गुहिल राजवंश

राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र का राजवंश (ल. 566 से 1326 इस्वी)

गुहिल/गहलौत राजवंश एक प्रमुख राजवंश था जो भारतीय उपमहाद्वीप के राजस्थान क्षेत्र में मेवाड़ शहर में शासन करता था | इसका प्रारंभिक संंस्थापक राजा गुहादित्य थेे, जिन्होंने छटी शताब्दी में गुहिल वंंश की नींव रखी। गुुुहादित्य के पश्चात् 734 ई'. में बप्पा रावल को गुहिल वंश का वास्तविक संंस्थापक माना जाता है।

शुरुआत में गुहिल राजवंश प्रतिहार साम्राज्य के सामंतों का रूप निभाया करते थे लेकिन रावल अल्लट के द्वारा प्रतिहार सम्राट देवपाल के वध के बाद वह स्वतन्त्र बन गए | दसवीं शताब्दी में गुहिल रावल राष्ट्रकूट राजवंशज के अधीन हुआ करते थे तथा ग्यारहवीं शताब्दी में परमार और चौहान साम्राज्यों के अधीन शासन करते थे | बारहवीं शताब्दी में गुहिल राजवंश दो हिस्सों में विभाजित होगया जिनमें से मुख्या राजवंश मेवाड़ पर वर्ष 1303 तक शासन करता रहा जब मुसलमान आक्रमणकारी अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ पर घेरा डालकर गुहिलों को पराजित करा था |

मेवाड़

प्राचीन इतिहास

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मेवाड़ का प्राचीन नाम शिवि था जिसकी राजधानी मध्यमिका (जिसे वर्तमान में नगरी कहते हैं) थी यहां पर मेहर जनजाति का अधिकार था और वह हमेशा मलेच्छों से संघर्ष करते रहे इसलिए इस क्षेत्र को मैद अर्थात मलेच्छों को मारने वाला की संज्ञा दी गई है । मैदपाट को धीरे धीरे मेवाड़ कहा जाने लगा । मेवाड़ की राजधानी उदयपुर बनी ।

मेवाड़ के राजा स्वयं को राम के वंशज बताते हैं, इसी कारण भक्तों एवं चरणों ने मेवाड़ के शासकों को रघुवंशी तथा हिंदुआ सूरज कहने लगे गुहिल राज्य के चिन्ह में जो दृढ़ राखे धर्म को ताहि राखे करतार अंकित है । मेवाड़ का गुहिल वंश राजस्थान का ही नहीं अपितु संसार के प्राचीनतम राजवंशों में से एक है जीसने 1500 वर्षों से अधिक के लंबे समय तक एक प्रदेश पर शासन किया ।

मेवाड़ की शासक वंशावली (ल. 566 – 1949 ईस्वी)

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छठी शताब्दी में, तीन अलग-अलग गुहिल राजवंशों ने वर्तमान राजस्थान में शासन करने के लिए जाना जाता है:

  1. नागदा-अहार के गुहिल
  2. किष्किंधा के गुहिल (वर्तमान में कल्याणपुर)
  3. धवागर्ता के गुहिल (वर्तमान में धोर)

गुहिल/गहलौत राजवंश (ल. 566 – 1303 ईस्वी)

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  • गुहादित्य / गोहिल (566–580 )
  • भोज (I) (580–602)
  • महेन्द्र (I) (602–616)
  • नागादित्य (616–646)
  • शिलादित्य (646–661)
  • अपराजित (661–697)
  • महेन्द्र (II) (697–728)
  • कालभोज बप्पा रावल (728/734–753)बापा रावल ने मुस्लिम देशों को भी जीता ।

[1]

  • खुमाण (I) (753–773)
  • मत्तट (773–793)
  • भृतभट्ट सिंह (793–813)
  • अथाहसिंह (813–828)
  • खुमाण (II) (828–853)
  • महाकाय (853–878)
  • खुमाण (III) (878–926)
  • भृतभट्ट (II) (926-951 )
  • अल्लट (951-971)
  • नरवाहन (971-979)
  • शालिवाहन (973–977 )
  • शक्तिकुमार (977–993 )
  • अमरप्रसाद (993–998)
  • शुचिवर्मा (998–1010)
  • नरवर्मन (1010–1035)
  • कीर्तिवर्मा (1035–1050)
  • योगराज (1050–1075)
  • वैरट (1075–1090)
  • हंसपाल (1090–1100)
  • वैरिसिंह (1100–1122)
  • विजयसिंह (1122–1130)
  • वैरिसिंह (II) (1130–1136)
  • अरिसिंह (1136–1145)
  • चोङसिंह (1145–1151)
  • विक्रम सिंह (1151–1158)
  • रणसिंह (1158–1165)

गुहिल/गहलौत राजवंश का विभाजन

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रणसिंह (1158 ई.) इन्हीं के शासनकाल में गुहिल/गहलौत वंश दो शाखाओं में बट गया।

  • प्रथम (रावल शाखा)— रणसिंह के पुत्र क्षेमसिंह रावल शाखा का निर्माण कर मेवाड़ पर शासन किया।
  • द्वितीय (राणा शाखा)— रणसिंह के दूसरे पुत्र राहप ने सिसोदा ठिकानों की स्थापना कर राणा शाखा की शुरुआत की । ये राणा सिसोदा ठिकाने में रहने के कारण आगे चलकर सिसोदिया कहलाए।

रावल शाखा (ल. 1165 – 1303 ईस्वी)

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राणा शाखा (ल. 1165 – 1326 ईस्वी)

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  • रहपा (1162)
  • नरपति (1185)
  • दिनकर (1200)
  • जशकरन (1218)
  • नागपाल (1238)
  • कर्णपाल (1266)
  • भुवनसिंह (1280)
  • भीमसिंह (1297)
  • जयसिंह (1312)
  • लखनसिंह (1318)
  • अरिसिंह (1322)
  • हम्मीर सिंह (1326)

सिसोदिया राजवंश (ल. 1326 – 1949 ईस्वी)

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विषम घाटी पंचानन (सकंट काल मे सिंह के समान) के नाम से जाना जाता है, यह संज्ञा राणा कुम्भा ने कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति में दी। [2]

महाराणा कुंभकर्ण सिंह ने मुसलमानों को अपने-अपने स्थानों पर हराकर राजपूती राजनीति को एक नया रूप दिया। इतिहास में ये महाराणा कुंभा के नाम से अधिक प्रसिद्ध हैं। महाराणा कुंभा को चित्तौड़ दुर्ग का आधुुुनिक निर्माता भी कहते हैं क्योंकि इन्होंने चित्तौड़ दुर्ग के अधिकांश वर्तमान भाग का निर्माण कराया ।[2]

महाराणा संग्राम सिंह मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर ने अपने संस्मरणों में कहा है कि राणा सांगा हिंदुस्तान में सबसे शक्तिशाली हिन्दू राजा थे, जब उन्होंने इस पर आक्रमण किया, और कहा कि उन्होंने अपनी वीरता और तलवार से अपने वर्तमान उच्च गौरव को प्राप्त किया। [3][4]

उन्होंने मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई सालों तक संघर्ष किया और अंत महाराणा प्रताप सिंह ने मुगलों को युद्ध में हराया, जिसमें दिवेर का युद्ध (1582) भी हैं। [5] [6]

दिवेर के युद्ध में मेवाड़ के राजा अमर सिंह प्रथम तथा मुगल सेना के बीच सन 1606 ई. में हुआ था। इस युद्ध में अमर सिंह ने मुगल सेनापति सुल्तान खान को स्वयं मार दिया था। कारण उन्हें चक्रवीर के नाम से जाना गया। मेवाड़ न जीत पाने के कारण अकबर ने अपनी पुत्री का विवाह सन्धि स्वरुप अमरसिंह से करवाया था।[7][8]

महाराजा गुहादित्य

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सूर्यवंशी महाराजा कनक सेन की '8वी पीढ़ी' में शिलादित्य नामक एक राजा हुवे । जो वल्लभीपुर में राज करते थे वहां पर मलेच्छों ने आक्रमण कर वल्लभीपुर को तहस-नहस कर दिया व शिलादित्य वीरगति को प्राप्त हुए शिलादित्य की सभी रानियां उनके साथ सती हो गई। शिलादित्य की एक रानी पुष्पावती गर्भवती थी तथा पुत्र की मन्नत मांगने के लिए वह अपने परमार वंश के पिता के राज्य चंद्रावती आबू में जगदंबा देवी के दर्शन करने गई थी, पुष्पावती अपने पिता के घर से जब वापस वल्लभीपुर जा रही थी तो रास्ते में वल्लभीपुर के विनाश का समाचार मिला पुष्पावती यह सुनकर वहां पर सती होना चाहती थी, परंतु गर्भावस्था के कारण यह संभव नहीं था पुष्पावती ने अपनी सहेलियों के साथ 'मल्लिया' नामक गुफा में शरण ली जहां उसने अपने पुत्र का को जन्म दिया गुफा के पास वीरनगर नामक गांव था जिसमें कमलावती नाम की ब्राह्मणी रहती थी । रानी पुष्पावती ने उसे अपने पास बुलाकर अपने पुत्र के लालन-पालन का दायित्व सौंपकर सती हो गई । कमलावती ने रानी के पुत्र को अपने पुत्र की भांति रखा । वह बालक गुफा में पैदा हुआ था और उस प्रदेश के लोग गुफा को 'गोह' कहते थे अतः कमलावती ने उस बच्चे का नाम गोह रखा जो आगे चलकर गुहिल के नाम से विख्यात हुआ । कमलावती ने बालक गुहिल को इडर के भील राजा मांडलिक को सौंप दिया । बालक गूहिल राजा मांडलिक के राजमहल में रहता और भील बालकों के साथ घुड़सवारी करता, भील कुमार नल और गुहिल का साथ रहा , कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार गुहील ने इडर के राजा मांडलिक भील की हत्या कर दी और 566 ई में गुहील वंश की नींव रखी । हत्या कर देने वाली घटना असत्य भी हों सकती हैं। गोहिलादित्य का नाम उसके वंशधरों का गोत्र हो गया । गुहिल के वंशज गोहिल अथवा गुहिलोत के नाम से विख्यात हुए।

कालभोज/बप्पा रावल (734–753)

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इसी गुहिलादित्य ने 566 ई के आस-पास मेवाड़ में इस वंश की नींव रखकर नागदा को गुहिल वंश की राजधानी बनाई । गोहिल की 'आठवीं पीढ़ी' में महेंद्र-2 नामक एक राजा हुआ जिसके व्यवहार से वहां के भील उससे नाराज हो गए एक दिन जब नागादित्य जंगल में शिकार खेलने गया तो भीलों ने उसे घेरकर वही मार डाला और इडर राज्य पर पुनःअपना अधिकार जमा लिया नागादित्य की हत्या भीलों ने कर दी तो क्षत्रीय को उसके 3 वर्षीय पुत्र बप्पा के जीवन को बचाने की चिंता सताने लगी। इसी समय वीरनगर की कमलावती के वंशज जो कि गोहिल राजवंश के कुल पुरोहित थे उन्होंने बप्पा को लेकर पांडेय नामक दुर्ग में गए इस जगह को बप्पा के लिए सुरक्षित ना मानकर बप्पा को लेकर लेकर पराशर नामक स्थान पर पहुंचे इसी स्थान के पास त्रिकूट पर्वत है इसकी तलहटी में नागेंद्र नामक नगर वर्तमान नागदा बसा हुआ था । वहां पर शिव की उपासना करने वाले बहुत से ब्राह्मण निवास करते थे हारित ऋषि ने बप्पा रावल का लालन पालन करके करने का भार उठाया। बप्पारावल हारित ऋषि की गाय को चराते थे उन गायों में से एक गाय जो कि सुबह बहुत ज्यादा दूध देती थी परंतु संध्या के समय आश्रम में वापस आती तो उसके थनों में दूध नहीं मिलता था ऋषियों को संदेह हुआ कि बप्पा एकांत में उस गाय का दूध पी जाता है बप्पा को जब इस बात का पता चला तो वह वास्तविकता जानने के लिए दूसरे दिन जब गायों को लेकर जंगल में गया तो उसी गाय पर अपनी नजर रखी । बप्पा ने देखा कि वह गाय एक निर्जन गुफा में घुस गई बप्पा भी उसके पीछे गया और उसने वहां देखा की बेल पत्तों के ढेर पर वह गाय अपने दूध की धार छोड़ रही थी बप्पा ने उसके पास जाकर उन पत्तों को हटाया तो उसके नीचे एक शिवलिंग था । जिसके ऊपर दूध की धार गिर रही थी बप्पा ने उसी शिवलिंग के पास एक समाधि लगाए हुए योगी को देखा उस योगी का ध्यान टूट गया परंतु उसने बप्पा से कुछ नहीं कहा बप्पा उस योगी हरित ऋषि की सेवा करने लगा हरित ऋषि ने उसकी सेवा भक्ति से प्रसन्न होकर शिव मंत्र की दीक्षा देकर उसे एकलिंग के दीवान की उपाधि दी । हरित ऋषि के शिवलोक जाने का समय आया तो उसने बप्पा को निश्चित समय पर आने को कहा बप्पा निश्चित समय पर आने में लेट हो गया तब तक हरित ऋषि रथ पर सवार होकर शिवलोक की तरफ चल पड़े उन्होंने बप्पा को आते देखकर रथ की चाल धीमी करवाकर बप्पा को अपना मुंह खोलने को कहा हारित ने उसके ऊपर जलाभिषेक करने का प्रयास किया जिससे वह तो बप्पा के पैर के अंगूठे पर पड़ा हरित ऋषि ने उसे कहा कि यदि यह जलाभिषेक तुम्हारे शरीर पर गिरता तो तुम अमर हो जाते फिर भी तुम्हारे पैर के अंगूठे पर गिरने से भी जहां तक तुम्हारा पाव जाएगा वहां तक तुम्हारा राज्य रहेगा हरित ऋषि ने बप्पा को मेवाड़ का राज्य वरदान में दे दिया । बप्पा रावल का मूल नाम कालभोज था । बप्पा रावल ने हरित ऋषि के आशीर्वाद से 734 ईसवी में चित्तौड़गढ़ पर आक्रमण किया और चित्तौड़ के राजा मान मौर्य को पराजित कर ७३४–७५३ ईसवी तक शासन किया और चित्तौड़गढ़ में गुहिल वंश के साम्राज्य की स्थापना की । बप्पा रावल ने उदयपुर के समीप कैलाशपुरी नामक स्थान पर एकलिंग जी का मंदिर बनवाया । बप्पा रावल प्रथम गुहिल शासक थे जिसने मेवाड़ में सोने के सिक्के चलाए । बप्पा रावल की मृत्यु नागदा में हुई जहां उसकी समाधि बनी हुई है। जिसे वर्तमान में बप्पा रावल के नाम से जानते हैं। बप्पा रावल के बारे में कहा जाता है कि वह एक झटके में दो मलेच्छो(भैंसे) की बलि दे देते । वह 33 हाथ की धोती और 16 हाथ का दुपट्टा पहनते थे । उनकी खड़ग 32 मन ( गुजरी भाषा में गुजरात्रा में मन २० किलो होता है) की थी । वह 4 व्यक्तियों के बराबर भोजन करते थे और उनकी सेना में 12 लाख 72000 हजार सैनिक थे । आम्र कवि द्वारा लिखित एकलिंग प्रशस्ति में बप्पा रावल के संन्यास लेने की घटना की पुष्टि होती है ।

कालभोज के बाद के शासक

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कालभोज के बाद उनके पुत्र खुमाण प्रथम मेवाड़ के शासक बने ।कालभोज के बाद के शासक थे-

मेवाड़ के क्रमशः शासक बने खुमान तृतीय के बाद भृतभट्ट द्वितीय इसके बारे में हमें आहड़ लेख 977 ईसवी से जानकारी मिलती है। 942 ईसवी के प्रतापगढ़ अभिलेख में उसे महाराजाधिराज की उपाधि से पुकारा गया ।

  • भृतभट्ट द्वितीय के बाद उसकी रानी 'राष्ट्रकूट राठौड़ वंश' की रानी महालक्ष्मी से उत्पन्न हुए पुत्र अल्लट मेवाड़ के शासक बने । जिसे आलू रावत कहा जाता है । अल्लट ने हूण राजकुमारी हरिया देवी के साथ विवाह कर हूणों कि वह अपने ननिहाल पक्ष राष्ट्रकूटों की सहायता से अपने साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार किया ।

अल्लट ने पहली बार नौकरशाही की शुरुआत की जो वर्तमान में भी पूरे देश में चल रही है । अल्लट ने नागदा से राजधानी बदलकर अपनी नई राजधानी आहड़ को बनाई और वहां पर वराह मंदिर का निर्माण करवाया । अल्लट के बाद उसका पुत्र नरवाहन मेवाड़ का शासक बना ।

  • नरवाहन ने चौहानों के साथ अच्छे संबंध बनाने के लिए चौहान राजा जेजय की पुत्री से विवाह किया ।

फिर क्रमशः शासक हुवे–

गुहिल/गहलौत वंश का शाखाओं में विभाजन

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रणसिंह, विक्रम सिंह के पुत्र थे, इन्होंने आहोर के पर्वत पर एक किला बनवाया । इन्हीं के शासनकाल में गुहिल वंश दो शाखाओं में बट गया ।

  • द्वितीय (राणा शाखा)- रणसिंह के दूसरे पुत्र राहप ने सिसोदा ठिकानों की स्थापना कर राणा शाखा की शुरुआत की । ये राणा सिसोदा ठिकाने में रहने के कारण आगे चलकर सिसोदिया कहलाए।
  • सामंत सिंह (1172 ई.) में मेवाड़ के शासक बने सामंत सिंह का विवाह अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज द्वितीय की बहन पृथ्वी बाई के साथ हुआ । नाडोल के चौहान शासक कीर्तिपाल व पृथ्वीराज द्वितीय के मध्य अनबन हो गई इसी कारण कीर्तिपाल ने मेवाड़ पर आक्रमण कर सामंत सिंह को पराजित कर मेवाड़ राज्य छीन लिया सामंत सिंह ने (1178 ईस्वी) में लगभग वागड़ में जाकर अपना नया राज्य बनाया जिसकी नई राजधानी वट पदक बड़ौदा थी ।

क्षेमसिंह के छोटे पुत्र कुमार सैनी (1179 ईस्वी) में कीर्तिपाल को पराजित कर मेवाड़ के पुनः शासक बने ।

जैत्र सिंह (1213–1250 ईस्वी)

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तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ में मेवाड़ के शासक जैत्र सिंह बने । उनके शासनकाल से पूर्व नाडोल के चौहान वंश के कीर्तिपाल ने मेवाड़ पर अधिकार स्थापित किया था । इस बेर के बदले में जेत्र सिंह ने समकालीन चौहान वंश के शासक उदय सिंह के विरुद्ध नाडोल पर चढ़ाई कर दी । नाडोल को बचाने के उद्देश्य से उदय सिंह ने अपनी पोत्री रूपा देवी का विवाह जैत्र सिंह के पुत्र तेज सिंह के साथ कर मेवाड़ और नाडोल के बेर को समाप्त किया । जैत्र सिंह के समय दिल्ली सल्तनत पर गुलाम वंश के बादशाह इल्तुतमिश का शासन था । इल्तुतमिश ने जेत्र सिंह के बढ़ते हुए प्रभाव को दबाने के लिए मेवाड़ की राजधानी नागदा पर (1222 से 1229 ईस्वी) में आक्रमण किया और इसे तहस-नहस कर दिया । इसी कारण जैत्र सिंह ने पहली बार अपने राज्य की राजधानी चित्तौड़गढ़ को बनाया । उसके बाद जेेेैत्र सिंह व इल्तुतमिश के मध्य (1227 ईस्वी) में भुताला का युद्ध हुआ, जिसमें जैत्र सिंह ने इल्तुतमिश को बुरी तरह पराजित किया, जिसके बारे में जयसिंह सूरी कृत हमीर हद मर्दन नामक पुस्तक से जानकारी मिलती है ।

डॉक्टर ओझा ने जैत्र सिंह की प्रशंसा में लिखा है कि दिल्ली के गुलाम सुल्तानों के समय में मेवाड़ के राजाओं में सबसे प्रतापी और बलवान राजा जैत्रसिंह ही हुआ जिसकी वीरता की प्रशंसा उसके विपक्षियों ने भी की है दशरथ शर्मा- जैत्रसिंह का समय मध्य कालीन मेवाड़ का नवशक्ति संचार का समय माना हैं।

तेज सिंह (1250–1273 ईस्वी)

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जैत्र सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र तेज सिंह मेवाड़ के शासक बने। तेजसिंह एक प्रतिभा संपन्न शक्तिशाली शासक थे तेज सिंह ने परम भट्ठारक/ महाराजाधिराज/ परमेश्वर तथा चालूक्यों के समान उभावती/ वल्लभ प्रताप का विरुद्ध धारण किया था । तेजसिंह के शासनकाल में दिल्ली के शासक गयासुद्दीन बलबन ने मेवाड़ पर असफल आक्रमण किया । तेज सिंह की रानी जयतल्लदेवी ने चित्तौड़ में श्याम पार्श्वनाथ के मंदिर का निर्माण करवाया । तेज सिंह के शासनकाल में 1267 ईस्वी में आहङ नामक स्थान पर मेवाड़ चित्रकला शैली' का प्रथम चित्रित ग्रंथ श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी का चित्रण किया गया था ।

समर सिंह (1273–1301 ईस्वी)

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समर सिंह को कुंभलगढ़ प्रशस्ति में शत्रुओं की शक्ति का अपहरण करता लिखा गया है, जबकि आबू शिलालेख में उसे तुर्कों से गुजरात का उद्धारक लिखा गया है । चिरवे के लेख में उसे शत्रुओं का संहार करने में सिंह के समान सुर कहा गया है । अचलगच्छ की पट्टावली से स्पष्ट होता है कि आचार्य अमितसिंह सूरी के प्रभाव में समर सिंह ने अपने राज्य में जीव हिंसा पर रोक लगा दी थी । समर सिंह के दो पुत्र रतन सिंहकुंभकरण हुए । कुंभकरण अपने पिता की आज्ञा प्राप्त कर नेपाल चले गए और वहां पर अपने नए गुहिल वंश की स्थापना की । समर सिंह के दूसरे पुत्र रतन सिंह चित्तौड़ के शासक बने । इसकी जानकारी हमें कुंभलगढ़ प्रशस्ति तथा एकलिंग महात्म्य ग्रंथ में मिलती है।

रतन सिंह (1301–1303 ईस्वी)

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रतन सिंह ज्यों ही मेवाड़ की गद्दी पर बैठे तो उन्हें अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण का सामना करना पड़ा । अल्लाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर किए जाने वाले आक्रमण में खिलजी के साथ प्रसिद्ध लेखक अमीर खुसरो था । अमीर खुसरो ने इस युद्ध का सजीव चित्रण करते हुए अपनी पुस्तक खजाइनुल फुतूह मैं लिखा है कि अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ पर आक्रमण करने के लिए 28 जनवरी 1303 ईस्वी को अपनी सेना सहित दिल्ली से रवाना हुआ । चित्तौड़ पहुंचकर गंभीरी नदी और बैङच नदी के मध्य शाही शिविर लगाया । स्वयं खिलजी ने अपना शिविर चित्तौड़ी नामक डूंगरी पर लगवाया ।6 महीने तक यह घेरा चलता रहा ।

कुंभलगढ़ शिलालेख से पता चलता है कि इन छह माह के मध्य हुए छोटे-मोटे की युद्धो में सिसोदा का सामंत लक्ष्मण सिंह अपने सात पुत्रों सहित किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गए । जब चारों और सर्वनाश दिखाई दे रहा था और शत्रु से बचने का कोई उपाय नहीं मिल रहा था । रतन सिंह की पत्नी पद्मिनी ने 16000 राजपूत महिलाओं के साथ जोहर किया तथा रतन सिंह के दो सेनापति गोरा और बादल के नेतृत्व में राजपूतों ने केसरिया वस्त्र धारण कर किले के फाटक खोल कर शत्रुओं की सेना पर टूट पड़े और वीरगति को प्राप्त हुए । यह चित्तौड़गढ़ का प्रथम साका था

इस प्रकार (26 अगस्त 1303 ईस्वी) को चित्तौड़गढ़ किला अलाउद्दीन खिलजी के अधीन हुआ । अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी शाही सेना का विनाश देख कर बहुत क्रोधित हुआ और उसने शाही सेना को चित्तौड़गढ़ की आम जनता के कत्लेआम करने का आदेश दे दिया ।अल्लाउद्दीन खिलजी कुछ दिन चित्तौड़ रुक कर अपने बेटे खिज्रखां को चित्तौड़गढ़ का शासन देकर दिल्ली लौट गया। अलाउद्दीन खिलजी ने अपने पुत्र खिज्र खां के नाम पर चित्तौड़ का नाम बदलकर खिजराबाद रखा । खिज्र खाॅ ने चित्तौड़गढ़ दुर्ग व उसके आसपास के मंदिरों तथा भवनों को तुड़वाकर किला पर पहुंचने के लिए गंभीरी नदी पर पुल बनवाया । 22 दिसंबर 1316 में अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु हो गई इस कारण खिज्र खा चित्तौड़ से वापस दिल्ली गया । पीछे मेवाड़ राज्य मालदेव सोनगरा को सौंप गया ।

राणा हम्मीर (1326–1364 ईस्वी)

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राणा हम्मीर सिसोदा जागीर के सरदार लक्ष्मण सिंह का पोता था । लक्ष्मण सिंह अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय चित्तौड़ दुर्ग की रक्षा करते हुए अपने सात पुत्रों के साथ वीरगति को प्राप्त हो गए। लक्ष्मण सिंह का एक लड़का अरिसिंह/अजय सिंह था, जो कि भाग्य वास उस युद्ध में बच गया था । अरि सिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राणा हमीर सिसोदा जागीर का सरदार बना । दूसरे भाई अजय सिंह का बेटा राणा सज्जन सिंह महाराष्ट्र चला गया,छत्रपति शिवाजी महाराज इन्ही के वंशज थे। राणा हम्मीर ने देखा कि अलाउद्दीन खिलजी के मरने के बाद दिल्ली सल्तनत की हालत सोचनीय है । उसने 1326 ईस्वी के आसपास दिल्ली सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक के समय चित्तौड़ पर आक्रमण कर मालदेव के पुत्र जैसा/जयसिंह को मारकर जबकि (ङा.ओझा के अनुसार) मालदेव पुत्र बनवीर को मारकर चित्तौड़ पर पुनः अपना अधिकार स्थापित किया ।

  • ध्यातव्य रहे– राणा हम्मीर से पहले चित्तौड़ के गुहिल वंश शासक रावल एवं गहलौत कहलाते थे और बाद में मेवाड़ का राजवंश सिसोदिया राजवंश के नाम से विख्यात हुआ हम राणा हमीर सिसोदिया को 'सिसोदिया साम्राज्य का संस्थापक' भी कहते हैं ।

मोहम्मद बिन तुगलक ने चित्तौड़ पर अधिकार करने के लिए हम्मीर पर आक्रमण किया । राणा हम्मीर ने पहाड़ी क्षेत्र पर नियंत्रण बनाए रखने के लिए खेरवाड़ा को अपना केंद्र बनाया । राणा हम्मीर वह मोहम्मद बिन तुगलक के मध्य युद्ध हुआ, जिससे हम सिंगोली का युद्ध कहते हैं । राणा हम्मीर ने मेवाड़ की आपातकालीन स्थिति में पुन: अधिकार कर अच्छी स्थिति में पहुंचाया इसलिए उसे मेवाड़ का उद्धारक कहते हैं । राणा हमीर विपरीत परिस्थिति में भी अपना हौसला नहीं खोया अतः उसे कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति में विषम घाटी पंचानन/ विकेट आक्रमणों में सिंह के समान' कहा गया । कुंभा के द्वारा 'गीत गोविंद' पर लिखी गई रसिक प्रिया नामक टीका में राणा हम्मीर को वीर राजा की उपाधि दी गई । राणा हम्मीर ने चित्तौड़ दुर्ग में अन्नपूर्णा माता का मंदिर बनवाया जिसकी जानकारी मोकल जी के शिलालेख से मिलती है । कर्नल जेम्स टॉड ने राणा हम्मीर को अपने समय का प्रबल हिंदू राजा माना है।

मेवाड़ का सिसोदिया वंश (गुहिल)

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राणा हम्मीर की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राणा क्षेत्र सिंह जिसे खेता के नाम से भी जानते हैं, मेवाड़ के शासक बने । क्षैत्र सिंह ने मालवा के दिलावर खान गौरी को परास्त कर मेवाड़ - मालवा संघर्ष का सूत्रपात किया । हाड़ेती के हाडा शासकों को दबाने का श्रेय भी खेता को ही जाता है। 1382 ईस्वी में जब क्षेत्र सिंह ने आक्रमण किया तो उस युद्ध में क्षेत्र सिंह वह बूंदी का लाल सिंह हाडा भी मारा गया ।

राणा लाखा/लक्ष सिंह (1382–1421 ईस्वी)

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महाराणा हम्मीर के पौत्र व खेता के पुत्र लक्ष सिंह हैं लाखा 1382 इश्वी में मेवाड़ के शासक बने । लाखा के शासनकाल में भाग्यवश जावर उदयपुर में चांदी की खान निकली ।उस खान की आय से उसने कई किलो व मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया । लाखा के शासनकाल में एक पिचू नामक चिड़ीमार बंजारे के बेल की स्मृति में पिछोला झील का निर्माण करवाया ।

पिछोला झील बेङच नदी पर स्थित है इसका निर्माण 14वीं शताब्दी में राणा लक्खा के शासनकाल में हुआ । महाराणा उदय सिंह ने इसकी पाल को पक्का करवाया । इसमें सीसारमा व बूजड़ा नदी आकर गिरती है । इस झील में जग मंदिर ( करण सिंह ने 1620 ईस्वी में शुरू तथा जगत सिंह प्रथम ने 1651 ईस्वीें में पूर्ण करवाया) जगनिवास जगत सिंह द्वितीय ने 1746 ईस्वी में पूर्ण करवाया ।महाराणा प्रताप और मानसिंह की मुलाकात इसकी पाल पर हुई थी। लाखा के दरबार में संस्कृत के प्रज्ञात विद्वान झोटिंग भट्ट और धनेश्वर भट्ट रहते थे ।

लाखा के शासनकाल में एक महत्वपूर्ण घटना घटी। लखा ने दिल्ली सुल्तान गयासुद्दीन द्वितीय को बदनोर के समीप हुए युद्ध में पराजित करके हिंदुओं से लिए जाने वाले तीर्थ कर को समाप्त करने का वचन लिया । 1396 ई में गुजरात के जफर खान ने मांडलगङ पर आक्रमण किया लेकिन लाखा ने इस आक्रमण को विफल कर दिया । लाखा ने बूंदी के राव बर सिंह हाड़ा को मेवाड़ का प्रभुत्व मानने के लिए विवश किया। मारवाड़ के शासक रणमल ने अपनी बहन हँसा बाई का विवाह मेवाड़ के महाराणा लाखा के पुत्र चूंडा से करने का सोचा । रणमल ने चुंडा के लिए सगाइ का नारियल मेवाड़ दरबार में भेजा, उस समय राणा लाखा का पुत्र चुंडा दरबार में नहीं थे । सगाई के नारियल को देखकर महाराणा लाखा ने मजाक करते हुए कहा कि यह बुढ़ापे में मेरे साथ किस ने मजाक किया। चुंडा को दरबार में न देखकर रणमल का दास वापस रणमल के पास पहुॅचा ।

दास ने सारी बात रणमल को कहीं तो रणमल ने दास को वापस लाखा के पास सशर्त सगाई का नारियल देकर भेजा शादी की शर्त रखी कि मेरी बहन के होने वाले पुत्र को राणा अपना उत्तराधिकारी बनाए तो मैं अपनी बहन की शादी राणा लाखा के साथ कर दूंगा महाराणा लाखा इस शर्त को स्वीकार कर लेते हैं तो मैं अपनी बहन हंसा की शादी महाराणा लाखा के साथ करने को तैयार था लेकिन उसे इस बात का पता था कि उनकी बहन महाराणा लाखा की रानी तो बनेगी लेकिन उसकी कोख से जन्म लेने वाला बालक मेवाड़ का शासक कभी नहीं बन पायेगा। आखिर मेवाड़ की राजगद्दी पर तो महाराणा लाखा के बाद चूंडा का ही अधिकार है। राव रणमल की इस बात का जवाब देते हुए चूंडा ने भरे दरबार में भीष्म प्रतिज्ञा की कि मैं आजन्म मेवाड़ के महाराणा का सेवक बनकर रहुंगा और मेरे वंशज कभी भी मेवाड़ की राजगद्दी पर हक नहीं जतायेंगे। इस भीष्म प्रतिज्ञा के बाद महाराणा लाखा का हंसाकंवर के साथ विवाह कर दिया गया। चूंडा द्वारा सत्ता त्याग के बारे में राजस्थानी गीतों, बड़वों व राणीमंगों की पोथियों में कुछ अलग-अलग रूप में मिलता है। सभी में चूंडा की प्रशंसा की गई,  बहन हनसा भाई की शादी महाराणा लाखा से कर देते हैं।

'इसी कारण चूंडा को मेवाड़ का भीष्म पितामह कहते हैं । लाखा वह हंसा बाई के विवाह के 13 महीने बाद हंसाबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम मोकल रखा गया। राणा लाखा जब मृत्यु की शैय्या पर थे तो उन्होने अपने बड़े पुत्र चूंडा को अपने पास बुलाकर अपने छोटे पुत्र मोकल का संरक्षक बनाया ।

राणा मोकल (1421-1433 ईस्वी)

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जिस समय लाखा की मृत्यु हुई तो मोकल मात्र 12 वर्ष के थे । राणा लाखा के कहे अनुसार उनके बड़े भाई चूंडा राज्य के सभी कार्यों को बड़ी कुशलता से कर रहे थे । हंसा बाई ( मोकल की मां व चूंडा की सौतेली मां ) हमेशा चूंडा को शक की दृष्टि से देखती थी । चूंडा परेशान होकर मेवाड़ छोड़कर मालवा चले गए ।हंसा बाई ने अपने भाई रणमल को मोकल के संरक्षक का कार्य करने के लिए मारवाड़ से मेवाड़ बुला लिया । रणमल ने शीघ्र ही मेवाड़ में ऊंचे पदों पर राठौड़ों की नियुक्ति कर दी । इसी कारण सिसोदिया सरदार रणमल से नाराज हो गए। रणमल मारवाड़ का ही स्वामी नहीं रहा बल्कि मेवाड़ का भी सर्वे सर्वा बन गया ।

सिसोदिया सरदारों को रणमल सत्ता से वंचित कर उन्हें अपमानित कर रहा था । 1 दिन रणमल आवेश में आकर मेवाड़ सरदार राघव देव ( राणा चुंडा के भाई ) जैसे योग्य व्यक्ति की हत्या करवा दी इससे राठौड़ों वह सिसोदिया में वैमनस्य की कई गहरी होती गई। मोकल ने 1428 ईसवी के लगभग नागौर के फिरोज खान को रामपुरा के युद्ध में परास्त किया । फिरोज खान का साथ देने आई गुजरात की सेना को भी हार का मुंह देखना पड़ा गुजरात के शासक अहमद शाह ने मेवाड़ पर 1433 ईस्वी को आक्रमण कर दिया। मोकल को इस आक्रमण का पता चला तो वह भी उस से युद्ध करने के लिए रवाना हुआ और झीलवाड़ा नामक स्थान पर पहुंचा । युद्ध के मैदान में ही मोकल के सिसोदिया सरदार जो कि रणमल के हार के कारणों कल से नाराज थे। माहपा पवार के कहने पर महाराणा क्षेत्र सिंह (खेता) की खातिन जाति की दासी से उत्पन्न हुए 2 पुत्र चाचा वह मेरा ( एक बार मोकल ने जंगल में चाचा वह मेरा से प्रसंग में किसी वृक्ष का नाम पूछ लिया तो वह इसे ताना समझ गए क्योंकि उनकी माता खातिन थी । इस अपमान का बदला लेने के लिए उन्होंने मोकल को मार दिया) ने अवसर पाकर उसकी हत्या कर दी । उस दिन से मेवाड़ में कहावत प्रचलित हुई की दीवार में आला खेत में नाला और घर में साला बर्बाद करके ही जाता है राणा मोकल ने हिंदू परंपरा को स्थापित करने के लिए तुलादान पद्धति को लागू किया । इस परंपरा के तहत मंदिरों के लिए सोना चांदी दान के रूप में दिया जाता था । महाराणा मोकल ने एकलिंग जी मंदिर के परकोटे का निर्माण कराया । मोकल ने चित्तौड़ दुर्ग में परमार वंश के द्वारा बनवाए गए त्रिभुवन मंदिर का जीर्णोद्धार करवाकर समद्वेश्वर मंदिर के नाम से प्रसिद्धि दिलाई ।

सौभाग्य देवी परमार वंश की राजकुमारी थी । जिसका विवाह मेवाड़ के शासक राणा लाखा के पुत्र मोकल के साथ हुआ । इस सौभाग्य देवी की कोख से 1423 ईस्वी में महाराणा कुंभा का जन्म हुआ ।

कमलावती मेवाड़ के शासक राणा मोकल की रानी थी। 1433 ईस्वी में गुजरात के शासक अहमद शाह ने मेवाड़ पर आक्रमण किया । अहमद शाह एवं मोकल के मध्य जिलवाड़ा नामक स्थान पर युद्ध हुआ । इसी समय जंहा क्षेत्र सिंह के दासी पुत्र चाचा और मेरा ने मिलकर मोकल की हत्या कर दी । उस समय रानी कमलावती ने मात्र 500 सैनिकों के साथ मुस्लिम सेना का सामना किया। वह अधिक समय तक मुस्लिम सेना के सामने टिक न सकी ओर अंत में वह जलती चिता में कूदकर अपनी जीवन लीला समाप्त की ।

महाराणा कुंभा/महाराणा कुम्भकर्ण सिसोदिया (1433–1468 ईस्वी)

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महाराणा कुम्भकर्ण सिसोदिया या महाराणा कुम्भा एक ऐसा वीर योद्धा जिसने 30 साल के अपने शासन में कभी कोई युद्ध नही हारा। महाराणा कुंभा का जन्म 1423 ईस्वी को महाराणा मोकल की परमार रानी सौभाग्य देवी के गर्भ से हुआ । मोकल की हत्या के समय कुंभा जिलवाड़ा के उसी शिविर में उपस्थित थे । उन हत्यारों ने कुंभा पर भी हमला किया किंतु उनके शुभचिंतकों ने उन्हें वहां से बचाकर सकुशल चित्तौड़ ले गए। चित्तौड़गढ़ दुर्ग में कुंभा को मात्र 10 वर्ष की आयु में 1433 ईस्वी में मेवाड़ का महाराणा बनाया गया।

 
महाराणा कुंभा

कुंभा मेवाड़ का महाराणा तो बने उनके सामने बहुत भयंकर दो समस्याएं थी–

पहली– अपने पिता के हत्यारों चाचा व मेरा को सजा देना ।

दूसरी– अपने पिता के मामा रणमल राठौड़ के मेवाड़ में बढ़ रहे प्रभाव को समाप्त करना ।

महाराणा कुंभा एक अच्छे शासक ही नहीं अपितु राजनीतिज्ञ भी थे। उन्होंने दिमाग का प्रयोग करते हुए रणमल राठौड़ को मारवाड़ से अपने पिता के हत्यारों का दमन करने के लिए सैनिकों सहित बुलाया। रणमल मेवाड़ पहुंचा तो कुंभा ने अपने पिता के हत्यारों पर आक्रमण किया और चाचा वह मेरा की हत्या कर दी । इस प्रकार कुंभा की पहली समस्या का हल हुआ।

कुंभा के सामने दूसरी समस्या रणमल की थी। मेवाड़ी सिसोदिया सरदारों ने अपने वैमनस्य को दूर करने के लिए षड्यंत्र रचकर सन 1438 ईस्वी में रणमल की हत्या करवा दी। एक जन श्रुति के अनुसार रणमल मेवा राठौड़ की हत्या इस प्रकार हुई कि हनसा बाई की एक दासी डावरी प्राचीन काल में राजा लोग अपनी पुत्री के साथ दहेज के रूप में कुछ लड़कियां भेजते थे उन्हें दासिया डावरिया कहा जाता था । दासी जिसका नाम भारमली था । भारमली को रणमल राठौड़ दिलो जान से चाहता था। भारमली कुंभा को अपने पुत्र के समान चाहती थी। रणमल राठौड़ ने बार भारमली द्वारा कुंभा को जहर देने के लिए कई बार कहा किंतु 1 दिन कुंभा ने भारमली से रणमल को जहर देने को कहा बार भारमली ने 1438 ईस्वी में शराब में जहर देकर रणमल की हत्या कर दी। इस प्रकार कुंभा की दोनों समस्याओं का हल हो गया ।

राव जोधा को जब अपने पिता रणमल की हत्या करने का पता चला तब वह मेवाड़ में ही था । मेवाड़ से जोधा अपनी जान बचाकर मारवाड़ की तरफ भागा, कुंभा की सेना ने उसका पीछा कर उसको वहां से भगा दिया । राव जोधा वहां से वापस मेवाड़ अपनी बुआ हनसाबाई के पास पहुंचा राव जोधा की बुआ व कुंभा की दादी हनसाबाई ने इन दोनों के मध्य मध्यस्था कराते हुए संधि करवाई जो आवल बावल के नाम से जानी जाती है। आवल बावल की संधि के तहत मेवाड़ में मारवाड़ की सीमा का निर्धारण हुआ मेवाड़ में मारवाड़ की सीमा निर्धारण का मुख्य बिंदु सोजत था। राव जोधा ने कुंभा से अधिक मेलजोल बनाने व विश्वास प्राप्त करने के लिए अपनी पुत्री श्रंगार देवी का विवाह कुंभा के छोटे पुत्र रायमल से करवा दिया । जिसकी जानकारी हमें श्रंगार देवी द्वारा बनाई गई घोसुंडी की बावड़ी पर लगी प्रशस्ति से मिलती है।

मेवाड़-मालवा (माॅङू संबंध)

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चाचा वह मेरा का साथी महपा पवार व चाचा का पुत्र अक्का मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम के पास चला गया। कुंभा ने मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी को पत्र लिखकर उसके विद्रोहियों को वापस लौटाने को कहा। महमूद खिलजी ने शरण में आए हुए व्यक्तियों को भेजने से इंकार कर दिया, प्रत्युत्तर मैं महाराणा कुंभा ने मांडू पर चढ़ाई कर दी । इस आक्रमण का दूसरा कारण यह भी माना जाता है कि मालवा के दिवंगत सुल्तान होशंग शाह के बाद वहां उत्तराधिकारी युद्ध हुआ। जिसके तहत महमूद खिलजी ने होशंग शाह के पुत्र उमर खान को मालवा की गद्दी से हटाकर स्वयं मालवा का सुल्तान बन गया। उमर खान मेवाड़ के कुंभा से सैनिक सहायता मांगने के लिए गया तो कुंभा ने मालवा के राजा महमूद खिलजी पर आक्रमण कर दिया ।इन दोनों के मध्य 1437 ईसवी में सारंगपुर नामक स्थान पर युद्ध हुआ जिसमें महाराणा कुंभा की विजय हुई। मालवा विजय के उपलक्ष्य में कुंभा ने चित्तौडग़ढ़ में ( 1440 - 1448 ) में विजय स्तंभ का निर्माण करवाया । महाराणा कुंभा महमूद खिलजी को बंदी बनाकर अपने साथ ले आए जिसे 6 महीने तक कैद रखने के बाद महमूद खिलजी को रिहा कर दिया। मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी रिया होकर गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन के पास पहुंचा । 1456 ईस्वी में नागौर के स्वामी फिरोज खान के मरने के बाद उसका पुत्र शम्स खान नागौर का स्वामी हुआ। गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन ने उसे हटाकर उसके छोटे भाई मुजाहिद खान को नागौर का शासक बनाया । शम्स खान ने कुंभा की सहायता से सशर्त पुन: नागौर का शासक बना । जब शम्स खान ने कुंभा की शर्त नहीं मानी तो कुंभा ने नागौर पर आक्रमण किया । शम्स खान ने गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन की सहायता से कुंभा का मुकाबला किया। शम्स खान की इस युद्ध में पराजय हुई । कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति के अनुसार महाराणा कुंभा ने नागौर की मस्जिद को जलाया, किले को तुड़वाकर खाई भरवाई, हाथियों को छीनकर यवनियों को कैद करके उसने गायों को छुड़वाया और नागौर को चारागाह में बदल दिया ।

मेवाड़ के महान शासक सिसोदिया

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महाराणा कुंभा के समय गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन शाह मेवाड़ पर आक्रमण करने की सोच रहा था । मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी प्रथम का दूत ताज खान उसके पास पहुंचा। ताज खा ने मांडू और गुजरात की संयुक्त शक्ति को मिलाकर मेवाड़ पर आक्रमण करने का विचार बनाया। मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी व गुजरात के कुतुबुद्दीन शाह के मध्य 1456 ईस्वी में चंपानेर नामक स्थान पर सशर्त संधि हुई की 'मेवाड़' को जीतने के बाद दोनों मेवाड़ का आधा आधा हिस्सा बांट लेंगे। इस संधि को चंपानेर की संधि कहते हैं। संधि के तहत दोनों ने 1457 इश्वी में मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया । कुतुबुद्दीन तो पहले ही कुंभलगढ़ दुर्ग में पराजित होकर गुजरात वापस लौट गया । कुंभा महमूद खिलजी की ओर बढ़े बैराठगढ़ (बदनोर) के युद्ध में 1457 ईस्वी में महमूद खिलजी को पराजित कर इस विजय के उपलक्ष्य में बदनोर (भीलवाड़ा) में कुशाल माता का भव्य मंदिर बनवाया । सिरोही के सहसमल देवरा को कुम्भा के नरसिंह डोडिया ने हराया।

कुंभा की उपाधियां

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कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति तथा कुंभलगढ़ प्रशस्ति से हमें महाराणा कुंभा की उपाधियों की जानकारी मिलती है कुंभा को साहित्य ग्रंथों व प्रशस्तियों में - अभिनव व भरताचार्य महाराजाधिराज' रावराय, राय रायन (1) महाराजाधिराज - राजाओं का राजा होने के कारण । (2) महाराजा - अनेक राज्यों को अपने अधिकार में रखने के कारण । (3) राणा - रासो विद्वानों का आश्रय दाता होने के कारण । (4) राजगुरु - राजनीतिक सिद्धांतों में दक्ष होने तथा विभिन्न राजाओं, सामंतों व जागीरदारों का हितेषी होने के कारण। (5) दानगुरु - विद्वानों कलाकारों व निर्धनों को दान देने के कारण । (6) परमगुरु - विभिन्न विद्याओं का ज्ञाता तथा अपने समय का सर्वोच्च शासक होने के कारण । प्रसिद्ध गीत गोविंद नामक पुस्तक पर लिखी टीका 'रसिकप्रिया' में भी कुंभा की निम्न उपाधियों का वर्णन मिलता है । (7) नरपति - सामान्य मानव से श्रेष्ठ होने के कारण । (8) अश्वपति - कुशल घुढ़सवार होने के कारण । (9) गणपति - गण का अर्थ राज्य होता था अर्थात राज्य का राजा होने के कारण। (10) छापगुरु - छापामार युद्ध पद्धति में निपुण होने के कारण। (11) हिंदू सुरताण - समकालीन मुस्लिम शासकों द्वारा हिंदुओं की रक्षा करने वाला विभूषित किया गया है। (12) नंदीकेश्वर अवतार - नंदीकेश्वर के मत का अनुसरण करने के कारण। (13) नाटकराज - नृत्यशास्त्र के ज्ञाता होने के कारण। (14) शेलगुरु - युद्ध में निपुण होने के कारण । (15) चापगुरु - धनुर्विद्या का ज्ञाता होने के कारण। (16) धीमान बुद्धिमत्ता पूर्वक निर्माण कार्य करवाने के कारण अभिनव भरता चार्य श्रेष्ठ वीणा वादक एवं संगीत के छेत्र में कुंभा के विपुल ज्ञान के कारण संगीत प्रेम के कारण प्रजा पालक जनता का हितैषी होने के कारण।

महाराणा सांगा/महाराणा संग्राम सिंह सिसोदिया (1509-1528 ईस्वी)

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महाराणा सांगा (महाराणा संग्राम सिंह) (१२ अप्रैल १४८४ - ३० जनवरी १५२८) (राज 1509-1528) उदयपुर में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा थे तथा राणा रायमल के सबसे छोटे पुत्र थे। [9]

 
महाराणा सांगा

प्रारंभिक जीवन

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राणा रायमल के तीनों पुत्रों ( कुंवर पृथ्वीराज, जगमाल तथा राणा सांगा ) में मेवाड़ के सिंहासन के लिए संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। एक भविष्यकर्त्ता के अनुसार सांगा को मेवाड़ का शासक बताया जाता है ऐसी स्थिति में कुंवर पृथ्वीराज व जगमाल अपने भाई राणा सांगा को मौत के घाट उतारना चाहते थे परंतु सांगा किसी प्रकार यहाँ से बचकर अजमेर पलायन कर जाते हैं तब सन् 1509 में अजमेर के कर्मचन्द पंवार की सहायता से राणा सांगा मेवाड़ राज्य प्राप्त हुुुआ |

सैन्य वृत्ति

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मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर ने अपने संस्मरणों में कहा है कि राणा सांगा हिंदुस्तान में सबसे शक्तिशाली शासक थे, जब उन्होंने इस पर आक्रमण किया, और कहा कि "उन्होंने अपनी वीरता और तलवार से अपने वर्तमान उच्च गौरव को प्राप्त किया।" 80 हज़ार घोड़े, उच्चतम श्रेणी के 7 राजा, 9 राओएस और 104 सरदारों व रावल, 500 युद्ध हाथियों के साथ युद्ध लडे। अपने चरम पर, संघ युद्ध के मैदान में 100,000 राजपूतों का बल जुटा सकते थे। यह संख्या एक स्वतंत्र हिंदू राजा के लिए महत्वपूर्ण थी क्योंकि इसमें चरवाहा या कोई भी जाति (जैसे जाट, गुर्जरों या अहीरों) को शामिल नहीं किया गया था। मालवा, गुजरात और लोधी सल्तनत की संयुक्त सेनाओं को हराने के बाद मुसलमानों पर अपनी जीत के बाद, वह उत्तर भारत का सबसे शक्तिशाली राजा बन गया। कहा जाता है कि संघ ने 100 लड़ाइयां लड़ी थीं और विभिन्न संघर्षों में उसकी आंख, हाथ और पैर खो गए थे। [10][11]

 
सिटी पैलेस उदयपुर में राणा सांगा की प्रतिमा।

महाराणा सांगा ने सभी राजपूत राज्यो को संगठित किया और सभी राजपूत राज्य को एक छत्र के नीचे लाएं। उन्होंने सभी राजपूत राज्यो संधि की और इस प्रकार महाराणा सांगा ने अपना साम्राज्य उत्तर में पंजाब सतलुज नदी से लेकर दक्षिण में मालवा को जीतकर नर्मदा नदी तक कर दिया। पश्चिम में में सिंधु नदी से लेकर पूर्व में बयाना भरतपुर ग्वालियर तक अपना राज्य विस्तार किया इस प्रकार मुस्लिम सुल्तानों की डेढ़ सौ वर्ष की सत्ता के पश्चात इतने बड़े क्षेत्रफल हिंदू साम्राज्य कायम हुआ इतने बड़े क्षेत्र वाला हिंदू सम्राज्य दक्षिण में विजयनगर सम्राज्य ही था। दिल्ली सुल्तान इब्राहिम लोदी को खातौली व बाड़ी के युद्ध में 2 बार परास्त किया और और गुजरात के सुल्तान को हराया व मेवाड़ की तरफ बढ़ने से रोक दिया। बाबर को खानवा के युद्ध में पूरी तरह से राणा ने परास्त किया और बाबर से बयाना का दुर्ग जीत लिया। इस प्रकार राणा सांगा ने भारतीय इतिहास पर एक अमिट छाप छोड़ दी। 16वी शताब्दी के सबसे शक्तिशाली शासक थे इनके शरीर पर 80 घाव थे। इनको हिंदुपत की उपाधि दी गयी थी। इतिहास में इनकी गिनती महानायक तथा वीर के रूप में की जाती हैं।[12]

मालवा पर विजय

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1519 में गुजरात और मालवा की संयुक्त मुस्लिम सेनाओं के बीच राजस्थान में गागरोन के निकट राणा सांगा के नेतृत्व में गागरोण की लड़ाई लड़ी गई थी। राजपूत संघ की जीत ने उन्हें चंदेरी किले के साथ-साथ मालवा के अधिकांश हिस्सों पर अधिकार कर लिया। सिलवाडी और मेदिनी राय जैसे शक्तिशाली राजपूत नेताओं के समर्थन के कारण मालवा की विजय राणा साँगा के लिए आसान हो गई। मेदिनी राय ने चंदेरी को अपनी राजधानी बनाया और राणा साँगा का एक विश्वसनीय जागीरदार बन गया। राणा साँगा चित्तौड़ से एक बड़ी सेना के साथ राव मेड़मदेव के अधीन राठौरों द्वारा प्रबलित, और महमूद खिलजी द्वितीय से गुजरात असफ़िलियों के साथ आसफ़ ख़ान से मिला। जैसे ही लड़ाई शुरू हुई राजपूत घुड़सवार सेना ने गुजरात कैवेलरी के माध्यम से एक भयंकर आरोप लगाया, कुछ अवशेष जो बिखरने से बचे। राजपूत घुड़सवार गुजरात के सुदृढीकरण को पार करने के बाद मालवा सेना की ओर बढ़े। सुल्तान की सेनाएँ राजपूत घुड़सवार सेना का सामना करने में असमर्थ थीं और पूरी हार का सामना करना पड़ा। उनके अधिकांश अधिकारी मारे गए और सेना का लगभग सर्वनाश हो गया। आसफ खान के बेटे को मार दिया गया था, और खुद आसफ खान ने उड़ान में सुरक्षा की मांग की थी। सुल्तान महमूद को कैदी, घायल और खून बहाने के लिए लिया गया था। मालवा में जीत और हिंदू शासन को बहाल करने के बाद, सांगा ने राय को क्षेत्र के हिंदुओं से जजिया कर हटाने का आदेश दिया।[13][14][15]

गुजरात पर विजय

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इडर राज्य के उत्तराधिकार के सवाल पर, गुजरात के सुल्तान, मुजफ्फर शाह, और राणा ने कट्टर दावेदारों का समर्थन किया। 1520 में, सांगा ने इडर सिंहासन पर रायमल की स्थापना की, जिसके साथ मुजफ्फर शाह ने अपने सहयोगी भारमल को स्थापित करने के लिए एक सेना भेजी। सांगा खुद इडर पहुंचे और सुल्तान की सेना को पीछे कर दिया गया। राणा ने गुजराती सेना का पीछा किया और अहमदाबाद के रूप में सुल्तान की सेना का पीछा करते हुए गुजरात के अहमदनगर और विसनगर के शहरों को लूट लिया[16]

लोदी पे विजय

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इब्राहिम लोदी ने, अपने क्षेत्र पर संघ द्वारा अतिक्रमण की खबरें सुनने के बाद, एक सेना तैयार की और 1517 में मेवाड़ के खिलाफ मार्च किया। राणा अपनी सेना के साथ राणा लोदी की सीमाओं पर खतोली में लोदी से मिले और खतोली में आगामी लड़ाई में, लोदी सेना को गंभीर चोट लगी। लोदी सेना बुरी तरह परास्त होकर भाग गई । एक लोदी राजकुमार को पकड़ लिया गया और कैद कर लिया गया। युद्ध में राणा स्वयं घायल हो गए थे।

इब्राहिम लोदी ने हार का बदला लेने के लिए, अपने सेनापति मियां माखन के तहत एक सेना संगा के खिलाफ भेजी। राणा ने फिर से बाड़ी धौलपुर के पास बाड़ी युद्ध 1518 ई को लोदी सेना को परास्त किया और लोदी को बयाना तक पीछा किया। इन विजयों के बाद, संगा ने आगरा की लोदी राजधानी के भीतर, फतेहपुर सीकरी तक का इलाका खाली कर दिया। मालवा के सभी हिस्सों को जो मालवा सुल्तानों से लोदियों द्वारा कब्जा कर लिया गया था, को चंदेरी सहित संघ द्वारा रद्द कर दिया गया था। उन्होंने चंदेरी को मेदिनी राय को दिया।[17][18]

मुगलों से संघर्ष

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21 अप्रैल 1526 को, तैमूरिद राजा बाबर ने पांचवीं बार भारत पर आक्रमण किया और पानीपत की पहली लड़ाई में इब्राहिम लोधी को हराया और उसे मार डाला। युद्ध के बाद, संघ ने पृथ्वीराज कछवाह के बाद पहली बार कई राजपूत वंशों को एकजुट किया और 100,000 राजपूतों की एक सेना बनाई और आगरा के लिए उन्नत किया।

राणा साँगा ने पारंपरिक तरीके से लड़ते हुए मुग़ल रैंकों पर आरोप लगाया। उनकी सेना को बड़ी संख्या में मुगल बाहुबलियों द्वारा गोली मार दी गई, कस्तूरी के शोर ने राजपूत सेना के घोड़ों और हाथियों के बीच भय पैदा कर दिया, जिससे वे अपने स्वयं के लोगों को रौंदने लगे। राणा साँगा को मुग़ल केंद्र पर आक्रमण करना असंभव लग रहा था, उसने अपने आदमियों को मुग़ल गुटों पर हमला करने का आदेश दिया। दोनों गुटों में तीन घंटे तक लड़ाई जारी रही, इस दौरान मुगलों ने राजपूत रानियों पर कस्तूरी और तीर से फायर किया, जबकि राजपूतों ने केवल करीबियों में जवाबी कार्रवाई की। "पैगन सैनिकों के बैंड के बाद बैंड ने अपने पुरुषों की मदद करने के लिए एक दूसरे का अनुसरण किया, इसलिए हमने अपनी बारी में टुकड़ी को टुकड़ी के बाद उस तरफ हमारे लड़ाकू विमानों को मजबूत करने के लिए भेजा।" बाबर ने अपने प्रसिद्ध तालकामा या पीनिस आंदोलन का उपयोग करने के प्रयास किए, हालांकि उसके लोग इसे पूरा करने में असमर्थ थे, दो बार उन्होंने राजपूतों को पीछे धकेल दिया, लेकिन राजपूत घुड़सवारों के अथक हमलों के कारण वे अपने पदों से पीछे हटने के लिए मजबूर हो गए। लगभग इसी समय, रायसेन की सिल्हदी ने राणा की सेना को छोड़ दिया और बाबर के पास चली गई। सिल्हदी के दलबदल ने राणा को अपनी योजनाओं को बदलने और नए आदेश जारी करने के लिए मजबूर किया। इस दौरान, राणा को एक गोली लगी और वह बेहोश हो गया, जिससे राजपूत सेना में बहुत भ्रम पैदा हो गया और थोड़े समय के लिए लड़ाई में खामोश हो गया। बाबर ने अपने संस्मरणों में इस घटना को "एक घंटे के लिए अर्जित किए गए काफिरों के बीच बने रहने" की बात कहकर लिखा है। अजा नामक एक सरदार ने अजजा को राणा के रूप में काम किया और राजपूत सेना का नेतृत्व किया, जबकि राणा अपने भरोसेमंद लोगों के एक समूह द्वारा छिपा हुआ था। झल्ला अजा एक गरीब जनरल साबित हुआ, क्योंकि उसने अपने कमजोर केंद्र की अनदेखी करते हुए मुगल flanks पर हमले जारी रखे। राजपूतों ने अपने हमलों को जारी रखा लेकिन मुगल फ्लैक्स को तोड़ने में विफल रहे और उनका केंद्र गढ़वाले मुगल केंद्र के खिलाफ कुछ भी करने में असमर्थ था। जदुनाथ सरकार ने निम्नलिखित शब्दों में संघर्ष की व्याख्या की है:

राजपूतों और उनके सहयोगियों को हराया गया था, शवों को बयाना, अलवर और मेवात तक पाया जा सकता है। पीछा करने की लंबी लड़ाई के बाद मुग़ल बहुत थक गए थे और बाबर ने स्वयं मेवाड़ पर आक्रमण करने का विचार छोड़ दिया था।

अपनी जीत के बाद, बाबर ने दुश्मन की खोपड़ी के एक टॉवर को खड़ा करने का आदेश दिया, तैमूर ने अपने विरोधियों के खिलाफ, उनकी धार्मिक मान्यताओं के बावजूद, एक अभ्यास तैयार किया। चंद्रा के अनुसार, खोपड़ी का टॉवर बनाने का उद्देश्य सिर्फ एक महान जीत दर्ज करना नहीं था, बल्कि विरोधियों को आतंकित करना भी था। इससे पहले, उसी रणनीति का उपयोग बाबर ने बाजौर के अफगानों के खिलाफ किया था। पानीपत की तुलना में लड़ाई अधिक ऐतिहासिक थी क्योंकि इसने राजपूत शक्तियों को धमकी और पुनर्जीवित करते हुए उत्तर भारत के बाबर को निर्विवाद मास्टर बना दिया था।[19][20]

केवी कृष्णा राव के अनुसार, राणा सांगा बाबर को उखाड़ फेंकना चाहते थे, क्योंकि वह उन्हें भारत में एक विदेशी शासक मानते थे और दिल्ली और आगरा पर कब्जा करके अपने क्षेत्रों का विस्तार करने के लिए, राणा को कुछ अफगान सरदारों ने समर्थन दिया था, जिन्हें लगता था कि बाबर का शासन था। उनके प्रति भ्रामक। राणा ने 21 फरवरी 1527 को मुगल अग्रिम पहरे पर हमला किया और इसे खत्म कर दिया। बाबर द्वारा भेजे गए पुनर्मूल्यांकन समान भाग्य से मिले। हालाँकि, 30 जनवरी 1528 को, सांगा की मृत्यु कालपी में हुई, जो कि अपने ही सरदारों द्वारा जहर देकर मारा गया था, जिन्होंने बाबर के साथ लड़ाई को आत्मघाती बनाने के लिए नए सिरे से योजना बनाई थी। महाराणा सांगा की समाधि दौसा जिले की बसवा तहसील में है। यह सुझाव दिया जाता है कि बाबर की तोपें नहीं थीं, हो सकता है कि सांगा ने बाबर के खिलाफ ऐतिहासिक जीत हासिल की हो। इतिहासकार प्रदीप बरुआ ने ध्यान दिया कि बाबर के तोपों ने भारतीय युद्ध में पुरानी प्रवृत्तियों को समाप्त कर दिया था।[21][22]

महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया (1572-1597)

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'महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया' ( ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविवार विक्रम संवत १५९७ तदनुसार ९ मई १५४०–१९ जनवरी १५९७) (राज. 1572-1597) उदयपुर, मेवाड में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा थे। उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई सालों तक संघर्ष किया। महाराणा प्रताप सिंह ने मुगलों को कईं बार युद्ध में भी हराया।

 
महाराणा प्रताप सिंह
 
चेतक पर सवार राणा प्रताप की प्रतिमा (महाराणा प्रताप स्मारक समिति, मोती मगरी , उदयपुर)

राणा उदयसिंह केे दूसरी रानी धीरबाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है, यह अपने पुत्र कुंवर जगमाल को मेवाड़ का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थी | प्रताप केे उत्तराधिकारी होने पर इसकेे विरोध स्वरूप जगमाल अकबर केे खेमे में चला जाता है। महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक मेंं 28 फरवरी, 1572 में गोगुन्दा में हुआ था, लेकिन विधि विधानस्वरूप राणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में ही कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ, दुसरे राज्याभिषेक में जोधपुर का राठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे।

महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना युद्ध के प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए अकबर ने प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए जिसमें–

  1. जलाल खाँ (सितम्बर 1572 ई.)
  2. मानसिंह (1573 ई. में )
  3. भगवानदास ( सितम्बर, 1573 ई. में )
  4. राजा टोडरमल ( दिसम्बर,1573 ई. )

प्रताप को समझाने के लिए पहुँचे, लेकिन राणा प्रताप ने चारों को निराश किया, इस तरह राणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया जिसके परिणामस्वरूप हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।[23]

हल्दीघाटी का युद्ध (1576 ईस्वी)

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हल्दीघाटी के युद्ध में लड़ते हुए महाराणा।

यह युद्ध १८ जून १५७६ ईस्वी में मेवाड़ तथा मुगलों के मध्य हुआ था। इस युद्ध में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व महाराणा प्रताप ने किया था। भील सेना के सरदार राणा पूंजा भील थे। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लड़ने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे- हकीम खाँ सूरी[24]

लड़ाई का स्थल राजस्थान के गोगुन्दा के पास हल्दीघाटी में एक संकरा पहाड़ी दर्रा था। महाराणा प्रताप ने लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों के बल को मैदान में उतारा। मुगलों का नेतृत्व आमेर के राजा मान सिंह ने किया था, जिन्होंने लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना की कमान संभाली थी। तीन घंटे से अधिक समय तक चले भयंकर युद्ध के बाद, महाराणा प्रताप ने खुद को जख्मी पाया जबकि उनके कुछ लोगों ने उन्हें समय दिया, वे पहाड़ियों से भागने में सफल रहे और एक और दिन लड़ने के लिए जीवित रहे। मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 पुरुषों की थी।[25] मुगल सेना ने 3500-7800 लोगों को खो दिया, जिसमें 350 अन्य घायल हो गए। इसका कोई नतीजा नही निकला जबकि वे(मुगल) गोगुन्दा और आस-पास के क्षेत्रों पर कब्जा करने में सक्षम थे, वे लंबे समय तक उन पर पकड़ बनाने में असमर्थ थे। जैसे ही साम्राज्य का ध्यान कहीं और स्थानांतरित हुआ, प्रताप और उनकी सेना बाहर आ गई और अपने प्रभुत्व के पश्चिमी क्षेत्रों को हटा लिया।[26]

इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया। इस युद्ध का आँखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूनीं ने किया। इस युद्ध को आसफ खाँ ने अप्रत्यक्ष रूप से जेहाद की संज्ञा दी। इस युद्ध मे राणा पूंजा भील का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इस युद्ध में बींदा के झालामान ने अपने प्राणों का बलिदान करके महाराणा प्रताप के जीवन की रक्षा की। वहीं ग्वालियर नरेश 'राजा रामशाह तोमर' भी अपने तीन पुत्रों 'कुँवर शालीवाहन', 'कुँवर भवानी सिंह 'कुँवर प्रताप सिंह' और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया।[27]

इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए। अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितनी देर तक टिक पाते, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, ये युद्ध पूरे एक दिन चला ओेैर राजपूतों ने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिया थे और सबसे बड़ी बात यह है कि युद्ध आमने सामने लड़ा गया था। महाराणा की सेना ने मुगलों की सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था और मुगल सेना भागने लग गयी थी[28]

दिवेर-छापली का युुद्ध (1582 ईस्वी)

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बिरला मंदिर, दिल्ली में महाराणा प्रताप का शैल चित्र

राजस्थान के इतिहास 1582 में दिवेर का युद्ध एक महत्वपूर्ण युद्ध माना जाता है, क्योंकि इस युद्ध में राणा प्रताप के खोये हुए राज्यों की पुनः प्राप्ति हुई, इसके पश्चात राणा प्रताप व मुगलो के बीच एक लम्बा संघर्ष युद्ध के रुप में घटित हुआ, जिसके कारण कर्नल जेम्स टाॅड ने इस युद्ध को "मेवाड़ का मैराथन" कहा है।

मेवाड़ के उत्तरी छोर का दिवेर का नाका अन्य नाकों से विलक्षण है। इसकी स्थिति मदारिया और कुंभलगढ़ की पर्वत श्रेणी के बीच है। प्राचीन काल में इस पहाड़ी क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का आधिपत्य था, जिन्हें इस क्षेत्र में बसने के कारण मेर कहा जाता था।[29] यहां की उत्पत्यकाताओं में इस जाति के निवास स्थलों के कई अवशेष हैं। मध्यकालीन युग में देवड़ा जाति के राजपूत यहां प्रभावशील हो गये, जिनकी बस्तियां आसपास के उपजाऊ भागों में बस गई और वे उदयपुर के निकट भीतरी गिर्वा तक प्रसारित हो गई। चीकली के पहाड़ी भागों में आज भी देवड़ा राजपूत बड़ी संख्या में बसे हुए हैं। देवड़ाओं के पश्चात यहां रावत शाखा के राजपूत बस गये।[30]

इन विभिन्न समुदायों के दिवेर में बसने के कई कारण थे। प्रथम तो दिवेर का एक सामरिक महत्व रहा है, जो समुदाय शौर्य के लिए प्रसिद्ध रहे हैं, वे उत्तरोत्तर अपने पराक्रम के कारण यहां बसते रहे और एक-दूसरे पर प्रभाव स्थापित करते रहे। दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह रहा कि इसकी स्थिति ऐसे मार्गों पर है, जहां से मारवाड़, मालवा, गुजरात, अजमेर के आदान-प्रदान की सुविधा रही है। ये मार्ग तंग घाटियों वाले उबड़-खाबड़ मार्ग के रूप में आज भी देखे जा सकते हैं। इनके साथ सदियों से आवागमन होने से घोड़ों की टापों के चिन्ह पत्थरों पर अद्यावधि विद्यमान है। मार्गों में पानी की भी कमी नहीं है, जिसके लिये जगह-जगह झरनों के बांध के अवशेष दृष्टिगोचर होते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से स्थान-स्थान पर चौकियों के ध्वंसाशेष भी दिखाई देते हैं। जब अकबर ने कुंभलगढ़, देवगढ़, मदारिया आदि स्थानों पर कब्जा कर लिया तो वहां की चौकियों से संबंध बनाए रखने के लिए दिवेर का चयन एक रक्षा स्थल के रूप में किया गया। यहां बड़ी संख्या में घुड़सवारों और हाथियों का दल रखा गया। इंतर चौकियों के लिए रसद भिजवाने का भी यह सुगम स्थान था।[31]

ज्यों महाराणा प्रताप छप्पन के पहाड़ी स्थानों में बस्तियां बसाने और मेवाड़ के समतल भागों में खेतों को उजाड़ने में व्यस्त थे त्यों अकबर दिवेर के मार्ग से उत्तरी सैनिक चौकियों का पोषण भेजने की व्यवस्था में संलग्न रहा। प्रताप की नीतियों छप्पन की चौकियों को हटाने में तथा मध्यभागीय मेवाड़ की चौकियों को निर्बल बनाने में अवश्य सफल हो गये, परंतु दिवेर का केंद्र अब भी मुगलों के लिए सुदृढ़ था।[32]

इस पृष्ठभूमि में दिवेर का महाराणा प्रताप का व मुगलों का संघर्ष जुड़ा हुआ था। इस युद्ध की तैयारी के लिए प्रताप ने अपनी शक्ति सुदृढ़ करने की नई योजना तैयार की। वैसे छप्पन का क्षेत्र मुगल से युक्त हो चला था और मध्य मेवाड़ में रसद के अभाव में मुगल चौकियां निष्प्राण हो गई थी अब केवल उत्तरी मेवाड़ में मुगल चौकियां व दिवेर के संबंध में कदम उठाने की आवश्यकता थी।

इस संबंध में महाराणा ने गुजरात और मालवा की ओर अपने अभियान भेजना आरंभ किया और साथ ही आसपास के मुगल अधिकार क्षेत्र में छापे मारना शुरू कर दिया। इसी क्रम में भामाशाह ने, जो मेवाड़ के प्रधान और सैनिक व्यवस्था के अग्रणी थे, मालवे पर चढ़ाई कर दी और वहां से 2.3 लाख रुपए और 20 हजार अशर्फियां दंड में लेकर एक बड़ी धनराशि इकट्ठी की। इस रकम को लाकर उन्होंने महाराणा को चूलिया ग्राम में समर्पित कर दी। इसी दौरान जब शाहबाज खां निराश होकर लौट गया था, तो महाराणा ने कुंभलगढ़ और मदारिया के मुगली थानों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इन दोनों स्थानों पर महाराणा का अधिकार होना दिवेर पर कब्जा करने की योजना का संकेत था।[33]

अतएव इस दिशा में सफलता प्राप्त करने के लिए नई सेना का संगठन किया गया। जगह-जगह रसद और हथियार इकट्ठे किए गए। सैनिकों को धन और सुविधाएं उपलब्ध कराई गई। सिरोही, ईडर, जालोर के सहयोगियों का उत्साह परिवर्धित कराया गया। ये सभी प्रबंध गुप्त रीति से होते रहे। मुगलों को यह भ्रम हो गया कि प्रताप मेवाड़ छोड़कर अन्यत्र जा रहे हैं। ऐसे भ्रम के वातावरण से बची हुई मुगल चौकियों के सैनिक बेखटके रहने लगे।[34] जब सब प्रकार की तैयारी हो गई तो महाराणा प्रताप, कु. अमरसिंह, भामाशाह, चुंडावत, शक्तावत, सोलंकी, पडिहार, रावत शाखा के राजपूत और अन्य राजपूत सरदार दिवेर की ओर दल बल के साथ चल पड़े।[35] दिवेर जाने के अन्य मार्गों व घाटियों में भीलों की टोलियां बिठा दी गई, जिससे मेवाड़ में अन्यत्र बची हुई सैनिक चौकियों का दिवेर से कोई संबंध स्थापित न हो सके।[36]

 
महाराणा प्रताप चित्र।

अचानक महाराणा की फौज दिवेर पहुंची तो मुगल दल में भगदड़ मच गई। मुगल सैनिक घाटी छोड़कर मैदानी भाग की तलाश में उत्तर के दर्रे से भागने लगे। महाराणा ने अपने दल के साथ भागती सेना का पीछा किया। घाटी का मार्ग इतना कंटीला तथा ऊबड़-खाबड़ था कि मैदानी युद्ध में अभ्यस्त मुगल सैनिक विथकित हो गए। अन्ततोगत्वा घाटी के दूसरे छोर पर जहां कुछ चौड़ाई थी और नदी का स्त्रोत भी था, वहां महाराणा ने उन्हें जा दबोचा।[37] दिवेर थाने के मुगल अधिकारी सुल्तानखां को कुं. अमरसिंह ने जा घेरा और उस पर भाले का ऐसा वार किया कि वह सुल्तानखां को चीरता हुआ घोड़े के शरीर को पार कर गया। घोड़े और सवार के प्राण पखेरू उड़ गए। महाराणा ने भी इसी तरह बहलोलखां और उसके घोड़े का काम तमाम कर दिया। एक राजपूत सरदार ने अपनी तलवार से हाथी का पिछला पांव काट दिया। इस युद्ध में विजयश्री महाराणा के हाथ लगी।[38]

यह महाराणा की विजय इतनी कारगर सिद्ध हुई कि इससे मुगल थाने जो सक्रिय या निष्क्रिय अवस्था में मेवाड़ में थे जिनकी संख्या 36 बतलाई जाती है, यहां से उठ गए। शाही सेना जो यत्र-तत्र कैदियों की तरह पडी हुई थी, लड़ती, भिड़ती, भूखे मरते उलटे पांव मुगल इलाकों की तरफ भाग खड़ी हुई।[39] यहां तक कि 1585 ई. के आगे अकबर भी उत्तर - पश्चिम की समस्या के कारण मेवाड़ के प्रति उदासीन हो गया, जिससे महाराणा को अब चावंड में नवीन राजधानी बनाकर लोकहित में जुटने का अच्छा अवसर मिला। दिवेर की विजय महाराणा के जीवन का एक उज्ज्वल कीर्तिमान है। जहां हल्दीघाटी का युद्ध नैतिक विजय और परीक्षण का युद्ध था, वहां दिवेर-छापली का युद्ध एक निर्णायक युद्ध बना। इसी विजय के फलस्वरूप संपूर्ण मेवाड़ पर महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया। एक अर्थ में हल्दीघाटी का युद्ध में राजपूतो ने रक्त का बदला दिवेर में चुकाया। दिवेर की विजय ने यह प्रमाणित कर दिया कि महाराणा का शौर्य, संकल्प और वंश गौरव अकाट्य और अमिट है, इस युद्ध ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि महाराणा के त्याग और बलिदान की भावना के नैतिक बल ने सत्तावादी नीति को परास्त किया। कर्नल टाॅड ने जहां हल्दीघाटी को 'थर्मोपाली' कहा है वहां के युद्ध को 'मेरोथान' की संज्ञा दी है।[40][41] जिस प्रकार एथेन्स जैसी छोटी इकाई ने फारस की बलवती शक्ति को 'मेरोथन' में पराजित किया था, उसी प्रकार मेवाड़ जैसे छोटे राज्य ने मुगल राज्य के वृहत सैन्यबल को दिवेर में परास्त किया। महाराणा की दिवेर विजय की दास्तान सर्वदा हमारे देश की प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी।[42]

सफलता और अवसान

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पू. 1579 से 1585 तक पूर्वी उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशों में विद्रोह होने लगे थे और महाराणा भी एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे अतः परिणामस्वरूप अकबर उस विद्रोह को दबाने में उल्झा रहा और मेवाड़ पर से मुगलो का दबाव कम हो गया। इस बात का लाभ उठाकर महाराणा ने 1585ई. में मेवाड़ मुक्ति प्रयत्नों को और भी तेज कर दिया। महाराणा जी की सेना ने मुगल चौकियों पर आक्रमण शुरू कर दिए और तुरंत ही उदयपूर समेत 36 महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया।[43]

महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया , उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था, पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी। बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका। और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लंबी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने में सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ। मेवाड़ पर लगा हुआ अकबर ग्रहण का अंत 1585 ई. में हुआ। उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा में जुट गए, परंतु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावंड में उनकी मृत्यु हो गई।[12]

महाराणा प्रताप सिंह के डर से अकबर अपनी राजधानी लाहौर लेकर चला गया और महाराणा के स्वर्ग सिधारने के बाद आगरा ले आया।[44]

'एक सच्चे राजपूत, शूरवीर, देशभक्त, योद्धा, मातृभूमि के रखवाले के रूप में महाराणा प्रताप दुनिया में सदैव के लिए अमर हो गए।

कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

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इतिहासकार विजय नाहर की पुस्तक हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप के अनुसार कुछ तथ्य उजागर हुए।[45]

1 .महाराणा उदय सिंह ने युद्ध की नयी पद्धति -छापा मार युद्ध प्रणाली इजाद की। वे स्वयं तो इसका प्रयोग नहीं कर सके परन्तु महाराणा प्रताप ,महाराणा राज सिंह एवं छत्रपति शिवाजी महाराज ने इसका सफल प्रयोग करते हुए मुगलों पर सफलता प्राप्त की ।[46]

2. महाराणा प्रताप मुग़ल सम्राट अकबर से नहीं हारे। उसे एवं उसके सेनापतियो को धुल चटाई । हल्दीघाटी के युद्ध में प्रताप जीते|महाराणा प्रताप के विरुद्ध हल्दीघाटी में पराजित होने के बाद स्वयं अकबर ने जून से दिसंबर 1576 तक तीन बार विशाल सेना के साथ महाराणा पर आक्रमण किए, परंतु महाराणा को खोज नहीं पाए, बल्कि महाराणा के जाल में फंसकर पानी भोजन के अभाव में सेना का विनाश करवा बैठे। थक हारकर अकबर बांसवाड़ा होकर मालवा चला गया। पूरे सात माह मेवाड़ में रहने के बाद भी हाथ मलता अरब चला गया। शाहबाज खान के नेतृत्व में महाराणा के विरुद्ध तीन बार सेना भेजी गई परंतु असफल रहा। उसके बाद अब्दुल रहीम खान-खाना के नेतृत्व में महाराणा के विरुद्ध सेना भिजवाई गई और पीट-पीटाकर लौट गया। 9 वर्ष तक निरंतर अकबर पूरी शक्ति से महाराणा के विरुद्ध आक्रमण करता रहा। नुकसान उठाता रहा अंत में थक हार कर उसने मेवाड़ की और देखना ही छोड़ दिया।[47]

3. ऐसा कुअवसर प्रताप के जीवन में कभी नहीं आया कि उन्हें घांस की रोटी खानी पड़ी अकबर को संधि के लिए पत्र लिखना पड़ा हो। इन्हीं दिनों महाराणा प्रताप ने सुंगा पहाड़ पर एक बावड़ी का निर्माण करवाया और सुंदर बगीचा लगवाया| महाराणा की सेना में एक राजा, तीन राव, सात रावत, 15000 अश्वरोही, 100 हाथी, 20000 पैदल और 100 वाजित्र थे। इतनी बड़ी सेना को खाद्य सहित सभी व्यवस्थाएं महाराणा प्रताप करते थे। फिर ऐसी घटना कैसे हो सकती है कि महाराणा के परिवार को घांस की रोटी खानी पड़ी। अपने उतरार्ध के बारह वर्ष सम्पूर्ण मेवाड़ पर शुशाशन स्थापित करते हुए उन्नत जीवन दिया ।[48]

इन्हें भी देखें

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  1. Ganguli, Kalyan Kumar (1983). Cultural History of Rajasthan (अंग्रेज़ी में). Sundeep. मूल से 14 जुलाई 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 जुलाई 2018.
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  3. Har Bilas, Sarda. maharana sanga : the hindupat, the last great leader of the rajput race. pp. 15–16.
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  5. "महाराणा प्रताप की जीवनी Biography of Maharana Pratap in Hindi". InfoHindi.com (अंग्रेज़ी में). 2016-06-06. अभिगमन तिथि 2020-11-24.
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  12. Maharana Sanga; the Hindupat, the last great leader of the Rajput race: Sarda, Har Bilas, Diwan Bahadur, 1867-1955 सन्दर्भ त्रुटि: <ref> अमान्य टैग है; ":0" नाम कई बार विभिन्न सामग्रियों में परिभाषित हो चुका है
  13. Sharma, Gopi Nath (1954). Mewar & the Mughal Emperors (1526-1707 A.D.). S.L. Agarwala. pp. 18–19.
  14. Chaurasia, Radhey Shyam (2002). History of Medieval India: From 1000 A.D. to 1707 A.D. Atlantic Publishers & Dist. pp. 155–160. ISBN 978-81-269-0123-4
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  17. Chandra, Satish (2004). Medieval India: From Sultanat to the Mughals-Delhi Sultanat (1206-1526) - Part One. Har-Anand Publications. ISBN 978-81-241-1064-5.
  18. Duff's Chronology of India, p. 271
  19. Duff's Chronology of India, p. 271
  20. Percival Spear, p. 25
  21. Rao, K. V. Krishna (1991). Prepare Or Perish: A Study of National Security. Lancer Publishers. p. 453. ISBN 978-81-7212-001-6.
  22. Sharma, G.N. Mewar & Mughal Emperors. Agra. pp. 27–29.
  23. "महाराणा प्रताप के जीवन से जुड़ी 10 बातें". aajtak.intoday.in. मूल से 4 मार्च 2020 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-05-27.
  24. "4 घंटे की लड़ाई थी हल्दीघाटी, राणा ने की थी मुगलों की हालत पतली". aajtak.intoday.in. मूल से 18 जून 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 2020-05-27.
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