प्रतापगढ़ (राजस्थान) की संस्कृति


वागड, मालवा और मेवाड का संस्कृति-संगम

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प्राकृतिक सुषमा का धनी प्रतापगढ़ जिला बांसवाड़ा, चित्तौडगढ़, नीमच, रतलाम और मंदसौर जिलों से मिला हुआ है, इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि यहाँ की आदिवासी-संस्कृति और परम्परा पर न केवल राजस्थान, बल्कि मध्यप्रदेश की भाषा, वेशभूषा, बोलियों और संस्कृति की भी छाप है। मध्य प्रदेश से प्रतापगढ़ की सरहदें लम्बाई में करीब ६० प्रतिशत हिस्से से मिलती हैं और भौगोलिक दूरियों के कम होने के कारण आज भी राजस्थान के सुदूर जिलों में बेटे-बेटियों का ब्याह करने की बजाय रिश्ते-नातेदारी के लिए लोग पडौसी-राज्य मध्य प्रदेश की तरफ ही देखते हैं!

 
सीतामाता मंदिर के सामने एक भील आदिवासी : छाया : हे. शे.

हालाँकि प्रतापगढ़ में सभी धर्मों, मतों, विश्वासों और जातियों के लोग सद्भावनापूर्वक निवास करते हैं, पर यहाँ की जनसँख्या का मुख्य घटक- लगभग ६० प्रतिशत, भील आदिवासी हैं, जो राज्य में 'अनुसूचित जनजाति' के रूप में वर्गीकृत हैं। पीपल खूंट उपखंड में तो ८० फीसदी से ज्यादा आबादी भील जनजाति की ही है। जीवन-यापन के लिए ये मीना-परिवार मूलतः कृषि, मजदूरी, पशुपालन और वन-उपज पर आश्रित हैं, जिनकी अपनी विशिष्ट-संस्कृति, बोली और वेशभूषा रही है।

अन्य जातियां गूजर, बलाई, भांटी, ढोली, राजपूत, ब्राह्मण, महाजन, सुनार, लुहार, चमार, नाई, तेली, तम्बोली, लखेरा, रंगरेज, रैबारी, गवारिया, धोबी, कुम्हार, धाकड, कुलमी, आंजना, पाटीदार और डांगी आदि हैं। सिख-सरदार इस तरफ़ ढूँढने से भी नज़र नहीं आते.

लोक पर हावी कथित आधुनिकता

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इनके रीति-रिवाज़, लोकगीत, लोकनृत्य, वार-त्यौहार और शादी-ब्याह के तौर-तरीके भी अलबेले हैं, पर तेज़ी से बढ़ रहे शहरीकरण के प्रभाव आदिवासी परम्परों पर भी बहुत मुखर हैं! उदाहरण के लिये, गांव में विवाह-उत्सव पर अब बेन्डबाजा बुलवाया जाने लगा है और मेहमानों के भोज का जिम्मा 'केटरर'-हलवाइयों पर है ! बहुत सी जगह, मांगलिक-अवसरों पर किये जाने वाले पारंपरिक लोक-नृत्यों तक में ट्विस्ट आदि का फिल्मी तड़का भी आ घुसा है! कई गांवों में सजे-धजे ठेलों वाली लोकल बेंड-पार्टियां बनी हुई हैं।

यहां की एक विचित्र विशिष्ट परम्परा है- मौताणा : जो पूरे उदयपुर संभाग में, खास तौर पर आदिवासी बाहुल्य जिलों-प्रतापगढ़, डूंगरपुर और बांसवाडा में बहुप्रचलित है। दुर्घटना में या अप्राकृतिक परिस्थितियों में मौत हो जाने पर सारी की सारी आदिवासी आबादी 'दोषी' या अपराधी का तब तक घेराव रखती है, जब तक उसके द्वारा नकद मुआवजे और सारे समुदाय के लिए देसी-दारू का इंतजाम नहीं कर दिया जाता. इस प्रक्रिया में दोनों पक्षों की तरफ़ से सौदेबाज़ी या 'बार्गेनिंग' आम बात है। कई बार तो 'मौताणा' की रकम तय होने तक शव का अंतिम संस्कार तक नहीं किया जाता, भले इसमें कई कई घंटे लग जाएँ या कई दिन! जुर्माने की रकम कुछ सौ से कुछ लाख तक भी हो सकती है। कई बार इस स्थानीय पुलिस प्रशासन को इस रस्म के कारण कानून-व्यवस्था भी बनानी होती है। आदिवासियों की 'जातिगत-पंचायत' ही बहुत बार छोटे-मोटे अपराधों का फैसला करती है और दोषियों पर जुर्माने ठोकती है, पुलिस-कचहरी का नंबर तो बाद में तब आता है, जब मामला जाति-पंचायत के हाथ से निकल जाये!

आदतें और खानपान

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अफीम का बड़ा उत्पादक जिला होने के बावजूद प्रतापगढ़ में अफीमची इने-गिने ही होंगे, विवाह और अन्य अवसरों पर देसी शराब का प्रचलन आम है, यों प्रतिदिन सेवन के लिए हर आदिवासी-परिवार अपने लिए महुआ के फूलों से बनी (कानूनन प्रतिबन्धित) शराब ज़रूर बनाता है। शहर में मदिराप्रेमियों के लिए कुछ एक लाइसेन्सशुदा मैखाने (बार-रेस्तरां) हैं। शराब की सरकारी दुकानों के बंद होने का वक्त रात ८ बजे है।

शराब बनाने के लिए महुआ के फूल बीनने वाले नासमझ आदिवासी कई बार पेड़ों के नीचे जो आग लगा देते हैं, वह कई बार दावानल का रूप ले लेती है। महुआ के पेड़ को यहां संरक्षित किया जाता है क्यों कि ये उनकी 'दवा-दारू' का एकमात्र स्रोत जो है!

यहां की एक अन्य मूर्खतापूर्ण जनजातीय परंपरा 'वनदेवी' पूजन है- जिन दम्पतियों के संतान नहीं होती, वे निस्संतान छोटी-मोटी पूजा के बाद अकेले जंगल में जा कर जंगल के एक पेड़ को गुपचुप आग लगा देते हैं और यह मानते हैं कि इस 'अग्निकांड से वनदेवी प्रसन्न हो कर उनकी गोद भर देंगी' पर सीतामाता में इस अन्धविश्वास के चलते बड़े पैमाने पर वृक्ष काल-कवलित होते रहे हैं।

रीति-रिवाज

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शादी के मौके पर कोई आदिवासी स्टील की थाली और गिलास कन्यादान में भेंट में देना नहीं भूलता। हर शादी में बहुत बड़ी संख्या में लड़की वालों के यहां स्टील की थालियाँ और गिलास/लोटे जमा हो जाया करते हैं। जाति-बिरादरी का सहभोज 'मोसर' हर शादी में आयोजित होता है। पहली बीवी के जिंदा रहते हुए भी दूसरी, यहां तक कि तीसरी शादी करने को भी यहाँ सामाजिक दृष्टि से आदिवासी समाज में बुरा नहीं माना जाता, इसलिए बहुपत्नी विवाह पर्याप्त लोकप्रिय हैं। सौभाग्य से बाल विवाह की कुप्रथा यहां उतनी प्रचलित नहीं है, अगर लड़कियों की शादी १८ बरस से कम उम्र में कर भी दी जाती है, तो भी प्रायः 'गौने' की रस्म, लड़की के रजस्वला होने के बाद ही की जाती है। स्त्रियों में प्रतिदिन नहाने-धोने का रिवाज़ आश्चर्यजनक रूप से कम है, बस, खास-खास अवसरों पर ही ग्रामीण अंचल की औरतें नहाया करती हैं।

 
एक ठेठ आदिवासी घर : सौजन्य: घनश्याम शर्मा

आदिवासी-आवास

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हालांकि पीने का पानी नीचे से ऊपर चढ़ाने में आदिवासी स्त्रियों को हर दिन बहुत मेहनत-मशक्कत करनी पड़ती है, परन्तु गांवों में केलू की छतों वाले में कच्चे मकान या झोंपडियां पहाड़ की ऊँचाई पर बनाने का रिवाज़ इस इलाके में बड़ा पुराना है, ताकि नीचे से ऊपर की तरफ़ आते अजनबियों को दूर से ही देखा जा सके। आगंतुक मेहमानों का ढोल बजा कर स्वागत करने और उन्हें नया साफा बांधने की रस्म भी यहां पुरानी है। मकान कच्चे और केलू के खपरैलों वाले हैं, जो घास, बांस, अधपकी ईंटों, काली मिट्टी और लकड़ी से बनाये जाते हैं। कारण अज्ञात है, पर प्रायः यहां के ग्रामीण घरों में खिड़कियाँ नहीं होतीं!

पहनावा और जेवर

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ग्रामीण अंचलों की औरतों का मुख्य पहनावा सूती घाघरा, छपी हुई गहरी लाल-भूरी ओढनी और कब्ज़ा (ब्लाउज) है, गहने प्रायः चांदी के ही होते हैं। शादी में भी यथाशक्ति चांदी ही भेंट में दी जाती है। औरतें पाँव, हाथ, गर्दन, कान और सिर पर विभिन्न तरह के गहने धारण करती हैं, स्त्रियां सिर पर 'बोर' या 'बोरला', पांवों में 'कड़ी', बाहों में 'बाजूबंद', बालों में 'लड़ी-झुमका', उँगलियों में अंगूठियां और नाक में 'नथ' या 'लॉन्ग' धारण करती हैं। आदमी अक्सर साफा, पाग (पगड़ी) धोती और सूती कमीज़ या अंगरखा-कुर्ता पहनते हैं, पर वे शरीर पर कोई खास आभूषण नहीं पहनते। कुछ खास जातियों में मर्दों के कान में 'मुरकी' दिखलाई देती है। बोहरा मुसलमान सिर पर सामान्यतः (क्रोशिये से बुनी कलापूर्ण) टोपी ज़रूर लगाते हैं।

वार-त्यौहार और मेले-ठेले

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प्रतापगढ़ में अम्बामाता, गुप्तेश्वर महादेव, सीतामाता, गोतमेश्वर, शोली हनुमान, भंवर माता, दीपेश्वर और कुछ अन्य मंदिरों और तीर्थों पर निर्धारित तिथियों पर ग्रामीण मेले लगते हैं और काका साहब की दरगाह पर सालाना उर्स।

सारे प्रमुख हिन्दू और मुस्लिम त्यौहार यहां मनाये जाते हैं। दिवाली, गोवर्धन पूजा, होली, रंग-तेरस, राखी, महाशिवरात्रि, हनुमान जयन्ती और दशहरा उनमें सर्वप्रमुख त्यौहार हैं। शरद नवरात्र और वसंत नवरात्रि भी यहां लोकप्रिय हैं। होली पर 'ढून्ढोत्सव' मनाये जाने का रिवाज़ है। पूरे हिंदुस्तान की तरह लोग 'धुलेंडी' पर रंग नहीं खेलते, होली के १३ दिन बाद पड़ने वाली तिथि 'रंग-तेरस' के दिन रंग-गुलाल लगाने की प्रथा है। 'दशामाता उत्सव' के दौरान गांवों में गैर नृत्य किया जाता है, 'भाग-दशमी तीज' पर बाबा रामदेव की सवारी निकलती है और 'शीतला सप्तमी' पर जब घरों में अक्सर चूल्हा नहीं जलाया जाता, मकई से बने एक दिन पुराने (ठन्डे) ढोकले खाए जाते हैं। कोई भी शुभ काम करने पहले 'गंगोज' और रात्रि-जागरण यहां के ग्रामीण अंचलों में हमेशा आयोजित होते हैं, देवरा-पूजन कर के 'देवरे की पाती' भी मांगलिक अवसरों पर अक्सर ली जाती है।

मुस्लिम जनसँख्या बहुतायत में न होने पर भी यहाँ ईद, मुहर्रम,बारावफात,२२ रज्जब, १४ शबेरात, जमात-उल-विदा आदि त्यौहार स्थानीय मुस्लिम मनाते हैं। सिंधी हिन्दू पर्वों और त्योहारों के अलावा के अलावा लोहड़ी और चेटीचंड जैसे त्यौहार भी मनाते हैं। सिक्ख और ईसाई आबादी लगभग नगण्य होने से यहाँ गुरुद्वारे और चर्च नज़र नहीं आते.

भाषा, साहित्यकार, तीर्थ, हस्तकला-परंपरा और नगर

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क्षेत्र की सर्वप्रचलित भाषा हिन्दी है, पर 'कान्ठली बोली' स्थानीय ग्रामीण बोली है, जिसमें मेवाड़ी, मालवी, गुजराती और वागडी बोलियों के शब्द हैं।

यहां भी हर शहर की तरह कई छोटे-मोटे कवि और शायर 'सक्रिय' हैं, पर पूछने पर प्रमुख लेखकों में लोग 'परदेशी' (वास्तविक नाम : मन्नालाल शर्मा (1923-1977) का नाम बड़े सम्मान से लेते हैं, जिन्होंने अपने छोटे से जीवन-काल में १५ उपन्यास, १६ कविता संग्रह, ८ बाल-साहित्य पुस्तकें, ३ नाटक और १४ अनूदित किताबें हिन्दी में प्रकाशित कीं। उनकी स्मृति में नगरपालिका प्रतापगढ़ ने एक छोटा सा सार्वजनिक पार्क निर्मित किया है।

 
प्रतापगढ़ शहर में स्थित 'काका साहब' की दरगाह : छाया : हे. शे.

प्रवासी-आबादी

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प्रतापगढ़ के अनेकानेक संपन्न मुस्लिम बोहरा परिवार मध्य-पूर्व के देशों में रह कर व्यापार में संलग्न हैं, पर साल में एकाध बार प्रवासी बोहरा भाइयों को अपने वतन की याद उन्हें प्रतापगढ़ खींच ही लाती है। उनके बनवाए बहुत से महंगे पर, आधुनिक सुख-सुविधाओं से युक्त साल भर खाली पड़े मकान, अपने मालिकों के लौटने की बाट जोह्ते से दिखते हैं! यहाँ उनका प्रमुख आकर्षण है- मुस्लिम संत सैयदी काका साहब की दरगाह, जिसकी इधर बड़ी मान्यता है! खास तौर पर सैयदी काका साहब के उर्स पर, जो हर बरस आयोजित होता है, दुनिया भर के बोहरा-मुसलमान प्रतापगढ़ आते और श्रद्धापूर्वक काका साहब, उनकी मरहूम बेगम और उनके साहबजादे की पास-पास बनी तीन मजारों पर अकीकत के फूल पेश करते हैं।

शहर के ही नहीं कई मामूली छोटे मोटे गाँवों के फिटर, प्लंबर, कारीगर और खाती तक मध्य पूर्वी देशों में प्रवासी भारतीयों के बतौर मजदूर अपना जीवन-यापन कर रहे हैं।

'आदिवासी-तीर्थ'–गौतमेश्वर

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मन्दाकिनी कुंड, गोतमेश्वर : छाया : हे. शे.

दूसरा और बड़ा 'आदिवासी-तीर्थ' है–गौतमेश्वर, जो अरनोद से कुछ ही दूर एक सुरम्य पहाड़ी घाटी की तलहटी में है, जहाँ चौथी और पांचवी शताब्दी के प्राचीन मंदिर हैं। हर बरस यहाँ 'मीणा' समाज के जनजातीय श्रृद्धालुओं का सालाना-मेला भरता है, जिसमें दूर-दूर तक के हजारों आदिवासी जोर-शोर से हिस्सा लेते हैं। यहाँ का मंदाकिनी-कुंड भारत की सबसे पवित्र और पूजनीय मानी जाने वाली नदी गंगा की सी मान्यता रखता है।

कहा जाता है कि त्रेता युग में महर्षि श्रृंग ने इस स्थल पर रह कर कठोर तपस्या की थी जिनके प्रताप से यहाँ 'गंगा' की भूमिगत धारा प्रकट हुई। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि जैसे ऋषिवर गौतम को गौ-हत्या के पाप से यहां मंदाकिनी-कुंड आ कर 'मुक्ति' मिली थी, उसी तरह इस कुंड में स्नान करने और गौतमेश्वर-महादेव के दर्शन से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। हालत यहां तक है कि इसी धार्मिक-स्थल पर बनी हुई आदिवासियों की पुरानी “कचहरी” औपचारिक तौर पर छपा हुआ और मुहर लगा हुआ 'पापमुक्ति-प्रमाणपत्र' भी जारी करती है! राजस्थान सरकार ने पर्यटन विभाग के माध्यम से लगभग १ करोड़ २० लाख रुपयों के आर्थिक योग से इस तीर्थस्थान के पुनरुद्धार की योजना वर्ष २०११ के लिए स्वीकृत की है!

हिंदुओं के दूसरे लोकप्रिय धार्मिक-स्थानों में 'भ्रामरीदेवी' या 'भंवरमाता' शक्तिपीठ (छोटी सादडी), 'अम्बामाता', 'कमलेश्वर महादेव', 'गुप्तेश्वर' मंदिर आदि हैं जिन पर नियमित रूप से श्रद्धालु आते हैं।

 
भंवरमाता के मंदिर के आसपास का भूगोल और कुंड में स्नानार्थी : छाया : हे. शे.

छोटी सादडी से बस थोडी ही दूर स्थित भंवरमाता मन्दिर का निर्माण आज से लगभग १२५० साल पहले 'मान्वायनी-गोत्र' के एक राजा गौरी ने करवाया था, जैसी कि उसके तत्कालीन राजकवि सोम द्वारा उत्कीर्ण करवाए गए मन्दिर के पुराने शिलालेख से जानकारी मिलती है। 'भंवरमाता' शक्तिपीठ का भूगोल भी रोचक है, ऊंची ऊंची कठोर चट्टानों के बीच खास तौर पर बरसात की ऋतु में लगभग सत्तर-अस्सी फुट की ऊँचाई से गिरने वाले एक प्राकृतिक झरने के कारण।

प्रतापगढ़ शहर में दो-तीन मंदिर अपेक्षाकृत प्राचीन हैं- २०० साल पुराना 'दीपेश्वर महादेव'(निर्माता महाराज दीप सिंह), केशवराय मंदिर और शंखेश्वर पार्श्वनाथ, जिसके बारे में किंवदंती ये है कि यह मंदिर सैंकडों साल पहले जब आकाश मार्ग से उड़ा कर कहीं और ले जाया जाया रहा था, तो मेवाड़-मालवा क्षेत्र के तत्कालीन एक विख्यात तांत्रिक 'यति जी महाराज' ने, जहाँ वह तपस्यारत थे, अपने योगबल से इसे आकाश से बीच ही में धरती पर उतार लिया था। किंवदंतियाँ बहुधा इतिहास से ज्यादा रोचक होती हैं!

'दीपेश्वर महादेव' के किनारे प्रतापगढ़ का एकमात्र बड़ा ताल दीपेश्वर-तालाब है, जहाँ अब शहर के धोबी, निर्बाध मैले कपड़े धोते हैं। वर्तमान जिला प्रशासन और नगरपालिका इस के प्राचीन सौन्दर्य को वापस लौटाने के प्रति गंभीर हैं .

थेवा आभूषण-एक परंपरा

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प्रतापगढ़ के लोकप्रिय थेवा-आभूषण : छाया : हे. शे.

प्रतापगढ़ शहर की एक सुप्रसिद्ध हस्तकला है- कांच पर मीनाकारी के आभूषण बनाने का हस्तशिल्प थेवा, जिसके आविष्कार का श्रेय पुराने ज़माने के एक स्वर्णकार नाथूजी सोनी को दिया जाता है। इस हस्तकला में हरे, लाल, पीले, नीले और हरे कांच की परत पर सोने की परम्परागत नक्काशी और चित्रांकन किया जाता है। आभूषणों के अलावा कई उपयोगी सजावटी वस्तुओं के रूप में भी 'थेवा-कला' अपना विस्तार कर रही है।

अब थेवा बनाने वाले स्थानीय सुनार-परिवार स्वयं को 'राजसोनी' लिखते हैं। उनके बाद की पीढ़ी के कई स्वर्णकारों ने राज्य-स्तरीय, राष्ट्रीय, यहां तक कि कई अंतरराष्ट्रीय स्वर्णाभूषण प्रतिस्पर्धाओं में शिरकत करते हुए अपने लिए महत्वपूर्ण पुरूस्कार और सम्मान जीते हैं . यहां तक कि प्रतापगढ़ की इस विशिष्ट हस्तकला 'थेवा' का उल्लेख एन्सैक्लोपेडिया ब्रिटानिका के "पी" खंड में तक में किया जा चुका है। इस पुरानी कला-परंपरा में डिजाइन सम्बंधी आधुनिक नवाचारों की बड़ी गुंजाइश है, पर अधिकांश राजसोनी अब भी आभूषणों की डिजाइन में नयापन लाने के प्रति अनुत्सुक जान पड़ते हैं! संयोग से पूरे राज्य में थेवा कला का कोई अलग (एक्सक्लूसिव) एम्पोरियम नहीं खुला है, जब कि इस आभूषण कला के निर्यात की पर्याप्त संभावनाएं हैं।

शहर बनता एक कस्बा

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पुराने ढब के शहर देखने हों तो प्रतापगढ़ भूली बिसरी नगर नियोजन परम्परा की कहानी आप कहता क़स्बा ही है, इसे सही मायनों में 'शहर' कहना लगभग उदारता ही कही जाएगी! प्रतापगढ़ चार सौ साल पुरानी बसावट का कस्बानुमा शहर है, इसीलिये ठसाठस बसे शहर के पुराने हिस्से में एक-दूजे से जुड़े मकान हैं, गलियां तंग और अंदरूनी सड़कें काफी संकरी हैं, पर पिछले कुछ एक सालों के दौरान शहर का तेज़ी से विस्तार हो रहा है।

भव्य सरकारी इमारतों में नई बनी कलेक्ट्री का पहला चरण, हाल में निर्मित ४८ सरकारी बंगलों वाली सिविल लाइन, नवनिर्मित सर्किट हाउस, नया पोलीटेक्नीक भवन, १०२ मकानों की पुलिस लाइन और शीघ्र पूरा होने वाले जिला स्टेडियम आदि ध्यानाकर्षक हैं, तो निजी स्तर पर आधुनिक शैली के कई बंगले और महंगे मकान बनवाये गए हैं, खास तौर पर संपन्न बोहरा-मुस्लिम परिवारों द्वारा, जो अक्सर बाहर के देशों में व्यापार आदि में लगे हैं।