शंकरलाल द्विवेदी
शंकरलाल द्विवेदी (21 जुलाई 1941 - 27 जुलाई 1981), हिन्दी एवं ब्रजभाषा साहित्य के मूर्धन्य कवि व साहित्यकार थे। काव्य-मंचों एवं साथी कवियों के मध्य वे शंकर द्विवेदी उपाख्य से प्रचलित व प्रतिष्ठित रहे। आकर्षक व्यक्तित्व के धनी श्री द्विवेदी, एक उत्कृष्ट कविर्मनीषी होने के साथ-साथ उच्च कोटि के शिक्षाविद भी थे। समकालीन कवियों के मध्य उन्हें कवि सम्मेलनों में ख़ासी लोकप्रियता प्राप्त थी। अपनी ओजस्वी काव्य-प्रस्तुतियों के कारण कवि सम्मेलनों के श्रोता-वर्ग में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय थे। श्री द्विवेदी आग और राग दोनों स्वरों के सर्जक रहे हैं। वीर रस में काव्य-दक्ष श्री द्विवेदी को शृंगार रस में भी दक्षता हासिल थी। संयोग तथा वियोग दोनों ही श्रृंगारिक पक्षों पर उनकी लेखनी समानाधिकृत रूप से समृद्ध थी। उनका गीत-माधुर्य बरबस ही श्रोताओं को सम्मोहन-पाश में बाँध लेता था।।
शंकरलाल द्विवेदी | |
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जन्म | 21 जुलाई 1941 गाँव-बारौली अलीगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत |
मौत | 27 जुलाई 1981 कोसी-कलाँ, मथुरा, उत्तर प्रदेश, भारत | (उम्र 40 वर्ष)
दूसरे नाम | 'शंकर' द्विवेदी |
पेशा | कवि, लेखक , शिक्षाविद |
काल | आधुनिक काल |
विधा | पद्य और गद्य |
विषय | कविता, गीत, गीतिका , मुक्तक, समीक्षा |
आंदोलन | राष्ट्रवाद, प्रगतिवाद |
उल्लेखनीय काम | तिरंगे को कभी झुकने न दोगे, हम-तुम एक डाल के पंछी, 'शंकर' कंगाल नहीं, प्यार पनघटों को दे दूँगा, बरसि पिया के देस, अन्ततः, 'तितली' एक आलोचनात्मक अध्ययन |
जीवनसाथी | श्रीमती कृष्णा द्विवेदी, भूतपूर्व प्राचार्या कन्या इंटर कॉलेज, सासनी, हाथरस |
बच्चे | आशीष द्विवेदी, राहुल द्विवेदी |
हस्ताक्षर | [[File:|frameless|upright=0.72|alt=]] |
संक्षिप्त जीवनी
संपादित करेंशंकरलाल द्विवेदी का जन्म २१ जुलाई, १९४१ [1] को ब्रिटिश भारत के अंतर्गत संयुक्त प्रान्त, जिसे अब उत्तर प्रदेश के नाम से जाना जाता है, के आगरा सूबे, में स्थित ज़िला अलीगढ़ की तहसील-कोल के ग्राम-बारौली में हुआ था। गाँव-बारौली श्री द्विवेदी की ननिहाल रही है। उनका मूल पैतृक गाँव उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ ज़िले की ही तहसील-खैर में स्थित गाँव-जान्हेरा है। पिता श्री चम्पाराम शर्मा एवं माता श्रीमती भौती देवी की कुल नौ संतानों (सात भाई व दो बहन) में द्वितीय पुत्र के रूप में देहावतरित हुए श्री द्विवेदी का आरंभिक जीवन आर्थिक-विपन्नता और अत्यंत अभावों से ग्रस्त रहा। पिता श्री चम्पाराम शर्मा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश भारतीय सेना में सेवारत रहे। आय के सीमित संसाधनों के कारण इतने बड़े परिवार का पालन-पोषण उनके लिए अत्यधिक चुनौतीपूर्ण था। उनके अनुज डॉ. महावीर द्विवेदी भी हिंदी व ब्रजभाषा के ख्याति प्राप्त कवि थे।
शिक्षा-वृत्त
संपादित करेंअभावग्रस्त जीवन एवं आर्थिक विषमताओं के बावजूद माँ सरस्वती के साधक व कुशाग्र-मेधा के धनी द्विवेदी जी ने कठोर परिश्रम व कर्मपरायणता से अपनी शिक्षा-दीक्षा का दायित्व सफलतापूर्वक पूर्ण किया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पैतृक गाँव जान्हेरा तथा माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा-दीक्षा निकटवर्ती कस्बे अन्डला में स्थित मदनमोहन मालवीय इंटर कॉलेज में संपन्न हुई। सन १९५८ में इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर श्री द्विवेदी ने श्री वार्ष्णेय महाविद्यालय, अलीगढ़ से सन १९६० में कला-स्नातक की उपाधि अर्जित की। तदोपरांत उन्होंने आगरा कॉलेज, आगरा में प्रवेश ले कर सन १९६२ में हिंदी-स्नातकोत्तर की उपाधि अर्जित की।
कर्मक्षेत्र
संपादित करेंश्री द्विवेदी जीविकोपार्जन हेतु अनेक संस्थाओं से सम्बद्ध रहे। स्नातकोत्तर के पश्चात् उन्होंने सन १९६६ में एक-वर्ष तक आगरा कॉलेज, आगरा तदोपरांत राजा बलवंत सिंह महाविद्यालय, आगरा में हिंदी-अध्यापन कार्य किया। इसके पश्चात् वे सन १९६६ से सन १९७१ तक श्री किरोड़ी लाल जैन इंटर कॉलेज, सासनी, हाथरस में हिंदी प्रवक्ता के रूप में कार्यरत रहे। सन १९७१ में श्री किरोड़ी लाल जैन इंटर कॉलेज, सासनी से त्यागपत्र दे कर वे आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध श्री ब्रज-बिहारी डिग्री कॉलेज, कोसी कलाँ, मथुरा, उत्तर प्रदेश में हिंदी प्राध्यापक तथा अग्रिम इसी संस्थान में हिंदी विभागाध्यक्ष के पद पर आसीन हुए। [2]
परिणय-वृत्त
संपादित करें११ दिसंबर, १९६८ को श्री शंकरलाल द्विवेदी परिणय-सूत्र में बंध गए। उत्तर प्रदेश के बरेली नगर के एक अनुभवी शिक्षक श्री हरिश्चंद्र पाण्डेय की विदुषी पुत्री सौ०कां० कृष्णा पांडेय के साथ उनका विवाह संपन्न हुआ। श्री हरिश्चंद्र पांडेय के अनुज श्री वेंकटेश चन्द्र पांडेय भी सुविख्यात कवि रहे हैं। उनके द्वारा रचित नन्हा पौधा [3] [4] नामक कविता उत्तर प्रदेश के प्राथमिक शिक्षा पाठ्यक्रम में अनेक वर्षों तक पढाई जाती रही है।
स्वर्गीय शंकरलाल द्विवेदी की अर्धांगिनी श्रीमती कृष्णा द्विवेदी भी अध्ययन-अध्यापन के क्षेत्र से सम्बद्ध रहीं। वे एक उत्कृष्ट समाज-सेवी तथा समर्पित शिक्षासेवी थीं। अनवरत ३८ वर्षों तक प्राचार्या कन्या इंटर कॉलेज, सासनी, हाथरस के पद पर आसीन रहीं श्रीमती द्विवेदी को उनके वृहद् सेवाकाल में शिक्षा के प्रति समर्पण व सत्यनिष्ठित कर्तव्यनिष्ठा के लिए उत्तर प्रदेश शासन-प्रशासन द्वारा अनेक बार पुरस्कृत किया गया। २७ सितम्बर, २०१७ को आपका भी वैकुण्ठ-वास हुआ।
कृतित्व एवं सृजन की पृष्ठभूमि
संपादित करेंकविवर श्री शंकर द्विवेदी की सर्जनात्मक धरोहर अत्यंत समृद्धशाली है। चालीस वर्षों के अपने संक्षिप्त जीवनकाल में यद्यपि उनका सर्जन-चक्र इतस्ततः बीस से पच्चीस वर्ष के अंतराल का ही रहा होगा। किन्तु अल्प काल में ही उन्होंने अनेक कालजयी काव्यों का सृजन किया है। यह समय का फेर ही कहा जाएगा कि उनका अमूल्य कृतित्व अब तक प्रकाशित न हो सका। उनके आकस्मिक निधन से उपजी परिस्थितिवश उनका कृतित्व भी समय के अनिश्चित गह्वर में छिपा रहा। मरणोपरांत संकल्प प्रकाशन, आगरा द्वारा 'अन्ततः' नामक एक गीत-संग्रह, प्रकाशित हुआ भी, जिसका विमोचन पद्म भूषण गोपालदास नीरज के कर-कमलों से हुआ परन्तु इसे भी दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि इस कृति के प्रचार-प्रसार के प्रति उचित न्याय नहीं हुआ और यह प्रकाशित हो कर भी अप्रकाशित ही रही।
श्रेष्ठ साहित्य का सर्जन दैवीय अनुकम्पा के निमित्त है। कालचक्र के फेर से अनिश्चितता के अम्बुद, ज्योतिधर का आच्छादन भले ही कर लें, किन्तु इसका अस्तित्व क्षणिक ही होता है। वे न तो उसकी ज्योतिर्मयी रश्मियों को समेट सकते हैं और न ही उसके ताप-परिताप को बाँध पाते हैं। द्विवेदी जी का सृजन-पुंज भी ऐसे ही किसी अवसर की बाट जोह रहा है। शुभस्य शीघ्रम, शनैः-शनैः भानु का प्रभास इस अनिश्चित तमिस्र को रौंदता हुआ उदित हो रहा है:
- यों समय के फेर से तो भानु भी-
- बादलों ने बाँह में बाँधा सही।
- किन्तु यह क्यों भूलते हो, ज्योतिधर-
- ताप देने में कभी हारा नहीं।। -- (कालजयी कविता शीष कटते हैं, कभी झुकते नहीं से उद्धृत) [5]
- वक्ष पर समकोणवत, आ तो गईं हैं बाँह-
- एक पग उठकर जमे, है शेष इतनी देर।
- चल पड़ा, तो यात्रा करके रहेगा पूर्ण-
- सारथी पश्चिम दिशा तक, रौंदता अँधेर।। -- (कालजयी कविता विश्व-गुरु के अकिंचन शिष्यत्व पर से उद्धृत) [6]
श्री द्विवेदी राष्ट्रीय व सांस्कृतिक चेतना के अमर गायक थे। उनके काव्य व वाणी दोनों ही से ओजस्विता के स्वर का उद्घोष होता था। उनकी ओजस्वी वाणी से अभिभूत हो कर राष्ट्र कवि सोहनलाल द्विवेदी ने उन्हें आधुनिक दिनकर कह कर संबोधित किया था। भारत के भूतपूर्व यशस्वी प्रधानमंत्री एवं उत्कृष्ट काव्य-स्रष्टा अटल बिहारी वाजपेयी भी स्व. द्विवेदी की काव्य-प्रतिभा के अनन्यतम प्रशंसकों में से एक थे। [7] अपने अध्ययन काल से ही श्री द्विवेदी ने खड़ी बोली तथा ब्रजभाषा में काव्य-छंद-गीत- गीतिकाएँ इत्यादि का सर्जन आरम्भ कर दिया था। साहित्य-सृजन में देश-काल-परिस्थिति के फलस्वरूप उत्पन्न गतिविधियाँ सदैव ही सर्जकों व कवियों के ध्यानाकर्षण का केंद्र होती हैं। श्री द्विवेदी का सर्जनात्मक उत्कर्ष एक ऐसे काल का साक्षी रहा है जब भारत को अनेक युद्धों का सामना करना पड़ा। सन १९६२ में भारत-चीन युद्ध, सन १९६५ में भारत पाकिस्तान युद्ध, सन १९६७ में नाथूला दर्रे में पुनः भारत-चीन युद्ध तथा १९७१ में एक बार फिर से भारत पाकिस्तान युद्ध की विभीषिकाएँ इस देश को आंदोलित-मथित करती रहीं। एक सत्यवीर राष्ट्रपुरुष व कवि के रूप में द्विवेदी जी की राष्ट्रवादी चेतना का भी मंथन हुआ और उनके द्वारा इस काल में अनेक कालजयी रचनाओं की स्रष्टि हुई:
- हिंस्र-पशुओं को हृदय का स्नेह दो,
- यह तपोवन-वासियों का धर्म है।
- हिंस्र-पशु, बाधा न डालें शांति में-
- इसलिए, प्रतिबन्ध ही सत्कर्म है।।
- आग, दहकी आग ही उपयुक्त है,
- हिंस्र-पशुओं को डराने के लिए।
- युद्ध, केवल युद्ध क्षमतावान है-
- शांति का दीपक जलाने के लिए।। -- (कालजयी कविता 'शांति का दीपक जलाने के लिए' से उद्धृत) [8]
- हम मानवीय तत्वों के सच्चे साधक हैं,
- है प्रबल बहुत सन्मान हमारा, सच मानो।
- अपने नापाक इरादों पर संयम रख लो,
- तुम काश्मीर के लिए न शम्सीरें तानो।। -- (कालजयी कविता 'तुम काश्मीर के लिए न शमसीरें तानो' से उद्धृत) [9]
काव्य-सृजन में भाव और चिंतन का वैविध्य शंकर द्विवेदी की विशिष्टता का परिचायक है। जहाँ उनके काव्य में राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति है, वहीँ समकालीन राजनीति के प्रति भी वे संवेदनशील हैं। स्वार्थपूरित राजनीति की विद्रूपता और उसके फलस्वरूप उत्पन्न सामाजिक विषमता के प्रति उनका विप्लवकारी स्वर विद्रोह कर उठता है। विकृत राजनीति के प्रति कवि-धर्म का स्वनिर्वहन तथा राजनीति को सम्यक दर्पण दिखलाने का भागीरथी-प्रयास उनके काव्यावलोकन से स्वयं अनुभूत किया जा सकता है। सामाजिक वैषम्य के प्रति उनका आक्रोश और उससे उपजी कविताएँ उनके प्रगतिवादी चिंतन का प्रतीक हैं:
- सिर्फ़ योजना बनीं, महज़ महलों में खुशियाँ लाईं,
- कहीं फूस की कुटी, अभी तक महल नहीं बन पाईं।।
- तब कोई जय 'शंकर', फिर से कामायनी लिखेगा।
- किन्तु पात्र का चयन, मात्र इतना सा भिन्न करेगा।।
- मनु होगा मज़दूर, ग़रीबी श्रद्धा बन जाएगी।
- शासक पर शासित की घोर अश्रद्धा हो जाएगी।। -- (कालजयी कविता तब कोई जय 'शंकर'... से उद्धृत)
- तेरी कला और वैभव ने तब से अब तक,
- केवल पूँजीवादी स्वर आबाद किया है।
- ताजमहल! सच मान, झूठ कुछ नहीं कि तूने-
- पाक मुहब्बत का दामन नापाक किया है।।
- तेरे निर्माता ने अपने अधिकारों का-
- दुरुपयोग जो किया विवशता का श्रमिकों की।
- वह अपराध किया है अनुचित लाभ उठा कर,
- क्रमागता पीढ़ियाँ क्षमा कर नहीं सकेंगी।।
- कर कटवाते समय उसे यह ध्यान नहीं था-
- कालान्तर में कला परिष्कृत प्रौढ़ बनेगी।
- क्योंकि विकास धर्म है मानव के जीवन का,
- फलतः सारी स्रष्टि उसे निर्बुद्धि कहेगी।।
- जिस दिन मेरी आँखों से देखेगा कोई-
- उस दिन तेरा सहज सत्य प्रतिभासित होगा।
- जिस दिन भूमिसात् होंगी तेरी प्राचीरें,
- उस दिन तेरा सही स्वरूप प्रकाशित होगा।।
- मैं क्या था, राजसी दम्भ या पागलपन का-
- शोषण और रक्त से पनपा अनाचार था।
- तृण से भी था नगण्य, जिस कारण पुजा हुआ था,
- कलाकार की सहन शक्ति- 'श्रम' का प्रचार था।। (कालजयी कविता 'ताजमहल' से उद्धृत) [10]
नारी-विमर्श के अंतर्गत उनका चिन्तन एक ओर तो उसकी वेदना, त्याग, समर्पण के चित्र खींचता है:
- गीली पलकें ‘क्षमयस्व’ भाव-
- लेकिन श्वासों में भरे कपट।
- कुछ और कहे इससे पहले-
- छू लिये पतित ने चरण झपट।।
- नारीत्व पगा है करुणा में,
- हिलकी भर कर रोया केवल।
- ‘राजू’ पर उमगा स्नेह देख,
- गोवध-घर समझ लिया देवल।। -- (कालजयी कविता 'गाँधी'-आश्रम से उद्धृत) [11]
वहीँ दूसरी ओर वे उसे 'स्व-अस्तित्व' की रक्षार्थ, संघर्ष के लिए उठ खड़ी होने वाली प्रतिमूर्ति के रूप में भी चित्रित करता है:
- मेरे सिरजनहार तुम्हीं हो, अनावरित तन के अधिकारी।
- तुमने ही लाखों कुटियों के दीप बुझाए हैं हँस-हँस कर।।
- अपने घर कुबेर, पर मेरे द्वारे पर जनम के भिखारी।
- तुमको है धिक्कार! आज अभिशाप दे रही हूँ रो-धो कर।।
- तुम युग के इतिहास बदल जाने पर भी संतप्त रहोगे।
- अंतर्द्वंद्व प्रपीड़ित तन पर संघर्षों के घाव रहेंगे।।
- प्रकृति महाकाली के कर की; नारी ही करवाल बनेगी।
- कुछ विध्वंस-प्रयोजक तुम में से ही उस पर धार धरेंगे।। -- (कालजयी कविता 'निर्मला' की पाती से उद्धृत)
श्रृंगारिक सृजन में वे संयोग-वियोग द्वय के सशक्त हस्ताक्षर के रूप में विद्यमान हैं। अनुराग-राग-विराग की त्रयी उनके गीतों में स्पष्ट परिलक्षित होती है। उनके कृतित्व में जीवन का स्पंदन तथा द्वंद्व सम-भाव से उपस्थित है। यह अक्षर-सम्पदा सचमुच अक्षर-सम्पदा ही है। श्री द्विवेदी में गहन-सौन्दर्य-बोध विद्यमान था, उनके कृतित्व से भी इसका बोध होता है:
- इस ताल के किनारे-
- कचनार यों पुकारे।
- आ पत्थरों की शैय्या-
- उपधान के सहारे।
- तू लेट जा, मैं तुझको-
- कुछ इस तरह दुलारूँ-
- मन चन्द्रमा को चूमे,
- आकाश को निहारे।। -- (हम-तुम एक डाल के पंछी गीत-संग्रह से उद्धृत) [12]
नारी-सौन्दर्य के प्रति उनके चिन्तन में दिव्य-चेतना दिखाई देती है। वे अनुरागी हैं, तो वैरागी भी हैं:
- मुझको तो ऐसा लगता है, तुममें-मुझमें भेद न कोई।
- जैसे-मैं हूँ भाव, और तुम हो मेरी अभिव्यक्ति सुहानी।।
- भोग है भाग्य का और कुछ भी नहीं, हम मिले भी तो यों छूटने के लिए।
- ये जुड़ेंगे किसी ज़िन्दगी से कहाँ? प्राण हैं आज से टूटने के लिए।।
- सुख का शुभागमन ही नहीं, दुःख का समापन भी नहीं।
- फिर क्यों मिला इतना प्रबल व्यामोह जीवन के लिए।।
- आलोक की कोई किरण,
- देती नहीं मुझको शरण।
- तम जो विरासत में मिला,
- धरता रहा अभिनव चरण।
- निर्वेद-दीपक-ज्योति पर,
- संकल्प-शलभ मिटा दिए।
- निष्फल प्रतीक्षा ने, मरण-
- के साज़ सकल जुटा दिए।
- ऋत् का निदर्शन ही नहीं, मत का समर्थन भी नहीं।
- फिर क्यों मिली इतनी ललक, दो गीत सर्जन के लिए।। -- (हम-तुम एक डाल के पंछी गीत-संग्रह से उद्धृत)
ब्रजभाषा सृजित उनके काव्य में ग्रामीण परिवेश की मानसिक संरचना एकदम संतों की वाणी के समान सुनाई पड़ती है:
- नित साँझ घिरे, लौटें गैंया,
- बछरा रँभाय, पय-पान करैं।
- कुलबधू जोरि कर दीप धरैं,
- तुलसी मैया खलिहान भरैं।। [12]
- या दुनियाँ की राम-कहानी,
- उतनी, जितनी हमनैं जानी-
- करुना भरी रे, मेरे यार!
- काल के कर कौ खिलौना संसार।। -- (बरसि पिया के देस ब्रजभाषा-काव्य-संग्रह से उद्धृत)
ब्रज-रज में देहावतरित श्री द्विवेदी के ब्रजभाषा-काव्य में जहाँ एक ओर वहाँ की सांस्कृतिक छटा का आभास होता है वहीँ दूसरी ओर आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति उनकी अटूट आस्था के दर्शन किये जा सकते हैं। ब्रज की प्रचलित लोकधुनों पर आधारित उनके गीतों का सृजन व उनका कंठ-माधुर्य कवि सम्मेलनों में बरबस ही ध्यानाकर्षण का केंद्र बन जाता था:
- सोहत करील-कुञ्ज, गुंजत मधुप-पुंज,
- मंद-मंद, चंद मुस्कानि छिटकाबतौ।
- भाबतौ न भाबतौ, पै गाबतौ सुगान कान्ह,
- आपने करन लट आनि सुरझाबतौ।
- टेरतौ भलैं न पैन, फेरतौ सलौने नैंन,
- सैन न चलाबतौ, पै नेह सरसाबतौ।
- ‘संकर’ मनाबतौ, न बैठतौ कदम तर,
- मान छाँड़ि देती, नैंकु बाँसुरी बजाबतौ।। -- (बरसि पिया के देस ब्रजभाषा-काव्य-संग्रह से उद्धृत)
उनका शिल्प (साहित्य) एवं भाव-सौन्दर्य उत्कृष्ट कोटि का है। छंदानुशासन, काव्यालंकरण, लयात्मकता, गेयता, नाद-सौन्दर्य, आत्माभिव्यक्ति आदि अनेक काव्यशास्त्रीय गुण उनके सृजन के प्रांगण में स्पष्ट गोचर होते हैं। शब्द-साधना तो अप्रतिम है। उनके काव्य का अध्ययन स्वयं इसका साक्ष्य प्रस्तुत करता है। कवि द्विवेदी को यदि शब्द-शिल्पी कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।
प्रमुख कृतियाँ
संपादित करेंकवि श्रेष्ठ श्री द्विवेदी की काव्य सम्पदा को उनके आत्मजों द्वारा पाँच विभिन्न पुस्तकों में समाहित किया गया है। यह सत्य है कि उनकी कृतियों का प्रकाशन अभी शेष है। अन्ततः गीत-संग्रह की प्रकाशकीय स्थिति पर पूर्वोक्त चर्चा की जा चुकी है। तिरंगे को कभी झुकने न दोगे {देशभक्ति के पावन गीत} [13] ( राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना के स्वर) का प्रकाशन वर्ष 2023 में प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली द्वारा किया गया। अन्य अप्रकाशित कृतियों का संकलन काव्य स्वर विविधता के आधार पर किया गया है। प्यार पनघटों को दे दूँगा (राजनैतिक विप्लव- एवं सामाजिक चेतना के स्वर), हम-तुम एक डाल के पंछी (खड़ी बोली गीत-संग्रह), 'शंकर' कंगाल नहीं ( गीतिकाएँ-मुक्तक-काव्य-संग्रह) तथा बरसि पिया के देस (ब्रजभाषा-काव्य-संग्रह) के क्रम में किया जा चुका है।
समीक्षा साहित्य के अंतर्गत तितली एक आलोचनात्मक अध्ययन नामक समीक्षा ग्रन्थ पूर्व में बरेली से प्रकाशित हो चुका था। इस की रचना महात्मा ज्योतिबा फुले रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली के तल्कालीन हिंदी साहित्य परास्नातक पाठ्यक्रम को दृष्टिगत रखते हुए की गयी थी। गद्य साहित्य के अंतर्गत श्री द्विवेदी द्वारा रचित अन्य कृतित्व की खोज अग्रिम जारी है।
शंकर द्विवेदी कृत विस्तृत साहित्य सूची निम्नलिखित है-
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