अल-फ़तह
सूरा अल-फ़तह (अरबी: سورة الفتح) (विजय, जीत) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 48 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 29 आयतें हैं।
नाम
संपादित करेंसूरा 'अल-फ़तह'[1]या सूरा अल्-फ़त्ह़ [2] नाम पहली ही आयत के वाक्यांश “हमने तुमको खुली विजय प्रदान कर दी” से उद्धृत है। इस्लामी इतिहास के अनुसार यह केवल इस सूरा का नाम ही नहीं है, बल्कि विषय की दृष्टि से भी उसका शीर्षक है, क्योंकि इसमें उस महान विषय पर वार्तालाप है जो हुदैबिया की सन्धि के रूप में अल्लाह ने नबी (सल्ल.) और मुसलमानों को प्रदान किया था।
अवतरणकाल
संपादित करेंमदनी सूरा अर्थात् पैग़म्बर मुहम्मद के मदीना के निवास के समय हिजरत के पश्चात अवतरित हुई।
उल्लेखों में इस पर मतैक्य है कि इसका अवतरण ज़ी-क़ादा सन् 6 हिजरी में उस समय हुआ था जब आप (सल्ल.) मक्का के काफ़िरों से हुदैबिया की सन्धि करने के पश्चात् मदीना मुनव्वरा की तरफ़ वापस जा रहे थे।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
संपादित करेंइस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि जिन घटनाओं के सिलसिले में यह सूरा अवतरित हुई उनका प्रारम्भ इस तरह होता है कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने स्वप्न में देखा कि आप अपने सहाबा के साथ मक्का मुअज़्ज़मा गए हैं और वहाँ उमरा किया है। पैग़म्बर का स्वप्न विदित है कि मात्र स्वप्न और ख़याल नहीं हो सकता था । वह तो कई प्रकार की प्रकाशनाओं में से एक प्रकाशना है। इसलिए वास्तव में यह (स्वप्न) एक ईश्वरीय संकेत था जिसका अनुसरण करना नबी (सल्ल.) के लिए ज़रूरी था। (अतः आप) ने बिना झिझक अपना स्वप्न आदरणीय सहाबा को सुनाकर यात्रा की तैयारी शुरू कर दी। 1400 सहाबी नबी (सल्ल.) के साथ इस अत्यन्त ख़तरनाक सफ़र पर जाने के लिए तैयार हो गए। ज़ी क़ादा सन् 6 हिजरी के आरम्भ में यह मुबारक क़ाफ़िला (उमरा) के लिए मदीना से चल पड़ा। कुरैश के लोगों को नबी (सल्ल.) के इस आगमन ने बड़ी परेशानी में डाल दिया। ज़ी-क़ादा का महीना उन प्रतिष्ठित महीनों में से था जो सैकड़ों वर्ष से अरब में हज और दर्शन के लिए मान्य समझे जाते थे। इस महीने में जो क़ाफ़िला एहराम बांधकर हज या उमरे के लिए जा रहा हो उसको रोकने का किसी को अधिकार प्राप्त न था। कुरैश के लोग इस उलझन में पड़ गए कि यदि हम मदीना के इस क़ाफ़िले पर आक्रमण करके इसे मक्का मुअज़्ज़मा में प्रवेश करने से रोकते हैं तो पूरे देश में इसपर शोर मच जाएगा। लेकिन यदि मुहम्मद (सल्ल.) को इतने बड़े क़ाफ़िले के साथ सकुशल अपने नगर में प्रवेश करने देते हैं तो पूरे देश में हमारी हवा उखड़ जाएगी और लोग कहेंगे कि हम मुहम्मद से भयभीत हो गए। अन्ततः बड़े सोच-विचार के पश्चात् उनका अज्ञानमय पक्षपात ही उनपर प्रभावी रहा और उन्होंने अपनी नाक की ख़ातिर यह फैसला किया कि किसी क़ीमत पर भी इस क़ाफ़िले को आपके नगर में प्रवेश करने नहीं देना है। जब आप उसफ़ान के स्थान पर पहुँचे (आपके गुप्तचर ने) आपको सूचना दी कि कुरैश के लोग पुरी तैयारी के साथ जीतुवा के स्थान पर पहुंच रहे हैं और ख़ालिद बिन वलीद को उन्होंने दो सौ सवारों के साथ कुराउल ग़मीम की ओर आगे भेज दिया है, ताकि वे आपका रास्ता रोके। अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने यह सूचना पाते ही तुरन्त रास्ता बदल दिया और एक दुर्गम मार्ग से बड़ी कठिनाइयों के साथ हुदैबिया के स्थान पर पहुँच गए जो ठीक हरम की सीमा पर पड़ता था। (अब कुरैश ने आपके पास अपनी दूत भेजकर इस बात की कोशिश की कि आप मक्का में दाखिल होने के इरादे से बाज़ आ जाएँ। किन्तु वे अपने इस दौत्य प्रयास में असफल रहे।) अन्ततोगत्वा नबी (सल्ल.) ने स्वयं अपनी ओर से हज़रत उसमान (रजि.) को दूत बनाकर मक्का भेजा और उनके द्वारा कुरैश के सरदारों को यह संदेश दिया कि हम युद्ध के लिए नहीं बल्कि दर्शन के लिए कुरबानी के जानवर साथ लेकर आए हैं। तवाफ़ (काबा की परिक्रमा) और क़ुरबानी करके वापस चले जाएँगे, किन्तु वे लोग न माने और हज़रत उसमान (रजि.) को मक्का ही में रोक लिया। इस बीच यह ख़बर उड़ गई कि हज़रत उसमान (रजि.) क़त्ल कर दिए गए हैं और उनके वापस न आने से मुसलमानों को विश्वास हो गया कि यह ख़बर सच्ची है। अब तदधिक धैर्य का कोई अवसर न था। अतएव अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने अपने सभी साथियों को एकत्र किया और उनसे इस बात पर बैअत ली (अर्थात प्रतिज्ञाबद्ध किया) कि अब यहाँ से हम मरते दम तक पीछे न हटेंगे। यह वह बैअत है जो ' बैअत रिज़वान ' के नाम से इस्लामी इतिहास में प्रसिद्ध है। तत्पश्चात् यह मालूम हुआ कि हज़रत उसमान (रजि.) के मारे जाने की ख़बर ग़लत थी। हज़रत उसमान (रजि.) स्वयं भी वापस आ गए और कुरैश की ओर से सुहैल बिन अम्र की अध्यक्षता में एक प्रतिनिधिमंडल भी सन्धि की बातचीत करने के लिए नबी (सल्ल.) के कैम्प में पहुँच गया। दीर्घ कथोपकथन के पश्चात् जिन शर्तों पर सन्धिपत्र लिखा गया वे ये थीं
- 1 ) दस वर्ष तक दोनों पक्षों के मध्य युद्ध बन्द रहेगा, और एक-दूसरे के विरुद्ध गुप्त या प्रत्यक्ष कोई कार्यवाही न की जाएगी।
2 ) इस बीच कुरैश का जो व्यक्ति अपने अभिभावक की अनुमति के बिना, भागकर मुहम्मद (सल्ल.) के पास जाएगा, उसे आप वापस कर देंगे और आपके साथियों में से जो व्यक्ति कुरैश के पास चला जाएगा उसे वे वापस न करेंगे।
3 ) अरब के क़बीलों में से जो क़बीला भी दोनों पक्षों में से प्रतिज्ञाबद्ध होकर किसी एक के साथ होकर इस सन्धि में सम्मिलित होना चाहेगा, उसे इसका अधिकार प्राप्त होगा।
4 ) मुहम्मद (सल्ल.) इस वर्ष वापस जाएँगे और अगले वर्ष वे उमरा (दर्शन) के लिए आकर मक्का में ठहर सकते हैं। शर्त यह है कि परतलों (पट्टों) में केवल एक - एक तलवार लेकर आएँ और युद्ध का कोई सामान साथ न लाएँ, इन तीन दिनों में मक्का निवासी उनके लिए नगर ख़ाली कर देंगे (ताकि किसी टकराव की नौबत न आए।) किन्तु वापस जाते हुए उन्हें यहाँ के किसी व्यक्ति को अपने साथ ले जाने का अधिकार प्राप्त न होगा।
जिस समय इस सन्धि की शर्ते निर्णित हो रही थीं, मुसलमानों की पूरी सेना अत्यन्त विकल थी। कोई व्यक्ति भी उन निहित उद्देश्यों को नहीं समझ रहा था जिन्हें दृष्टि में रखकर नबी (सल्ल.) ये शर्ते स्वीकार कर रहे थे। कुरैश के काफ़िर इसे अपनी सफलता समझ रहे थे और मुसलमान इसपर बेचैन थे कि हम आख़िर ये हीन शर्ते क्यों स्वीकार कर लें।
ठीक उस समय जब सन्धि-सम्बन्धी अनुबन्ध लिखा जा रहा था, सुहैल बिन अम्र के अपने बेटे अबू जन्दल, जो मुसलमान हो चुके थे और मक्का के काफ़िरों ने उन्हें कैद कर रखा था , किसी-न-किसी तरह भागकर नबी (सल्ल.) के शिविर में पहुँच गए। उनके पाँव में बेडियाँ थीं और शरीर पर उत्पीड़न के निशान थे। उन्होंने हुजूर (सल्ल.) से फ़रियाद की कि “मुझे इस अनुचित कैद से मुक्ति दिलाई जाए। ” सहाबा के लिए यह हालत देखकर अपने को नियंत्रित रखना मुश्किल हो गया। किन्तु हुसैल बिन अम्र ने कहा “सन्धिपत्र का लेख चाहे पूर्ण रूप से लिखा न गया हो, शर्ते तो हमारे और आपेक मध्य निश्चित हो चुकी हैं। अतः इस लड़के को हमारे हवाले किया जाए। "अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने उसके तर्क को स्वीकार किया और अबू जन्दल ज़ालिमों के हवाले कर दिए गए। (इस घटना ने मुसलमानों को और अधिक विकल और शोकाकुल बना दिया।) सन्धि से निवृत्त होकर नबी (सल्ल.) ने सहाबा (रजि.) से कहा कि अब यहीं कुरबानी करके सिर का मुंडन कर लो और इहराम समाप्त कर दो। किन्तु कोई अपने स्थान से न हिला। नबी (सल्ल.) ने तीन बार हुक्म दिया किन्तु सहाबा पर उस समय दुःख, शोक और दिल टूट जाने का एहसास ऐसा छा गया था कि वे अपने स्थान से हिले तक नहीं। (फिर जब उम्मुल मोमिनीन हज़रत उम्मे सलमा (रजि.) के परामर्श के अनुसार नबी (सल्ल.) ने स्वयं आगे बढ़कर अपना ऊँट ज़ब्ह किया और सिर मुड़ा लिया तब ) आपके व्यवहार को देखकर लोगों ने भी कुरबानियाँ कर लीं, सिर मुड़ा लिए या बाल छंटवा लिए और इहराम से निकल आए। इसके बाद जब यह क़ाफ़िला हुदैबिया की संन्धि को अपनी पराजय और अपमान समझता हुआ मदीना की ओर वापस जा रहा था, उस समय ज़जनान के स्थान पर (या कुछ लोगों के अनुसार कुराउल ग़मीम के स्थान पर ) यह सूरा अवतरित हुई। इसमें मुसलमानों को बताया गया कि यह सन्धि जिसको वे पराजय समझ रहे हैं, वास्तव में महान विजय है। इसके अवतरित होने के पश्चात् नबी (सल्ल.) ने मुसलमानों को एकत्र किया और कहा कि आज मुझपर वह चीज़ उतरी है जो मेरे लिए दुनिया और दुनिया की सब चीज़ों से ज़्यादा कीमती है। फिर यह सूरा आपने पढ़कर सुनाई और विशेष रूप से हज़रत उमर (रजि.) को बुलाकर इसे सुनाया , क्योंकि वे सबसे ज़्यादा दुखी थे। यद्यपि ईमानवाले तो अल्लाह का यह वचन सुनकर ही सन्तुष्ट हो गए थे , किन्तु कुछ अधिक समय नहीं बीता था कि इस सन्धि की उपलब्धियाँ एक-एक करके सामने आती गई। यहाँ तक कि किसी को भी इस बात में सन्देह न रहा कि वास्तव में यह सन्धि एक भव्य विजय थी।
सुरह "अल-फ़तह का अनुवाद
संपादित करेंबिस्मिल्ला हिर्रह्मा निर्रहीम अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है।
इस सूरा का प्रमुख अनुवाद:
क़ुरआन की मूल भाषा अरबी से उर्दू अनुवाद "मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खान", उर्दू से हिंदी "मुहम्मद अहमद" [3] ने किया।
बाहरी कडियाँ
संपादित करेंइस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखें Al-Fath 48:1
पिछला सूरा: मुहम्मद |
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सन्दर्भ:
संपादित करें- ↑ अनुवादक: मौलाना फारूक़ खाँ, भाष्य: मौलाना मौदूदी. अनुदित क़ुरआन - संक्षिप्त टीका सहित. पृ॰ 740 से.
- ↑ "सूरा अल्-फ़त्ह़ का अनुवाद (किंग फ़हद प्रेस)". https://quranenc.com. मूल से 22 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 जुलाई 2020.
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में बाहरी कड़ी (मदद) - ↑ "Al-Fath सूरा का अनुवाद". http://tanzil.net. मूल से 25 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 जुलाई 2020.
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में बाहरी कड़ी (मदद)
इन्हें भी देखें
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