अत-तहरीम

इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 66 वां सूरा (अध्याय) है।

सूरा अत-तहरीम (इंग्लिश: At-Tahrim) इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरआन का 66 वां सूरा (अध्याय) है। इसमें 12 आयतें हैं।

नाम संपादित करें

इस सूरा के अरबी भाषा के नाम को क़ुरआन के प्रमुख हिंदी अनुवाद में सूरा अत्-तहरीम [1]और प्रसिद्ध किंग फ़हद प्रेस के अनुवाद में सूरा अत्-तह़रीम[2] नाम दिया गया है।

सूरा का नाम पहली आयत के शब्द “क्यों उस चीज़ को हराम (तुहर्रिमु) करते हो" से उद्धृत है।

अवतरणकाल संपादित करें

मदनी सूरा अर्थात् पैग़म्बर मुहम्मद के मदीना के निवास के समय हिजरत के पश्चात अवतरित हुई। सूरा की वार्ता से ज्ञात होता कि इसमें अवैध ठहराने की जिस घटना का उल्लेख किया गया है , उसके सम्बन्ध में हदीसों के उल्लेखों में दो महिलाओं की चर्चा की गई है, जो उस समय नबी (सल्ल.) की पत्नियों में से थीं। एक हज़रत सफ़ीया (रजि.) , दूसरी हज़रत मारिया क़िब्तिया (रजि.) (और ये दोनों ही नबी (सल्ल.) के घर में सन् 7 हिजरी में प्रविष्ट हुई हैं। इस से यह बात लगभग निश्चित हो जाती है कि इस सूरा का अवतरण सन् 7 हिजरी या 8 हिजरी के मध्य किसी समय हुआ था।

विषय और वार्ताएँ संपादित करें

इस्लाम के विद्वान मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं कि

इस सूरा में अल्लाह के रसूल (सल्ल.) की पवित्र पत्नियों के सम्बन्ध में कुछ घटनाओं की ओर संकेत करते हुए कुछ गम्भीर समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है: एक यह कि हलाल तथा हराम और वैध तथा अवैध की सीमाएँ निर्धारित करने के अधिकार निश्चित रूप से सर्वोच्च अल्लाह के हाथ में हैं , और जन सामान्य तो अलग रहे , पैग़म्बर को भी अपने तौर पर अल्लाह की ग्राह्य ठहराई हुई किसी चीज़ को हराम कर लेने का अधिकार नहीं है। दूसरे यह कि मानव - समाज में नबी (सल्ल.) का मक़ाम बहुत ही नाज़ुक मक़ाम है। एक साधारण बात भी जो किसी दूसरे मनुष्य के जीवन में घटित हो तो कुछ अधिक महत्त्व नहीं रखती लेकिन नबी (सल्ल.) के जीवन में घटित हो तो उसकी हैसियत क़ानून की हो जाती है। इसलिए अल्लाह की ओर से नबियों के जीवन पर ऐसी कड़ी निगरानी रखी गई है कि उनका कोई छोटे से छोटा क़दम उठाना भी ईश्वरीय इच्छा से हटा हुआ न हो , ताकि इस्लामी क़ानून और उसके सिद्धान्त अपने बिलकुल वास्तविक रूप में अल्लाह के बन्दों तक पहुँच जाएँ। तीसरी बात यह है कि तनिक - सी बात पर जब नबी (सल्ल.) को टोक दिया गया और न केवल उसका सुधार किया गया , बल्कि उसे रिकार्ड पर भी लाया गया , तो यह चीज़ निश्चय ही हमारे दिल में यह असंशय का भाव पैदा कर देती है कि नबी (सल्ल.) के पवित्र जीवन में जो कर्म और जो नियम-सम्बन्धी आदेश और निर्देश भी अब हमें मिलते हैं और जिसपर अल्लाह की ओर से कोई पकड़ या संशोधन रिकार्ड पर मौजूद नहीं है , वह सर्वथा विशुद्ध और ठीक है , और पूर्ण रूप से अल्लाह की इच्छा के अनुकूल है। चौथी बात (यह कि अल्लाह ने उनका न केवल यह कि नबी (सल्ल.) को एक साधारण-सी बात पर टोक दिया, बल्कि ईमानवालों की माताओं को (अर्थात् नबी सल्ल. की पत्नियों को ) उनकी कुछ ग़लतियों पर) कड़ाई के साथ सचेत किया , बल्कि ( इस पकड़ और चेतावनी को अपनी किताब (कुरआन) में सदैव के लिए अंकित भी कर दिया। इनमें निहित उद्देश्य इसके सिवा और क्य हो सकता है कि अल्लाह इस तरह ईमानवालों को अपने महापुरुषों के आदर सम्मान की वास्तविक मर्यादाओं एवं सीमाओं से परिचित करना चाहता है। नबी, नबी हैं , ईश्वर नहीं है कि उससे कोई भूल - चूक न हो, नबी (सल्ल.) इस लिए आदरणीय नहीं है कि उनसे भूल - चूक का होना असम्भव है , बल्कि वे आदरणीय इसलिए हैं कि वे ईश्वरीय इच्छा का पूर्ण प्रतिनिधि हैं, और उनकी छोटी-सी भूल को भी अल्लाह ने सुधारे बिना नहीं छोड़ा है। इसी तरह आदरणीय सहाबा हों या नबी (सल्ल.) की पुण्यात्मा पत्नियाँ, ये सब मनुष्य थे , फ़रिश्ते या परामानव न थे। उनसे भूल - चूक हो सकती थी। उनको जो उच्च पद प्राप्त हुआ , इसलिए हुआ कि अल्लाह के मार्गदर्शन और अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के प्रशिक्षण ने उनको मानवता का उत्तम आदर्श बना दिया था। जो कुछ भी सम्मान है , इसी कारण है , न कि इस परिकल्पना के आधार पर कि वे कुछ ऐसी विभूतियाँ थीं जो ग़लतियों से बिलकुल पाक थीं । इसी कारण नबी (सल्ल.) शुभकाल में सहाबा या आपकी पुण्यात्मा पत्नियाँ से मनुष्य होने के कारण जब भी कोई भूल - चूक हुई उपसर टोका गया । उनकी कुछ ग़लतियों का सुधार नबी (सल्ल.) ने किया , जिसका उल्लेख हदीसों में बहुत-से स्थानों पर हुआ है और कुछ ग़लतियों का उल्लेख कुरआन मजीद में करके अल्लाह ने स्वयं उनको सुधार , ताकि मुसलमान कभी महापुरुषों के आदर की कोई अतिशयोक्तिपूर्ण धारणा न बना लें।

पाँचवीं बात यह है कि अल्लाह का धर्म बिलकुल बेलाग है , उसमें हर व्यक्ति के लिए केवल वही कुछ है जिसका वह अपने ईमान और कर्मों की दृष्टि से पात्र है। इस मामले में विशेष रूप से नबी (सल्ल.) की पुण्यात्मा पत्नियों के सामने तीन प्रकार की स्त्रियों को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया गया है।

एक उदाहरण हज़रत नूह (अलै.) और हज़रत लूत (अलै.) की काफ़िर पत्नियों का है। नबियों की पत्नियाँ होना (जिनके) कुछ काम न आया ।

दूसरा उदाहरण फ़िरऔन की पत्नी का है। चूँकि वे ईमान ले आईं , इसलिए फ़िरऔन जैसे सबसे बड़े इनकार करने वाले की पत्नी होना भी उनके लिए किसी हानि का कारण न बन सका।

तीसरा उदाहरण हज़रत मरयम (अलै.) का है , जिन्हें महान पद इसलिए मिला कि अल्लाह ने किस कठिन परीक्षा में उन्हें डालने का निर्णय किया था , उसके लिए वे नतमस्तक हो गई ।

इन बातों के अतिरिक्त एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जो इस सूरा की आयत 3 से हमें मालूम होता है वह यह हैं कि सर्वोच्च अल्लाह की ओर से नबी (सल्ल.) को केवल वही ज्ञान प्रदान नहीं किया जाता था जो कुरआन में अंकित हुआ है , बल्कि आपको प्रकाशना के द्वारा दूसरी बातों का ज्ञान भी प्रदान किया जाता था , जो कुरआन में अंकित नहीं किया गया है ।

सुरह "अत-तहरीम का अनुवाद संपादित करें

बिस्मिल्ला हिर्रह्मा निर्रहीम अल्लाह के नाम से जो दयालु और कृपाशील है।

इस सूरा का प्रमुख अनुवाद:

क़ुरआन की मूल भाषा अरबी से उर्दू अनुवाद "मौलाना मुहम्मद फ़ारूक़ खान", उर्दू से हिंदी [3]"मुहम्मद अहमद" ने किया।


(1) ऐ नबी, तुम क्यों उस चीज़ को हराम करते हो जिसको अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल किया है? (क्या इसलिए कि) तुम अपनी बीवियों की प्रसन्नता चाहते हो? -अल्लाह माफ़ करनेवाला और दया करनेवाला है।

(2) अल्लाह ने तुम लोगों के लिए अपनी क़समों की पाबन्दी से निकलने का तरीक़ा निश्चित कर दिया है । ' अल्लाह तुम्हारा संरक्षक है, और वही सर्वज्ञ और तत्त्वदर्शी है ।

(3) (और यह मामला भी ध्यान देने के योग्य है कि ) नबी ने एक बात अपनी एक बीवी से रहस्य में कही थीं । फिर जब उस बीवी ने (किसी और पर) वह रहस्य प्रकट कर दिया और अल्लाह ने नबी को इस (रहस्योद्घाटन) की सूचना दे दी , तो नबी ने उसपर किसी हद तक (उस बीवी को ) ख़बरदार किया और किसी हद तक उसे टाल दिया । फिर जब नबी ने उसे ( रहस्योद्घान की) यह बात बताई तो उसने पूछा आपको इसकी किसने ख़बर दी? नबी ने कहा , “ मुझे उसने ख़बर दी जो सब कुछ जानता है और खूब ख़बर रखनेवाला है । '

(4) अगर तुम दोनों अल्लाह से तौबा करती हो ( तो यह तुम्हारे लिए अच्छा है) क्योंकि तुम्हारे दिल सीधी राह से हट गए हैं, और अगर नबी के मुक़ाबले में तुमने जत्थाबन्दी की तो जान रखो कि अल्लाह उसका संरक्षक है और उसके बाद जिबरील और सभी नेक ईमानवाले और सब फ़रिश्ते उसके साथी और सहायक है।

(5) असंभव नहीं कि अगर नबी तुम सब बीवियों को तलाक़ दे दे तो अल्लाह उसे ऐसी बीवियाँ तुम्हारे बदले में प्रदान कर दे जो तुमसे अच्छी हों,' सच्ची मुसलमान , ईमानवाली , आज्ञाकारी, तौबा करनेवाली, इबादत करनेवाली , और रोजेदार , चाहे विवाहिता हों या कुँवारियाँ हों ।

(6) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो , बचाओ अपने आपको और अपने घरवालों को उस आग से जिसका ईंधन इनसान और पत्थर होंगे, जिसपर कठोर स्वभाव के सज्ज पकड़ करनेवाले फ़रिश्ते नियुक्त होंगे जो कभी अल्लाह के आदेश की अवहेलना नहीं करते और जो आदेश भी उन्हें दिया जाता है उसका पालन करते हैं ।

(7) ( उस समय कहा जाएगा ) ऐ इनकार करनेवालो , आज उज्र पेश न करो, तुम्हें तो वैसा ही बदला दिया जा रहा है जैसा तुम कर्म कर रहे थे ।

(8) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो , अल्लाह से तौबा करो , विशुद्ध तौबा, असंभव नहीं कि अल्लाह तुम्हारी बुराईयाँ दूर कर दे और तुम्हें ऐसी जन्नतों में दाख़िल कर दे जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी । यह वह दिन होगा जब अल्लाह अपने नबी को और उन लोगों को जो उसके साथ ईमान लाए हैं रुसवा नहीं करेगा। उनका प्रकाश उनके आगे-आगे और उनके दाहिनी ओर दौड़ रहा होगा और वे कह रहे होंगे कि ऐ हमारे रब , हमारा प्रकाश हमारे लिए पूर्ण कर दे और हमें माफ़ कर , तुझे हर चीज़ की सामर्थ्य प्राप्त है ।

(9) ऐ नबी, काफ़िरों ( इनकार करनेवालों ) और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) से जिहाद ( संघर्ष ) करो और उनके साथ सख्ती से पेश आओ । उनका ठिकाना जहन्नम है , और वह बहुत बुरा ठिकाना है।

(10) अल्लाह इनकार करनेवालों के मामले में नूह और लूत की बीवियों को मिसाल के तौर पर पेश करता है । वे हमारे दो नेक बन्दों के निकाह में थीं, मगर उन्होंने अपने उन शौहरों के साथ विश्वासघात किया, और वे अल्लाह के मुक़ाबले में उनके कुछ भी न काम आ सके । दोनों से कह दिया गया कि जाओ आग में जाने वालों के साथ तुम भी चली जाओ ।

(11) और ईमानवालों के मामले में अल्लाह फ़िरऔन की बीवी की मिसाल पेश करता है कि जबकि उसने प्रार्थना की , “ ऐ मेरे रब, मेरे लिए अपने यहाँ जन्नत में एक घर बना दे , और मुझे फ़िरऔन और उसके कर्म से बचा ले और मुझे ज़ालिम लोगों से छुटकारा दे । ”

(12) और इमरान की बेटी मरयम ' ' की मिसाल देता है जिसने अपनी शर्मगाह (सतीत्व ) की रक्षा की थी , फिर हमने उसके अन्दर अपनी ओर से रूह ( आत्मा ) फूंक दी , और उसने अपने रब के बयानों और उसकी किताबों की पुष्टि की और वह आज्ञाकारी लोगों में से थी।

बाहरी कडियाँ संपादित करें

इस सूरह का प्रसिद्ध अनुवादकों द्वारा किया अनुवाद क़ुरआन प्रोजेक्ट पर देखें

पिछला सूरा:
अत-तलाक़
क़ुरआन अगला सूरा:
अल-मुल्क
सूरा 66 - अत-तहरीम

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सन्दर्भ संपादित करें

  1. सूरा अत्-तहरीम ,(अनुवादक: मौलाना फारूक़ खाँ), भाष्य: मौलाना मौदूदी. अनुदित क़ुरआन - संक्षिप्त टीका सहित. पृ॰ 874 से.
  2. "सूरा अत्-तह़रीम का अनुवाद (किंग फ़हद प्रेस)". https://quranenc.com. मूल से 22 जून 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 16 जुलाई 2020. |website= में बाहरी कड़ी (मदद)
  3. "At-Tahrim सूरा का अनुवाद". http://tanzil.net. मूल से 25 अप्रैल 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 जुलाई 2020. |website= में बाहरी कड़ी (मदद)
  4. "Quran Text/ Translation - (92 Languages)". www.australianislamiclibrary.org. मूल से 30 जुलाई 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 15 March 2016.

इन्हें भी देखें संपादित करें