गुर्जर प्रतिहार राजवंश
गुर्जर प्रतिहार वंश मध्यकाल के दौरान मध्य-उत्तर भारत के बड़े हिस्से में राज्य करने वाले भारतीय वंश थे, जिसकी स्थापना नागभट्ट प्रथम नामक ने ७२५ ई॰ में की थी। जिनमें से ६ वीं से ९ वीं शताब्दी के दौरान, आमतौर पर सामंती स्थिति के कारण, मंडोर, मारवाड़ (जोधपुर, राजस्थान) में हरिश्चंद्र की शासन प्रणाली चलती थी। वहीं दूसरी तरफ ८ वीं से ११ वीं शताब्दी के दौरान नागभट्ट की रेखा ने पहले उज्जैन और बाद में कन्नौज में शासन किया। अन्य गुर्जर लाइनें भी मौजूद थीं, लेकिन उन्होंने उपनाम प्रतिहार नहीं लिया जैसे कि चालुक्य, चौहान आदि।[1][2]
गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य | ||||||||||||||||||||
साम्राज्य | ||||||||||||||||||||
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गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य अपने स्वर्णकाल में।
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राजधानी | कन्नौज | |||||||||||||||||||
भाषाएँ | संस्कृत, प्राक्रित | |||||||||||||||||||
धार्मिक समूह | हिंदुत्व | |||||||||||||||||||
शासन | राजतंत्र | |||||||||||||||||||
ऐतिहासिक युग | मध्यकालीन भारत | |||||||||||||||||||
- | स्थापित | 6ठीं शताब्दी | ||||||||||||||||||
- | महमूद ग़ज़नवी का कन्नौज पर कब्जा | 1008 ई० | ||||||||||||||||||
- | अंत | 1036 ई० | ||||||||||||||||||
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आज इन देशों का हिस्सा है: | ![]() | |||||||||||||||||||
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गुर्जर प्रतिहारों द्वारा बनाया गया साम्राज्य विस्तार में बड़ा और अधिक संगठित था। गुर्जर प्रतिहार कालिन मंदिरो की विशेषता और मूर्तियों की कारीगरी से उस समय की गुर्जर प्रतिहार शैली की संपन्नता का बोध होता है। [3]
इतिहास
नागभट्ट नामक नवयुवक ने इस नये साम्राज्य की नींव रखी। संभवत है ये भडौच के गुर्जर प्रतिहार शासको का ही राजकुंवर था, जयभट्ट का पुत्र। भारत पर आक्रमण केवल पश्चिमोत्तर भूमि से किया जा सकता है। युद्धो की पूरी लम्बी श्रंखला थी जो सैकडो वर्षो तक गुर्जर प्रतिहारो और अरब आक्रान्ताओ के बीच चली। [4] [5]
प्रारंभिक शासक
नागभट्ट प्रथम (७३०-७५६ ई॰) को इस राजवंश का पहला राजा माना गया है। आठवीं शताब्दी में भारत में अरबों का आक्रमण शुरू हो चुका था। [6] सिन्ध और मुल्तान पर उनका अधिकार हो चुका था। फिर सिंध के राज्यपाल जुनैद के नेतृत्व में सेना आगे मालवा, जुर्ज और अवंती पर हमले के लिये बढ़ी, जहां जुर्ज पर उसका कब्जा हो गया। परन्तु आगे अवंती पर नागभट्ट ने उन्हैं खदैड़ दिया। अजेय अरबों कि सेना को हराने से नागभट्ट का यश चारो ओर फैल गया। [7] [8] अरबों को खदेड़ने के बाद नागभट्ट वहीं न रुकते हुए आगे बढ़ते गये। और उन्होंने अपना नियंत्रण पूर्व और दक्षिण में मंडोर, ग्वालियर, मालवा और गुजरात में भरूच के बंदरगाह तक फैला दिया। उन्होंने मालवा में अवंती (उज्जैन) में अपनी राजधानी की स्थापना की, और अरबों के विस्तार को रोके रखा, जो सिंध में स्वयं को स्थापित कर चुके थे। अरबों से हुए इस युद्ध (७३८ ई॰) में नागभट्ट ने गुर्जर-प्रतिहारों का एक संघीय का नेतृत्व किया।[9][10] [11]
कन्नौज पर विजय और आगे विस्तार
हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद कन्नौज को शक्ति निर्वात का सामना करना पड़ा, जिसके परिणामस्वरूप हर्ष के साम्राज्य का विघटन होने लगा। जोकि अंततः लगभग एक सदी के बाद यशोवर्मन ने भरा। लेकिन उसकी स्थिति भी ललितादित्य मुक्तपीड के साथ गठबंधन पर निर्भर थी। जब मुक्तापीदा ने यशोवर्मन को कमजोर कर दिया, तो शहर पर नियंत्रण के लिए त्रिकोणीय संघर्ष विकसित हुआ, जिसमें पश्चिम और उत्तर क्षेत्र से गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य, पूर्व से बंगाल के पाल साम्राज्य और दक्षिण में दक्कन में आधारभूत राष्ट्रकूट साम्राज्य शामिल थे।[12][13] वत्सराज ने कन्नौज के नियंत्रण के लिए पाल शासक धर्मपाल और राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग को सफलतापूर्वक चुनौती दी और पराजित कर दो राजछत्रों पर कब्जा कर लिया।[14][15]
७८६ के आसपास, राष्ट्रकूट शासक ध्रुव धारवर्ष (७८०-७९३) नर्मदा नदी को पार कर मालवा पहुंचा और वहां से कन्नौज पर कब्जा करने की कोशिश करने लगा। लगभग ८०० ई० में वत्सराज को ध्रुव धारवर्षा ने पराजित किया और उसे मरुदेश (राजस्थान) में शरण लेने को मजबुर कर दिया। और उसके द्वार गौंड़राज से जीते क्षेत्रों पर भी अपना कब्जा कर लिया।[16] वत्सराज को पुन: अपने पुराने क्षेत्र जालोन से शासन करना पडा, ध्रुव के प्रत्यावर्तन के साथ ही पाल नरेश धर्मपाल ने कन्नौज पर कब्जा कर, वहा अपने अधीन चक्रायुध को राजा बना दिया।[17]
वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय (805-833) राजा बना, उसे शुरू में राष्ट्रकूट शासक गोविन्द तृतीय (793-814) ने पराजित किया था, लेकिन बाद में वह अपनी शक्ति को पुन: बढ़ा कर राष्ट्रकूटों से मालवा छीन लिया। तदानुसार उसने आन्ध्र, सिन्ध, विदर्भ और कलिंग के राजाओं को हरा कर अपने अधीन कर लिया। चक्रायुध को हरा कर कन्नौज पर विजय प्राप्त कर लिया। आगे बढ़कर उसने धर्मपाल को पराजित कर बलपुर्वक आनर्त, मालव, किरात, तुरुष्क, वत्स और मत्स्य के पर्वतीय दुर्गो को जीत लिया।[18] शाकम्भरी के चाहमानों ने कन्नोज के गुर्जर प्रतीहारों कि अधीनता स्वीकार कर ली।[19] उसने प्रतिहार साम्राज्य को गंगा के मैदान में आगे पाटलिपुत्र (बिहार) तक फैला दिया। आगे उसने पश्चिम में पुनः अरबो को रोक दिया। उसने गुजरात में सोमनाथ के महान शिव मंदिर को पुनः बनवाया, जिसे सिंध से आये अरब हमलावरों ने नष्ट कर दिया था। कन्नौज, गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का केंद्र बन गया, अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष (८३६-९१०) के दौरान अधिकतर उत्तरी भारत पर इनका अधिकार रहा।
८३३ ई० में नागभट्ट के जलसमाधी लेने के बाद[20], उसका पुत्र रामभद्र या राम गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य का अगला राजा बना। रामभद्र ने सर्वोत्तम घोड़ो से सुसज्जित अपने सामन्तो के घुड़सवार सैना के बल पर अपने सारे विरोधियो को रोके रखा। हलांकि उसे पाल साम्राज्य के देवपाल से कड़ी चुनौतिया मिल रही थी। और वह गुर्जर प्रतीहारों से कलिंजर क्षेत्र लेने मे सफल रहा।
गुर्जर-प्रतिहार वंश का चरमोत्कर्ष
रामभद्र के बाद उसका पुत्र मिहिरभोज या भोज प्रथम ने गुर्जर प्रतिहार की सत्ता संभाली। मिहिरभोज का शासनकाल प्रतिहार साम्राज्य के लिये स्वर्णकाल माना गया है। अरब लेखकों ने मिहिरभोज के काल को सम्पन्न काल [21][22] बताते हैं। मिहिरभोज के शासनकाल मे कन्नौज के राज्य का अधिक विस्तार हुआ। उसका राज्य उत्तर-पश्चिम में सतुलज, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में पाल साम्राज्य कि पश्चिमी सीमा, दक्षिण-पूर्व में बुन्देलखण्ड और वत्स की सीमा, दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र, तथा पश्चिम में राजस्थान के अधिकांश भाग में फैला हुआ था। इसी समय पालवंश का शासक देवपाल भी बड़ा यशस्वी था। अतः दोनो के बीच में कई घमासान युद्ध हुए। अन्त में इस पाल-प्रतिहार संघर्स में भोज कि विजय हुई।
दक्षिण की ओर मिहिरभोज के समय अमोघवर्ष और कृष्ण द्वितीय राष्ट्रकूट शासन कर रहे थे। अतः इस दौर में गुर्जर प्रतिहार-राष्ट्रकूट के बीच शान्ति ही रही, हालांकि वारतो संग्रहालय के एक खण्डित लेख से ज्ञात होता है कि अवन्ति पर अधिकार के लिये भोज और राष्ट्रकूट राजा कृष्ण द्वितीय (878-911 ई०) के बीच नर्मदा नदी के पास युद्ध हुआ था। जिसमें राष्ट्रकुटों को वापस लौटना पड़ा था।[23] अवन्ति पर गुर्जर प्रतिहारों का शासन भोज के कार्यकाल से महेन्द्रपाल द्वितीय के शासनकाल तक चलता रहा। मिहिर भोज के बाद उसका पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम ई॰) नया राजा बना, इस दौर में साम्राज्य विस्तार तो रुक गया लेकिन उसके सभी क्षेत्र अधिकार में ही रहे। इस दौर में कला और साहित्य का बहुत विस्तार हुआ। महेन्द्रपाल ने राजशेखर को अपना राजकवि नियुक्त किया था। इसी दौरान "कर्पूरमंजरी" तथा संस्कृत नाटक "बालरामायण" का अभिनीत किया गया। गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य अब अपने उच्च शिखर को प्राप्त हो चुका था।
पतन
महेन्द्रपाल की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी का युद्ध हुआ, और राष्ट्रकुटों कि मदद से महिपाल का सौतेला भाई भोज द्वितीय (910-912) कन्नौज पर अधिकार कर लिया हलांकि यह अल्पकाल के लिये था, राष्ट्रकुटों के जाते ही महिपाल प्रथम (९१२-९४४ ई॰) ने भोज द्वितीय के शासन को उखाड़ फेंका। गुर्जर-प्रतिहारों की अस्थायी कमजोरी का फायदा उठा, साम्राज्य के कई सामंतवादियों विशेषकर मालवा के परमार, बुंदेलखंड के चन्देल, महाकोशल का कलचुरि, हरियाणा के तोमर और चौहान स्वतंत्र होने लगे। राष्ट्रकूट वंश के दक्षिणी भारतीय सम्राट इंद्र तृतीय (९९९-९२८ ई॰) ने ९१२ ई० में कन्नौज पर कब्जा कर लिया। यद्यपि गुर्जर प्रतिहारों ने शहर को पुनः प्राप्त कर लिया था, लेकिन उनकी स्थिति 10वीं सदी में कमजोर ही रही, पश्चिम से तुर्को के हमलों, दक्षिण से राष्ट्रकूट वंश के हमलें और पूर्व में पाल साम्राज्य की प्रगति इनके मुख्य कारण थे। गुर्जर-प्रतिहार राजस्थान का नियंत्रण अपने सामंतों के हाथ खो दिया और चंदेलो ने ९५० ई॰ के आसपास मध्य भारत के ग्वालियर के सामरिक किले पर कब्जा कर लिया। १०वीं शताब्दी के अंत तक, गुर्जर-प्रतिहार कन्नौज पर केन्द्रित एक छोटे से राज्य में सिमट कर रह गया। कन्नौज के अंतिम गुर्जर-प्रतिहार शासक यशपाल के १०३६ ई. में निधन के साथ ही इस साम्राज्य का अन्त हो गया।
शासन प्रबन्ध
शासन का प्रमुख राजा होता था। गुर्जर प्रतिहार राजा असीमित शक्ति के स्वामी थे। वे सामन्तों, प्रान्तीय प्रमुखो और न्यायधीशों कि नियुक्ति करते थे। चुकि राजा सामन्तो की सेना पर निर्भर होता था, अत: राजा कि मनमानी पर सामन्त रोक लगा सकते थे। युद्ध के समय सामन्त सैनिक सहायता देते थे और स्वयं सम्राट के साथ लड़ने जाते थे।
प्रशासनिक कार्यों में राजा की सहायता मंत्रिपरिषद करता था, जिसके दो अंग थे "बहिर उपस्थान" और "आभयन्तर उपस्थान"। बहिर उपस्थान में मंत्री, सेनानायक, महाप्रतिहार, महासामन्त, महापुरोहित, महाकवि, ज्योतिषी और सभी प्रमुख व्यक्ति सम्मलित रहते थे, जबकि आभयन्तरीय उपस्थान में राजा के चुने हुए विश्वासपात्र व्यक्ति ही सम्मिलित होते थे। मुख्यमंत्री को "महामंत्री" या "प्रधानमात्य" कहा जाता था।
भारत को सोने की चिडिया की संज्ञा व धनव्यवस्था का इतिहास
गुर्जर प्रतिहारो के शासनकाल मे ही भारत पहली और आखरी बार सोने की चिडिया कहलाया था। मिहिर भोज के सिक्के पर वाराह भगवान जिन्हें कि भगवान विष्णू के अवतार के तौर पर जाना जाता है।इनके पूर्वज नागभट्ट प्रथम ने स्थाई सेना संगठित कर उसको नगद वेतन देने की जो प्रथा चलाई वह इस समय में और भी पक्की हो गई और गुर्जर साम्राज्य की महान सेना खड़ी हो गई। यह भारतीय इतिहास का पहला उदाहरण है, जब किसी सेना को नगद वेतन दिया जाता हो। मिहिर भोज के पास ऊंटों, हाथियों और घुडसवारों की दूनिया कि सर्वश्रेष्ठ सेना थी । इनके राज्य में व्यापार,सोना चांदी के सिक्कों से होता है। यइनके राज्य में सोने और चांदी की खाने भी थी भोज ने सर्वप्रथम कन्नौज राज्य की व्यवस्था को चुस्त-दुरूस्त किया, प्रजा पर अत्याचार करने वाले सामंतों और रिश्वत खाने वाले कामचोर कर्मचारियों को कठोर रूप से दण्डित किया। व्यापार और कृषि कार्य को इतनी सुविधाएं प्रदान की गई कि सारा साम्राज्य धनधान्य से लहलहा उठा। मिहिरभोज ने गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य को धन, वैभव से चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। अपने उत्कर्ष काल में इन्हे गुर्जर सम्राट मिहिर भोज की उपाधि मिली थी। अनेक काव्यों एवं इतिहास में उसे गुर्जर सम्राट भोज, भोजराज, वाराहवतार, परम भट्टारक, महाराजाधिराज आदि विशेषणों से वर्णित किया गया है। विश्व की सुगठित और विशालतम सेना भोज की थी-इसमें 8,00,000 से ज्यादा पैदल करीब 90,000 घुडसवार,, हजारों हाथी और हजारों रथ थे। मिहिरभोज के राज्य में सोना और चांदी सड़कों पर विखरा था-किन्तु चोरी-डकैती का भय किसी को नहीं था। मिहिर भोज के राज्य में खुली जगहों में भी चोरी की आशंका नहीं रहती थी। गुर्जर प्रतिहारो ने अरबों से 300 वर्ष तक लगभग 200 से ज्यादा युद्ध किये और भारत की रक्षा की यहां अनेको गुर्जर राजवंशो ने समयानुसार शासन किया और अपने वीरता, शौर्य , कला का प्रदर्शन कर सभी को आश्चर्य चकित किया।
शिक्षा तथा साहित्य
शिक्षा
शिक्षा का प्रारंभ उपनयन संस्कार से होता था। उपनयन के पश्चात बालक को गुरुकुल भेजा जाता था। ब्राम्हण बालक को चौदह विद्याओं के साथ कर्मकाण्ड का अध्ययन कराया जाता था। क्षत्रिय बालक को बहत्तर कलाएं सिखाई जाती थी। किन्तु उसे अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुणता प्राप्त करना आपश्यक होता था। विद्यार्थी को गुरुकुल में ही रह कर विद्या अध्ययन करना होता था। यहाँ आवास और भोजन की व्यवस्था नि:शुल्क थी। अधिकांश अध्ययन मौखिक होता था।
बडी-बडी सभाओं में प्रश्नोत्तरों और शास्त्रार्थ के द्वारा विद्वानों कि योग्यता कि पहचान की जाती थी। विजेता को राजा की ओर से जयपत्र प्रदान किया जाता था, और जुलुस निकाल कर उसका सम्मान किया जाता था। इसके अलवा विद्वान गोष्ठियों में एकत्र हो कर साहित्यक चर्चा करते थे। पुर्व मध्यकाल में कान्यकुब्ज (कन्नौज) विद्या का सबसे बड़ा केन्द्र था। राजशेखर ने कन्नौज में कई गोष्ठियों का वर्णन किया है। राजशेखर ने "ब्रम्ह सभा" की भी चर्चा की हैं। ऐसी सभा उज्जैन और पाटलिपुत्र में हुआ करती थी। इस प्रकार की सभाएं कवियों कि परीक्षा के लिये उपयोगी होती थी। परीक्षा में उत्तीर्ण कवि को रथ और रेशमी वस्त्र से सम्मानित किया जाता था। उपर्युक्त वर्णन से प्रमाणित होता है कि सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भी उत्तर भारत से विद्या का का वातावरण समाप्त नहीं हुआ था। गुर्जर प्रतिहार शासक स्वयं विद्वान थे और वे विद्वानों को राज्याश्रय भी प्रदान करते थे।[24]
साहित्य
साहित्य के क्षेत्र में भिल्लमाल (भीनमाल) एक बड़ा केन्द्र था। यहाँ कई महान साहित्यकार हुए। इनमें "शिशुपालवध" के रचयिता माघ का नाम सर्वप्रथम है। माघ के वंश में सौ वर्षो तक कविता होती रही और संस्कृत और प्राकृत में कई ग्रंथ रचे गये। विद्वानो ने उसकी तुलना कालिदास, भारवि, तथा दण्डित से की है। माघ के ही समकालिन जैन कवि हरिभद्र सूरि हुए। उनका रचित ग्रंथ "धुर्तापाख्यान", हिन्दू धर्म का बड़ा आलोचक था। इनका सबसे प्रशिध्द प्राकृत ग्रंथ "समराइच्चकहा" है। हरिभद्र के शिष्य उद्योतन सूरि ने ७७८ ई० में जालोन में "कुवलयमाला" की रचना की।
भोज प्रथम के दरबार में भट्ट धनेक का पुत्र वालादित्य रहता था। जिसने ग्वालियर प्रशस्ति जैसे प्रशिध्द ग्रंथ की रचना की थी। इस काल के कवियों में राजशेखर कि प्रशिध्दि सबसे अधिक थी। उसकी अनेक कृतियाँ आज भी उपलब्ध है। कवि और नाटककार राजशेखर सम्राट महेन्द्रपाल प्रथम का गुरु था। राजशेखर बालकवि से कवि और फिर कवि से राजकवि के पद से प्रतिष्ठित हुआ। इसी दौरान "कर्पूरमंजरी" तथा संस्कृत नाटक "बालरामायण" का अभिनीत किया गया।
इससे पता चलता है कि प्रतिहार काल में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं में साहित्य कि रचना हुई। किन्तु प्राकृत दिनो-दिन कम होती गई और उसकी जगह अपभ्रंश लेती रही। ब्राम्हणों की तुलना में जैनों द्वार रचित साहित्यों कि अधिकता हैं। जिसका कारण जैन ग्रंथों का भण्डार में सुरक्षित बच जाना जबकि ब्राम्हण ग्रंथो का नष्ट हो जाना हो सकता है।
धर्म और दर्शन
काशीपुर से प्राप्त ११वीं शताब्दी की प्रतिहार कालीन विष्णु त्रिविक्रमा के पत्थर की मूर्ति, राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में रखी गईं।
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भारतीय संस्कृति धर्ममय है, और इस प्रकार गुर्जर प्रतिहारों का धर्ममय होना कोई नई बात नहीं है। पूरे समाज में हिन्दू धर्म के ही कई मान्यताओं के मानने वाले थे लेकिन सभी में एक सहुष्णता की भावना मौजुद थी। समाज में वैष्णव और शैव दोनों मत के लोग थे। गुर्जर प्रतिहार राजवंश में प्रत्येक राजा अपने ईष्टदेव बदलते रहते थे। भोज प्रथम के भगवती के उपासक होते हुए भी उन्होंने विष्णु का मंदिर बनवाया था। और महेन्द्रपाल के शैव मतानुयायी होते हुए भी वट-दक्षिणी देवी के लियी दान दिया था
गुर्जर प्रतिहार काल का मुख्य धर्म पौराणिक हिन्दू धर्म था, जिसमें कर्मों के अनुसार पुनर्जन्म का सिद्धान्त का गहारा असर था। विष्णु के अवतारों कि पुजा की जाती थी। और उनके कई मन्दिर बनवाये गये थे। कन्नौज में चतुर्भुज विष्णु और विराट विष्णु के अत्यन्त सुंदर प्रतिमाएं प्रतिष्ठित थी। कन्नौज के सम्राट वत्सराज, महेन्द्रपाल द्वतीय, और त्रिलोचनपाल शिव के उपासक थे। उज्जैन में महाकाल का प्रशिद्ध मंदिर था। बुन्देलखंड़ में अनेक शिव मन्दिर बनवाये गये थे।
साहित्य और अभिलेखों से धर्म की काफी लोकप्रियता जान पडती है। ग्रहण, श्राद्ध, जातकर्म, नामकरण, संक्रान्ति, अक्षय तृतीया, इत्यादि अवसरों पर लोग गंगा, यमुना अथवा संगम (प्रयाग) पर स्नान कर दान देते थे। धर्माथ हेतु दिये गये भुमि या गांव पर कोई कर नहीं लगाया जाता था।
पवित्र स्थलों में तीर्थयात्रा करना सामान्य था। तत्कालिन सहित्यों में दस प्रमुख तीर्थों का वर्णन मिलता है। जिसमें गया, वाराणसी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रभास, नैमिषक्षेत्र केदार, कुरुक्षेत्र, उज्जयिनी तथा प्रयाग आदि थे। नदियों को प्राकृतिक या दैवतीर्थ होने के कारण अत्यन्त पवित्र माना जाता था। सभी नदियों में गंगा को सबसे अधिक पवित्र मान जाता था।
बौद्ध धर्म
गुर्जर प्रतीहारकालिन उत्तरभारत में बौद्धधर्म का प्रभाव समाप्त था। पश्चिम कि ओर सिन्ध प्रदेश में और पूर्व में दिशा में बिहार और बंगाल में स्थिति संतोषजनक थी। जिसका मुख्य कारण था, गुप्तकाल के दौरान ब्राम्हण मतावलम्बियों ने बौद्धधर्म के अधिकांश सिद्धान्त अपना कर बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार मान लिया था।
जैन धर्म
बौद्ध धर्म कि तुलना में जैन धर्म ज्यादा सक्रिय था। मध्यदेश, अनेक जैन आचार्यों का कार्यस्थल रहा था। वप्पभट्ट सुरि को नागभट्ट द्वितीय का अध्यात्मिक गुरु माना गया है। फिर भी यह यहाँ जेजाकभुक्ति (बुन्देलखंड़) और ग्वालियर क्षेत्र तक में ही सिमित रह गया था। लेकिन पश्चिमी भारत के राजस्थान, गुजरात, मालवा और सौराष्ट्र जैनधर्म के विख्यात केन्द्र थे, जिसका श्रेय हरिभद्र सूरि जैसे जैन साधुओं को जाता है। हरिभद्र ने विद्वानों और सामान्यजन के लिये अनेक ग्रन्थों कि रचना की। गुर्जर राजाओं ने जैनों के साथ उदारता का व्यवहार किया। नागभट्ट द्वितीय ने ग्वालियर में जैन मन्दिर भी बनवाया था।
मारू गुर्जर कला व गुर्जर स्थाप्त्य कला
गुर्जर-प्रतिहार कला के अवशेष हरियाणा और मध्यभारत के एक विशाल क्षेत्र में देखे जा सकते हैं। इस युग में गुर्जर प्रतीहारों द्वारा निर्मित मंदिर स्थापत्य और कला की सबसे बड़ी विशेषता इसकी अलंकरण शैली है। मारू गुर्जर कला का शाब्दिक अर्थ है गुर्जरदेश की कला। मारू गुर्जर शैली तथ्य की उत्पत्ति है कि प्राचीन काल के दौरान, गुर्जरात्रा (वर्तमान राजस्थान और गुजरात) में समाज के जातीय, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलुओं में समानता है। राजस्थान का प्राचीन नाम गुर्जर-देश, गुर्जरत्रा आदि नामो से जाना गया है [26] तब निर्माण कार्यों की एक शैली भी साथ में आई, जिसे मारु गुर्जर शैली के रूप में जाना जाता है। गुजरात के मंदिर इसी शैली से बने हैं। [27] मारु-गुर्जर वास्तुकला संरचनाओं की गहरी समझ और बीते युग के राजस्थानी शिल्पकारों के परिष्कृत कौशल को दर्शाते हैं। मारु-गुर्जर वास्तुकला में दो प्रमुख शैलियों महा-मारू और मारू-गुर्जर हैं। एमए ए ढकी के अनुसार, महा-मारू शैली मुख्य रूप से मारुससा, सपादलक्ष, सुरसेन और उपरमला के कुछ हिस्सों में विकसित की गई हैं, जबकि मारू-गुर्जर मेदपाटा, गुर्जरदेसा-अर्बुडा, गुर्जरेदेय -अनारता और गुजरात के कुछ क्षेत्रों में उत्पन्न हुई। विद्वान जॉर्ज माइकल, एम.ए. ढकी, माइकल डब्लू। मेस्टर और यू.एस. मोरर्टी का मानना है कि मारु-गुर्जर मंदिर वास्तुकला पूरी तरह से पश्चिमी भारतीय वास्तुकला है और यह उत्तर भारतीय मंदिर वास्तुकला से काफी भिन्न है। मारु-गुर्जर आर्किटेक्चर और होयसाला मंदिर वास्तुकला के बीच एक संबंधक लिंक है। इन दोनों शैलियों में वास्तुकला को मूर्तिकला रूप से माना जाता है। गुर्जर स्थापत्य शैली मे सज्जा और निर्माण शैली का पुर्ण समन्वय देखने को मिलता है। अपने पुर्ण विकसित रूप में गुर्जर प्रतिहार मन्दिरों में मुखमण्ड़प, अन्तराल, और गर्भग्रह के अतरिक्त अत्यधिक अल्ंकृत अधिष्ठान, जंघा और शिखर होते थे। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले में बटेश्वर हिन्दू मंदिर इसी साम्राज्य काल के दौरान बनाया गया था।[28] कालान्तर में गुर्जर स्थापत्यकला की इस विधा को चन्देलों, चालूक्या तथा अन्य गुर्जर राजवंशों ने अपनाया। लेकिन चन्देलों ने इस शैली को पूर्णता प्रदान की, जिसमें खजुराहो स्मारक समूह प्रशिद्ध है।[29]
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ https://www.britannica.com/topic/Gurjara-Pratihara-dynasty#:~:text=Gurjara-Pratihara%20dynasty%2C%20either%20of,the%208th%20to%2011th%20centuries. |title=गुर्जर वंश के दो साम्राज्यौं से संबंधित अंग्रेजी में
- ↑ अन्य गुर्जर वंशौ से संबंधित page 310 to 311: A.-K (अंग्रेज़ी में). Atlantic [Publishers & Dist. 1997. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-85297-69-9.
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का गलत प्रयोग;:0
नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है। - ↑ एपिक इण्डिया खण्ड १८, पेज १०८-११२, श्लोक ८ से ११
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- ↑ K. D. Bajpai (2006). History of Gopāchala. Bharatiya Jnanpith. पृ॰ 31. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-81-263-1155-2.
- ↑ ए. एम. टी. जैक्सन, भिनमाल (लेख), बोम्बे गजेटियर खण्ड 1 भाग 1, बोम्बे, 1896
- ↑ https://दैनिक[मृत कड़ियाँ] भास्कर | www.bhaskar.com/amp/news/GUJ-AHM-OMC-this-style-of-architecture-is-not-available-anywhere-except-the-ambaji-temple-5684022-PH.html
- ↑ "ASI to resume restoration of Bateshwar temple complex in Chambal". Hindustan Times. 21 May 2018. मूल से 5 अगस्त 2018 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 31 अक्तूबर 2018.
- ↑ बहि० पृ० २०९