बरेली भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित एक नगर है। यह राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग २४ के बीचों-बीच स्थित है। यह उत्तर प्रदेश में आठवां सबसे बड़ा महानगर और भारत का ५०वां सबसे बड़ा शहर है।

प्राचीन इतिहास

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वर्तमान बरेली क्षेत्र प्राचीन काल में पांचाल राज्य का हिस्सा था। महाभारत के अनुसार तत्कालीन राजा द्रुपद तथा द्रोणाचार्य के बीच हुए एक युद्ध में द्रुपद की हार हुयी, और फलस्वरूप पांचाल राज्य का दोनों के बीच विभाजन हुआ। इसके बाद यह क्षेत्र उत्तर पांचाल के अंतर्गत आया, जहाँ के राजा द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा मनोनीत हुये। अश्वत्थामा ने संभवतः हस्तिनापुर के शासकों के अधीनस्थ राज्य पर शासन किया। उत्तर पांचाल की तत्कालीन राजधानी, अहिच्छत्र के अवशेष बरेली जिले की आंवला तहसील में स्थित रामनगर के समीप पाए गए हैं। स्थानीय लोककथाओं के अनुसार गौतम बुद्ध ने एक बार अहिच्छत्र का दौरा किया था। यह भी कहा जाता है कि जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ को अहिच्छत्र में कैवल्य प्राप्त हुआ था।

 
अहिच्छत्र के अंतिम शासक अच्युत का सिक्का। सिक्के में आगे की ओर ८ आरों वाला पहिया, और पीछे की ओर राजा का नाम, अच्यु, लिखा दिख रहा है।

छठी शताब्दी ईसा पूर्व में, बरेली अब भी पांचाल क्षेत्र का ही हिस्सा था, जो कि भारत के सोलह महाजनपदों में से एक था।[1] चौथी शताब्दी के मध्य में महापद्म नन्द के शासनकाल के दौरान पांचाल मगध साम्राज्य के अंतर्गत आया, तथा इस क्षेत्र पर नन्द तथा मौर्य राजवंश के राजाओं ने शासन किया।[2] क्षेत्र में मिले सिक्कों से मौर्यकाल के बाद के समय में यहाँ कुछ स्वतंत्र शासकों के अस्तित्व का भी पता चलता है।[3][4] क्षेत्र का अंतिम स्वतंत्र शासक शायद अच्युत था, जिसे समुद्रगुप्त ने पराजित किया था, जिसके बाद पांचाल को गुप्त साम्राज्य में शामिल कर लिया गया था।[5] छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में गुप्त राजवंश के पतन के बाद इस क्षेत्र पर मौखरियों का प्रभुत्व रहा।

सम्राट हर्ष (६०६-६४७ ई) के शासनकाल के समय यह क्षेत्र अहिच्छत्र भुक्ति का हिस्सा था। चीनी तीर्थयात्री ह्वेन त्सांग ने भी लगभग ६३५ ई में अहिच्छत्र का दौरा किया था। हर्ष की मृत्यु के बाद इस क्षेत्र में लम्बे समय तक अराजकता और भ्रम की स्थिति रही। आठवीं शताब्दी की दूसरी तिमाही में यह क्षेत्र कन्नौज के राजा यशोवर्मन (७२५- ५२ ईस्वी) के शासनाधीन आया, और फिर उसके बाद कई दशकों तक कन्नौज पर राज करने वाले अयोध राजाओं के अंतर्गत रहा। नौवीं शताब्दी में गुर्जर प्रतिहारों की शक्ति बढ़ने के साथ, बरेली भी उनके अधीन आ गया, और दसवीं शताब्दी के अंत तक उनके शासनाधीन रहा। गुर्जर प्रतिहारों के पतन के बाद क्षेत्र के प्रमुख शहर, अहिच्छत्र का एक समृद्ध सांस्कृतिक केंद्र के रूप में प्रभुत्व समाप्प्त होने लगा। राष्ट्रकूट प्रमुख लखनपाल के शिलालेख से पता चलता है कि इस समय तक क्षेत्र की राजधानी को भी वोदमायुत (वर्तमान बदायूं) में स्थानांतरित कर दिया गया था।

स्थापना तथा मुगल काल

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लगभग १५०० ईस्वी में क्षेत्र के स्थानीय शासक राजा जगत सिंह कठेरिया ने जगतपुर नामक ग्राम को बसाया था,[6] जहाँ से वे शासन करते थे - यह क्षेत्र अब भी वर्तमान बरेली नगर में स्थित एक आवासीय क्षेत्र है। १५३७ में उनके पुत्रों, बांस देव तथा बरल देव ने जगतपुर के समीप एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसका नाम उन दोनों के नाम पर बांस-बरेली पड़ गया। इस दुर्ग के चारों ओर धीरे धीरे एक छोटे से शहर ने आकार लेना शुरू किया। १५६९ में बरेली मुगल साम्राज्य के अधीन आया,[6] और अकबर के शासनकाल के दौरान यहाँ मिर्जई मस्जिद तथा मिर्जई बाग़ का निर्माण हुआ। इस समय यह दिल्ली सूबे के अंतर्गत बदायूँ सरकार का हिस्सा था। १५९६ में बरेली को स्थानीय परगने का मुख्यालय बनाया गया था।[7] इसके बाद विद्रोही कठेरिया राजपूतों को नियंत्रित करने के लिए मुगलों ने बरेली क्षेत्र में वफादार अफगानों की बस्तियों को बसाना शुरू किया।

शाहजहां के शासनकाल के दौरान बरेली के तत्कालीन प्रशासक, राजा मकरंद राय खत्री ने १६५७ में पुराने दुर्ग के पश्चिम में लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर एक नए शहर की स्थापना की।[8] इस शहर में उन्होंने एक नए किले का निर्माण करवाया, और साथ ही शाहदाना के मकबरे, और शहर के उत्तर में जामा मस्जिद का भी निर्माण करवाया।[9] मकरंदपुर, आलमगिरिगंज, मलूकपुर, कुंवरपुर तथा बिहारीपुर क्षेत्रों की स्थापना का श्रेय भी उन्हें, या उनके भाइयों को दिया जाता है। १६५८ में बरेली को बदायूँ प्रांत की राजधानी बनाया गया। औरंगजेब के शासनकाल के दौरान और उसकी मृत्यु के बाद भी क्षेत्र में अफगान बस्तियों को प्रोत्साहित किया जाता रहा। इन अफ़गानों को रुहेला अफ़गानों के नाम से जाना जाता था, और इस कारण क्षेत्र को रुहेलखण्ड नाम मिला।

रुहेलखण्ड राज्य

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औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद दिल्ली के मुगल शासक कमजोर हो गये तथा अपने राज्य के जमींदारों, जागीरदारों आदि पर उनका नियन्त्रण घटने लगा। उस समय इस क्षेत्र में भी अराजकता फैल गयी तथा यहाँ के जमींदार स्वतन्त्र हो गये। इसी क्रम में, रुहेलखण्ड भी मुगल शासन से स्वतंत्र राज्य बनकर उभरा, और बरेली रुहेलखण्ड की राजधानी बनी। १७४० में अली मुहम्मद रुहेलखण्ड शासक बने, और उनके शासनकाल में रुहेलखण्ड की राजधानी बरेली से आँवला स्थानांतरित की गयी। १७४४ में अली मुहम्मद ने कुमाऊँ पर आक्रमण किया, और राजधानी अल्मोड़ा पर कब्ज़ा कर लिया,[10] और सात महीनों तक उनकी सेना अल्मोड़ा में ही रही। इस समय में उन्होंने वहां के बहुत से मंदिरों को नुकसान भी पहुंचाया। हालाँकि अंततः क्षेत्र के कठोर मौसम से तंग आकर, और कुमाऊँ के राजा द्वारा तीन लाख रुपए के हर्जाने के भुगतान पर, रुहेला सैनिक वापस बरेली लौट गये। इसके दो वर्ष बाद मुग़ल सम्राट मुहम्मद शाह ने क्षेत्र पर आक्रमण किया, और अली मुहम्मद को बन्दी बनाकर दिल्ली ले जाया गया।[10] एक वर्ष बाद, १९४८ में अली मुहम्मद वहां से रिहा हुए, और वापस आकर फिर रुहेलखण्ड के शासक बने, परन्तु इसके एक वर्ष बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी, और उन्हें राजधानी आँवला में दफना दिया गया।[10]

 
बरेली में स्थित हाफिज रहमत खान का मकबरा, मई १७८९

अली मुहम्मद के पश्चात उनके पुत्रों के संरक्षक, हाफ़िज़ रहमत खान रुहेलखण्ड के अगले शासक हुए।[10] इसी समय में फर्रुखाबाद के नवाब ने रुहेलखण्ड पर आक्रमण कर दिया, परन्तु हाफ़िज़ रहमत खान ने उनकी सेना को पराजित कर नवाब को मार दिया।[10] इसके बाद वह उत्तर की ओर सेना लेकर बढ़े, और पीलीभीत और तराई पर कब्ज़ा कर लिया।[10] फर्रुखाबाद के नवाब की मृत्यु के बाद अवध के वज़ीर सफदरजंग ने उनकी संपत्ति को लूट लिया, और इसके कारण रुहेलखण्ड और फर्रुखाबाद ने एक साथ संगठित होकर सफदरजंग को हराया, इलाहाबाद की घेराबन्दी की, और अवध के एक हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया।[10] इसके परिमाणस्वरूप वजीर ने मराठों से सहायता मांगी, और उनके साथ मिलकर आँवला के समीप स्थित बिसौली में रुहेलाओं को पराजित किया।[10] उन्होंने चार महीने तक पहाड़ियों की तलहटी में रुहेलाओं को कैद रखा; लेकिन अहमद शाह दुर्रानी के आक्रमण के समय उपजे हालातों में दोनों के बीच संधि हो गयी, और हाफिज खान पुनः रुहेलखण्ड के शासक बन गये।[10]

१७५४ में जब शुजाउद्दौला अवध के अगले वज़ीर बने, तो हाफिज भी रुहेलखण्ड की सेना के साथ उन पर आक्रमण करने निकली मुगल सेना में शामिल हो गये, लेकिन वज़ीर ने उन्हें ५ लाख रुपये देकर खरीद लिया।[11] १७६१ में हाफ़िज़ रहमत खान ने पानीपत के तृतीय युद्ध में अफ़ग़ानिस्तान तथा अवध के नवाबों का साथ दिया, और उनकी संयुक्त सेनाओं ने मराठों को पराजित कर उत्तर भारत में मराठा साम्राज्य के विस्तार को अवरुद्ध कर दिया।[11] अहमद शाह के आगमन, और शुजाउद्दौला के ब्रिटिश सत्ता से संघर्षों का फायदा उठाकर हाफ़िज़ ने उन वर्षों के दौरान इटावा पर कब्ज़ा किया, और लगातार अपने शहरों को मजबूत करने के साथ-साथ और नए गढ़ों की स्थापना करते रहे।[11] १७७० में, नजीबाबाद के रुहेला शासक नजीब-उद-दौला सिंधिया और होल्कर मराठा सेना के साथ आगे बढ़े, और उन्होंने हाफ़िज़ खान को हरा दिया, जिस कारण हाफ़िज़ को अवध के वज़ीर से सहायता मांगनी पड़ी।[11]

शुजाउद्दौला ने मराठों को ४० लाख रुपये का भुगतान किया, और वे रुहेलखण्ड से वापस चले गए।[11] इसके बाद, अवध के नवाब ने हाफ़िज़ खान से इस मदद के लिए भुगतान करने की मांग की। जब हाफ़िज़ उनकी यह मांग पूरी नहीं कर पाए, तो उन्होंने ब्रिटिश गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स और उनके कमांडर-इन-चीफ, अलेक्जेंडर चैंपियन की सहायता से रुहेलखण्ड पर आक्रमण कर दिया। १७७४ में दौला और कंपनी की संयुक्त सेना ने हाफ़िज़ को हरा दिया, जो मीराँपुर कटरा में युद्ध में मारे गए, हालाँकि अली मुहम्मद के पुत्र, फ़ैजुल्लाह ख़ान युद्ध से बचकर भाग गए।[11] कई वार्ताओं के बाद उन्होंने १७७४ में ही शुजाउद्दौला के साथ एक संधि की, जिसके तहत उन्होंने सालाना १५ लाख रुपये, और ९ परगनों को अपने शासनाधीन रखा, और शेष रुहेलखण्ड वज़ीर को दे दिया।[11]

अवध राज्य

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१७७४ से १८०० तक रुहेलखण्ड प्रांत अवध के नवाब द्वारा शासित था। अवध राज में सआदत अली को बरेली का गवर्नर नियुक्त किया गया था।[11] १८०१ तक, ब्रिटिश सेना का समर्थन करने के लिए संधियों के कारण सब्सिडी बकाया हो गई थी। कर्ज चुकाने के लिए, नवाब सआदत अली खान ने १० नवंबर १८०१ को हस्ताक्षरित संधि में रुहेलखण्ड को ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया।[11]

कम्पनी शासन

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१८०१ में बरेली समेत पूरा रुहेलखण्ड क्षेत्र ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिपत्य में आया था, और तत्कालीन गवर्नर जनरल के भाई हेनरी वेलेस्ली को बरेली में स्थित आयुक्तों के बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। १८०५ में एक पिंडारी, अमीर खान ने रुहेलखण्ड पर आक्रमण किया, लेकिन उसे बाहर खदेड़ दिया गया। इसके बाद इस क्षेत्र को दो जिलों में व्यवस्थित किया गया - मुरादाबाद तथा बरेली, जिनमें से बाद वाले जिले का मुख्यालय बरेली नगर में था। नगर में इस समय कई नए आवासीय और व्यावसायिक क्षेत्रों का गठन किया गया, और इसे नैनीताल, पीलीभीत, मुरादाबाद तथा फर्रुखाबाद से जोड़ने वाली सड़कों का निर्माण हुआ। १८११ में नगर के दक्षिण की ओर नकटिया नदी के पश्चिम में बरेली छावनी की स्थापना की गयी, जहाँ एक छोटे से दुर्ग का निर्माण किया गया था। छावनी क्षेत्र में उस समय पूरे नगर से कहीं अधिक भवन थे।

कम्पनी शासनकाल के दौरान, जिले भर में कम्पनी के विरुद्ध असंतोष की भावना थी। १८१२ में राजस्व की मांग में भारी वृद्धि, और फिर १८१४ में एक नए गृह कर के लागू होने से अंग्रेजों के खिलाफ काफी आक्रोश हुआ। "व्यापार अभी भी ठप्प पड़ा था, दुकानें बंद हो गईं और कई लोग करों के उन्मूलन की मांग के साथ न्यायालय के पास इकट्ठे हुए।" मजिस्ट्रेट डेम्बलटन, जो पहले से ही अलोकप्रिय थे, ने एक कोतवाल को मूल्यांकन करने का आदेश देकर स्थिति को और बिगाड़ दिया। फलस्वरूप कैप्टन कनिंघम के नेतृत्व में सिपाहियों और विद्रोही जनता के बीच हुई झड़प में, लगभग तीन से चार सौ लोग मारे गए। १८१८ में ग्लिन को बरेली के मजिस्ट्रेट और कार्यवाहक न्यायाधीश, और साथ ही बुलंदशहर के संयुक्त मजिस्ट्रेट के रूप में तैनात किया गया था। बरेली जिले के कुछ हिस्सों से १८१३-१४ में शाहजहाँपुर जिले का, जबकि १८२४ में बदायूँ जिले का गठन किया गया। १८२० के दशक में बरेली के तत्कालीन मजिस्ट्रेट ग्लिन ने गुलाम याह्या को बरेली के 'कारीगरों, निर्माण और उत्पादन के उनके साधनों के नाम, और उनकी पोशाक और शिष्टाचार' के बारे में लिखने के लिए कहा था। याह्या के शोध के अनुसार बरेली और उसके आसपास रहने वाले लोगों की आजीविका के सबसे लोकप्रिय साधन थे - कांच का निर्माण, कांच की चूड़ियों का निर्माण, लाख की चूड़ियों का निर्माण, क्रिम्पिंग, चने भूनना, तारें बनाना, चारपाइयां बुनना, सोने और चांदी के धागों का निर्माण, किराने की दुकानें चलाना, आभूषण बनाना और कबाब बेचना।

१८५७ का विद्रोह

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बरेली १८५७ के विद्रोह का एक प्रमुख केंद्र था। मेरठ से शुरू हुए विद्रोह की खबर १४ मई १८५७ को बरेली पहुंची। इस समय उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में दंगे हुए, और बरेली, बिजनौर और मुरादाबाद में मुसलमानों ने मुस्लिम राज्य के पुनरुद्धार का आह्वान किया। ३१ मई को जब अंग्रेज सिपाही चर्च में प्रार्थना कर रहे थे, तब तोपखाना लाइन में सूबेदार बख्त खान के नेतृत्व में १८वीं और ६८वीं देशज रेजीमेंट ने विद्रोह कर दिया, और सुबह ११ बजे कप्तान ब्राउन का मकान जला दिया गया। इसके बाद ६८वीं पैदल सेना ने अपनी लाइन के पास के यूरोपियनों पर आक्रमण किया। छोटी-छोटी टुकड़ियां अलग-अलग बंगलों की ओर चल पड़ीं जबकि बाकी बचे सिपाहियों ने इधर-उधर भागना चाहने वाले अंग्रेजों को पकड़ने का प्रबंध किया। इस हमले से डरे-सहमे यूरोपियन लोग घुड़सवारों की लाइन की ओर दौड़े और वहां जाते ही नेटिव घुड़सवार रेजिमेंट को विद्रोहियों पर आक्रमण करने का आदेश दिया गया, पर उस रेजिमेंट ने भी विद्रोह कर दिया। छावनी में विद्रोह सफल होने की सूचना शहर में फैलते ही जगह-जगह अंग्रेजों पर हमले शुरू हो गए, और शाम चार बजे तक बरेली पर क्रांतिकारियों का कब्जा हो चुका था। इस दिन १६ अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया गया, जिनमें ब्रिगेडियर सिवाल्ड, कप्तान ब्राउन, सार्जेंट वाल्डन, कैप्टन कर्बी, लेफ्टिनेंट फ्रेजर, सेशन जज रेक्स, कर्नल ट्रूप, कैप्टन रॉबर्टसन और जेलर हैंस ब्रो आदि शामिल थे। बचे हुए लोग नैनीताल की तरफ भाग गए, जिनमें से लगभग बत्तीस अधिकारी नैनीताल तक सही-सलामत पहुंच सके।[12][13]

अंग्रेजी निशान उतार फेंककर बरेली में स्वतंत्रता का हरित ध्वज फहराते ही नेटिव तोपखाने के मुख्य सूबेदार बख्त खान ने सारी नेटिव सेना का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया।[14] फिर उन्होंने अंतिम रुहेला शासक हाफ़िज़ रहमत खान के पोते, खान बहादुर खान के नाम का जयघोष करके दिल्ली के बादशाह के सूबेदार की हैसियत से रुहेलखंड का शासन भी अपने हाथ में लिया। बरलेी में स्थित यूरोपियनों के घर-द्वारो को जलाकर, लूटकर भस्म करने के बाद फिर कैद किए गए यूरोपियनों को खानबहादुर ने अपने सामने बुलवायां और उनकी जांच के लिए एक कोर्ट नियुक्त किया। इन अपराधियों में बदायूँ प्रांत के लेफ्टिनेंट गवर्नर के दामाद- डाॅ ‘हे’, बरेली के सरकारी काॅलेज के प्रिंसिपल डाॅ. कर्सन और बरेली के जिला मजिस्ट्रेट भी थे। अलग-अलग आरोपों के कारण इन सभी को फांसी का दंड सुनाया गया और छह यूरोपियन लोगों को तुरंत फांसी पर चढ़ा दिया गया। इस तरह अपना सिंहासन पक्का जमाने के बाद खान बहादुर ने सारा रुहेलखंड स्वतंत्र होने का समाचार दिल्ली भेजा और फिर बख्त खान के नेतृत्व में सभी सैनिक दिल्ली की ओर चल दिए। विद्रोह के सफल होने के बाद पहली जून को विजय जुलूस निकाला गया और कोतवाली के समीप एक ऊंचे चबूतरे पर खान बहादुर खान को बैठाकर उनकी ताजपोशी की गई, और जनता की उपस्थिति में उन्हें बरेली का नवाब घोषित कर दिया गया।[14] इसके बाद खानबहादुर ने सारा रुहेलखंड स्वतंत्र हो जाने का समाचार दिल्ली भेजा। ११ माह तक बरेली आजाद रहा। इस अवधि के दौरान खान बहादुर खां ने शोभाराम को अपना दीवान बनाया,[14] १ जून १८५७ को बरेली में फौज का गठन किया गया, और स्वतंत्र शासक के रूप में बरेली से चांदी के सिक्के जारी किए।

नवाब घोषित होने के बाद खान बहादुर खान ने एक प्रशासनिक परिषद की नियुक्ति की, जो उन्हें सरकारी काम-काज में सलाह दे सके। इस परिषद के मुख्य कार्यों में सरकार द्वारा पालन की जाने वाली नीतियों का निर्धारण और मुख्य अधिकारियों की नियुक्ति थी। परिषद के सदस्यों में शोभा राम (दीवान), अहमद शाह खान और मुबारक शाह शामिल थे, जो बरेली के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में थे। यह प्रशासनिक परिषद रुहेलखण्ड में अनंतिम सरकार की अवधि तक कार्यरत रही।[15] करों के आकलन तथा आपराधिक या अन्य मामलों के परीक्षण आदि के लिए अलग-अलग समितियाँ थीं, जिनमें मुख्यतः उस वर्ग या समुदाय के पुरुष शामिल थे, जिनके कि उन समितियों के निर्णयों से प्रभावित होने की सबसे अधिक संभावना थी।[16]

१३ मई १८५८ को ब्रिटिश सेना की ९वीं रेजिमेंट ऑफ़ फुट के कमांडर, कॉलिन कैंपबेल, प्रथम बैरन क्लाइड ने बरेली पर आक्रमण कर दिया, और ९३ वीं (सदरलैंड) हाईलैंडर्स के कप्तान विलियम जॉर्ज ड्रमंड स्टुअर्ट की सहायता से लड़ाई में विजय प्राप्त कर ब्रिटिश शासन बहाल किया। कुछ विद्रोहियों को पकड़ लिया गया और उन्हें मौत की सजा दी गई। परिमाणस्वरूप १८५७ का विद्रोह बरेली में भी विफल हो गया। खान बहादुर खान नेपाल भाग निकले, लेकिन नेपाल नरेश जंग बहादुर ने उन्हें हिरासत में लेकर अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया।[17] 1 जनवरी 1858 को उन्हें मुकदमे के लिए बरेली लाकर छावनी में रखा गया।[17] मुकदमा 1 फरवरी को शुरू हुआ, जिसमें उन्हें मौत की सजा सुनाई गई और २४ फरवरी १८६० को कोतवाली में फांसी दे दी गई।[18] उन्हें पुरानी जिला जेल के सामने दफन किया गया जहां आज भी उनकी मजार है। खान बहादुर खान के अतिरिक्त २५७ अन्य क्रांतिकारियों को भी कमिश्नरी के समीप एक बरगद के पेड़ के नीचे फांसी दे दी गयी।[19]

ब्रिटिश राज

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१८५८ में जब बरेली पुनः ब्रिटिश शासन के अंतर्गत आया, तो छावनी क्षेत्र में नियमित ब्रिटिश सैन्य टुकड़ियों की तैनाती की गयी।[20] छावनी तब मुख्य रूप से तीन भागों में बंटी हुई थी; पूर्वी भाग में भारतीय इन्फैंट्री लाइनें स्थित थी, मध्य भाग में ब्रिटिश इन्फैंट्री लाइनें और एक भारतीय बटालियन थी, जबकि अर्टिलरी लाइनों को पश्चिमी भाग में तैनात किया गया था।[20] छावनी तथा नगर के बीच काफी खली क्षेत्र था, जिस पर रेस कोर्स या पोलो ग्राउंड में अतिक्रमण किये बिना २ या अधिक बटालियनें रह सकती थी। अगले कुछ सालों में इस क्षेत्र पर सिविल लाइन्स क्षेत्र बसाया गया, जिसमें तब केवल ब्रिटिश अफसर रहा करता थे।[21]

वाराणसी को लखनऊ से जोड़ने के बाद अवध व रुहेलखण्ड रेलवे ने लखनऊ के पश्चिम में रेलवे सेवाओं का विस्तार करना शुरू किया। इसी क्रम में लखनऊ से संडीला और फिर हरदोई तक रेलवे लाइन का निर्माण १८७२ में पूरा हुआ।[22] १८७३ में बरेली तक की लाइन पूरी हुई,[22] और उसी वर्ष इस रेलवे स्टेशन का निर्माण हुआ। इससे पहले १८७२ में मुरादाबाद से चंदौसी को जोड़ने वाली एक लाइन भी बन चुकी थी, और फिर १८७३ में ही इसे भी बरेली तक बढ़ा दिया गया।[22] रामपुर होते हुए बरेली-मुरादाबाद कॉर्ड १८९४ में बनकर तैयार हुआ था।[22] कालांतर में इसे मुख्य लाइन, तथा पुरानी लाइन को चंदौसी लूप कहा जाने लगा। १८९४ में एक ब्रांच लाइन चंदौसी से अलीगढ़ तक बनाई गयी थी।[23]

१८८४ में दो मीटर गेज सेक्शन बनाए गए; भोजीपुरा से बरेली (१२ मील लम्बा) १ अक्टूबर १८८४ को खोला गया, और पीलीभीत से भोजीपुरा (२४ मील) १५ नवंबर १८८४ को खोला गया। ये दोनों बरेली-पीलीभीत प्रांतीय राज्य रेलवे का हिस्सा थे। १ जनवरी १८९१ को इसका विलय लखनऊ-सीतापुर प्रांतीय राज्य रेलवे के साथ कर लखनऊ-बरेली रेलवे की स्थापना की गयी थी। सन् १८८३-८४ में भोजीपुरा और काठगोदाम के बीच भी रेलमार्ग बिछाया गया था। ६६ मील लंबा यह रेलमार्ग "रुहेलखंड व कुमाऊँ रेलवे" द्वारा संचालित एक निजी रेलमार्ग था। रुहेलखंड व कुमाऊँ रेलवे द्वारा बरेली से दक्षिण की ओर भी रेलमार्ग बिछाया गया - कासगंज एक्सटेंशन लाइन नामक यह रेलमार्ग १८८५ में सोरों तक, और १९०६ में कासगंज तक बनकर तैयार हुआ था।[24]

बरेली के नगरपालिका बोर्ड का गठन २४ जून १८५८ को १८५० के उत्तर-पश्चिम प्रांत और अवध अधिनियम XXVI के तहत किया गया था। तब यह एक नगरपालिका समिति थी, जिसका गठन जिला मजिस्ट्रेट की अध्यक्षता में मनोनीत सदस्यों द्वारा होता था। नौ मनोनीत सदस्यों में से सात ब्रिटिश होते थे। जिलाधिकारी भी एक अंग्रेज ही होते थे। बाद में, १८६८ के उत्तर-पश्चिम प्रांत और अवध नगर सुधार अधिनियम ('६८ का अधिनियम VI) ने वैकल्पिक सिद्धांत की सिफारिश की। यह विधिवत लागू किया गया था। हालाँकि, जिला मजिस्ट्रेट फिर भी इस समिति के अध्यक्ष बने रहे। वर्ष १८६८ तक सदस्यों को सरकार द्वारा नामित किया जाता रहा था, जब वैकल्पिक सिद्धांत को आंशिक रूप से अपना नहीं लिया गया / २७ सदस्य चुनाव प्रक्रिया द्वारा आते थे, और ९ को नामांकित किया जाता था। यह प्रणाली १९०० तक जारी रही जब १९०० के अधिनियम के तहत, नामित सदस्यों की संख्या ६ हो गई और निर्वाचित सदस्य १८ हो गए। १९१६ के नगरपालिका अधिनियम द्वारा नामांकित सदस्यों को घटाकर ३ किया गया और निर्वाचित सदस्यों को बढ़ाकर १९ किया गया। १९६३ में इसमें फिर फेरबदल हुए; कुल ४८ सदस्यीय समिति के सभी सदस्य अब निर्वाचित होकर आते थे, और नामांकन की प्रणाली को समाप्त कर दिया गया। आम तौर पर बोर्ड का कार्यकाल ४ वर्ष का होता है।।[25]

बैंकिंग का व्यवसाय १८८२ में शुरू हुआ था, भारतीय स्टेट बैंक की तीन शाखाएं (पूर्व में इंपीरियल बैंक ऑफ इंडिया) १९२३ में खोली गई थीं, शहर के स्वामित्व वाले 'बरेली कॉर्पोरेशन बैंक' की स्थापना १९२८ में हुई थी और इसे आसपास के शहरों जैसे शाहजहांपुर, पीलीभीत और आगरा में भी खोला गया था। इलाहाबाद बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा और पंजाब नेशनल बैंक की शाखाएं बाद में आईं।[26]

शहर में व्यापार और वाणिज्य, परिवहन और अन्य सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों का त्वरित विकास बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में रुहेलखण्ड व कुमाऊँ रेलवे के निर्माण के बाद हुआ।[27] सदी के पहले दशक में ही नगर में नेशनल ब्रेवरी कम्पनी, एक माचिस की फैक्ट्री, एक बर्फ की फैक्ट्री और एक भाप-चालित आटा चक्की की स्थापना हुई।[28] १९१९ में इज्जत नगर में इंडियन वुड प्रोडक्ट्स लिमिटेड की स्थापना हुई, जहाँ बड़े स्तर पर कत्था निकाला जाता था। नगर के केन्द्र से ८ किमी दूर स्थित सी॰ बी॰ गंज में भी इंडियन टरपेंटाइन & रोजिन (१९२४ में स्थापित) और वेस्टर्न इंडियन मैच कम्पनी (विमको; १९३८ में स्थापित) जैसे कई उद्योग स्थापित हुए थे। नेकपुर में १९३२ में एचआर शुगर फैक्ट्री की स्थापना हुई थी। इस सब की बदौलत बरेली १९४० के दशक में क्षेत्र का एक प्रमुख औद्योगिक तथा व्यापारिक क्षेत्र बनकर उभरा, शहर के कोने-कोने में कई बैंकों और शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना हुई।[29]

स्वतंत्र भारत

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भारत की स्वतन्त्रता के बाद बरेली का औद्योगिक विकास जारी रहा, और शहामतगंज तथा नई बस्ती में खांड़सारी, फर्नीचर, अभियंत्रण, तेल निष्कर्षण तथा बर्फ से संबंधित लघु उद्योग आकार लेने लगे। १९५६ में सी॰ बी॰ गंज, १९६० में परसाखेड़ा और १९६४ में भोजीपुरा में यूपी स्टेट इंडस्ट्रीयल डेवलपमेंट कारपोरेशन (यूपीएसआइडीसी) द्वारा औद्योगिक क्षेत्र बसाए गए।[30] सी॰ बी॰ गंज और इज्जत नगर इस समय तक क्रमशः नगर के प्रमुख औद्योगिक क्षेत्र तथा औद्योगिक-सह-परिवहन केन्द्र के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर चुके थे, जबकि शहामतगंज तथा किले की मंडियां बरेली तथा आस-पास के क्षेत्र की सबसे बड़ी मंडियां थी।[31] १९६० और १९७० के दशक तक कुतुबखाना-रेलवे जंक्शन रोड पर स्थित आवासीय क्षेत्रों के इर्द-गिर्द कई बाज़ार बनने लगे, जिनमें सुभाष मार्किट, चौपुला, पंजाबी तथा किशोर मार्किट प्रमुख थे।[32] १९७१ की जनगणना के अनुसार बरेली प्रथम श्रेणी का सिटी बोर्ड था, और महत्व के आधार पर इसे राज्य में ९वें स्थान पर रखा गया था।[25] यहाँ की अर्थव्यवस्था औद्योगिक सह-सेवा क्षेत्र पर निर्भर थी; बड़ी संख्या में श्रमिक उन गतिविधियों में लगे हुए थे, जो उद्योग या तृतीयक क्षेत्रों से निकटता से संबंधित थे।[25]

बरेली नगर में सिटी बस सेवा शुरुआत उत्तर प्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम द्वारा कुतुबखाना - रेलवे जंक्शन मार्ग पर की गई थी।[33] वर्ष १९६० में कुल ४ बसें नगरीय मार्गों पर चलती थी, और १९६४ में ६ नयी बसें लायी गयी, जिससे इनकी कुल संख्या बढ़कर १० हो गयी।[34] १९६३-६४ तक बस सेवाओं का विस्तार कोहाड़ापीर से भोजीपुरा और फतेहगंज तक किया जा चुका था।[33] १९७० के दशक के अंत तक छह निजी बसें यूपीएसआरटीसी के नियंत्रण में चल रही थी, जिनमें प्रतिदिन औसतन ५००० यात्री सफर करते थे।[26] परन्तु धीरे-धीरे शहर की सड़कों पर ट्रैफिक बढ़ने और छोटे वाहनों के आ जाने से रोडवेज की यह बस सेवा घाटे में जाने लगी, और फिर वर्ष १९९० में इसे बन्द कर दिया गया। बन्द होने से पहले इस सेवा के अंतर्गत बसें कुतुबखाना से जंक्शन, सदर कैंट, सेंथल, नवाबगंज, फरीदपुर और फतेहगंज पश्चिमी को संचालित होती थीं।[35]

१९९० के दशक का अंत होते होते नगर में कई उद्योग बन्द हो गए। अप्रैल १९९८ में इंडियन टरपेंटाइन & रोजिन फैक्ट्री (आइटीआर) और सितंबर १९९८ में नेकपुर की चीनी मिल बंद हो गई।[30] उप्र. शुगर कारपोरेशन के अधीन इस गन्ना फैक्ट्री को वर्ष १९९६ में ही लक्ष्य से अधिक उत्पादन करने के लिए गोल्ड मेडल मिला था। १५ जुलाई १९९९ फतेहगंज पश्चिमी स्थित रबड़ फैक्ट्री भी बंद हो गई।[30] फैक्ट्री के उत्पाद पूरे एशिया के देशों में प्रसिद्ध थे, और लगभग दो हजार लोग इस फैक्ट्री में सेवाएं दे रहे थे। सीबीगंज स्थित विमको फैक्ट्री, जहां से पूरे देश भर में माचिस की सप्लाई होती थी, वर्ष २०१४ में बंद हो गई।[30]

  1. Raychaudhuri, H.C. (1972). Political History of Ancient India, Calcutta: University of Calcutta, p.85
  2. Raychaudhuri, H.C. (1972). Political History of Ancient India, Calcutta: University of Calcutta, p.206
  3. Lahiri, B. (1974). Indigenous States of Northern India (Circa 200 B.C. to 320 A.D.) , Calcutta: University of Calcutta, pp.170-88
  4. Bhandare, S. (2006). Numismatics and History: The Maurya-Gupta Interlude in the Gangetic Plain in P. Olivelle ed. Between the Empires: Society in India 300 BCE to 400 CE, New York: Oxford University Press, ISBN 0-19-568935-6, pp.76,88
  5. Raychaudhuri, H.C. (1972). Political History of Ancient India, Calcutta: University of Calcutta, p.473
  6. वसीम, अख्तर (४ जुलाई २०१९). "मुहल्लानामा : पुराना शहर में जगतपुर से पड़ी बरेली की नींव". बरेली: दैनिक जागरण. मूल से 30 जुलाई 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ३० जुलाई २०१९.
  7. लाल १९८७, पृ - ६
  8. लाल १९८७, पृ - ६
  9. लाल १९८७, पृ - ६
  10. "Imperial Gazetteer2 of India, Volume 7, page 4 -- Imperial Gazetteer of India -- Digital South Asia Library". dsal.uchicago.edu. मूल से 25 जुलाई 2015 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 अगस्त 2019.
  11. "Imperial Gazetteer2 of India, Volume 7, page 5 -- Imperial Gazetteer of India -- Digital South Asia Library". dsal.uchicago.edu. मूल से 3 मार्च 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 18 अगस्त 2019.
  12. विनायक दामोदर, सावरकर. १८५७ का स्वातंत्र्य समर. अभिगमन तिथि 22 जनवरी 2020.
  13. "गदर का दिन : 1857 में आज के ही दिन आजाद हुआ था बरेली, इन्हें चुना गया था यहां का नवाब". बरेली: हिन्दुस्तान. ३१ मई २०१९. मूल से 31 जुलाई 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि ३१ जुलाई २०१९.
  14. "जब खान बहादुर खां ने बजाया था क्रांति का बिगुल". अमर उजाला. अभिगमन तिथि 22 जनवरी 2020.
  15. उस्मानी १९८२, पृ॰ ६१९.
  16. उस्मानी १९८२, पृ॰ ६२०.
  17. "स्वतंत्रता दिवस: खान बहादुर ने पहली क्रांति में दिलाई थी बरेली को आजादी". https://www.livehindustan.com (hindi में). मूल से 9 मई 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 22 जनवरी 2020. |work= में बाहरी कड़ी (मदद)सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  18. "1857 गदर के क्रांतिकारी खान बहादुर को आज ही मिली थी फांसी". https://www.livehindustan.com (hindi में). अभिगमन तिथि 22 जनवरी 2020. |work= में बाहरी कड़ी (मदद)सीएस1 रखरखाव: नामालूम भाषा (link)
  19. "यहां फांसी पर लटका दिए थे 257 क्रांतिकारी". Dainik Jagran. अभिगमन तिथि 22 जनवरी 2020.
  20. Kudaisya, Gyanesh (2006). Region, Nation, "Heartland": Uttar Pradesh in India's Body Politic (अंग्रेज़ी में). SAGE Publishing India. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-93-5280-542-6. अभिगमन तिथि 7 फरवरी 2020.
  21. लाल १९८७, पृ - ८
  22. "The Oudh and Rohilkhand Railway" (PDF). Management E-books6. अभिगमन तिथि 30 May 2013.[मृत कड़ियाँ]
  23. "IR History – Early Days II (1870-1899)". IRFCA. मूल से 26 जुलाई 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 17 January 2014.
  24. "Administration Report on the Railways in India – corrected up to 31st March 1918"; Superintendent of Government Printing, Calcutta; page 196 Archived 2019-05-02 at the वेबैक मशीन; Retrieved 8 December 2016
  25. मोहम्मद १९८६, पृ॰ १७८.
  26. मोहम्मद १९८६, पृ॰ १७६.
  27. लाल १९८७, पृ - १०
  28. लाल १९८७, पृ - १०
  29. लाल १९८७, पृ - ११
  30. अभिषेक, पाण्डे (३१ दिसम्बर २०१९). "Industries 2019 : पुराने उद्योगों ने तोड़ा दम, साल भर तरसते रहे नए उद्योग". बरेली: दैनिक जागरण. अभिगमन तिथि २२ जनवरी २०२०.
  31. लाल १९८७, पृ - ११
  32. लाल १९८७, पृ - १३
  33. मोहम्मद १९८६, पृ॰ १७४.
  34. लाल १९८७, पृ॰ १२५.
  35. "स्मार्ट सिटी- शहर की सड़कों पर फिर से सिटी बसें दौड़ाने की तैयारी". बरेली ब्यूरो. अमर उजाला. ३१ जुलाई २०१९. मूल से 22 सितंबर 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि २२ सितम्बर २०१९.

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