चैतन्य महाप्रभु

भारतीय संत (1486-1534)
(गौरांग से अनुप्रेषित)

चैतन्य महाप्रभु (१८ फरवरी, १४८६-१५३४) वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा विलुप्त वृंदावन को फिर से बसाया और अपने जीवन का अंतिम भाग वहीं व्यतीत किया। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए महामंत्र नाम संकीर्तन का अत्यंत व्यापक व सकारात्मक प्रभाव आज पश्चिमी जगत तक में है। यह भी कहा जाता है, कि यदि गौरांग ना होते तो वृंदावन आज तक एक मिथक ही होता।[1] वैष्णव लोग तो इन्हें श्रीकृष्ण का राधा रानी के संयोग का अवतार मानते हैं।[2][3][4] गौरांग के ऊपर बहुत से ग्रंथ लिखे गए हैं, जिनमें से प्रमुख है श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी विरचित चैतन्य चरितामृत। इसके अलावा श्री वृंदावन दास ठाकुर रचित चैतन्य भागवत[5] तथा लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल भी हैं।[6]

श्रीमन्महाप्रभु चैतन्य देव
श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में
व्यक्तिगत जानकारी
अन्य नामविश्वम्भर मिश्र,निमाई पण्डित, गौराङ्ग महाप्रभु, गौरहरि, गौरसुंदर, श्रीकृष्ण चैतन्य भारती आदि
जन्मफाल्गुनी पुर्णिमा तिथि 1486 फ़रवरी 18
नवद्वीप (नादिया ज़िला), पश्चिम बंगाल
मृत्यु१५३४ (आयु ४६-४७)
पुरी, उड़ीसा
जीवनसाथी(याँ)श्रीमती लक्ष्मीप्रिया देवी और श्रीमती विष्णुप्रिया देवी
वृत्तिक जानकारी
मुख्य कृतीयाँचैतन्य सगुण भक्ति को महत्त्व देते थे। भगवान का वह सगुण रूप, जो अपरिमेय शक्तियों और गुणों से पूर्ण है।
युग१५वीं शताब्दी
क्षेत्रभारत
उल्लेखनीय छात्ररूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, गोपाल भट्ट गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, जीव गोस्वामी और अन्य
राष्ट्रीयताभारतीय

जन्म तथा प्रारंभिक जीवन

चैतन्य चरितामृत के अनुसार चैतन्य महाप्रभु का जन्म सन १४८६ की फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा को पश्चिम बंगाल के नवद्वीप (नादिया) नामक गांव में हुआ,[2] जिसे अब मायापुर कहा जाता है। इनका जन्म संध्याकाल में सिंह लग्न में चंद्र ग्रहण के समय हुआ था। उस समय बहुत से लोग शुद्धि की कामना से हरिनाम जपते हुए गंगा स्नान को जा रहे थे। तब विद्वान ब्राह्मणों ने उनकी जन्मकुण्डली के ग्रहों और उस समय उपस्थित शगुन का फलादेश करते हुए यह भविष्यवाणी की, कि यह बालक जीवन पर्यन्त हरिनाम का प्रचार करेगा।[2] यद्यपि बाल्यावस्था में इनका नाम विश्वंभर था, परंतु सभी इन्हें निमाई कहकर पुकारते थे, क्योंकि कहते हैं, कि ये नीम के पेड़ के नीचे मिले थे। गौरवर्ण का होने के कारण लोग इन्हें गौरांग, गौर हरि, गौर सुंदर आदि भी कहते थे।

इनके पिता का नाम जगन्नाथ मिश्र व मां का नाम शची देवी था।[2] निमाई बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। साथ ही, अत्यंत सरल, सुंदर व भावुक भी थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर हर कोई हतप्रभ हो जाता था। बहुत कम आयु में ही निमाई न्यायव्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद्चिंतन में लीन रहकर रामकृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे। १५-१६ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ। सन १५०५ में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। जब ये किशोरावस्था में थे, तभी इनके पिता का निधन हो गया।[7]

धार्मिक दीक्षा

 w:Chaitanyaw:Nityanandaw:Advaita Acharyaw:Gadadharaw:Srivasa Thakura
यह एक इंटरैक्टिव क्लिक योग्य चित्र है, देखने हेतु चरण कमलों पर क्लिक करें। मध्य में श्री कृष्ण चैतन्य (मध्य), श्री नित्यानंद प्रभु (नीले वस्त्र में), श्री अद्वैताचार्य (दाड़ी वाले), श्री गदाधर पंडित (पर्पलधोतीमें), श्री श्रीवास पंडित (केसरिया धोती एवं सिर मुंडा हुआ) शोभित हैं। पंच तत्त्व विभूतियाँ: चैतन्य महाप्रभु, नित्यानंद, अद्वैताचार्य, गदाधर एवं श्रीवास, वैष्णव वेदी पर स्थापित हैं

सन १५०९ में जब ये अपने पिता का श्राद्ध करने गया गए, तब वहां इनकी भेंट ईश्वरपुरी नामक संत से हुई। उन्होंने निमाई से कृष्ण-कृष्ण रटने को कहा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये हर समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रति इनकी अनन्य निष्ठा व विश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी हो गए। सर्वप्रथम नित्यानंद प्रभुअद्वैताचार्य महाराज इनके शिष्य बने। इन दोनों ने निमाई के भक्ति आंदोलन को तीव्र गति प्रदान की। इन्होंने अपने इन दोनों शिष्यों के सहयोग से ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर में नाच-गाकर हरि नाम संकीर्तन करना प्रारंभ किया।

हरे-कृष्ण, हरे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, हरे-हरे। हरे-राम, हरे-राम, राम-राम, हरे-हरे॥

 
गौरांग की मायापुर में एक मंदिर में स्थित प्रतिमा

यह अठारह शब्दीय (३२ अक्षरीय) कीर्तन महामंत्र निमाई की ही देन है। इसे तारकब्रह्ममहामंत्र कहा गया, व कलियुग में जीवात्माओं के उद्धार हेतु प्रचारित किया गया था।[2] जब ये कीर्तन करते थे, तो लगता था मानो ईश्वर का आह्वान कर रहे हैं। सन १५१० में संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से संन्यास की दीक्षा लेने के बाद निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया। मात्र २४ वर्ष की आयु में ही इन्होंने गृहस्थ आश्रम का त्याग कर सन्यास ग्रहण किया।[2] बाद में ये चैतन्य महाप्रभु के नाम से प्रख्यात हुए। सन्यास लेने के बाद जब गौरांग पहली बार जगन्नाथ मंदिर पहुंचे, तब भगवान की मूर्ति देखकर ये इतने भाव-विभोर हो गए, कि उन्मत्त होकर नृत्य करने लगे, व मूर्छित हो गए।[2] संयोग से तब वहां उपस्थित प्रकाण्ड पण्डित सार्वभौम भट्टाचार्य महाप्रभु की प्रेम-भक्ति से प्रभावित होकर उन्हें अपने घर ले गए। घर पर शास्त्र-चर्चा आरंभ हुई, जिसमें सार्वभौम अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने लगे, तब श्रीगौरांग ने भक्ति का महत्त्व ज्ञान से कहीं ऊपर सिद्ध किया व उन्हें अपने षड्भुजरूपका दर्शन कराया। सार्वभौम तभी से गौरांग महाप्रभु के शिष्य हो गए और वह अन्त समय तक उनके साथ रहे। पंडित सार्वभौम भट्टाचार्य ने गौरांक की शत-श्लोकी स्तुति रची जिसे आज चैतन्य शतक नाम से जाना जाता है।[2]उड़ीसा के सूर्यवंशी सम्राट, गजपति महाराज प्रताप रुद्रदेव ने इन्हें श्रीकृष्ण का अवतार माना और इनका अनन्य भक्त बन गया।[8]

चैतन्य महाप्रभु संन्यास लेने के बाद नीलांचल चले गए। इसके बाद दक्षिण भारत के श्रीरंग क्षेत्र व सेतु बंध आदि स्थानों पर भी रहे। इन्होंने देश के कोने-कोने में जाकर हरिनाम की महत्ता का प्रचार किया। सन १५१५ में विजयादशमी के दिन वृंदावन के लिए प्रस्थान किया। ये वन के रास्ते ही वृंदावन को चले। कहते हैं, कि इनके हरिनाम उच्चारण से उन्मत्त हो कर जंगल के जानवर भी इनके साथ नाचने लगते थे। बड़े बड़े जंगली जानवर जैसे शेर, बाघ और हाथी आदि भी इनके आगे नतमस्तक हो प्रेमभाव से नृत्य करते चलते थे। कार्तिक पूर्णिमा को ये वृंदावन पहुंचे।[2] वृंदावन में आज भी कार्तिक पूर्णिमा के दिन गौरांग का आगमनोत्सव मनाया जाता है। यहां इन्होंने इमली तला और अक्रूर घाट पर निवास किया। वृंदावन में रहकर इन्होंने प्राचीन श्रीधाम वृंदावन की महत्ता प्रतिपादित कर लोगों की सुप्त भक्ति भावना को जागृत किया। यहां से फिर ये प्रयाग चले गए। इन्होंने काशी, हरिद्वार, शृंगेरी (कर्नाटक), कामकोटि पीठ (तमिलनाडु), द्वारिका, मथुरा आदि स्थानों पर रहकर भगवद्नाम संकीर्तन का प्रचार-प्रसार किया। चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष जगन्नाथ पुरी में रहकर बिताएं। यहीं पर सन १५३३ में ४७ वर्ष की अल्पायु में रथयात्रा के दिन उन्होंने श्रीकृष्ण के परम धाम को प्रस्थान किया।

विरासत

चित्र:Gaura nitai radhadesh.jpg
चैतन्य महाप्रभु (दाएं) एवं नित्यानंद (बायें) की बेल्जियम में राधादेश स्थित मूर्तियाँ।

चैतन्य महाप्रभु ने लोगों की असीम लोकप्रियता और स्नेह प्राप्त किया कहते हैं कि उनकी अद्भुत भगवद्भक्ति देखकर जगन्नाथ पुरी के राजा तक उनके श्रीचरणों में नत हो जाते थे। बंगाल के एक शासक के मंत्री रूपगोस्वामी तो मंत्री पद त्यागकर चैतन्य महाप्रभु के शरणागत हो गए थे। उन्होंने कुष्ठ रोगियों व दलितों आदि को अपने गले लगाकर उनकी अनन्य सेवा की। वे सदैव हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश देते रहे। साथ ही, उन्होंने लोगों को पारस्परिक सद्भावना जागृत करने की प्रेरणा दी। वस्तुत: उन्होंने जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर समाज को मानवता के सूत्र में पिरोया और भक्ति का अमृत पिलाया। वे गौड़ीय संप्रदाय के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। उनके द्वारा कई ग्रंथ भी रचे गए। किंतु आज एक शिक्षाष्टक के सिवाय अन्य कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। उन्होंने संस्कृत भाषा में भी तमाम रचनाएं कीं। उनका मार्ग प्रेम व भक्ति का था। वे नारद जी की भक्ति से अत्यंत प्रभावित थे, क्योंकि नारद जी सदैव 'नारायण-नारायण` जपते रहते थे।

उन्होंने विश्व मानव को एक सूत्र में पिरोते हुए यह समझाया कि ईश्वर एक है। उन्होंने लोगों को यह मुक्ति सूत्र भी दिया-

कृष्ण केशव, कृष्ण केशव, कृष्ण केशव, पाहियाम। राम राघव, राम राघव, राम राघव, रक्षयाम॥

षण्गोस्वामी

हिंदू धर्म में नाम-जप को ही वैष्णव धर्म माना गया है और भगवान श्रीकृष्ण को प्रधानता दी गई है। चैतन्य ने इन्हीं की उपासना की और नवद्वीप से अपने छः प्रमुख अनुयायियों को वृंदावन भेजकर वहां सप्त देवालयों की आधारशिला रखवाई। गौरांग ने जिस गौड़ीय संप्रदाय की स्थापना की थी। उसमें षड्गोस्वामियों की अत्यंत अहम भूमिका रही। इन सभी ने भक्ति आंदोलन को व्यवहारिक स्वरूप प्रदान किया। साथ ही वृंदावन के सप्त देवालयों के माध्यम से विश्व में आध्यात्मिक चेतना का प्रसार किया। रसिक कवि कुल चक्र चूडामणि श्री जीव गोस्वामी महराज षण्गोस्वामी गणों में अन्यतम थे। उन्होंने परमार्थिक नि:स्वार्थ प्रवृत्ति से युक्त होकर सेवा व जन कल्याण के जो अनेकानेक कार्य किए वह स्तुत्य हैं। चैतन्य महाप्रभु के सिद्धान्त अनुसार हरि-नाम में रुचि, जीव मात्र पर दया एवं वैष्णवों की सेवा करना उनके स्वभाव में था। वह मात्र २० वर्ष की आयु में ही सब कुछ त्याग कर वृंदावन में अखण्ड वास करने आ गए थे। ये षड्गोस्वामी थे:

  • श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी, बहुत कम आयु में ही गौरांग की कृपा से यहां आ गए थे। दक्षिण भारत का भ्रमण करते हुए गौरांग चार माह इनके घर पर ठहरे थे। बाद में इन्होंने गौरांग के नाम संकीर्तन में प्रवेश किया।[9]
  • श्री रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, सदा हरे कृष्ण का अन्वरत जाप करते रहते थे और श्रीमद भागवत का पाठ नियम से करते थे। राधा कुण्ड के तट पर निवास करते हुए, प्रतिदिन भागवत का मीठा पाठ स्थानीय लोगों को सुनाते थे और इतने भावविभोर हो जाते थे, कि उनके प्रेमाश्रुओं से भागवत के पन्ने भी भीग जाते थे।[10]
  • श्री रूप गोस्वामी (१४९३१५६४), का जन्म १४९३ ई (तदनुसार १४१५ शक.सं.) को हुआ था। इन्होंने २२ वर्ष की आयु में गृहस्थाश्रम त्याग कर दिया था। बाद के ५१ वर्ष ये ब्रज में ही रहे।[11]
  • श्री सनातन गोस्वामी (१४८८-१५५८), चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। उन्होने गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय की अनेकों ग्रन्थोंकी रचना की। अपने भाई रूप गोस्वामी सहित वृन्दावन के छ: प्रभावशाली गोस्वामियों में वे सबसे ज्येष्ठ थे।
  • श्री जीव गोस्वामी(१५३३-१५४०), का जन्म श्री वल्लभ अनुपम के यहां १५३३ ई०(तद.१४५५ शक. भाद्रपद शुक्ल द्वादशी को हुआ था। श्री जीव के चेहरे पर सुवर्ण आभा थी, इनकी आंखें कमल के समान थीं, व इनके अंग-प्रत्यंग में चमक निकलती थी। श्री रूप गोस्वामी ने इन्हें श्रीमद्भाग्वत का पाठ कराया। और अन्ततः ये वृंदावन पहुंचे। वहां इन्होंने एक मंदिर भी बनवाया।[12]
  • श्री रघुनाथ दास गोस्वामी, ने युवा आयु में ही गृहस्थी का त्याग किया और गौरांग के साथ हो लिए थे। ये चैतन्य के सचिव स्वरूप दामोदर के निजी सहायक रहे। उनके संग ही इन्होंने गौरांग के पृथ्वी पर अंतिम दिनों में दर्शन भी किये।[13]

इन्होंने वृंदावन में सात वैष्णव मंदिरों की स्थापना की। वे इस प्रकार हैं:-गोविंददेव मंदिर, गोपीनाथ मंदिर, मदन मोहन मंदिर, राधा रमण मंदिर, राधा दामोदर मंदिर, राधा श्यामसुंदर मंदिर और गोकुलानंद मंदिर। इन्हें सप्तदेवालय कहा जाता है।

अध्यात्म

लोग चैतन्य को भगवान श्रीकृष्ण का अवतार मानते हैं। इसके कुछ सन्दर्भ प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में भी मिलते हैं।[2] श्री गौरांग अवतार की श्रेष्ठता के प्रतिपादक अनेक ग्रन्थ हैं। इनमें श्री चैतन्य चरितामृत, श्री चैतन्य भागवत, श्री चैतन्य मंगल, अमिय निमाइ चरित और चैतन्य शतक, आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। गौरांग की स्तुति में अनेक महाकाव्य भी लिखे गए हैं।

इनका लिखा कोई ग्रन्थ या पाठ नहीं उपलब्ध है। मात्र आठ श्लोक ही उपलब्ध हैं।[14] इसे शिक्षाष्टक कहते हैं। किंतु गौरांग के विचारों को श्रीकृष्णदास ने ‘चैतन्य-चरितामृत में संकलित किया है। बाद में भी समय समय पर रूप जीव और सनातन गोस्वामियों ने अपने-अपने ग्रन्थों में चैतन्य-चरित-प्रकाश किया है। इनके विचारों का सार यह है कि:-

श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव हैं। वे मूर्तिमान सौन्दर्य हैं, प्रेमपरक है। उनकी तीन शक्तियाँ- परम ब्रह्म शक्ति, माया शक्ति और विलास शक्ति हैं। विलास शक्तियाँ दो प्रकार की हैं- एक है प्राभव विलास-जिसके माध्यम से श्रीकृष्ण एक से अनेक होकर गोपियों से क्रीड़ा करते हैं। दूसरी है वैभव-विलास- जिसके द्वारा श्रीकृष्ण चतुर्व्यूह का रूप धारण करते है। चैतन्य मत के व्यूह-सिद्धान्त का आधार प्रेम और लीला है। गोलोक में श्रीकृष्ण की लीला शाश्वत है। प्रेम उनकी मूल शक्ति है और वही आनन्द का कारण है। यही प्रेम भक्त के चित्त में स्थित होकर महाभाव बन जाता है। यह महाभाव ही राधा है। राधा ही कृष्ण के सर्वोच्च प्रेम का आलम्बन हैं। वही उनके प्रेम की आदर्श प्रतिमा है। गोपी-कृष्ण-लीला प्रेम का प्रतिफल है।[14]

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. "गौड़ीय संप्रदाय के प्रवर्तक" (एचटीएम). अमर उजाला. २१. नामालूम प्राचल |month= की उपेक्षा की गयी (मदद); |date=, |year= / |date= mismatch में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)[मृत कड़ियाँ]
  2. डॉ॰अतुल टण्डन. "भगवन्नाम के अमर प्रचारक चैतन्य महाप्रभु". याहू जागरण. मूल (एचटीएम) से 12 अगस्त 2010 को पुरालेखित.
  3. "ब्रह्म-माधव गौड़ीय मत सत्र" (एचटीएम) (अंग्रेज़ी में). मूल से 22 जून 2009 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 23 जून 2009. Sri Krishna is so maddened by it that He accepts the form of Lord Caitanya Mahaprabhu, who descends in the mood of Radharani पाठ "month" की उपेक्षा की गयी (मदद)
  4. "ब्रह्म-माधव गौड़ीय मत सत्र" (अंग्रेज़ी में). श्रीमद्भाग्दत. पपृ॰ ११.५.३२. मूल (एचटीएम) से 8 फ़रवरी 2007 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 21 जून 2009. "In the age of Kali, intelligent persons perform congregational chanting to worship the incarnation of Godhead who constantly sings the names of Krishna. Although His complexion is not blackish, He is Krishna Himself. He is accompanied by His associates, servants, weapons and confidential companions."
  5. "गौड़ीय साहित्य". मूल से 13 अगस्त 2017 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 23 जून 2009.
  6. श्री लोचनदास ठाकुर की जीवनी Archived 2013-06-13 at the वेबैक मशीन (शालाग्राम.नेट पर)
  7. "गौड़ीय संप्रदाय के प्रवर्तक" (एएसपी). अमर उजाला. अभिगमन तिथि 11 मार्च 2008. |access-date= में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)[मृत कड़ियाँ]
  8. गौड़ीय वैष्णव Archived 2009-03-02 at the वेबैक मशीन "His magnetism attracted men of great learning such as Särvabhauma Bhattächärya, the greatest authority on logic, and Shree Advaita Ächärya, leader of the Vaishnavas in Bengal, and men of power and wealth like the King of Orissa, Pratapa Rudra and his brähman minister, Rämänanda Räya..."
  9. श्री चैतन्य चरितामृतम, आदि-लीला, १०.१०५
  10. श्री चैतन्य चरितामृतम, आदि-लीला, १०१.१५२-१५८
  11. श्री चैतन्य चरितामृतम, आदि-लीला, १०.८४; मध्य लीला अध्याय-१९; अंत्य लीला अध्याय-१
  12. श्री चैतन्य चरितामृतम, आदि-लीला, १०.८५
  13. श्री चैतन्य चरितामृतम, आदि-लीला, १०.९१-१०३ एवं अंत्य-लीला अध्याय ६
  14. रमण, रेवती (२३). जातीय मनोभूमि की तलाश. भारतीय ज्ञानपीठ. पपृ॰ १९२. ७१३. नामालूम प्राचल |month= की उपेक्षा की गयी (मदद); |date=, |year= / |date= mismatch में तिथि प्राचल का मान जाँचें (मदद)[मृत कड़ियाँ]

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