नगर वह अधिवासीय क्षेत्र है जहाँ कार्यिक विविधता और गहनता के साथ ही कार्यिक विशेषीकरण पाया जाता है। नगर की कार्यिक जनसंख्या गैर-प्राथमिक कार्यों में संलग्न होती है लेकिन विभिन्न प्रकार के आर्थिक कार्यों के अनुरूप विशेष कार्यिक खण्डों का विकास होता है। पुनः आर्थिक आधार पर विभिन्न आय वर्गों के अधिवासीय खण्ड भी विकसित होते हैं।
नगरों की आन्तरिक संरचना एवं आकारिकी विशिष्ट होती है जो कार्यिक खण्डों एवं नगर विन्यास प्रणाली से निर्धारित होती है।
विकसित देशों में अधिकांश नगर नियोजित विकास प्रक्रिया से विकसित हुए हैं। वहाँ नगरों की आन्तरिक संरचना अधिक स्पष्ट तथा परिभाषित है लेकिन भारत जैसे विकासशील देशों में जहाँ अधिकांश नगरों का विकास जैविक विन्यास प्रणाली पर आधारित है वहाँ कार्यिक खण्डों एवं अधिवासीय खण्डों का परिभाषित विकास नहीं पाया जाता है और अधिकांश नगरों की आंतरिक संरचना में परिभाषित नगरीय संरचना के मिश्रित गुण पाए जाते हैं।
नगरीय भूगोल के अंतर्गत नगरों की आंतरिक संरचना से संबंधित कार्य किये गये हैं, इनमें निम्न कार्य अत्यन्त प्रमुख हैः
(क) ई. डब्ल्यू वर्गेस का संकेन्द्रीय वलय सिद्धान्त
(ख) होमर हायट का खण्ड स्तर सिद्धान्त
(ग) हैरिस एवं उलमैन का बहुनाभिक सिद्धान्त
वर्गेस ने केन्द्रीय व्यापारिक क्षेत्र (CBD) के चारों ओर कार्यिक विशेषताओं के आधार पर वलयाकार पेटियों के रूप में नगरीय संरचना को स्वीकार किया। इसमें प्रत्येक पेटी विशिष्ट कार्यिक विशेषता वाली होती है। इसकी तुलना में होमर हायट ने यह माना कि अधिवासीय एवं आर्थिक कार्यों के आधार पर नगर के केन्द्रीय व्यापारिक क्षेत्र (CBD) से संलग्न कई कार्यिक खण्डों का विकास होता है। हैरिस एवं उलमैन ने यह माना कि नगरों के विभिन्न कार्यिक खण्डों का आधार केवल केन्द्रीय व्यापारिक क्षेत्र नहीं होता बल्कि नगर में कई ध्रुव या नाभिक का विकास हो जाता है, जो विशिष्ट कार्य करता है। उपरोक्त तीनों सिद्धांत विकसित देशों के नगरीय आकारिकी एवं आंतरिक संरचना के संबंध में दिये गये हैं और भारत में उपरोक्त कोई भी सिद्धांत आंतरिक संरचना की पूर्ण व्याख्या नहीं कर पाता। उसका कारण भारतीय नगरों के विकास पर ऐतिहासिकए सामाजिकए सांस्कृतिकए प्रशासनिक कारकों का व्यापक प्रभाव होना है।
भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना पर कई कारकों का प्रभाव हुआ है जो निम्नलिखित हैः
भारतीय नगर मुख्यतः प्राचीन एवं मध्ययुगीन हैं जिनका विकास मुख्यतः धार्मिक नगरए किला नगर के रूप में हुआ था। वर्तमान में अत्यधिक जनसंख्या दबाव के कारण यहाँ नगरीय सुविधाओं का अभाव है। यहाँ सड़कें अनियोजित तथा गलियां संकरी मिलती हैं।
भारतीय नगरों पर औपनिवेशिक काल का व्यापक प्रभाव पड़ा। इस समय ब्रिटिश अधिकारियों के निवासए सैनिक छावनी एवं प्रशासनिक कार्यो के लिए नियोजित नगरों का विकास हुआ। उस समय पूर्व के अनियोजित नगर और अधिक जनसंख्या दबाव के क्षेत्र बन गए।
भारत में नगरीकरणए ग्रामीण नगरीय स्थानांतरण का परिणाम है जिससे नगरीय जनसंख्या विस्फोट की स्थिति उत्पन्न हुई तथा निम्न श्रेणी के अधिवासीय क्षेत्रों एवं मलिन बस्तियों की वृद्धि हुई।
स्वतंत्रता के बाद नगरों के विकास के लिए मास्टर प्लान बनाए गए जिनके अंतर्गत पूर्व के नगरों से संलग्न क्षेत्रों में मुख्यतः नियोजित अधिवासीय क्षेत्रों का विकास किया गया।
भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना पर सामाजिक एवं राजनीतिक कारकों का व्यापक प्रभाव पड़ा है और सामाजिक विलगाव के आधार पर अधिवासीय क्षेत्र विकसित हुए हैं। अतः किसी भी अधिवासीय क्षेत्र में विभिन्न स्तर के मकानए विभिन्न आय वर्ग के लोग मिलते हैं।
स्वतंत्रता के बाद खनन नगरोंए औद्योगिकए प्रशासनिक नगरों का विकास नियोजित रूप से किया गया हालांकि ऐसे नगर भी जनसंख्या दबाव से ग्रसित हैं।
भारतीय नगरों का विकास सामान्यतः गाँव का नगर में परिवर्तन से हुआ है और वर्तमान में अधिकांश छोटे नगरों पर ग्रामीण संरचना का भी प्रभाव है। यहाँ निम्न स्तर की भौतिक संरचनाए सड़कें एवं गलियां मिलती हैं। यहाँ नियोजन का पूर्ण अभाव है।
उपरोक्त कारकों के प्रभाव से भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना विकसित देशों की नगरीय संरचना के अनुरूप नहीं पायी जाती है और भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना एवं विशेषताएं आकारिकी विकसित देशों से पृथक है।
भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना की सामान्य विशेषताएँ
भारतीय नगरों में भी केन्द्रीय व्यापारिक क्षेत्र पाये जाते हैं, लेकिन यहाँ आर्थिक प्रशासनिक कार्यों के साथ ही अधिवासीय कार्य किए जाते हैं। सामान्यतः सतह एवं प्रथम मंजिल का उपयोग बाजार कार्यों के लिए तथा अन्य मंजिल का उपयोग अधिवासीय कार्यों के लिए किया जाता है। विकसित देशों में केन्द्रीय व्यापारिक क्षेत्र रात में मृत हृदय हो जाते हैं और केवल आर्थिक क्रियाएं ही की जाती है। विकासशील देशों में केन्द्रीय व्यापारिक क्षेत्र में बहुमंजिली इमारतों का अभाव पाया जाता है और विभिन्न स्तर की इमारते मिलते हैं जबकि विकसित देशों में यह बहुमंजिली इमारतों का क्षेत्र होता है। भारतीय नगरों में मकानों की ऊंचाई की कोई निश्चित प्रवृति नहीं पायी जाती और बहुमंजिली इमारतें यत्र.तत्र मिलती हैं जबकि विकसित देशों में केन्द्रीय व्यापारिक क्षेत्र से बाहर मकानों की ऊंचाई में कमी आती है। भारतीय नगरों का विकास जैविक विकास प्रणाली से हुआ है, अतः सड़कें समकोण पर नियोजित रूप से नहीं पायी जातीं, नियोजित नगरों में ही सड़कें समकोणीय स्वरूप में मिलती हैं। भारतीय नगरों में पश्चिमी देशों की तरह विभिन्न आय वर्ग के लिए पृथक अधिवासीय खंड कम पाये जाते। इसका कारण धर्म, जाति, भाषा एवं क्षेत्र के आधार पर अधिवासीय कॉलोनी का विकास है। अतः विभिन्न आय वर्ग के लोग किसी भी अधिवासीय क्षेत्र में देखने को मिलते हैं। भारतीय नगरों में अधिक आयु के मकानों की अधिकता है जो निम्न स्तरीय पदार्थों से बने हैं। ऐसे क्षेत्र समस्या ग्रसित तथा निम्नस्तरीय होते हैं। भारतीय नगरों में कार्यिक मिश्रण की प्रवृति मिलती है और नगर में किसी भी क्षेत्र में कार्य मिश्रित रूप से किए जाते हैं, जबकि नियोजित नगरों में विभिन्न कार्यों के लिए विशेष क्षेत्र होते हैं।
इस तरह भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना नगर नियोजन के नियमों के अनुरूप नहीं पायी जाती। केवल नए औद्योगिक एवं प्रशासनिक नगर ही, जो स्वतंत्रता के बाद विकसित किए गए, नियोजित किए गए हैं।
भारत में नगरों की आंतरिक संरचना के निर्धारण से संबंधित किए गए कार्य
भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना से संबंधित गैरीसनए अशोक दत्ता तथा कुसुमलता का कार्य महत्वपूर्ण है। गैरीसन ने 1962 में कोलकत्ता की आंतरिक संरचना का अध्ययन करते हुए संयुक्त वृद्धि सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इनके अनुसार एक ही नगर में संकेन्द्रीय वलय प्रतिरूपए खंड स्तर प्रतिरूप एवं बहुनाभिक प्रतिरूप संयुक्त रूप से पाया जाता है। यदि कोई नगर वृहद आकार का हो और लम्बे समय से विकास की प्रक्रिया में हो तो वहाँ प्रारम्भ में संकेन्द्रीय प्रतिरूप का विकास होता है। पुनः खंडीय प्रतिरूप विकसित होते हैं और बाद में बहुनाभिक प्रतिरूप का विकास होता है। इस तरह की प्रकृति भारत के अधिकांश महानगरों में पायी जाती है। बैंगलोरए वाराणसीए कानपुर जैसे नगरों में तीनों प्रतिरूप संयुक्त रूप से पाए जाते हैं।
अशोक दत्ता ने 1974 में भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना का अध्ययन किया। इन्होंने बताया कि मुम्बई, दिल्ली, कोलकत्ता तथा चेन्नई जैसे महानगरों में विकसित देशों की तरह ही केन्द्रीय व्यापारिक क्षेत्र का विकास हुआ है। लेकिन अन्य नगरों में केन्द्रीय व्यापारिक क्षेत्र मिश्रित क्षेत्र के रूप में है। इनके अनुसार, भारतीय नगरों के अधिवासीय क्षेत्र सामाजिक विलगाव पर आधारित हैं जिसका निर्धारण क्षेत्र या प्रदेश में धर्मए जाति एवं भाषा के आधार पर हुआ है। इन्होंने ब्रिटिश काल से पूर्व के सभी निर्मित क्षेत्रों को अनियोजित माना है। इन दोनों विद्वानों के कार्यों की तुलना में डॉ. कुसुमलता का कार्य अधिक महत्वपूर्ण है। इन्होंने भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना के विकास पर भौगोलिक कारकों के अतिरिक्त ब्रिटिश प्रशासनए स्वतंत्रता के बाद नियोजित विकास नीति, जनसंख्या वृद्धि और मुख्यतः ग्रामीण-नगरीय स्थानांतरण के प्रभाव को स्वीकार किया। जिसके फलस्वरूप तीन प्रकार की आंतरिक संरचना का विकास निम्न तीन प्रकार की नगरों के संदर्भ में हुआ हैः
(१) अनियोजित नगर
(२) अनियोजित सह नियोजित नगर
(३) नियोजित नगर
अनियोजित नगर के अन्तर्गत इन्होंने प्राचीन नगरों को रखा जिनमें जनसंख्या विस्फोट की स्थिति पायी जाती है। बनारस जैसे धार्मिक नगर इसके उदाहरण हैं। अनियोजित नगर के अन्तर्गत ही वैसे नगरों को भी शामिल किया जो हाल के वर्षों में जनसंख्या वृद्धि तथा कार्यिक संरचना में परिवर्तन के कारण नगर का रूप ले चुके हैं। भारत के अधिकांश नगर इसी वर्ग में हैं। इनमें केन्द्रीय भाग में सघन जनसंख्या मिलती है लेकिन मिश्रित कार्यों की प्रवृति है। इनमें इमारतों के विकास की कोई निश्चित प्रवृति नहीं पाई जाती।
अनियोजित-सह-नियोजित नगर ब्रिटिश काल के नगर हैं। ब्रिटिश प्रशासनों द्वारा पुराने नगर से संलग्न ही आयताकार विन्यास प्रणाली पर नियोजित क्षेत्र का विकास किया गया हैए जिसका मुख्य उद्देश्य सिविल लाईन, प्रशासनिक क्षेत्र या सैनिक छावनी का विकास करना था। नई दिल्ली इसी प्रकार का नगर है। यह मकड़ी जाल विन्यास प्रणाली पर आधारित है। यहाँ कनाट प्लेस पूर्णतः नियोजित केन्द्रीय बाजार है। इसी तरह की आंतरिक संरचना वाले नगर इलाहाबाद, लखनऊ, पटना, कोचीन तथा गाजियाबाद हैं जहाँ पूर्णतः नियोजित नगर का अभाव है हालांकि इनके कई क्षेत्र नियोजित हैं। लेकिन औद्योगिक एवं प्रशासनिक उद्देश्यों से स्वतंत्रता के पश्चात पूर्णतः नियोजित नगरों का विकास हुआ है। इनमें जमशेदपुर, बोकारो स्टील सिटी, चंडीगढ़, गांधीनगर, भुवनेश्वर जैसे नगर आते हैं। इसके अतिरिक्त नवीन अनुषंगी नगर भी पूर्णतः नियोजित हैं। जमशेदपुर, चंडीगढ़, बोकारो जैसे नगर आयताकार विन्यास प्रणाली पर आधारित हैं जहाँ विभिन्न सेक्टरों विशिष्ट कार्यिक विशेषता है। राउरकेला, भिलाई, कुद्रेमुख, अलंकेश्वर जैसे औद्योगिक एवं खनिज नगर भी आयताकार विन्यास प्रणाली पर आधारित हैं।
स्पष्टतः भारतीय नगरों की आंतरिक संरचना की अपनी विशेषता है जो पश्चिमी यूरोपीय देशों एवं विकसित देशों में नगरीय संरचना से पृथक एवं विशिष्ट है।