अल-फ़ील

इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 105 वां सूरा (अध्याय)

सूरा अल-फ़ील (इंग्लिश: Al-Fil) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 105 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 5 आयतें हैं। फिल का अर्थ है हाथी और यह हाथी का अध्याय है।[1]

नाम संपादित करें

इस सूरा के अरबी भाषा के नाम को क़ुरआन के प्रमुख हिंदी अनुवाद में सूरा अल-फ़ील [2]और प्रसिद्ध किंग फ़हद प्रेस के अनुवाद में सूरा अल्-फ़ील [3] नाम दिया गया है।

नाम पहली ही आयत के शब्द “असहाबिल-फ़ील" (हाथी वालों) से उद्धृत है।

अवतरणकाल संपादित करें

मक्की सूरा अर्थात् मुहम्मद के मदीना के निवास के समय हिजरत से पहले अवतरित हुई।

इस पर मतैक्य है कि यह सूरा मक्की है और इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को यदि दृष्टि में रखकर देखा जाए तो प्रतीत होता है कि इसका अवतरण मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल में हुआ होगा।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि संपादित करें

विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि नजरान में यमन के यहूदी शासक जू-नवास ने मसीह (अलै.) के अनुयायियों पर रोज अत्याचार किया था , उसका बदला लेने के लिए हबश की ईसाई हुकूमत ने यमन पर आक्मरण करके हिमयरी हुकूमत को समाप्त कर दिया था और सन् 525 ई. में इस पूरे क्षेत्र पर हबशी शासन स्थापित हो गया था। यह सारी कार्यवाही वास्तव में कुस्तनतीनिया के रोमन राज्य और हबशी हुकूमत के पारम्परिक सहयोग से हुई थी। यह सब कुछ मात्र धार्मिक भावना से नहीं हुआ था, बल्कि इसके पीछे आर्थिक और राजनीतिक उद्देश्य भी काम कर रहे थे, बल्कि सम्भवतः वही इसके मूल प्रेरक थे और उत्पीड़ित ईसाइयों के खून का बदला एक बहाने से अधिक कुछ न था। रूमी हुकूमत ने जबसे मिस्र और सीरिया पर अपना अधिकार जमाया था, उसी समय से उसकी यह कोशिश थी कि पूर्वी अफ़्रीक़ा, भारत , इंडोनेशिया आदि देशों और रूमी अधिक्षेत्रों के मध्य जिस व्यापार पर सैकड़ों वर्ष से अरब का अधिकार चला आ रहा था उसे अरबों के अधिकार से निकालकर वह स्वयं अपने अधिकार में ले ले। इस उद्देश्य के लिए सन् 24 या सन् 25 पूर्व मसीह में कैसर ऑगस्टस ने एक बड़ी सेना रूमी जनरल ऐलियस गॉलोस (Aellus Gallus) की अध्यक्षता में अरब के पश्चिमी तट पर उतार दी थी, ताकि वह उस समुद्री मार्ग पर अधिकार जमा ले जो दक्षिण अरब से सीरिया की ओर जाता है। लेकिन अरब की दुष्कर भौगोलिक परिस्थितियों ने इस अभियान को असफल कर दिया। इसके पश्चात् रूमी अपना सामरिक बेड़ा लाल सागर में ले आए और उन्होंने अरबों के उस व्यापार को समाप्त कर दिया जो वे समुद्र के मार्ग से करते थे और केवल स्थल - मार्ग उनके लिए शेष रह गया। इसी स्थल - मार्ग को क़ब्जे में लेने के लिए उन्होंने हबश (Abyssinia) की ईसाई हुकूमत से गठजोड़ किया और समुद्री बेड़े से उसकी सहायता करके उसको यमन पर अधिकार दिला दिया। (जहाँ हबश के सम्राट की ओर से अबरहा नामक एक व्यक्ति वायसराय नियुक्त हुआ।) यमन पर पूरी तरह अपना प्रभुत्व सुदृढ़ कर लेने के पश्चात् अबरहा ने उस उद्देश्य के लिए काम शुरू कर दिया जो इस अभियान के प्रारम्भ से रूमी राज्य और उन हबशी ईसाइयों के समक्ष था जिनसे उनका मैत्री अनुबन्ध था। अबरहा ने इस उद्देश्य के लिए यमन की राजधानी सनआ (San'a) में एक भव्य गिरजाघर का निर्माण कराया जिसका उल्लेख अरब इतिहासकारों ने अल- क़लीस या अल-कुलैस या अल - कुलैयस के नाम से किया है। (यह यूनानी शब्द EKKLESIA का अरबी रूप है और उर्दू का शब्द ' कलीसा ' भी इसी यूनानी शब्द से निर्मित है।) मुहम्मद बिन इसहाक़ से उल्लिखित है कि इस काम पूर्ण होने के पश्चात् उसने हबश के सम्राट को लिखा कि मैं अरबों का हज काबा से इस कलीसा की ओर मोड़े बिना न रहूँगा।

इब्न कसीर ने लिखा है कि उसने यमन में खुल्लम - खुल्ला अपने इस संकल्प को व्यक्त किया और इसकी उद्घोषणा करा दी। सके इस अभद्र कर्म का उद्देश्य हमारी दृष्टि में यह था कि अरबों को क्रोधित करे, कि वे कोई ऐसी कार्यवाही करें जिससे उसको मक्का पर आक्रमण करने और काबा को ढा देने का बहाना मिल जाए। मुहम्मद बिन इसहाक़ का बयान है कि उसकी इस उद्घोषणा पर क्रुद्ध होकर एक अरब ने किसी न किसी तरह कलीसा में घुसकर उसे गंदा कर दिया। मुक़ातिल बिन सुलैमान से उल्लिखित है कि कुरैश के कुछ नव-युवकों ने जाकर उस कलीसा में आग लगा दी थी। इसमें से कोई भी घटना यदि घटी हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है, किन्तु यह भी कुछ असम्भव नहीं कि अबरहा ने स्वयं अपने किसी आदमी से गुप्त रूप से ऐसा कोई अभद्र कर्म कराया हो ताकि उसे मक्का पर चढ़ाई करने का बहाना मिल जाए और इस तरह कुरैश को विनष्ट और समस्त अरबवालों को आतंकित करने अपने दोनों उद्देश्य प्राप्त कर ले। अस्तु दोनों बातों में से जो बात भी हो, जब अबरहा के पास यह सूचना पहुँची कि काबा के श्रद्धालुओं ने उसके कलीसा का यह अपमान किया है तो उसने यह क़सम खाई कि मैं उस वक्त तक चैन न लूंगा, जब तक काबा को ढा न दूं। तत्पश्चात् उसने सन् 570 ई . या सन् 571 ई . में 60 हज़ार की सेना और 13 हाथी (कुछ उल्लेखों के अनुसार 9 हाथी) लेकर मक्का की ओर प्रस्थान किया।

मार्ग में पहले यमन के एक सरदार जू-नफ़र ने अरबों की एक सेना एकत्र करके उसका प्रतिरोध किया किन्तु वह पराजित हुआ और पकड़ा गया। फिर ख़सअम के क्षेत्र में एक अरब के सरदार नुफ़ैल बिन हबीब ख़सअमी अपने क़बीले को लेकर मुक़ाबले पर आया, किन्तु वह भी पराजित हुआ और पकड़ा गया और वह अपनी जान बचाने के लिए शत्रु का मार्गदर्शन करने के लिए तैयार हो गया। ताइफ़ के निकट पहुँचा तो बनी सक़ीफ़ ने (भी अपने में मुक़ाबले का साहस न पाकर उससे ) कहा कि हम मक्का का मार्ग बताने के लिए मार्गदर्शन का प्रबन्ध किए देते हैं। अबरहा ने यह बात स्वीकार कर ली और बनी सक़ीफ़ ने अबू रिग़ाल नामक एक व्यक्ति को उसके साथ कर दिया। जब मक्का तीन कोस रह गया तो अल - मुग़म्मस ( या अल - मुग़म्मिस) नामक स्थान पर पहुँचकर अबू रिग़ाल मर गया और अरब दीर्घकाल तक उसकी क़ब्र पर पत्थर बरसाते रहे। अब्दुल मुत्तलिब (नबी सल्ल. के दादा), जो उस समय मक्का के सबसे बड़े सरदार थे, ने कुरैश वालों से कहा कि अपने बाल-बच्चों को लेकर पहाड़ों में चले जाएँ ताकि उनका क़त्ले-आम (जन संहार) न हो।

इस्लामी मान्यता अनुसार अन्ततः अबरहा और उसकी सेना पर ईश्वरीय प्रकोप हुआ। उस पर कंकरीले पत्थरों की वर्षा होने लगी। भगदड़ मच गई।) भगदड़ में जगह-जगह ये लोग गिर - गिरकर मरते रहे। अता बिन यसार से उल्लिखित है कि सब के सब उसी समय विनष्ट नहीं हो गए, बल्कि कुछ तो कहीं विनष्ट हुए और कुछ भागते हुए रास्ते भर गिरते चले गए। अबरहा भी ख़सअम के भूभाग में पहुँचकर मरा। यह घटना मुज़दलिफ़ा और मिना के मध्य मुहस्सब घाटी के निकट मुसस्सिर के स्थान पर घटित हुई थी। यह इतनी बड़ी घटना थी जो सम्पूर्ण अरब में प्रसिद्ध हो गई और इसपर बहुत-से कवियों ने क़सीदा (यश- वर्णन- काव्य) की रचना की। इन प्रशस्ति काव्यों में यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि सबने इसे अल्लाह की शक्ति का चमत्कार घोषित किया और कहीं संकेत रूप में भी यह नहीं कहा कि इसमें उन मूर्तियों का भी कुछ हाथ था, जो में पूजी जा रही थीं। यही नहीं, बल्कि हज़रत उम्मे हानी और हज़रत ज़ुबैर बिन अव्वाम (रजि.) से उल्लिखित है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल.) ने कहा, कुरैश ने दस वर्ष (और कुछ उल्लेखों के अनुसार सात वर्ष ) तक एक अल्लाह ( जिसका कोई सहभागी नहीं ) के अतिरिक्त किसी की उपासना नहीं की। जिस वर्ष यह घटना घटित हुई , अरब वाले उसे आमुल-फील (हाथियों का साल) कहते हैं और उसी वर्ष अल्लाह के रसूल (सल्ल.) का शुभ जन्म हुआ। हदीसों के ज्ञाता और इतिहासकार लगभग इस बात पर सहमत है कि हाथी वालों की घटना मुहर्रम के महीने में घटित हुई थी और नबी (सल्ल.) का जन्म रबीउल अव्वल के महीने में हुआ था। अधिकतर लोगों का कहना यह है कि आप (सल्ल.) का जन्म हाथी वालों की घटना के 50 दिन के पश्चात् हुआ।

सूक्ति का उद्देश्य संपादित करें

इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि जो ऐतिहासिक विवरण दिए गए हैं उनको दृष्टि में रखकर सूरा फ़ील पर विचार किया जाए तो यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है कि इस सूरा में इतने संक्षिप्त रूप में केवल हाथी वालों पर अल्लाह की यातना का उल्लेख कर देने पर क्यों बस किया गया है। घटना कुछ बहुत पुरानी न थी। मक्का का बच्चा-बच्चा इसको जानता था। अरब के लोग साधारणतया इसे जानते थे। समस्त अरब वाले इस बात को स्वीकार करते थे कि इस आक्रमण से काबा की रक्षा किसी देवी या देवता ने नहीं, बल्कि सर्वोच्च अल्लाह ही ने की थी। अल्लाह ही से कुरैश के सरदारों ने सहायता के लिए प्रार्थनाएँ की थीं और कुछ वर्ष तक कुरैश के लोग इस घटना से इतने अधिक प्रभावित रहे थे कि उन्होंने अल्लाह के सिवा किसी और की उपासना न की। इसलिए सूरा फ़ील में इन विस्तृत तथ्यों के उल्लेख की आवश्यकता न थी, बल्कि केवल इस घटना को याद दिलाना पर्याप्त था, ताकि कुरैश के लोग विशेषतः और अरबवाले समान्यतः अपने मन में इस बात पर विचार करें कि मुहम्मद जिस चीज़ की ओर बुला रहे हैं वह आख़िर इसके सिवा क्या है कि समस्त दूसरे पूज्यों को छोड़कर केवल अल्लाह की उपासना और बन्दगी की जाए जो एक है और उसका कोई सहभागी नहीं। तद्धिक वे यह भी सोच लें कि यदि इस सत्य के आह्वान को दबाने के लिए उन्होंने ज़ोर-ज़बरदस्ती से काम लिया तो जिस ईश्वर ने हाथी वालों को तहस-नहस किया था उसी के प्रकोप में वे ग्रस्त होंगे।

सुरह "अल-फ़ील का अनुवाद संपादित करें

बिस्मिल्ला हिर्रह्मा निर्रहीम अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है।

इस सूरा का प्रमुख अनुवाद:

क़ुरआन की मूल भाषा अरबी से उर्दू अनुवाद "मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खान", उर्दू से हिंदी [4]"मुहम्मद अहमद" ने किया:

بسم الله الرحمن الرحيم

۝ क्या तुमने देखा नहीं कि तुम्हारे रब ने हाथीवालों के साथ कैसा बरताव किया? (105:1)

۝ क्या उसने उनकी चाल को अकारथ नहीं कर दिया? (105:2)

۝ और उनपर नियुक्त होने को झुंड के झुंड पक्षी भेजे, (105:3)

۝ उनपर कंकरीले पत्थर मार रहे थे (105:4)

۝ अन्ततः उन्हें ऐसा कर दिया, जैसे खाने का भूसा हो (105:5)

बाहरी कडियाँ संपादित करें

इस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखें

पिछला सूरा:
अल-हुमज़ह
क़ुरआन अगला सूरा:
क़ुरैश
सूरा 105 - अल-फ़ील

1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114


इस संदूक को: देखें  संवाद  संपादन

इन्हें भी देखें संपादित करें

सन्दर्भ संपादित करें

  1. "Surah Al-Feel Verse 1 | 105:1 الفيل - Quran O". qurano.com (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2020-11-27.
  2. सूरा अल-फ़ील,(अनुवादक: मौलाना फारूक़ खाँ), भाष्य: मौलाना मौदूदी. अनुदित क़ुरआन - संक्षिप्त टीका सहित. पृ॰ 1020 से.
  3. "सूरा अल्-फ़ील का अनुवाद (किंग फ़हद प्रेस)". https://quranenc.com. मूल से 22 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 जुलाई 2020. |website= में बाहरी कड़ी (मदद)
  4. "Al-Fil सूरा का अनुवाद". http://tanzil.net. मूल से 25 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 जुलाई 2020. |website= में बाहरी कड़ी (मदद)
  5. "Quran Text/ Translation - (92 Languages)". www.australianislamiclibrary.org. मूल से 30 जुलाई 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 March 2016.