अस-सजदा
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सूरा अस-सजदा (इंग्लिश: As-Sajda) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 32 वां सूरा या अध्याय है। इसमें 30 आयतें हैं।
नाम
संपादित करेंसूरा अस्-सजदा[1]या सूरा अस्-सज्दा[2] आयत 15 में सजदा का जो प्रसंग आया है, उसी को सूरा का शीर्षक ठहरा दिया गया है।
अवतरणकाल
संपादित करेंमक्कन सूरा अर्थात् पैग़म्बर मुहम्मद के मक्का के निवास के समय अवतरित हुई।
वर्णन-शैली से ऐसा लागता है कि इसका अवतरणकाल मक्का का मध्यकाल है, और उसका भी आरम्भिक काल, (जब मक्का के काफ़िरों के अत्याचार अभी उग्ररूप धारण नहीं कर सके थे)।
विषय और वार्ताएँ
संपादित करेंमौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि सूरा का विषय एकेश्वरवाद, परलोकवाद और पैग़म्बर के सम्बन्ध में लोगों के सन्देहों को दूर करना और इन तीनों सच्चाइयों पर ईमान लाने का निमंत्रण देना है। (सत्य के आमंत्रण की इन तीनों मौलिक बातों पर मक्का के काफ़िरों के आक्षेपों का हुए सबसे पहले उनसे) यह कहा गया है कि निस्सन्देह यह ईश्वरीय वाणी है और इसलिए अवतरित की गई है कि नुबूवत की बरकत से वंचित , बेसुध पड़ी हुई एक जाति को चौंकाया जाए। इसे तुम झूठ कैसे कह सकते हो जबकि इसका अल्लाह की ओर से अवतरित होना बिलकुल स्पष्ट है। फिर उनसे कहा गया है कि यह कुरआन जिन तथ्यों को तुम्हारे सामने प्रस्तुत करता है, बुद्धि से काम लेकर स्वयं सोचो कि इनमें क्या चीज़ अचम्भे की है। आकाश और धरती की व्यवस्था को देखो, स्वयं अपने पैदा होने और अपनी संरचना पर विचार करो, क्या यह सब कुछ कुरआन की शिक्षाओं की सत्यता पर साक्ष्य नहीं हैं। फिर परलोक का एक चित्रण प्रस्तुत किया गया है और ईमान के सुखद पल और कुन (इनकार) के दुष्परिणामों को बयान करके इस बात की प्रेरणा दी गई है कि लोग दुष्परिणाम सामने आने से पहले कुन को त्याग दें और कुरआन की इस शिक्षा को स्वीकार कर लें। फिर उनको बताया गया है कि यह अल्लाह की बड़ी दया है कि वह मानव के दोषों पर अचानक अन्तिम और निर्णायक यातना में उसे नहीं पकड़ लेता, बल्कि उससे पहले हल्की-हल्की चोटें लगाता रहता है, ताकि वह सतर्क हो और उसकी आँखें खुल जाएँ। फिर कहा कि दुनिया में किताब के अवतरण की यह कोई पहली और अद्भुत घटना तो नहीं है। इससे पहले आख़िर मूसा (अलै.) पर भी तो किताब आई थी, जिसे तुम सब लोग जानते हो। विश्वास रखो कि यह किताब अल्लाह की ओर से आई है और भली-भाँति समझ लो कि अब फिर वही कुछ होगा जो मूसा के युग में हो चुका है। नायकता और पेशवाई अब उन्हीं के हिस्से में आएगी जो इस ईश्वरीय ग्रंथ को मान लेंगे। इसे रद्द कर देनेवालों के लिए असफलता निश्चित हो चुकी है। फिर मक्का के काफ़िरों से कहा गया है कि अपनी व्यापारिक यात्राओं में तुम जिन पिछली विनष्ट जातियों की बस्तियों पर से गुज़रे हो , उसका परिणाम देख लो। क्या यही परिणाम तुम अपने लिए पसनद करते हो?
ज़ाहिर से धोखा न खाओ। आज (ईमानवालों को इन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है , उन्हें देखकर) तुम यह समझ बैठे हो कि यह चलनेवाली बात नहीं है। किन्तु यह केवळ तुम्हारी निगाह का धोखा है। क्या यह तुम्हारा रात-दिन का निरीक्षण नहीं है कि आज एक भू-भाग बिलकुल सूखा हुआ बिना किसी हरियाली के पड़ा हुआ है , किन्तु कल एक ही वर्षा में वह इस प्रकार फबक उठता है कि उसके चप्पे-चप्पे से विकास की शक्तियाँ उभरनी शुरू हो जाती हैं । वार्ता की समाप्ति पर नबी (सल्ल.) को सम्बोधित करके कहा गया है कि ये लोग (तुम्हारे मुख से फ़ैसले के दिन की बात) सुनकर उसका उपहास करते हैं । इनसे कहो कि जब हमारे और तुम्हारे फैसले का वक्त आ जाएगा , उस वक्त इस बात को मानना तुम्हारे लिए कुछ भी लाभदायक न होगा। मानना है तो अभी मान लो।
सुरह अस्-सज्दा का अनुवाद
संपादित करेंअल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है।
32|1|अलिफ़॰ लाम॰ मीम॰[3]
32|2|इस किताब का अवतरण - इसमें सन्देह नहीं - सारे संसार के रब की ओर से है
32|3|(क्या वे इसपर विश्वास नहीं रखते) या वे कहते हैं कि "इस व्यक्ति ने इसे स्वयं ही घड़ लिया है?" नहीं, बल्कि वह सत्य है तेरे रब की ओर से, ताकि तू उन लोगों को सावधान कर दे जिनके पास तुझसे पहले कोई सावधान करनेवाला नहीं आया। कदाचित वे मार्ग पाएँ
32|4|अल्लाह ही है जिसने आकाशों और धरती को और जो कुछ दोनों के बीच है छह दिनों में पैदा किया। फिर सिंहासन पर विराजमान हुआ। उससे हटकर न तो तुम्हारा कोई संरक्षक मित्र है और न उसके मुक़ाबले में कोई सिफ़ारिस करनेवाला। फिर क्या तुम होश में न आओगे?
32|5|वह कार्य की व्यवस्था करता है आकाश से धरती तक - फिर सारे मामले उसी की तरफ़ लौटते है - एक दिन में, जिसकी माप तुम्हारी गणना के अनुसार एक हज़ार वर्ष है
32|6|वही है परोक्ष और प्रत्यक्ष का जाननेवाला अत्यन्त प्रभुत्वशाली, दयावान है
32|7|जिसने हरेक चीज़, जो बनाई ख़ूब ही बनाई और उसने मनुष्य की संरचना का आरम्भ गारे से किया
32|8|फिर उसकी सन्तति एक तुच्छ पानी के सत से चलाई
32|9|फिर उसे ठीक-ठीक किया और उसमें अपनी रूह (आत्मा) फूँकी। और तुम्हें कान और आँखें और दिल दिए। तुम आभारी थोड़े ही होते हो
32|10|और उन्होंने कहा, "जब हम धरती में रल-मिल जाएँगे तो फिर क्या हम वास्तब में नवीन काय में जीवित होंगे?" नहीं, बल्कि उन्हें अपने रब से मिलने का इनकार है
32|11|कहो, "मृत्यु का फ़रिश्ता जो तुमपर नियुक्त है, वह तुम्हें पूर्ण रूप से अपने क़ब्जे में ले लेता है। फिर तुम अपने रब की ओर वापस होंगे।"
32|12|और यदि कहीं तुम देखते जब वे अपराधी अपने रब के सामने अपने सिर झुकाए होंगे कि "हमारे रब! हमने देख लिया और सुन लिया। अब हमें वापस भेज दे, ताकि हम अच्छे कर्म करें। निस्संदेह अब हमें विश्वास हो गया।"
32|13|यदि हम चाहते तो प्रत्येक व्यक्ति को उसका अपना संमार्ग दिखा देते, तिन्तु मेरी ओर से बात सत्यापित हो चुकी है कि "मैं जहन्नम को जिन्नों और मनुष्यों, सबसे भरकर रहूँगा।"
32|14|अतः अब चखो मज़ा, इसका कि तुमने अपने इस दिन के मिलन को भुलाए रखा। तो हमने भी तुम्हें भुला दिया। शाश्वत यातना का रसास्वादन करो, उसके बदले में जो तुम करते रहे हो
32|15|हमारी आयतों पर जो बस वही लोग ईमान लाते है, जिन्हें उनके द्वारा जब याद दिलाया जाता है तो सजदे में गिर पड़ते है और अपने रब का गुणगान करते हैं और घमंड नहीं करते
32|16|उनके पहलू बिस्तरों से अलग रहते हैं कि वे अपने रब को भय और लालसा के साथ पुकारते है, और जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसमें से ख़र्च करते हैं
32|17|फिर कोई प्राणी नहीं जानता आँखों की जो ठंडक उसके लिए छिपा रखी गई है उसके बदले में देने के ध्येय से जो वे करते रहे होंगे
32|18|भला जो व्यक्ति ईमानवाला हो वह उस व्यक्ति जैसा हो सकता है जो अवज्ञाकारी हो? वे बराबर नहीं हो सकते
32|19|रहे वे लोग जा ईमान लाए और उन्हें अच्छे कर्म किए, उनके लिए जो कर्म वे करते रहे उसके बदले में आतिथ्य स्वरूप रहने के बाग़ है
32|20|रहे वे लोग जिन्होंने सीमा का उल्लंघन किया, उनका ठिकाना आग है। जब कभी भी वे चाहेंगे कि उससे निकल जाएँ तो उसी में लौटा दिए जाएँगे और उनसे कहा जाएगा, "चखो उस आग की यातना का मज़ा, जिसे तुम झूठ समझते थे।"
32|21|हम बड़ी यातना से इतर उन्हें छोटी यातना का मज़ा चखाएँगे, कदाचित वे पलट आएँ
32|22|और उस व्यक्ति से बढ़कर अत्याचारी कौन होगा जिसे उसके रब की आयतों के द्वारा याद दिलाया जाए,फिर वह उनसे मुँह फेर ले? निश्चय ही हम अपराधियों से बदला लेकर रहेंगे
32|23|हमने मूसा को किताब प्रदान की थी - अतः उसके मिलने के प्रति तुम किसी सन्देह में न रहना और हमने इसराईल की सन्तान के लिए उस (किताब) को मार्गदर्शन बनाया था
32|24|और जब वे जमे रहे और उन्हें हमारी आयतों पर विश्वास था, तो हमने उनमें ऐसे नायक बनाए जो हमारे आदेश से मार्ग दिखाते थे
32|25|निश्चय ही तेरा रब ही क़ियामत के दिन उनके बीच उन बातों का फ़ैसला करेगा, जिनमें वे मतभेद करते रहे हैं
32|26|क्या उनके लिए यह चीज़ भी मार्गदर्शक सिद्ध नहीं हुई कि उनसे पहले कितनी ही नस्लों को हम विनष्ट कर चुके हैं, जिनके रहने-बसने की जगहों में वे चलते-फिरते है? निस्संदेह इसमें बहुत-सी निशानियाँ है। फिर क्या वे सुनने नहीं?
32|27|क्या उन्होंने देखा नहीं कि हम सूखी पड़ी भूमि की ओर पानी ले जाते हैं। फिर उससे खेती उगाते है, जिसमें से उनके चौपाए भी खाते है और वे स्वयं भी? तो क्या उन्हें सूझता नहीं?
32|28|वे कहते हैं कि "यह फ़ैसला कब होगा, यदि तुम सच्चे हो?"
32|29|कह दो कि "फ़ैसले के दिन इनकार करनेवालों का ईमान उनके लिए कुछ लाभदायक न होगा और न उन्हें ठील ही दी जाएगी।"
32|30|अच्छा, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दो और प्रतीक्षा करो। वे भी परीक्षारत है
पिछला सूरा: लुक़मान |
क़ुरआन | अगला सूरा: अल-अहज़ाब |
सूरा 32 - अस-सजदा | ||
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इन्हें भी देखें
संपादित करेंसन्दर्भ:
संपादित करें- ↑ अनुवादक: मौलाना फारूक़ खाँ, भाष्य: मौलाना मौदूदी. अनुदित क़ुरआन संक्षिप्त टीका सहित. पृ॰ 600 से.
- ↑ "सूरा अस्-सज्दा'". https://quranenc.com. मूल से 22 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 29 जून 2020.
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में बाहरी कड़ी (मदद) - ↑ As-Sajda सूरा का हिंदी अनुवाद http://tanzil.net/#trans/hi.farooq/32:1 Archived 2018-04-25 at the वेबैक मशीन