पाल वंश

भारतीय राजवंश
(पाल साम्राज्य से अनुप्रेषित)
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पाल साम्राज्य मध्यकालीन उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली और महत्वपूर्ण साम्राज्य माना जाता है, जो कि 750-1174 इसवी तक चला। यह पूर्व-मध्यकालीन राजवंश था। इस वंश के शासकों ने भारत के पूर्वी भाग में एक विशाल साम्राज्य बनाया। जब हर्षवर्धन काल के बाद समस्त उत्तरी भारत में राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक गहरा संकट उत्पनन्न हो गया, तब बिहार, बंगाल और उड़ीसा के सम्पूर्ण क्षेत्र में पूरी तरह अराजकत फैली थी। पाल साम्राज्य की नींव 750 ई. में राजा गोपाल पाल ने डाली। बताया जाता है कि उस क्षेत्र में फैली अशान्ति को दबाने के लिए कुछ प्रमुख लोगों ने उसको राजा के रूप में चुना। इस प्रकार राजा का निर्वाचन एक अभूतपूर्व घटना थी। इसका अर्थ शायद यह है कि गोपाल उस क्षेत्र के सभी महत्त्वपूर्ण लोगों का समर्थन प्राप्त करने में सफल हो सका और इससे उसे अपनी स्थिति मज़बूत करन में काफ़ी सहायता मिली।

पाल साम्राज्य
साम्राज्य

750 ई०[2]–1161 ई०[1]
 

 

 

पाल साम्राज्य
पाल वंश का मानचित्र में स्थान
नौवीं शताब्दी में पाल राजवंश का राज्यक्षेत्र[3][4]
राजधानी
भाषाएँ संस्कृत,[7] Proto-Bengali[8]
धार्मिक समूह तान्त्रिक बौद्ध धर्म, महायान,[9] Hinduism,[10] Shaivism[11]
शासन राजतन्त्र
सम्राट
 -  ल. 750[12] गोपाल (प्रथम राजा)
 -  1139–1161 गोविन्दपाल (अन्तिम राजा)
ऐतिहासिक युग पूर्व-मध्यकालीन
 -  स्थापित 750 ई०[2]
 -  अंत 1161 ई०[1]
आज इन देशों का हिस्सा है:
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पाल राज्य के बुद्ध और बोधिसत्त्व
धर्मपाल का राज्य

इस राज्य में वास्तु कला को बहुत बढावा मिला। पाल राजाओ के काल मे बौद्ध धर्म को बहुत बढावा मिला। पाल राजा हिन्दू थे परन्तु वे बौध्द धर्म को भी मानने वाले थे । पाल राजाओ के समय में बौद्ध धर्म को बहुत संरक्षण मिला। पाल राजाओं ने बौद्ध धर्म के उत्थान के लिए बहुत से कार्य किये जो कि इतिहास में अंकित है। पाल राजाओं ने हिन्दू धर्म को आगे बढ़ने के लिए शिव मंदिरों का निर्माण कराया और शिक्षा के लिए विश्वविद्यालयों का निर्माण करवाया |

इतिहास

पाल वंश का सबसे प्रसिद्ध सम्राट गोपाल का पुत्र धर्मपाल था। इसने 770 से लेकर 810 ई. तक राज्य किया। कन्नौज के प्रभुत्व के लिए संघर्ष इसी के शासनकाल में आरम्भ हुआ। इस समय के शासकों की यह मान्यता थी कि जो कन्नौज का शासक होगा, उसे सम्पूर्ण उत्तरी भारत के सम्राट के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा। कन्नौज पर नियंत्रण का अर्थ यह भी थी कि उस शासक का, ऊपरी गंगा घाटी और उसके विशाल प्राकृतिक साधनों पर भी नियंत्रण हो जाएगा। पहले प्रतिहार शासक वत्सराज ने धर्मपाल को पराजित कर कन्नौज पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पर इसी समय राष्ट्रकूट सम्राट 'ध्रुव', जो गुजरात और मालवा पर प्रभुत्व के लिए प्रतिहारों से संघर्ष कर रहा था, उसने उत्तरी भारत पर धावा बोल दिया। काफ़ी तैयारियों के बाद उसने नर्मदा पार कर आधुनिक झाँसी के निकट वत्सराज को युद्ध में पराजित किया। इसके बाद उसने आगे बढ़कर गंगा घाटी में धर्मपाल को हराया। इन विजयों के बाद यह राष्ट्रकूट सम्राट 790 में दक्षिण लौट आया। ऐसा लगता है कि कन्नौज पर अधिकार प्राप्त करने की इसकी कोई विशेष इच्छा नहीं थी और ये केवल गुजरात और मालवा को अपने अधीन करने के लिए प्रतिहारों की शक्ति को समाप्त कर देना चाहता था। वह अपने दोनों लक्ष्यों में सफल रहा। उधर प्रतिहारों के कमज़ोर पड़ने से धर्मपाल को भी लाभ पहुँचा। वह अपनी हार से शीघ्र उठ खड़ा हुआ और उसने अपने एक व्यक्ति को कन्नौज के सिंहासन पर बैठा दिया। यहाँ उसने एक विशाल दरबार का आयोजन किया। जिसमें आस-पड़ोस के क्षेत्रों के कई छोटै राजाओं ने भाग लिया। इनमें गांधार (पश्चिमी पंजाब तथा काबुल घाटी), मद्र (मध्य पंजाब), पूर्वी राजस्थान तथा मालवा के राजा शामिल थे। इस प्रकार धर्मपाल को सच्चे अर्थों में उत्तरपथस्वामिन कहा जा सकता है। प्रतिहार साम्राज्य को इससे बड़ा धक्का लगा और राष्ट्रकूटों द्वारा पराजित होने के बाद वत्सराज का नाम भी नहीं सुना जाता।

इन तीनों साम्राज्यों के बीच क़रीब 200 साल तक आपसी संघर्ष चला। एक बार फिर कन्नौज के प्रभुत्व के लिए धर्मपाल को प्रतिहार सम्राट नागभट्ट द्वितीय से युद्ध करना पड़ा। ग्वालियर के निकट एक अभिलेख मिला है, जो नागभट्ट की मृत्यु के 50 वर्षों बाद लिखा गया और जिसमें उसकी विजय की चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि नागभट्ट द्वितीय ने मालवा तथा मध्य भारत के कुछ हिस्सों पर विजय प्राप्त की तथा 'तुरुष्क तथा सैन्धव' को पराजित किया जो शायद सिंध में अरब शासक और उनके तुर्की सिपाही थे। उसने बंग सम्राट को, जो शायद धर्मपाल था, को भी पराजित किया और उसे मुंगेर तक खदेड़ दिया। लेकिन एक बार फिर राष्ट्रकूट बीच में आ गए। राष्ट्रकूट सम्राट गोविन्द तृतीय ने उत्तरी भारत में अपने पैर रखे और नागभट्ट द्वितीय को पीछे हटना पड़ा। बुंदेलखण्ड के निकट एक युद्ध में गोविन्द तृतीय ने उसे पराजित कर दिया। लेकिन एक बार पुनः राष्ट्रकूट सम्राट मालवा और गुजरात पर अधिकार प्राप्त करने के बाद वापस दक्षिण लौट आया। ये घटनाएँ लगभग 806 से 870 ई. के बीच हुई। जब पाल शासक कन्नौज तथा ऊपरी गंगा घाटी पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने में असफल हुए, तो उन्होंने अन्य क्षेत्रों की तरफ अपना ध्यान दिया। धर्मपाल के पुत्र देवपाल ने, जो 810 ई. में सिंहासन पर बैठा और 40 वर्षों तक राज्य किया, प्रागज्योतिषपुर (असम) तथा उड़ीसा के कुछ क्षेत्रों में अपना प्रभाव क़ायम कर लिया। नेपाल का कुछ हिस्सा भी शायद पाल सम्राटों के अधीन था। देवपाल की मृत्यु के बाद पाल साम्राज्य का विघटन हो गया। पर दसवीं शताब्दी के अंत में यह फिर से उठ खड़ा हुआ और तेरहवीं शताब्दी तक इसका प्रभाव क़ायम रहा।

अरब व्यापारी सुलेमान के अनुसार

अरब व्यापारी सुलेमान के अनुसार पाल वंश के आरम्भ के शासकों ने आठवीं शताब्दी के मध्य से लेकर दसवीं शताब्दी के मध्य, अर्थात क़रीब 200 वर्षों तक उत्तरी भारत के पूर्वी क्षेत्रों पर अपना प्रभुत्व क़ायम रखा। दसवीं शताब्दी के मध्य में भारत आने वाले एक अरब व्यापारी सुलेमान ने पाल साम्राज्य की शक्ति और समृद्धि की चर्चा की है।[उद्धरण चाहिए] उसने पाल राज्य को 'रूहमा' कहकर पुकारा है (यह शायद धर्मपाल के छोटे रूप 'धर्म' पर आधारित है) और कहा है कि पाल शासक और उसके पड़ोसी राज्यों, प्रतिहारों और राष्ट्रकूटों में लड़ाई चलती रहती थी, लेकिन पाल शासन की सेना उसके दोनों शत्रुओं की सेनाओं से बड़ी थी। सुलेमान ने बताया है कि पाल शासक 50 हज़ार हाथियों के साथ युद्ध में जाता था और 10 से 15 हज़ार व्यक्ति केवल उसके सैनिकों के कपड़ों को धोने के लिए नियुक्त थे। इससे उसकी सेना का अनुमान लगाया जा सकता है।

तिब्बती ग्रंथों से

पाल वंश के बारे में हमें तिब्बती ग्रंथों से भी पता चलता है, यद्यपि यह सतरहवीं शताब्दी में लिखे गए। इनके अनुसार पाल शासक बौद्ध धर्म तथा ज्ञान को संरक्षण और बढ़ावा देते थे। नालन्दा विश्वविद्यालय को, जो सारे पूर्वी क्षेत्र में विख्यात है, धर्मपाल ने पुनः जीवित किया और उसके खर्चे के लिए 200 गाँवों का दान दिया। उसने विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय की भी स्थापना की। जिसकी ख्याति केवल नालन्दा के बाद है। यह मगध में गंगा के निकट एक पहाड़ी चोटी पर स्थित था। पाल शासकों ने कई बार विहारों का भी निर्माण किया जिसमें बड़ी संख्या में बौद्ध रहते थे।

पाल शासक और तिब्बत

पाल शासकों के तिब्बत के साथ भी बड़े निकट के सांस्कृतिक सम्बन्ध थे। उन्होंने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान सन्तरक्षित तथा दीपकर (जो अतिसा के नाम से भी जाने जाते हैं) को तिब्बत आने का निमंत्रण दिया और वहाँ उन्होंने बौद्ध धर्म के एक नए रूप को प्रचलित किया। नालन्दा तथा विक्रमशील विश्वविद्यालयों में बड़ी संख्या में तिब्बती विद्वान बौद्ध अध्ययन के लिए आते थे।

पाल शासकों के दक्षिण पूर्व एशिया के साथ आर्थिक तथा व्यापारिक सम्बन्ध थे। दक्षिण पूर्व एशिया के साथ उनका व्यापार उनके लिए बड़ा लाभदायक था और इससे पाल साम्राज्य की समृद्धि बढ़ी। मलाया, जावा, सुमात्रा तथा पड़ोसी द्वीपों पर राज्य करने वाले शैलेन्द्र वंश के बौद्ध शासकों ने पाल-दरबार में अपने राजदूतों को भेजा और नालन्दा में एक मठ की स्थापना की अनुमति माँगी। उन्होंने पाल शासक देवपाल से इस मठ के खर्च के लिए पाँच ग्रामों का अनुदान माँगा। देवपाल ने उसका यह अनुरोध स्वीकार कर लिया। इससे हमें इन दोनों के निकट सम्बन्धों के बारे में पता चलता है।

पालवंश के शासक

विभिन्न पुरालेखों और अभिलेखों की व्याख्या से इतिहासकारों ने पाल राजाओं के कालक्रम का इस तरह से अंदाज़ किया है:[13]

नाम आवधि
गोपाल (पाल) 750-770
धर्मपाल 770-810
देवपाल 810-850
शूर पाल महेन्द्रपाल 850-854
विग्रह पाल 854-855
नारायण पाल 855-908
राज्यो पाल 908-940
गोपाल 2 940-960
विग्रह पाल 2 960-988
महिपाल 988-1038
नय पाल 1038-1055
विग्रह पाल 3 1055-1070
महिपाल 2 1070-1075
शूर पाल 2 1075-1077
रामपाल 1077-1130
कुमारपाल 1130-1140
गोपाल 3 1140-1144
मदनपाल 1144-1162
गोविन्द पाल 1162-1174

पाल राजवंश के पश्चात सेन राजवंश ने बंगाल पर १६० वर्ष राज किया।

धर्मपाल

गोपाल के बाद उसका पुत्र धर्मपाल ७७० ई. में सिंहासन पर बैठा। धर्मपाल ने ४० वर्षों तक शासन किया। धर्मपाल ने कन्‍नौज के लिए त्रिदलीय संघर्ष में उलझा रहा। उसने कन्‍नौज की गद्दी से इंद्रायूध को हराकर चक्रायुध को आसीन किया। चक्रायुध को गद्दी पर बैठाने के बाद उसने एक भव्य दरबार का आयोजन किया तथा उत्तरापथ स्वामिन की उपाधि धारण की। धर्मपाल बौद्ध धर्मावलम्बी था। उसने काफी मठ व बौद्ध विहार बनवाये। धर्मपाल एक उत्साही बौद्ध समर्थक था उसके लेखों में उसे परम सौगात कहा गया है। उसने विक्रमशिला व सोमपुरी प्रसिद्ध बिहारों की स्थापना की। उसने भागलपुर जिले में स्थित विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय का निर्माण करवाया था। उसके देखभाल के लिए सौ गाँव दान में दिये थे। उल्लेखनीय है कि प्रतिहार राजा नागभट्ट द्वितीय एवं राष्ट्रकूट राजा ध्रुव ने धर्मपाल को पराजित किया था।

देवपाल

धर्मपाल के बाद उसका पुत्र देवपाल गद्दी पर बैठा। इसने अपने पिता के अनुसार विस्तारवादी नीति का अनुसरण किया। इसी के शासनकाल में अरब यात्री सुलेमान आया था। उसने मुंगेर को अपनी राजधानी बनाई। उसने पूर्वोत्तर में प्राज्योतिषपुर, उत्तर में नेपाल, पूर्वी तट पर उड़ीसा तक विस्तार किया। कन्‍नौज के संघर्ष में देवपाल ने भाग लिया था। उसके शासनकाल में दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे। उसने जावा के शासक शैलेंद्र के आग्रह पर नालन्दा में एक विहार की देखरेख के लिए ५ गाँव अनुदान में दिए।

देवपाल ने ८५० ई. तक शासन किया था। देवपाल के बाद पाल वंश की अवनति प्रारम्भ हो गयी। मिहिरभोज और महेन्द्रपाल के शासनकाल में प्रतिहारों ने पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के अधिकांश भागों पर अधिकार कर लिया।

महीपाल

  • ११वीं सदी में महीपाल प्रथम ने ९८८ ई.-१०३८ ई. तक शासन किया। महीपाल को पाल वंश का द्वितीय संस्थापक कहा जाता है। उसने समस्त बंगाल और मगध पर शासन किया।
  • महीपाल के बाद पाल वंशीय शासक निर्बल थे जिससे आन्तरिक द्वेष और सामन्तों ने विद्रोह उत्पन्‍न कर दिया था। बंगाल में केवर्त, उत्तरी बिहार मॆम सेन आदि शक्‍तिशाली हो गये थे।
  • सेन शसकों वल्लासेन और विजयसेन ने भी अपनी सत्ता का विस्तार किया।
  • इस अराजकता के परिवेश में तुर्कों का आक्रमण प्रारम्भ हो गया।

चित्रावली

 
नालन्दा का महाविहार इतिहास के प्रथम महाविहारों में गिना जाता है। पालवंश के शासनकाल में यह महाविहार अपने यश के शिखर पर था।
नालन्दा का महाविहार इतिहास के प्रथम महाविहारों में गिना जाता है। पालवंश के शासनकाल में यह महाविहार अपने यश के शिखर पर था। 
 
सोमपुर महाविहार (पहाड़पुर बौद्ध बिहार)
सोमपुर महाविहार (पहाड़पुर बौद्ध बिहार) 
 
विक्रमशिला के ध्वंसावशेष
विक्रमशिला के ध्वंसावशेष 
 
पालवंश के सिक्के
पालवंश के सिक्के 

सन्दर्भ

  1. Sengupta 2011, पृ॰प॰ 39–49.
  2. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; मजुमदर1977 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  3. Schwartzberg, Joseph E. (1978). A Historical atlas of South Asia. Chicago: University of Chicago Press. पृ॰ 146, map XIV.2 (g). आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 0226742210.
  4. Daniélou, Alain (11 February 2003). A Brief History of India (अंग्रेज़ी में). Simon and Schuster. पृ॰ 144. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-59477-794-3. Dharmapala's empire, which stretched from the Gulf of Bengal to Delhi and from Jalandhara to the Vindhya Mountains.
  5. Michael C. Howard (2012). Transnationalism in Ancient and Medieval Societies: The Role of Cross-Border Trade and Travel. McFarland. पृ॰ 72. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-0-7864-9033-2.
  6. Huntington 1984, पृ॰ 56.
  7. Sengupta 2011, पृ॰ 102:Sanskrit continued to be the language under Sasanka, the Pala dynasty and the Sen dynasty.
  8. Bajpai, Lopamudra Maitra (2020). India, Sri Lanka and the SAARC Region: History, Popular Culture and Heritage. Abingdon: Taylor & Francis. पृ॰ 141. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-00-020581-7.
  9. Sen, Sailendra Nath (1999). Ancient Indian History and Civilization (अंग्रेज़ी में). New Age International. पृ॰ 285. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-224-1198-0.
  10. Flåten, Lars Tore (4 October 2016). Hindu Nationalism, History and Identity in India: Narrating a Hindu past under the BJP (अंग्रेज़ी में). Routledge. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-1-317-20871-6.
  11. Alexis Sanderson (2009). "The Śaiva Age: The Rise and Dominance of Śaivism during the Early Medieval Period". प्रकाशित Shingo Einoo (संपा॰). Genesis and Development of Tantrism. Institute of Oriental Culture, University of Tokyo. पपृ॰ 108–115. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 9784903235080.
  12. सन्दर्भ त्रुटि: <ref> का गलत प्रयोग; Majumdar1977 नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है।
  13. Susan L. Huntington (1984). The "Påala-Sena" Schools of Sculpture. Brill Archive. pp. 32–39. ISBN 90-04-06856-2

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