एक प्राचीन किला है जिसके किनारे द्रोण सागर नांमक सरोवर बना है। यह सरोवर किले से भी पहले का बना हुआ था और इसका निर्माण पांडवों ने अपने गुरु द्रोणाचार्य के लिए करवाया था। इस वर्गाकार सरोवर का क्षेत्रफल ६०० वर्ग फुट है। यहाँ पूर्व में गंगोत्री की यात्रा करने वाले वाले यात्री आते हैं। इसके किनारे सती नारियों के स्मारक हैं।[1] ये इस क्षेत्र का संबंध महाभारत काल से जोडने की ओर संकेत करते हैं। इस क्षेत्र को उत्तर व दक्षिण पांचाल के रूप में महाभारत के योद्धा द्रोणाचार्य ने विभाजित किया और इसे अपने राज्य का भाग बनाया। इसी गोविषाण के उत्तर के ब्रह्मपुर में कत्यूरी-राजाओं का राज्य रहा होगा। ह्वेनसांग लखनपुर आया जो ब्रह्मपुर की राजधानी थी। ह्वेनसांग सातवीं शताब्दी में आया था और १६ वर्ष रहकर चीन लौट गया था।

उज्जैन का किला

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काशीपुर में द्रोण सागर के निकट एक पुरातन काल का किला भी मिला है जो उज्जैन कहलाता है। इस किले की दीवारें ६० फुट ऊँची हैं। इस दीवार की लंबाई-चौड़ाई तथा ऊँचाई क्रमशः १५ फुट × १० फुट × २१ फुट है। क़िले में ज्वाला देवी, जिन्हें उज्जैनी देवी कहा जाता है, की मूर्ति भी स्थापित है। यहाँ चैत माह में एक विशाल मेला लगता है जो चैती मेले के नाम से प्रसिद्ध है। इस मेले में दूर-दूर से लोग आते हैं। यहाँ कई मंदिर बाद में बने, उनमें मुख्यतः भूतेश्वर, मुक्तेश्वर, नागनाथ, जागीश्वर प्रमुख हैं।

गोविषाण नगर उस प्राचीन रेशम मार्ग के बीच में स्थित है जो प्राचीनकाल में उत्तर पथ अफगानिस्तान के बामियान नामक स्थान से आरंभ होता था और तक्षशिला से होकर पांडवों की राजधानी हस्तिनापुर तक पहुँचता था। गोविषाण तीन मार्गों के बीच में स्थित था, जिनमें से एक मार्ग यहाँ से पाटलिपुत्र को दूसरा अहिच्‌छत्र और तीसरा कौशांबी को जाता था। इस स्थल पर पहले खुदाइयों में ताम्रयुगीन सभ्यता के दौर की गेरूए रंग के मृदभांड मिल चुके हैं।

गोविषाण में पिछले कुछ वर्षों पूर्व जो खुदाई हुई उसके तहत डॉ. धर्मवीर शर्मा ने ठाकुरद्वारा के मदारपुर गाँव के पास ताम्र मानवाकृतियाँ पाईं। काफी बड़ी मात्रा में पाई गईं यह ताम्र मानवाकृतियां हड़प्पाकाल के बाद मिलती हैं। इन्हें हड़प्पा व ताम्रयुगीन सभ्यता के बीच का सेतु माना जाता है।

गोविषाण की खुदाई से हड़प्पा सभ्यता के आस-पास रहने वाले शुद्ध ताँबे की वस्तुएँ बनाने वाले लोगों के बारे में जानकारी मिल सकती है। कुमाऊँ में आज भी ताँबे के कारीगर रहते हैं। टम्टा नाम से पहचाने जाने वाले ये कारीगर ताँबे के बर्तन उपयोग में लाते रहे हैं। इस स्थल से प्राप्त चिकनी मिट्टी की कलाकृतियों वाले मृदभांडों के अध्ययन से पुरातत्वविद् इन्हे११००-१५०० ई.पू. तक का बताते हैं।[10]

जागेश्वर मंदिर की खुदाई में आठवीं शताब्दी का शिवलिंग निकला था जिसे इसे गन्ना संस्थान के सामने एक छोटे से मंदिर में स्थापित कर दिया गया था। इस शिवलिंग के मानवीकरण का कार्य आठवीं से दसवीं शताब्दी के बीच प्रतिहार राजाओं, गूर्जरों और चंदेलों के बीच किया गया था।[1]

चन्द शासन

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तेरहवीं शताब्दी में कुमाऊँ के शासक गरुड़ ज्ञान चन्द (१३७४-१४१९) ने भाभर तथा तराई क्षेत्रों पर अधिकार दिल्ली के सुल्तान से प्राप्त किया। हालांकि बाद के राजाओं ने इन क्षेत्रों पर कभी ध्यान नहीं दिया, जिस कारण यहां छोटे छोटे सरदारों ने राज्य स्थापित कर दिए। कीर्ति चन्द (१४८८-१५०३) पहले ऐसे राजा हुए, जिन्होंने तराई क्षेत्रों की ओर परस्पर ध्यान दिया। रुद्र चन्द (१५६८-१५९७) के शासनकाल में काठ तथा गोला के नवाब ने तराई क्षेत्रों पर कब्ज़ा करने की कोशिश की, परन्तु रुद्र चन्द ने उनके आक्रमण को निष्फल कर दिया। इसके बाद तराई क्षेत्रों को परगना का दर्जा देकर यहां एक अधिकारी की नियुक्ति की गई, और उसके निवास के लिए रुद्र चन्द ने रुद्रपुर नगर की स्थापना करी।

रुद्र चन्द के बाद बाज बहादुर चन्द (१६३८-१६७८) ने भी तराई क्षेत्रों के प्रशासन की ओर विशेष ध्यान दिया। बाज़ बहादुर चन्द ने रुद्रपुर के पश्चिम में बाजपुर नगर की स्थापना कर तराई के मुख्यालय वहां स्थानांतरित करने का एक विफल प्रयास करा। देवी चन्द (१७२०-१७२६) के शासनकाल में तराई के लाट काशीनाथ अधिकारी ने अपने निवास के लिए काशीपुर में महल का निर्माण करवाया, तथा तराई का मुख्यालय रुद्रपुर से यहां स्थानांतरित कर दिया।

वर्तमान काशीपुर नगर की स्थापना काशीनाथ अधिकारी ने की थी, जो चम्पावत के राजा देवी चन्द के अंतर्गत तराई क्षेत्र के लाट (अधिकारी) थे। लेकिन शहर की स्थापना की सही तारीख विवादित है, और कई इतिहासकारों ने इस मामले पर भिन्न-भिन्न विचार व्यक्त किए हैं। बिशप हेबेर ने अपनी पुस्तक, "ट्रेवल्स इन इंडिया" में लिखा है कि काशीपुर की स्थापना ५००० साल पहले (लगभग ३१७६ ईसा पूर्व) काशी नामक देवता ने की थी।[11] सर अलेक्जेंडर कनिंघम ने अपनी पुस्तक, "द अन्सिएंट जियोग्राफी ऑफ़ इंडिया" में हेबेर के विचारों को अमान्य करते हुए लिखा "बिशप को अपने मुखबिर से धोखेबाज़ी मिली, क्योंकि यह अच्छी तरह से ज्ञात है कि यह नगर आधुनिक है। इसे कुमाऊँ में चंपावत के राजा देवी-चन्द्र के अनुयायी काशीनाथ द्वारा १७१८ ई में बनाया गया है"। वर्तमान में राजा करन चन्द राज सिंह चन्द वंशज हैं।[12]:357–358 बद्री दत्त पाण्डेय ने अपनी पुस्तक "कुमाऊँ का इतिहास" में, कनिंघम के विचारों का विरोध करते हुए दावा किया है कि शहर १६३९ में ही स्थापित हो चुका था।[13]

काशीपुर राज्य

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१८१४ आंग्ल-गोरखा युद्ध के समय काशीपुर में पड़ाव डाले सैनिक।

वर्तमान में राजा करन चन्द राज सिंह चन्द वंशज हैं व काशीपुर नरेश हैं।

काशीपुर में अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक चन्द राजवंश का शासन रहा। १७७७ में काशीपुर के अधिकारी, नंद राम ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया और काशीपुर राज्य की स्थापना की। काशीपुर को १८०१ में शिव् लाल ने अंग्रेजों को सौंप दिया था, जिसके बाद यह ब्रिटिश भारत में एक राजस्व विभाजन बन गया।[13]:445 इसी समय में काशीपुर राज्य के राजकवि गुमानी पन्त ने इस नगर की विशेषताओं पर एक कविता भी लिखी थी, जिसमें उन्होंने नगर में बहती ढेला नदी, और मोटेश्वर महादेव मन्दिर का वर्णन किया है।[14]

ब्रिटिश शासन

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१८वीं-१९वीं सदी में

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१८०१ में काशीपुर ब्रिटिश राज के अंतर्गत आया था। १८१४ में आंग्ल गोरखा युद्ध छिड़ने पर ब्रिटिश सेना ने काशीपुर में पड़ाव डाला था। ११ फरवरी १८१५ को कर्नल गार्डनर के नेतृत्व में सैनिक काशीपुर से कटारमल के लिए रवाना हुए।[4]:१७८ इस टुकड़ी ने निकोलस के नेतृत्व में २५ अप्रैल २०१५ को अल्मोड़ा पर आक्रमण किया, और आसानी से कब्ज़ा कर लिया। २७ अप्रैल को अल्मोड़ा के गोरखा अधिकारी, बाम शाह ने हथियार डाल दिए, और कुमाऊँ पर ब्रिटिश राज स्थापित हो गया।[15]:१४८-१५५

१० जुलाई १८३७ को काशीपुर को मुरादाबाद जनपद में शामिल किया गया और फिर १९४४ में बाजपुर, काशीपुर तथा जसपुर नगरों को काशीपुर नामक एक परगना में पुनर्गठित किया गया।[16] काशीपुर को बाद में संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध के तराई जनपद का मुख्यालय बनाया गया।[16] १८९१ में नैनीताल तहसील को कुमाऊँ जनपद से स्थानांतरित कर तराई के साथ मिला दिया गया, और फिर इसके मुख्यालय को काशीपुर से नैनीताल में लाया गया था। तब इस नगर की जनसंख्या लगभग १५,००० थी। १८९१ में ही कुमाऊँ और तराई जनपदों का नाम उनके मुख्यालयों के नाम पर क्रमशः अल्मोड़ा तथा नैनीताल रख दिया गया, काशीपुर नैनीताल जनपद में एक तहसील तथा परगना भर रह गया।

२०वीं सदी में

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२० सदी के प्रारम्भ में ही काशीपुर नगर रेल नेटवर्क से जुड़ गया था। ११ जनवरी १९०८ को लालकुआँ - रामनगर/मुरादाबाद रेलवे लाइन का उद्घाटन हुआ।[17]:१३ यह रेलवे लाइन बरेली-काठगोदाम लाइन पर स्थित लालकुआँ से शुरू होती थी, और गूलरभोज, बाजपुर तथा सरकारा से होते हुए काशीपुर पहुँचती थी। काशीपुर से यह उत्तर की ओर रामनगर, तथा दक्षिण की ओर मुरादाबाद तक जाती थी।[17]:१३ रेल निर्माण के बाद नगर के विकास में तेजी आयी, और काशीपुर तथा रामनगर प्रमुख व्यापारिक केंद्र बनकर उभरे।[17]:२७

ऐतिहासिक रूप से, इस क्षेत्र की अर्थव्यस्था कृषि तथा बहुत छोटे पैमाने पर लघु औद्योगिक गतिविधियों पर आधारित रही है। आजादी से पहले काशीपुर नगर में जापान से मखमल, चीन से रेशम व इंग्लैंड के मैनचेस्टर से सूती कपड़े आते थे, जिनका तिब्बत व पर्वतीय क्षेत्रों में व्यापार होता था।[18] इस पेशे से जुड़े करीब दो सौ लोग यहां फेरियां लगाते थे। यातायात सुविधाऐं उप्लब्ध न होने के कारण खच्चरों के माध्यम से माल भेजा जाता था, जो गंतव्य तक कई दिनों बाद पहुंचता था। व्यापारी जब लौटते थे तो साथ में पर्वतीय घी व सुहागा लेकर आते थे। बाद में प्रशासनिक प्रोत्साहन और समर्थन के साथ काशीपुर शहर के आसपास तेजी से औद्योगिक विकास हुआ।

समकालीन इतिहास

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उत्तर प्रदेश में

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१९४७ में स्वतंत्रता के बाद काशीपुर और नैनीताल जनपद के अन्य हिस्से संयुक्त प्रांत में ही मिले रहे, जिसका नाम बाद में उत्तर प्रदेश राज्य हो गया था। तब यह चतुर्थ श्रेणी की नगरपालिका थी, तथा इसका क्षेत्रफल १.५० वर्ग किलोमीटर था। इसके बाद २३ मई १९५७ को इसे चतुर्थ से तृतीय श्रेणी, तथा १ दिसंबर १९६६ को तृतीय से द्वितीय श्रेणी की नगरपालिका का दर्जा दिया गया। १३ मार्च १९७६ को नगरपालिका काशीपुर सीमा का विस्तार कर इसका क्षेत्रफल ५.४५६ वर्ग किमी निर्धारित किया गया। अगले ही साल ६ जनवरी १९७७ को नगरपालिका काशीपुर को प्रथम श्रेणी की नगर पालिका का स्तर प्रदान कर दिया गया।[19]

१९९४ तक उत्तराखण्ड क्षेत्र के लिए पृथक राज्य की मांग पूरे क्षेत्र में स्थानीय आबादी और राजनीतिक दलों, दोनों के बीच लगभग सर्वसम्मति से स्वीकार हो चुकी थी।[20] ३० सितंबर १९९५ को नैनीताल जनपद के तराई क्षेत्र की चार तहसीलों (किच्छा, काशीपुर, सितारगंज तथा खटीमा) को मिलाकर उधम सिंह नगर जनपद का गठन किया गया परन्तु इसका मुख्यालय काशीपुर की बजाय रुद्रपुर में बनाया गया।[21] ९ नवंबर २००० को भारत की संसद ने उत्तर प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम, २००० को पारित किया, और काशीपुर नवनिर्मित उत्तराखण्ड राज्य का भाग बन गया, जो भारत गणराज्य का २७वां राज्य था।[22]

उत्तराखण्ड में

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उत्तराखण्ड राज्य के गठन के बाद उत्तराखण्ड सरकार ने जस्टिस वीरेंद्र दीक्षित की अध्यक्षता में दीक्षित आयोग का गठन किया, जिसका कार्य उत्तराखण्ड के विभिन्न नगरों का अध्ययन कर उत्तराखण्ड की राजधानी के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थल का चुनाव करना था। दीक्षित आयोग ने प्रस्तावित राजधानी के लिए ५ स्थल (देहरादून, काशीपुर, रामनगर, ऋषिकेश तथा गैरसैण) चिन्हित किये, और इन पर व्यापक शोध के पश्चात अपनी ८० पन्नो की रिपोर्ट १७ अगस्त २००८ को उत्तराखण्ड विधानसभा में पेश की।[23] इस रिपोर्ट में दीक्षित आयोग ने काशीपुर को नगर को भूगोल तथा जलवायु, जल उपलब्धता, भूमि की उपलब्धता, प्राकृतिक जल निकासी और निवेश इत्यादि मापदंडों के आधार पर राजधानी के लिए दूसरा सबसे उपयुक्त स्थान पाया था।[23][24]

काशीपुर नगर के २०११ मास्टर प्लान के अनुसार, शहर में लगभग ६०३ औद्योगिक इकाइयां काम कर रही थीं। इनमें १६३ कॉटेज इंडस्ट्रीज, ४१५ लघु उद्योग और २५ मध्यम (या बड़े) उद्योग शामिल हैं। सस्ते और प्रचुर मात्रा में कच्चे माल उपलब्ध होने के कारण, कई पेपर और चीनी मिल भी उपस्थित हैं। २०१४ के एक सर्वे के अनुसार नगर में कुल १२ कागज़ मिलें हैं, जिनमें १,०२२ लोग काम करते हैं।[25] २०१७-२०१८ तक काशीपुर नगर के एस्कॉर्ट्स फार्म क्षेत्र में उत्तराखण्ड सरकार स्टेट इन्फ्रास्ट्रक्चर ऐंड इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ऑफ उत्तराखण्ड लिमिटेड (सिडकुल) के अंतर्गत छोटी और मझोली औद्योगिक इकाइयों के लिए औद्योगिक क्षेत्र विकसित करने के लिए एक इंटीग्रेटेड इंडस्ट्रियल एस्टेट का निर्माण कार्य चला। सिडकुल ने पहले भी २००८ में एस्कॉट्र्स फार्म्स पर औद्योगिक क्षेत्र विकसित करने का अपने प्रस्ताव सरकार के सामने रखा था, पर तब सरकार ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।[26] ३११ एकड़ में फैले इस एस्टेट में लगभग २०० एकड़ क्षेत्र को बिक्री के लिए रखा गया, जहां भविष्य में उद्योग स्थापित होने थे।[27]

२०१३ में उत्तराखण्ड राज्य में नए नगर निगम बनाने के लिए जनसंख्या का मानक सवा लाख से घटाकर एक लाख कर दिया गया था। इसके बाद २७ जनवरी २०१३ को उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमंत्री, विजय बहुगुणा ने रुड़की और रुद्रपुर के साथ-साथ काशीपुर को भी नगर निगम बनाने की घोषणा की।[28] २८ फरवरी २०१३ को इसकी आधिकारिक अधिसूचना जारी की गई,[29] जिसके बाद काशीपुर नगर पालिका का उच्चीकरण करके इसे नगर निगम का दर्जा दिया गया।[30]

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  3. Julien, Stanislas (1853). Histoire de la vie de Hiouen-Thsang, par Hoëi-Li et Yen-Thsong (फ़्रेंच में). Paris. पृ॰ 233.
  4. History of Uttaranchal – Omacanda Hāṇḍā. Books.google.com. मूल से 9 मार्च 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2013-11-08.
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  7. नौटियाल, कान्ति प्रसाद (१९६९). आर्केलॉजी ऑफ़ कुमाऊँ. वाराणसी: चौखम्बा संस्कृत सीरीज़.
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  11. Heber, Bishop. Travels in India (II संस्करण). पृ॰ 246.
  12. Cunningham, Sir Alexander (1871). The Ancient Geography of India: I. The Buddhist Period, Including the Campaigns of Alexander, and the Travels of Hwen-Thsang (अंग्रेज़ी में). London: Trübner and Company. मूल से 24 सितंबर 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 दिसंबर 2017.
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बाहरी सूत्र

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