मध्य प्रदेश का पर्यटन
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मध्य प्रदेश भारत के ठीक मध्य में स्थित है। अधिकतर पठारी हिस्से में बसे मध्यप्रदेश में विन्ध्य और सतपुड़ा की पर्वत श्रृखंलाएं इस प्रदेश को रमणीय बनाती हैं। ये पर्वत शृंखलाएं कई नदियों के उद्गम स्थलों को जन्म देती हैं, ताप्ती, नर्मदा,चम्बल, सोन,बेतवा, महानदी जो यहां से निकल भारत के कई प्रदेशों में बहती हैं। इस वैविध्यपूर्ण प्राकृतिक देन की वजह से मध्य प्रदेश एक बेहद खूबसूरत हर्राभरा हिस्सा बन कर उभरता है। जैसे एक हरे पत्ते पर ओस की बूंदों सी झीलें, एक दूसरे को काटकर गुजरती पत्ती की शिराओं सी नदियां। इतना ही विहंगम है मध्य प्रदेश जहाँ, पर्यटन की अपार संभावनायें हैं। हालांकि 1956 में मध्यप्रदेश भारत के मानचित्र पर एक राज्य बनकर उभरा था, किन्तु यहांँ की संस्कृति प्राचीन और ऐतिहासिक है। असंख्य ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरें विशेषत: उत्कृष्ट शिल्प और मूर्तिकला से सजे मंदिर, स्तूप और स्थापत्य के अनूठे उदाहरण यहाँ के महल और किले हमें यहाँ उत्पन्न हुए महान राजाओं और उनके वैभवशाली काल तथा महान योद्धाओं, शिल्पकारों, कवियों, संगीतज्ञों के साथ-साथ हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म के साधकों की याद दिलाते हैं। भारत के अमर कवि, नाटककार कालिदास और प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन ने इस उर्वर धरा पर जन्म ले इसका गौरव बढाया है।
मध्यप्रदेश का एक तिहाई हिस्सा वन संपदा के रूप में संरक्षित है। जहां पर्यटक वन्यजीवन को पास से जानने का अदभुत अनुभव प्राप्त कर सकते हैं। कान्हा नेशनल पार्क,बांधवगढ़, शिवपुरी आदि ऐसे स्थान हैं जहां आप बाघ, जंगली भैंसे, हिरणों, बारहसिंघों को स्वछंद विचरते देख पाने का दुर्लभ अवसर प्राप्त कर सकते हैं।
मध्यप्रदेश के हर इलाके की अपनी संस्कृति है और अपनी धार्मिक परम्पराएं हैं जो उनके उत्सवों और मेलों में अपना रंग भरती हैं। खजुराहो का वार्षिक नृत्यउत्सव पर्यटकों को बहुत लुभाता है और ओरछा और पचमढ़ी के उत्सव व यहाँ कि समृद्ध लोक और आदिवासी संस्कृति को सजीव बनाते हैं। मध्यप्रदेश की व्यापकता और विविधता को खयाल में रख हम इसे पर्यटन की सुविधानुसार पाँच भागों में बांट सकते र्हैं मध्य प्रदेश राज्य में अत्यधिक पर्यटन स्थल हैं।
पर्यटन स्थल
संपादित करेंयह शहर सदियों से राजपूतों की प्राचीन राजधानी रहा है, चाहे वे प्रतिहार रहे हों या कछवाहा या तोमर। इस शहर में इनके द्वारा छोडे ग़ये प्राचीन चिह्न स्मारकों, किलों, महलों के रूप में मिल जाएंगे। सहेज कर रखे गए अतीत के भव्य स्मृति चिह्नों ने इस शहर को पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण बनाया है। ग्वालियर शहर के इस नाम के पीछे भी एक इतिहास छिपा है; आठवीं शताब्दी में राजा सूरजसेन, एकबार एक अज्ञात बीमारी से ग्रस्त हो मृत्युशैया पर थे, तब ग्वालिपा नामक संत ने उन्हें ठीक कर जीवनदान दिया। बस उन्हीं के सम्मान में इस शहर की नींव पडी और इसे नाम दिया ग्वालियर।
आने वाली शताब्दियों के साथ यह शहर बड़े-बड़े राजवंशो की राजस्थली बना। हर सदी के साथ इस शहर के इतिहास को नये आयाम मिले। महान योद्धाओं, राजाओं, कवियों संगीतकारों तथा सन्तों ने इस राजधानी को देशव्यापी पहचान देने में अपना-अपना योगदान दिया। आज ग्वालियर एक आधुनिक शहर है और एक जाना-माना औद्योगिक केन्द्र है।
- पर्यटन स्थल
सेन्ड स्टोन से बना यह किला शहर की हर दिशा से दिखाई देता और शहर का प्रमुखतम स्मारक है। एक उंचे पठार पर बने इस किले तक पहुँचने के लिये एक बेहद ऊंची चढाई वाली पतली सडक़ से होकर जाना होता है। इस सडक़ के आस-पास की बडी-बडी चट्टानों पर जैन तीर्थकंरों की विशाल मूर्तियाँ बेहद खूबसूरती से और बारीकी से गढी ग़ई हैं। किले की पैंतीस फीट उंचाई इस किले के अविजित होने की गवाह है। इस किले के भीतरी हिस्सों में मध्यकालीन स्थापत्य के अद्भुत नमूने स्थित हैं। पन्द्रहवीं शताब्दी में निर्मित गूजरी महल उनमें से एक है जो राजा मानसिंह और गूजरी रानी मृगनयनी के गहन प्रेम का प्रतीक है। इस महल के बाहरी भाग को उसके मूल स्वरूप में राज्य के पुरातत्व विभाग ने सप्रयास सुरक्षित रखा है किन्तु आन्तरिक हिस्से को संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया है जहाँ दुर्लभ प्राचीन मूर्तियाँ रखी गई हैं जो कार्बन डेटिंग के अनुसार प्रथम शती ए डी की हैं। ये दुर्लभ मूर्तियाँ ग्वालियर के आस-पास के इलाकों से प्राप्त हुई हैं।
मानमंदिर महल 1486 से 1517 के बीच राजा मानसिंह द्वारा बनवाया गया था। सुन्दर रंगीन टाइलों से सजे इस किले की समय ने भव्यता छनिी जरूर है किन्तु इसके कुछ आन्तरिक व बाह्य हिस्सों में इन नीली, पीली, हरी, सफेद टाइल्स द्वारा बनाई उत्कृष्ट कलाकृतियों के अवशेष अब भी इस किले के भव्य अतीत का पता देते हैं। इस किले के विशाल कक्षों में अतीत आज भी स्पंदित है। यहां जालीदार दीवारों से बना संगीत कक्ष है, जिनके पीछे बने जनाना कक्षों में राज परिवार की स्त्रियां संगीत सभाओं का आनंद लेतीं और संगीत सीखतीं थीं। इस महल के तहखानों में एक कैदखाना है, इतिहास कहता है कि ओरंगज़ेब ने यहां अपने भाई मुराद को कैद रखवाया था और बाद में उसे समाप्त करवा दिया। जौहर कुण्ड भी यहां स्थित है। इसके अतिरिक्त किले में इस शहर के प्रथम शासक के नाम से एक कुण्ड है ' सूरज कुण्ड। नवीं शती में प्रतिहार वंश द्वारा निर्मित एक अद्वितीय स्थापत्यकला का नमूना विष्णु जी का तेली का मन्दिर है, जो कि 100 फीट की ऊंचाई का है। यह द्रविड स्थापत्य और आर्य स्थापत्य का बेजोड संगम है। भगवान विष्णु का ही एक और मन्दिर है सास-बहू का मन्दिर। इसके अलावा यहां एक सुन्दर गुरूद्वारा है जो सिखों के छठे गुरू गुरू हरगोबिन्द जी की स्मृति में निर्मित हुआ, जिन्हें जहांगीर ने दो वर्षों तक यहां बन्दी बना कर रखा था।
जयविलास महल और संग्रहालय: यह सिन्धिया राजपरिवार का वर्तमान निवास स्थल ही नहीं एक भव्य संग्रहालय भी है। इस महल के 35 कमरों को संग्रहालय बना दिया गया है। इस महल का ज्यादातर हिस्सा इटेलियन स्थापत्य से प्रभावित है। इस महल का प्रसिध्द दरबार हॉल इस महल के भव्य अतीत का गवाह है, यहां लगा हुए दो फानूसों का भार दो-दो टन का है, कहते हैं इन्हें तब टांगा गया जब दस हाथियों को छत पर चढा कर छत की मजबूती मापी गई। इस संग्रहालय की एक और प्रसिध्द चीज है, चांदी की रेल जिसकी पटरियां डाइनिंग टेबल पर लगी हैं और विशिष्ट दावतों में यह रेल पेय परोसती चलती है। और इटली, फ्रान्स, चीन तथा अन्य कई देशों की दुर्लभ कलाकृतियां यहां हैं।
तानसेन स्मारक : हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के स्तंभ महान संगीतकार तानसेन जो कि अकबर के नवरत्नों में से एक थे, उनका स्मारक यहां स्थित है, यह मुगल स्थापत्य का एक नमूना है। तानसेन की स्मृति में ग्वालियर में हर वर्ष नवम्बर में तानसेन समारोह आयोजित होता है।
रानी लक्ष्मीबाई स्मारक: यह स्मारक शहर के पडाव क्षैत्र में है। कहते हैं यहां झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की सेना ने अंग्रेजों से लडते हुए पडाव डाला और यहां के तत्कालीन शासक से सहायता मांगी किन्तु सदैव से मुगलों और अंग्रेजों के प्रभुत्व में रहे यहां के शासक उनकी मदद न कर सके और वे यहां वीरगति को प्राप्त हुईं। यहां के राजवंश का गौरव तब संदेहास्पद हो गया। इसी प्रकार यहां तात्या टोपे का भी स्मारक है।
विवस्वान सूर्य मन्दिर: यह बिरला द्वारा निर्मित करवाया मन्दिर है जिसकी प्रेरणा कोर्णाक के सूर्यमन्दिर से ली गई है।
सबलगढ़ का किला
मुरैना के सबलगढ़ नगर में स्थित यह किला मुरैना से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर है। मध्यकाल में बना यह किला एक पहाड़ी के शिखर बना हुआ है। इस किले की नींव सबल सिंह गुर्जर ने डाली थी जबकि करौली के महाराजा गोपाल सिंह ने 18वीं शताब्दी में इसे पूरा करवाया था। कुछ समय बाद सिंकदर लोदी ने इस किले को अपने नियंत्रण में ले लिया था लेकिन बाद में करौली के राजा ने मराठों की मदद से इस पर पुन: अधिकार कर लिया। किले के पीछे सिंधिया काल में बना एक बांध है, जहां की सुंदरता देखते ही बनती है।
सिहोनिया
सास-बहू अभिलेखों से ज्ञात होता है कि सिहोनिया या सिहुनिया कुशवाहों की राजधानी थी। इस साम्राज्य की स्थापना 11वीं शताब्दी में 1015 से 1035 के मध्य हुई थी। कछवाह राजा ने यहां एक शिव मंदिर बनवाया था, जिसे काकनमठ नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि मंदिर का निर्माण राजा कीर्तिराज ने रानी काकनवटी की इच्छा पूरी करने के लिए करवाया था। खजुराहो मंदिर की शैली में बना यह मंदिर 115 फीट ऊंचा है। सिहोनिया जैन धर्म के अनुयायियों के लिए भी काफी प्रसिद्ध है। यहां 11वीं शताब्दी के अनेक जैन मंदिरों के अवशेष देखे जा सकते हैं। इस मंदिरों में शांतिनाथ, कुंथनाथ, अराहनाथ, आदिनाथ, पार्श्वनाथ आदि जैन र्तीथकरों की प्रतिमाएं स्थापित हैं।
कुतवार चंबल घाटी का यह सबसे प्राचीन गांव कुंतलपुर के नाम से भी जाना जाता है। यह गांव महाभारत काल के हस्तिनापुर, राजग्रह और चढी के समकक्ष प्राचीन माना जाता है। यहां के दर्शनीय स्थलों में प्राचीन देवी अंबा या हरीसिद्धी देवी मंदिर तथा आसन नदी पर बना चन्द्राकार बांध है।
पडावली नाग काल के बाद इसी क्षेत्र में गुप्त साम्राज्य की स्थापना हुई थी। पदावली के घरोंन गांव के आसपास अनेक मंदिरों, घरों और बस्तियों के अवशेष देखे जा सकते हैं। यहां एक प्राचीन और विशाल विष्णु मंदिर था जिसे बाद में गढ़ी में परिवर्तित कर दिया गया। इस मंदिर का चबूतरा, आंगन और असेम्बली हॉल प्राचीन संस्कृति के प्रतीक हैं। यहां का क्षतिग्रस्त दरवाजा और सिंह की मूर्ति प्राचीन वैभव की याद दिलाती हैं। पदावली से भूतेश्वर के बीच पचास से भी अधिक इमारतें देखी जा सकती हैं।
मितावली नरसर के उत्तर में एक चौसठ योगिनी मंदिर है जो 100 फीट ऊंची पहाड़ी पर बना है। यह गोलाकार मंदिर दिल्ली के संसद भवन की शैली में निर्मित है। इसकी त्रिज्या 170 फीट है। मंदिर में 64 कक्ष और एक विशाल आंगन बना हुआ है। मंदिर के बीचोंबीच भगवान शिव का मंदिर है।
पहाडगढ़
पहाडगढ़ से 12 मील की दूरी पर 86 गुफाओं की श्रृंखला देखी जा सकती है। इन गुफाओं को भोपाल की भीमबेटका गुफाओं का समकालीन माना जाता है। सभ्यता के प्रारंभ में लोग इन गुफाओं में आश्रय लेते थे। गुफाओं में पुरूष, महिला, चिड़िया, पशु, शिकार और नृत्य से संबंधित अनेक चित्र देखे जा सकते हैं। यह चित्र बताते हैं कि प्रागैतिहासिक काल में भी मनुष्य की कला चंबल घाटी में जीवंत थी।
लिखिछज लिखिछज का अर्थ बॉलकनी के समान आगे मुड़ी हुई पहाड़ी होता है। आसन नदी तट की अनेक गुफाओं के समान लिखिछज यहां आने वाले लोगों के आकर्षण के केन्द्र में रहती है। नीचता, कुंदीघाट, बारादेह, रानीदेह, खजूरा, कीत्या, सिद्धावली और हवा महल भी लिखिछत के निकट लोकप्रिय दर्शनीय स्थल हैं।
नोरार
8वीं से 12वीं शताब्दी का जालेश्वर आज का नोरार है। यहां अनेक मंदिर बने हुए हैं। इन मंदिरों में 21 मंदिर आज भी देखे जा सकते हैं जो पहाड़ी की तीन दिशाओं में है। प्रतिहार नागर शैली में बना जानकी मंदिर यहां का लोकप्रिय मंदिर है। पहाड़ी पर अनेक दुर्लभ कुंड देखे जा सकते हैं। इन कुंडों को पहाड़ी के पत्थरों को काटकर बनाया गया था। यहां अनेक देवी-देवताओं की मूर्तियां भी देखी जा सकती है।
नूराबाद नूराबाद की स्थापना जहांगीर के काल में हुई थी। सराय चोला के नाम पर बनी फिजी सराय और कुंवारी नदी पर बना पुल औरंगजेब से लेकर सरदार मोतीबाद खान के काल में बना था। किले की तर्ज पर बनी सराय, सांक नदी पर बना मीनरनुमा पुल और गोना बेगम का मकबरा देखने के लिए पर्यटक नियमित रूप से आते रहते हैं।
राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य
इस अभयारण्य की स्थापना जीव-जंतुओं और वनस्पतियों से संपन्न नदी पारिस्थिती तंत्र को सुरक्षित रखने के लिए की गई थी। मछलियों की विभिन्न प्रजातियों के अलावा डॉल्फिन, मगरमच्छ, घडियाल, कछुआ, ऊदबिलाव जैसी जलीय प्रजातियां यहां देखी जा सकती हैं। देवरी का मगरमच्छ केन्द्र हाल ही में पर्यटकों के लिए खोल दिया गया है। बर्ड वाचर्स के लिए भी यह जगह स्वर्ग से कम नहीं है। नवंबर से मार्च के दौरान हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी देखे जा सकते हैं। नदी में बोटिंग का आनंद भी उठाया जा सकता है।
ग्वालियर से 112 कि मि दूर स्थित शिवपुरी सिन्धिया राजवंश की ग्रीय्मकालीन राजधानी हुआ करता था। यहां के घने जंगल मुगल शासकों के शिकारगाह हुआ करते थे। यहां सिन्धिया राज की संगमरमर की छतरियां और ज्योर्ज कासल, माधव विलास महल देखने योग्य हैं। शासकों के शिकारगाह होने की वजह से यहां बाघों का बड़े पैमाने पर शिकार हुआ। अब यहां की वन सम्पदा को संरक्षित कर माधव नेशनल पार्क का स्वरूप दिया गया है।
ओरछा, निवाड़ी
संपादित करेंओरछा को मध्य भारत के सबसे बड़े और सबसे शक्तिशाली राज्य के रूप में जाना जाता था। ओरछा का साहित्यिक काव्य, संगीत मानदंडों और चित्रों के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान है। इस क्षेत्र का प्राचीन इतिहास निर्विवाद ज्ञात तो नहीं है किन्तु छठी शताब्दी इस पूर्व के समय अस्तित्व में आए महाजनपद काल में यह क्षेत्र संभवतः चेदी महाजनपद में शामिल था।
मध्य प्रदेश के बुंदेला राजवंश द्वारा निर्मित ओरछा शहर की स्थापत्य विरासत को भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण द्वारा 15 अप्रैल, 2019 को संयुक्त राष्ट्र संघ को भेजे गए एक प्रस्ताव के बाद यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थलों की प्रस्तावित (अस्थायी) सूची में शामिल कर लिया गया है। ओरछा भारत का एकमात्र ऐसा स्थान है जहां भगवान राम को एक राजा के रूप में पूजा जाता है। इस किले में सावन और भादों नाम की दो ऊँची मीनारें हैं जो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं।यह शहर मध्यकालीन इतिहास का गवाह है। यहां के पत्थरों में कैद है अतीत बुंदेल राजवंश का।
- चतुरभुज मन्दिर
ओरछा की नींव सोलहवीं शताब्दी में बुन्देल राजपूत राजा रुद्रप्रताप द्वारा रखी गई। बेतवा जैसी निरन्तर प्रवाहिनी नदी बेतवा और इसके किनारे फैली उर्वर धरा किसी भी राज्य की राजधानी के लिये आदर्श होती। स्थापत्य का मुख्य विकास राजा बीर सिंह जी देव के काल में हुआ, इन्होंने मुगल बादशाह जहांगीर की स्तुति में जहांगीर महल बनवाया जो कि खूबसूरत छतरियों से घिरा है। इसके अतिरिक्त राय प्रवीन महल तथा रामराजा महल का स्थापत्य देखने योग्य है और यहां की भीतरी दीवारों पर चित्रकला की बुन्देली शैली के चित्र मिलते हैं। राज महल और लक्ष्मीनारायण मन्दिर और चतुरभुज मन्दिर की सज्जा भी बडी क़लात्मक है। ओरछा एक देखने योग्य स्थान है और ग्वालियर से 119 कि मि की दूरी पर है।
ग्वालियर, शिवपुरी और ओरछा के इस दर्शनीय त्रिकोण से जुडे क़ुछ और दर्शनीय बिन्दु र्हैंचन्देरी और दतिया।
- बीर सिंह जी देव का महल
दतिया दिल्ली मद्रास मार्ग पर स्थित है। दतिया का महत्व महाभारत काल से जुडा है। राजा बीर सिंह जी देव द्वारा विकसित इस क्षैत्र में उनके बनवाए कुछ ऐतिहासिक महल और मन्दिर हैं।
चन्देरी की स्थापना और विकास मालवा के सुल्तानों और बुन्देला राजपूतों द्वारा हुआ। चन्देरी पहाडों, झीलों से घिरा एक सुन्दर स्थान है।
यहां के देखने योग्य स्थान र्हैं कोषाक महल, बादल महल गेट, जामा मस्ज्दि, शहजादी का रोजा, परमेश्वर ताल आदि। वैसे चन्देरी का महत्व एक प्रमुख शिल्प कला केन्द्र के रूप में अधिक है, यहां की चन्देरी साडी और ब्रोकेड विश्वभर में प्रसिध्द है।
खजुराहो के मंदिर कलात्मकता के अनमोल उपहार हैं जिन्हें हमारे उदार संस्कृति वाले अतीत ने हमें सोंपा है। ये मंदिर विश्वभर में प्रसिध्द हैं और भारत का गौरव हैं। इन मंदिरों का शिल्प हमें अपने उदार अतीत की झाँकी दिखाते हैं। काम, धर्म, मोक्ष के जीवन दर्शन को दर्शाते हैं ये मन्दिर। प्रेम की उदात्त अभिव्यक्तियों को, जीवन के हर पक्ष को, धार्मिकता, युद्ध सभी को मूर्तिकारों ने बडी ज़ीवन्तता से पत्थरों पर उकेरा है। यह चन्देल राजपूतों के विशाल दृष्टिकोण के प्रतिबिम्ब हैं। चन्देल चन्द्रवंशी राजपूत थे।
कहते हैं इस वंश की उत्पत्ति और इन मंदिरों के निर्माण के अतीत में एक कथा है। हेमावती वन में स्थित एक सरोवर में नहा रही थी तो उसे चन्द्रमा ने देखा और मुग्ध हो गया और उसे अपने वशीभूत कर उससे प्रेम-सम्बन्ध बना लिए जिसके फलस्वरूप हेमावती ने एक बालक को जन्म दिया। हेमावती और बालक को समाज ने अस्वीकार कर दिया, तो उसने वन में रह कर बालक का पोषण किया और बालक का नाम रखा चन्द्रवर्मन। इस चन्द्रवर्मन बड़े होकर अपना राज्य कायम किया। कहते हैं कि हेमावती ने चन्द्रवर्मन को प्रेरित किया कि वह मानव के भीतर दबे प्रेम व काम की उदात्त भावनाओं को उजागर करती मूर्तियों वाले मन्दिर बनाए जिससे कि मानव को उसके अन्दर दबी इन कामनाओं का खोखला पन दिखाई दे और जब वे इन मन्दिरों में प्रवेश करें तो इन विकारों को त्याग चुके हों। इसके पीछे एक और कारण भी हो सकता है कि चन्देल तांत्रिक अर्चना में विश्वास रखते हों और मानते हों कि इन दैहिक कामनाओं पर विजय पाकर ही निर्वाण संभव है।
चन्देल वंश के क्षरण के साथ ही ये मन्दिर विस्मृति में डूबे सदियों घने जंगलों से घिरे रहे और धीरे-धीरे समय का शिकार होते रहे। इनका पुनरूध्दार पिछली सदी में ही संभव हुआ, तबसे अब तक ये मन्दिर कलात्मकता के विषय में संसार भर में प्रसिध्द हैं।
ये मन्दिर मात्र सौ वर्षों के समय में बन कर तैयार हुए थे, लगभग 950 ए डी से लेकर 1050 के बीच। ये मन्दिर संख्या में करीब 85 थे, समय के प्रहारों से बचकर आज सिर्फ 22 मंदिर शेष हैं जो कि कलात्मक उँचाईयों के उदाहरण हैं और अपने सौंदर्य से आज भी संसार को चकित कर रहे हैं और अगर इनकी उचित सार-संभाल हुई तो हमारी आने वाली पीढीयों को भी अपने महान सांस्कृतिक अतीत का स्मरण कराते रहेंगे।
अपने स्थापत्य की दृष्टि से ये मंदिर अपने समय के मन्दिरों की बनावट से एकदम अलग हैं। हर मन्दिर एक ऊँचे विशाल प्लेटफार्म पर बना है। हर मन्दिर के मुख्य कक्ष की छत का मध्य भाग ऊँचाई पर है और बाहर की ओर आते-आते वह गोलाकार ढलान पर आ जाती है छत इस संरचना के अन्दर बडी बारीक नक्काशियां की गईं हैं।
प्रत्येक मन्दिर के तीन मुख्य भाग हैं; प्रथम जो द्वार है वह अर्धमण्डप है, द्वितीय भाग जहाँ लोग प्रार्थना के लिए एकत्र होते हैं वह मण्डप है, तृतीय भाग गर्भगृह कहलाता है जहाँ देवता की मूर्ति की स्थापित होती है। और अधिक बड़े मन्दिरों में कई मण्डप व दो या अधिक गर्भगृह हैं।
भौगोलिक दृष्टि से ये मन्दिर तीन विभिन्न समूहों में विभाजित हैं; पश्चिमी, पूर्वी और दक्षिणी समूह।
पश्चिमी समूह
संपादित करेंयह खजुराहो के मन्दिरों में सबसे बड़ा मंदिर है। इसकी ऊँचाई 31 मीटर है। यह एक शिव मन्दिर है, इसके गर्भगृह में एक विशाल शिवलिंग स्थापित है। इस मन्दिर के मुख्य मण्डप में देवी-देवताओं और यक्ष-यक्षिणियों की प्रेम लिप्त तथा अन्य प्रकार की मूर्तियां हैं। ये मूर्तियां इतनी बारीकी से गढी ग़ईं हैं कि इनके आभूषणों का एक-एक मोती अलग से दिखाई देता है और वस्त्रों की सलवटें तक स्पष्ट हैं और शारीरिक गठन में एक-एक अंग थिरकता सा महसूस होता है। इस मन्दिर के प्रवेश द्वार की मेहराबें, गर्भ गृह की छतें और मण्डप के खम्भे अपनी मूर्तिकला की बारीकी के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
यह मन्दिर अपने आप में अनूठा मन्दिर है। माँ काली का यह मन्दिर ग्रेनाईट का बना हुआ है। इसमें माँ काली के चौंसठ अवतारों के विभिन्न रूपों को उकेरा गया है।
चित्रगुप्त मन्दिर, कायस्थो के जनक जो प्रत्येक प्राणी के पाप ओर पुन्य का लेखा रखते है, उन देवता का मंदिर है इसलिए यह मन्दिर पूर्वमुखी है। इस मन्दिर के गर्भगृह में पाँच फीट ऊँचा रथ पत्थरों की शिलाओं पर बहुत सुन्दरता और बारीकी के साथ उकेरा गया है। इस मन्दिर की दीवारों पर उकेरे दृश्य चन्देल साम्राज्य की भव्य जीवन शैली की झाँकी प्रस्तुत करते हैं। मसलन शाही सवारी, शिकार, समूह नृत्यों के दृश्य।
यह मंदिर मुख्यत: ब्रह्मा मन्दिर है। इस मन्दिर में ब्रह्माजी की त्रिमुखी मूर्ति स्थापित है। इस मन्दिर का प्रवेशद्वार बड़ा प्रभावशाली है, इसके उत्तर में सिंहों की मूर्तियाँ हैं था दक्षिण में बनी सीढियाँ हाथियों की भव्य मूर्तियों तक ले जाती हैं। मन्दिर की ओर मुख किये एक नन्दी बैल की प्रतिमा है।
इस वैष्णव मन्दिर के प्रवेशद्वार पर ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति स्थित है। इसके नक्काशीदार गर्भगृह में विष्णु के अवतार नरसिंह और वराह भगवान की त्रिमुखी मूर्ति है।
मतंगेश्वर मन्दिर
संपादित करेंइस शिव मन्दिर में आठ फीट लम्बा भव्य शिवलिंग स्थापित है और यह पश्चिमी समूह के मन्दिरों में सबसे अन्त में स्थित है।
पूर्वी समूह
संपादित करेंपार्श्वनाथ मन्दिर
संपादित करेंयह जैन मन्दिर है। इस मन्दिर की दीवारों पर बहुत सुन्दर मूर्तियाँ उकेरी हैं जो कि दिन-प्रतिदिन की दिनचर्या के सूक्ष्म तथ्यों को दर्शाती हैं। इस मन्दिर में जैनों के प्रथम तीर्थकंर आदिनाथ की प्रतिमा है। इसके पास ही घनताई मन्दिर भी एक जैन मन्दिर है। यहीं एक और आदिनाथ मन्दिर भी है जिसमें मूर्तिकला का सुन्दर उपयोग हुआ है, यहाँ अन्य आकृतियों के साथ यक्ष-यक्षिणी की भी बहुत सुन्दर मूर्ति हैं।
इस समूह में तीन हिन्दु मन्दिर भी हैं। एक ब्रह्मा मन्दिर है जिसमें चतुरमुखी शिवलिंग स्थापित है। दूसरा वामन मन्दिर है, इसकी बाहरी दीवारों पर अप्सराओं की विभिन्न मुद्राओं में अभिसार लिप्त मूर्तियाँ हैं। तीसरा जावरी मन्दिर इस के प्रवेशद्वार पर कलात्मक समृध्दता दर्शाते स्थापत्य और मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने अंकित हैं।
दक्षिण समूह
संपादित करेंदुलादेव मन्दिर
संपादित करेंशिव के इस मन्दिर में नृत्यरत अप्सराएं और आभूषणों से सज्जित सुन्दर स्त्रियों की आकृतियाँ महीन बिन्दुओं को भी स्पष्टत: दर्शाती प्रतीत होती हैं। यह अद्भुत उदाहरण हैं मूर्तिकला के।
चतुरभुज मन्दिर
संपादित करेंयह एक विशाल मन्दिर है और अन्य मंदिरों की तरह यह भी वास्तु और मूर्तिकला की उत्कृष्ट ऊँचाइयों को छूता है। इस मन्दिर के गर्भ में सुन्दरता से तराशी विष्णु भगवान की प्रतिमा स्थापित है।
खजुराहो के निकटवर्ती
संपादित करेंयह खजुराहो से मात्र 32 कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित है। बस 30 मिनट की ड्राइव। यह पार्क केन नदी के किनारे फैला है। यहाँ वन्य जीवों की कई प्रजातियाँ हैं। प्रोजेक्ट टाईगर यहाँ भी सफलता से चल रहा है, बाघ को अपने प्राकृतिक आवास में देख पाने का अवसर भी आप यहाँ आकर पा सकते हैं। अन्य दुर्लभ प्रजातियों में आप यहाँ देख सकते हैं तेन्दुआ, भेडिया और घडियाल। नीलगाय, चिंकारा और साम्बर तो यूं ही झुण्ड में विचरते दिख जाते हैं। खजुराहो से पन्ना के रास्ते में भी अनेक मनोरम स्थान आप देख सकते हैं। जैसे पाण्डव झरने, बेनीसागर डेम, रानेह के झरने, रंगुआन लेक आदि।
यह खजुराहो से 195 किमी दूर है। आश्चर्यजनक विन्ध्या के पहाडों और निरन्तर प्रवाहमान नदियों और मनोरम जंगलों से घिरा चित्रकूट प्रकृति की गोद में स्थित है। साथ ही यह एक माना हुआ तीर्थ है। भगवान राम और सीता जी तथा लक्ष्मण जी ने अपने वनबास के चौदह वर्षों में से ग्यारह वर्ष यहीं बिताए थे। यहाँ के मन्दिर, घाट आदि देखने योग्य हैं।
यहाँ वर्ष भर तीर्थयात्रियों का आना-जाना लगा रहता है। यहाँ रामघाट, कामदगिरी, सीता कुण्ड, सती अनुसुया मन्दिर, स्फटिक शिला, गुप्त गोदावरी नदी, हनुमान धारा और भरत कूप आदि उल्लेखनीय स्थान हैं।
जबलपुर
संपादित करेंजबलपुर की मनोहारी प्राकृतिक सुन्दरता की वजह से 12शताब्दी में गोंड राजाओं की राजधानी रहा, उसके बाद कालाचूडी राज्य के हाथ रहा और अन्तत: इसे मराठाओं ने जीत लिया और तब तक उनके पास रहा जब तक कि ब्रिटिशर्स ने 1817 में उनसे ले न लिया। जबलपुर में ब्रिटिश काल के चिन्ह आज भी मौजूद हैं, कैन्टोनमेण्ट, उनके बंगले और अन्य ब्रिटिश कालीन इमारतें। जबलपुर विश्वप्रसिध्द मार्बलरॉक्स के लिए प्रसिध्द है, जो कि यहाँसे 23 किमी दूर भेडाघाट में हैं। नर्मदा के दोनों दूर तक ओर 100-100 फीट ऊंची ये संगमरमरी चट्टानें बहुत सुन्दर दृश्य प्रस्तुत करती हैं।
इस दृश्य के लिये कैप्टन जे फोरसिथ ने अपनी किताब हाई लैण्डस ऑफ सैण्ट्रल इंडिया में लिखा है कि ऐसा सुन्दर दृश्य देख आँखे थकती नहीं जब इन शफ्फाक चट्टानों से सूर्य की किरणें छनछन कर, टकरा कर पानी पर पडती हैं। इन सफेद चट्टानों की ऊँची नुकीली पंक्तियां नीले आकाश और गहरे नीले पानी के बीच अपनी रूपहली आभा लिए दूर तक दिखाई देती हैं। कहीं धूप, कहीं छांव का यह मोहक खेल और दूर तक फैली शान्ति आपको अलग ही दुनिया में ले जाती है। इन चट्टानों में बहती नर्मदा नदी का पाट इन चट्टानों के अनुरूप घटता बढता रहता है। कहीं संकरी तो कहीं चौडी। यहाँ नौका विहार की सुविधा नवम्बर माह से मई तक होती है। यहाँ भेडाघाट में धुंआधार फाल्स एक और देखने योग्य स्थान है।
बुरहानपुर
संपादित करेंकुंडी भंडारा
संपादित करेंकुंडी भंडारा या खूनी भंडारा महाराष्ट्र की सीमा से सटे मध्य प्रदेश के बुरहानपुर जिले में नगरवासियों को पेयजल मुहैया करवाने की एक जीवित भू-जल संरचना है। मध्यकालीन भारत की इंजिनियरिंग कितनी समृद्ध रही होगी यह बुरहानपुर के कुंडी भंडारे को देखने से ही पता चलता है। 400 साल पुरानी ये जल यांत्रिकी आधुनिक युग के लिए भी एक कठिन पहेली है। उस समय कैसे सतपुड़ा की पहाड़ियों के पत्थरों को चीरकर नगर की जल आवश्यकताओं को पूरा किया गया होगा, जब न तो आज की तरह मशीनें थीं और न ही भू-गर्भ में बहते पानी के श्रोतों का पता लगाने वाले यंत्र। [1][2]
यह (जबलपुर से 165 किमी) - कान्हा के जंगल साल और बांस के जंगल हैं। दूर तक फैले समतल घास के मैदान और उनके बीच से लहरा कर गुजरती जलधाराएं, लगभग नौ सौ वर्ग किलोमीटर तक नैसर्गिक सुन्दरता का रमणीय दृश्य प्रस्तुत करते हैं। यह रुडयार्ड किपलिंग की वही प्रेरणा स्थली है जिसे देख अति प्रसिध्द जंगलबुक लिखी गई। वन्यजीवन की वही विविधता आज भी कान्हा टाईगर रिर्जव में विद्यमान है।
कान्हा नेशनल पार्क को 1974 प्रोजेक्ट टाईगर के अर्न्तगत कान्हा टाईगर रिर्जव के रूप में स्थापित किया गया था। यह पार्क दुर्लभ हार्डगाउण्ड बारहसिंघा का एकमात्र प्राकृतिक निवास है। टाईगर को आप यहाँमुक्त विचरण करते हुए देख सकते हैं। अन्य जानवरों में यहाँतेन्दुआ, जंगली भैंसे, चीतल, सांबर, भालू, नीलगाय और कृष्ण मृग भी स्वतन्त्र विचरते दिख जाते हैं। बर्ड वॉचिंग के शौकीन लोगों के लिए ये उत्तम स्थान है, क्योंकि यहाँ200 किस्म के पक्षी पाये जाते हैं। कान्हा नेशनल पार्क बरसात के दिनों में बन्द रहता है, जुलाई से अक्टूबर तक।
बांधवगढ राष्ट्रीय उद्यान
संपादित करें(जबलपुर से 164 किमी, खजुराहो से 237 किमी) बांधवगट एकमात्र ऐसा टाईगर रिजर्व जहां पहली ही विजिट में टाईगर उसके प्राकृतिक निवास में विचरते देख पाना लगभग निश्चित होता है। यह पार्क उस घाटी में स्थित है जहां रीवां के महाराजा ने पहली बार सफेद टाईगर देखा था। बांधवगट नेशनल पार्क 448 वर्ग किमी में फैला है। यहाँका वन्य जीवन भरा-पूरा है। यहाँतेन्दुए, हिरण, सांबर, जंगली सुअर और बाईसन (जंगली भैंसे की एक दुर्लभ प्रजाति)। यहाँभी पक्षियों की 200 प्रजातियां पाई जाती हैं।
इस पार्क के अन्दर ही बांधवगढ क़ा किला आता है, जिसके परकोटे इस पार्क की एक ओर को घेरते हैं। इस पार्क में प्रागैतिहासिक युग की आदि गुफाएं भी हैं जिनमें प्रागैतिहासिक मानव द्वारा बनाए चित्र स्पष्टत: देखे जा सकते हैं। यह पार्क भी मानसून की वजह से जुलाई से अक्टूबर तक बन्द रहता है। जबलपुर और उसके आस-पास के स्थानों में देखने योग्य स्थानों की कमी नहीं है, जबलपुर जिले के शाहपुरा कस्बे के पास एक नेशनल फॉसिल पार्क भी है।
ऐतिहासिक स्थल
संपादित करेंइंदौर का क्षेत्र पूर्ण रूप से मालवा के पठारी भाग में स्थित है। इंदौर भगवान शिव के दो ज्योतिर्लिंगों- महाकाल और ओंकारेश्वर के बीच स्थित है। इंदौर की ख्याति 1703 में मराठा शासकों के आगमन के बाद ही बढ़ी। इंदौर जिले में कोई प्राकृतिक झील तो नहीं है किन्तु कृत्रिम बांधों के निर्माण के कारण यशवंतसागर, देपालपुर, बेरछिया, पिपलियापाला, बिलौली, और सिरपुर जैसी कई झीलें बन गई हैं। कई कम ऊँचाई के झरने इस जिले की सुंदरता बढ़ते हैं।
बोलिया सरकार की छतरी-इंदौर में बोलिया सरकार की छतरी खान नदी के पूर्वी छोर के कृष्णपुरा ब्रिज के समीप स्थित है। इसका निर्माण 1558 इसवीं में 2 लाख रुपये की लागत से किया गया था। यह वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। यह छतरी बोलिया वंश के बुले सरदार चिमनाजी राव अप्पा साहब की याद में बनवाई गई थी। इस छतरी के निर्माण में वास्तुकला के राजपूत, मुगल और मराठा शैलियों के मिश्रण का सुंदर उदाहरण देखने को मिलता है। इस सुंदर छतरी का अष्टकोणीय गर्भगृह राजपूत और मराठा शैलियों में बनाया गया है जबकि जाली की नक्काशी मुगल शैली में की गई है। इसी तरह छतरी में उकेरे गए जानवरों और पक्षियों के चित्र तथा मूर्तियाँ मराठा शैली की वास्तुकला में निर्मित हैं।
रानी अहिल्या बाई होल्कर के राज्य में इस शहर की योजना बनी और निर्माण हुआ। रानी अहिल्या बाई जो कि बहादुर होल्कर रानी थीं। इस शहर का नाम 18 वीं शती के इन्द्रेश्वर मन्दिर के नाम से पडा। यह शहर सरस्वती और खान नदी के किनारे बसा है। मध्यकालीन होल्कर राज्य से संबध्द होने की वजह से इस शहर में कई मध्यकालीन ऐतिहासिक इमारतें हैं। यहाँदेखने योग्य स्थान र्हैं लालबाग पैलेस, बड़ा गणपति, कांच मन्दिर, सेन्ट्रल म्यूजियम, गीता भवन, राजवाडा, छतरियां, कस्तूरबा ग्राम आदि।
उज्जैन इन्दोर से 55 किमी की दूरी पर स्थित है। प्राचीन ऐतिहासिक नगरी उज्जैयनी ही आज का उज्जैन है। यह शिव नाम के राजा की राजधानी अवन्ति था पहले लेकिन राजा ने नर्मदा के तट पर त्रिपुरा राजा से विजित हो अवन्ति का नया नामकरण किया उज्जैयनी। आधुनिक उज्जैन आज शिप्रा के तट पर स्थित है। शिप्रा नदी की पावनता के पीछे वही विश्वास है कि जब समुद्र मंथन हुआ और अमृत घट लेकर देवता भागे तो राक्षसों ने स्वर्ग तक उनका पीछा किया इस दौरान घट से जो बूंदें छलकीं वो हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैयनी में गिरीं इसलिये कुंभ स्नान इन चारों स्थानों की पावन नदियों में किया जाता है।
उज्जैन में मन्दिरों की भरमार है, इनमें से अधिकांश प्राचीन काल के और ऐतिहासिक हैं। इन मन्दिरों का जीणोध्दार समय-समय पर होता रहता है। महाकालेश्वर का प्रसिध्द शिवमन्दिर हर समय भक्तों की भीड से अटा रहता है। इस मन्दिर का विशाल शिवलिंग और मन्दिर का स्थापत्य और माहौल आपको किसी रहस्यमय लोक में पहुंचा देता है। भारत के पूजनीय कवि कालिदास की ये रचनास्थली भी है। यहाँदेखने योग्य स्थानों में महाकालेश्वर, बड़े ग़णेश जी का मन्दिर, चिन्तामन गणेश, पीर मत्स्येन्द्रनाथ, भर्तहरी की गुफाएं, कालियादेह महल, काल भैरव, वेधशाला, नवग्रह मन्दिर, कालिदास अकादमी आदि प्रमुख हैं।
यह इन्दौर से 99 किमी दूर है। माण्डू पत्थरों पर रचा जीवन और आनन्द के उत्सव का प्रतिरूप है। यह स्थान कवि और राजा बाजबहादुर और उसकी सुन्दर प्रियतमा रानी रूपमती के प्रेम का स्मृति चिन्ह है। मालवा के लोग अपने लोक गीतों में उनके प्रेम की गाथाएं बड़े चाव से गाते हैं। रानी रूपमती का महल एक पहाडी क़ी चोटी पर बना हुआ है और यहाँनीचे स्थित से बाजबहादुर के महल का दृश्य बड़ा ही विहंगम दिखता है, जो कि अफगानी वास्तुकला का एक अद्भुत नमूना है। माण्डू विन्ध्य की पहाडियों में 2000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मूलत: मालवा के परमार राजाओं की राजधानी रहा था। तेरहवीं शती में मालवा के सुलतानों ने इसका नाम शादियाबाद यानि खुशियों का शहर रख दिया था। वास्तव में यह नाम इस जगह को सार्थक करता है। यहाँके दर्शनीय स्थलों में जहाज महल, हिन्डोला महल, शाही हमाम और आकर्षक नक्काशी दार गुम्बद वास्तुकला के उत्कृष्टतम रूप हैं।
यहाँके जामी मस्जिद और होशंगशाह के मकबरे से प्रेरणा लेकर ही शताब्दियों बाद ताजमहल बनाया गया। मुगलकाल में माण्डू आमोद-प्रमोद का स्थल था। यहाँ की झीलों और महलों की वजह से इस स्थान पर हमेशा उत्सव जैसा वातावरण बना रहता है।
मध्य क्षेत्र
संपादित करेंभोपाल मध्यप्रदेश की राजधानी तो है ही साथ ही यह शहर प्राकृतिक सुन्दरता और सांस्कृतिक विरासत के साथ साथ आधुनिक शहर के सभी आयाम प्रस्तुत करता है। यह शहर जहां स्थित है उस जगह को 11 वीं शती में राजा भोज द्वारा बसाया गया था, तब इसे भोजपाल के नाम से जाना जाता था। किन्तु आज जो भोपाल है उसकी स्थापना 1708-1740 के बीच एक अफगान सिपहसालार दोस्त मोहम्मद ने की थी।
ओरंगजेब की मृत्यु के बाद जब दिल्ली में अशान्ति और अनिश्चितता का माहौल था तब दोस्त मोहम्मद पलायन कर यहाँआया और उस समय की गोण्ड रानी कमलापति की सहायता की और उसका हृदय भी जीत लिया। भोपाल की जुडवां झीलों के बारे में किवदन्ती है कि यह रानी कमल के आकार की नाव में इन झीलों में सैर किया करती थी। ये झीलें आज भी शहर का केन्द्र हैं।
भोपाल पुरातन और नवीन का एक सुन्दर मिश्रण है। पुराने शहर में स्थित पुराने बाजार, मस्जिदें और महल आज भी उस काल के शासकों के भव्य अतीत की याद दिलाते हैं। सुन्दर पार्क और गार्डन, लम्बी चौडी सडक़ें, आधुनिक इमारतों के कारण आधुनिक भोपाल भी बड़ा प्रभावशाली है।
- दर्शनीय स्थल
ताज उल मस्जिद,कमलापति महल जामा मस्जिद, मोती मस्जिद,सैरसपाटा, सदर मंजिल, गौहर महल, भारत भवन, स्टेट म्यूजियम, गाँधी भवन, वन विहार और लक्ष्मी नारायण मन्दिर। अपर और लोअर लेक तथा मछली घर भी दर्शनीय हैं।
सांची
संपादित करेंसांची भोपाल से 46 किमी की दूरी पर है। जैसा कि आप जानते ही हैं कि सांची अपने स्तूपों और बौध्द स्थानकों तथा उन स्तम्भों के लिये प्रसिध्द है जो कि पुराशास्त्रियों द्वारा इसापूर्व की तीसरी शताब्दि से लेकर बारहवीं शताब्दी (ए डी) पुराने माने गए हैं। सांची का प्रसिध्द स्तूप मौर्य सम्राट अशोक ने बनवाया था। अशोक ने बौध्द धर्म को प्रश्रय दिया और इसके प्रचार प्रसार हेतु अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को सिंहल द्वीप (श्री लंका) भेजा। प्रथम स्तूप के निकट एक स्तम्भ है सेन्डस्टोन का जो मौर्य युगीन चमक से आज भी चमकता है, उस पर स्पष्ट शब्दों में बौध्द धर्म के नियमों को लिखा है। यह स्तूप भारत की सबसे पुरानी पत्थर की इमारत है।
सांची पहाडी ख़ण्डों में बँटी है। सबसे नीचे के खण्ड में दूसरा स्तूप स्थित है जबकि पहला और तीसरा स्तूप और पाँचवी शती में निर्मित गुप्त कालीन मंदिर न17 और सातवीं शती में निर्मित मन्दिर न 18 बीच के हिस्से में स्थित हैं और बाद में बनी बौध्द मॉनेस्ट्री शिखर पर स्थित है। दूसरा स्तूप बौध्दकालीन मूर्तिकला का प्रतिनिधित्व करता है, इसमें बुध्द के जीवन और उस काल की प्रमुखा घटनाओं पर आधारित कलाकारी की गई है। इन स्तूपों के प्रवेश द्वार देखने योग्य हैं। दर्शनीय स्थलों में स्तूप प्रथम, चार प्रवेश द्वार, स्तूप द्वितीय, स्तूप तृतीय, अशोक स्तम्भ, बौध्द विहार, विशाल पात्र, गुप्त कालीन मन्दिर और संग्रहालय प्रमुख हैं।
भीमबेटका विन्ध्याचल पहाडियों के उत्तरीय छोर पर स्थित भोपाल से 35 कि.मी. दूर एक गाँव है। यह स्थान बडी-बडी चट्टानों से घिरा है। हाल ही में इन चट्टानों में बने पूर्व पाषाण युग की गुफाओं में बने हुए छह सौ से भी ज्यादार् भित्तिचित्रों का पता चला है। संसार में अब तक पाये जाने वाले पूर्व पाषाण युगीनर् भित्तिचित्रों का सबसे बड़ा संग्रह इन्हीं गुफाओं में है। मध्यप्रदेश में पर्यटन की संभावनाएं अथाह हैं, अब भी बहुत कुछ ऐसा है जो इस सीमित लेख के दायरों में नहीं समा पा रहा। इस सत्य का अनुभव आप यहाँआकर ही कर सकते हैं, अनेकों अनछुए, अव्यवसायिक पर्यटन स्थल हैं जिन्हें खोज आप रोमांचित हो सकते हैं।
ऐतिहासिक नगरी
तूमैन
माँ विन्ध्यवासिनी मंदिर अति प्राचीन मंदिर है। यह अशोक नगर जिले से दक्षिण दिशा की ओर तूमैन (तुम्वन) मे स्थित हैं। यहाॅ खुदाई में प्राचीन मूर्तियाँ निकलती रहती है यह राजा मोरध्वज की नगरी के नाम से जानी जाती है यहाॅ कई प्राचीन दाश॔निक स्थलो में वलराम मंदिर,हजारमुखी महादेव मंदिर,ञिवेणी संगम,वोद्ध प्रतिमाएँ,लाखावंजारा वाखर,गुफाएँ आदि कई स्थल है तूमैन का प्राचीन नाम तुम्वन था। सन् 1970-72 में पुरातत्व विभाग के द्वारा यहाँ जव खुदाई की गई तव यहाँ 30 फुट नीचे जमीन मे ताँवे के सिक्को से भरा एक घडा मिला कई प्राचीन मूर्तियाँ और मनुष्य के डाॅचे एवं कई प्राचीन अवशेष यहाॅ से प्राप्त हुए। सभी अवशेषो को सागर विश्वविद्यालय मे कुछ गूजरी महल ग्वालियर मे रख दिए है। फिर भी यहाॅ कई प्राचीन मूर्तियाँ है जो तूमैन संग्रहालय मे है।वत॔मान मे आज भी अगर इस ग्राम की खुदाई की जाए तो यहाँ कई सारे प्राचीन अवशेष प्राप्त होगे। तूमैन ञिवेणी नदी का इतिहास- प्राचीन काल में अलीलपुरी जी महाराज रोज अपनी साधना के अनुसार स्रान करने के लिए पृयाग (इलावाद)जाया करते थे। एक दिन गंगा माई प्रशन्र हो गयी ओर वोली माँगो भक्त क्या चाहिए ! माँ अगर आप प्रशन्र है तो माँ मेरी कुटिया को पवित्र कर दीजिए गंगाजी तूमैन में गुप्त गंगा के नाम सेजानी गई ओर तीन नदियों का संगम हुआ उमिॅला,सोवत,अखेवर, आज भी जो लोग इलाहाबाद नहीं जा पाते वे तूमैन ञिवेणी में आकर गोता लगाते हैं मे हर वष॔ मकर संक्रांति पर मेले का आयोजन भी होता है तूमैन अपने इतिहास मे मशहूर है इसका लेख कितावो मे भी मिलता है। तूमैन मंदिरों के लिए भी जानी जाती है यहाँ जहाँ पर करो खुदाई वहां पर निकलती है मूर्तिया। तूमैन गाँव का वडा मंदिर विन्धयवासिनी मंदिर है। यह मंदिर वहुत ही पुराना है इस मंदिर में जो तोड़ फोड़ हुई मुगल साम्राज्य ओरंगजेव के समय पर हुई है। मंदिर का इतिहास वहुत ही पुराना है।विन्धयवासिनी मंदिर या तो उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर में स्थित है या फिर मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले के 10 km दूरी पर तूमैन गाँव मे स्थित है।
=== कविता के माध्यम से इतिहास- === तुम्वन नगरी आय के, कर लीजे दो काम। प्रथम ञिवेणी स्नान कर, दूजे विंन्ध्यवासिनी धाम।। यह तुम्बन नगरी मिश्र, इसका इतिहास पुराना। इसका नाम जगत में ऊॅचा, करके हमे दिखाना।। यहॉ मोरध्वज का राज्य हुआ, विक्रम की वाणी पड़ी सुनाई, ताम्रध्वज के शासन ने यहा नई झलक दिखलाई। मोरध्वज ने अपने जीवन में सत्य धर्म अपनाया।। विक्रम ने भी यहॉ से जा उज्जेन में राज्य बनाया। उन विक्रम के नव-रत्न आज भी करता याद जमाना।। यह तुम्बन नगरी मिश्र, इसका इतिहास पुराना। चौसठ खम्ब विंध्यवासिनी का है मंदिर अति भारी फाटक पर बलदाऊ जी की मूरत वहुत प्यारी। भूतेश्वर का घाट मनोहर,है तोरन दरवाजा।। नदी बागो की शोभा न्यारी,जहाॅ मन्जह सकल समाजा।। ताम्रध्वज का किला मनोहर, जहॉ शिव सहस्त्र अस्थाना। यह तुम्बन नगरी मिश्र, इसका इतिहास पुराना। जब तुम्बन के आस - पास कही पक्के भवन नही थे। बडे़ प्रेम से हम दृढ भवनो में रहते थे।। बने हुये थे चोका चारो, होज भवन अति सुन्दर, रहता था भण्डार कला का हरदम, इसके अंदर। बुद्धि कला कौशल का इसमें भरा हुआ था खजाना। । यह तुम्बन नगरी मिश्र, इसका इतिहास पुराना। विप्र वंश के वेद मंत्र यहॉ गूंजे सबके कानो में। शिव लिंगों के ढे़र रहे त्रिवेणी के मैदानों में घाट वाट चौपाल बने खंधक है भारी। इन्द्र भवन सौ सजी सभी चौपाले सारी।। गन्धर्व सेन को तन भस्म भयो तब नगरी धूल समाना। । यह तुम्बन नगरी मिश्र, इसका इतिहास पुराना। है लाखा बंजारे की बाखर की ताजी गाथा। बैठा देव ने किया नगरी का अब भी ऊचॉ माथा।। सुना रहे है अब रो-रोकर यह सांची सांची गाथा। सब नगरिन से यह नगरी का है, आज भी ऊचॉ माथा।। है देवी दरवार महा तुम दर्शन,,करने आना। यह तुम्बन नगरी मिश्र, इसका इतिहास पुराना।।
- ↑ "जीवित भू-जल संरचना कुंडी भंडारे में बंद हो सकती है धारा". मूल से 3 अक्तूबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2017-06-26. नामालूम प्राचल
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की उपेक्षा की गयी (|publisher=
सुझावित है) (मदद) - ↑ "बुरहानपुर कुंडी भण्डारा का यूनेस्को विश्व धरोहर श्रेणी के लिए प्रस्ताव". मूल से 3 अक्तूबर 2016 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2017-06-26. नामालूम प्राचल
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की उपेक्षा की गयी (|publisher=
सुझावित है) (मदद)